यमार्याक्रियमाणं हि शंसन्त्याँगम वेदिनः। सधर्मो यं विगर्हन्ति तमधर्म प्रचक्षते ॥
(कामन्दकीय नीति सार)
शास्त्रज्ञ सदाचारी जिस कार्य की प्रशंसा करें वह धर्म है जिसकी निन्दा करें वह अधर्म है।
आरम्भो न्याययुक्तो यः सहि धर्म इतिस्मृतः। अनाचार स्त्व धर्मेतिह्येतच्छेष्टानुशासनम॥
(महाभारत)
न्याययुक्त कार्य धर्म और अन्याय युक्त कार्य अधर्म है यही श्रेष्ठ पुरुषों का मत है।
येनोपायेन मर्त्यानाँ लोक यात्रा प्रसिध्यति। तदेव कार्य ब्रह्मज्ञैरिदंधर्मः सनातनः॥
जिस उपाय से मनुष्य का जीवन निर्वाह भली प्रकार हो जाय वही करना, यह सनातन धर्म है।
धर्म कार्य यत्नशक्त्या नोचेत्प्राप्नोति मानवः। प्राप्तो भवति तत्पुरुचमत्र नास्तिष संशयः॥
(उद्योग पर्व)
श्री कृष्णचन्द्र विदुर जी से कहते हैं कि—
धर्म के कार्य को सामर्थ्य भर करते हुए यदि सफल न हो सके तो भी उसके पुण्य फल को प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्म मुहूर्ते बुध्येतधर्मार्थोचानु चिन्तयेत्। काय क्लेशाँश्च तन्मूलान् वेदतत्वार्थ मेव च॥
(मनुस्मृति)
ब्रह्म मुहूर्त्त (1॥ घंटा रात रहे) में उठे, धर्म और अर्थ जिस प्रकार प्राप्त हो वह विचारे। धर्म और अर्थ के उपार्जन में शरीर के क्लेश का भी विचार करे। यदि धर्म अर्थ अल्प हुआ और शरीर को क्लेश अधिक हुआ तो ऐसे धर्म और अर्थ को न करे। उस समय ईश्वर का चिन्तन करे कारण कि वह समय बुद्धि के विकास का है।
गुणा दश स्नान परस्य साधेरु पंच पुष्टिश्च बलं च तेजः। आरोग्य मायुश्च मनोनुरुद्व दुःस्वप्न घातश्च तपश्चमेधा॥
(दक्षस्मृति)
रूप, पुष्टि, बल, तेज आरोग्यता, आयु, मन का निग्रह, दुःस्वप्न का नाश, तप और बुद्धि का विकास ये दश गुण स्नान करने वाले को प्राप्त होते हैं।
वां् मनोजल शौचानि सदायेषाँ द्विजन्मनाम् त्रिभिः शौचेरुपेतो यः स स्वर्ग्यो नात्र।
(वृद्ध पाराशर स्मृति)
वाणी का शौच, मन का शौच और जल का शौच इन तीन शौच से जो युक्त है वह स्वर्ग का भागी है ही नहीं।
कठोरता, मिथ्या, चुगलखोरी व्यर्थ की बात चार विषयों से बची वाणी शुद्ध है।
ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट से रहित मन शुद्ध है। स्नान करने से शरीर शुद्ध होता है।
सर्वेषा मेव शौचानामर्थ शौच परं स्मृतं। योऽर्थे शुचिर्हि सशुचिर्न मृद् वारि शुचिः शुचिः
(मनुस्मृति)
सारी पवित्रताओं में धर्म संबंधी पवित्रता (ईमानदारी बड़ी है। जो धन के द्वारा पवित्र है वह पवित्र है जल से पवित्रता वास्तविक पवित्रता नहीं। अर्थात् ईमानदारी का पैसा जिसके पास है वास्तव में वही पवित्र है।
शौचाना मर्थ शौचञ्च. (पद्म पु. 5/8/6/66)
पवित्रताओं में ऊँची कोटि की पवित्रता ईमानदारी पैसा है॥
नोच्छिष्ठं कस्यचिद् दद्यान्नद्याश्च्ौव तथत्तरा। नचैवात्यशनं कुर्यान्निचोच्छिष्टः क्वचिद् व्रजेत्॥
(मनुस्मृति)
अपना झूठा किसी को न दें और न किसी का झूठा खायें। दिन और रात्रि के बीच में तीसरी बार भोजन न करें, अधिक पेट भर के न खायें, झूठे मुख कहीं न जायें।
मित भोजन स्वास्थ्यम् ॥ चाणक्य सूत्र 317
मर्यादित भोजन स्वास्थ्यकर है।
अजीर्ण भोजनं विषम ॥ 3/10
अजीर्ण में भोजन करना विष है।
मात्राशी सर्वे कालंस्यान्मात्राह्यग्नेः प्रवर्तिक
सदा मर्यादित भोजन करना चाहिये। ऐसा ही जठराग्नि को बढ़ाता है।
मात्रा प्रमाणं निर्दिष्टं सुखं यावद् विजीयते॥2॥
जो भोजन सहज में पच जाय वही इसकी मात्रा है।