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January 1966

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इन्द्रियाणाँ विचरंता विषयेष्वपहारिषु। संयमे यत्नमातिष्ठे द्विद्वान्यन्तेव वाजिनाम॥

जिस प्रकार सारथी घोड़ों पर नियंत्रण रखता है, उसी प्रकार विद्वान को विषयों की ओर आकर्षित इन्द्रियों पर संयम रखना चाहिये।

इन्द्रियाणाँ प्रसंगेन दोषमृच्छत्य संशयम। संनियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिम नियच्छति॥

इन्द्रियों के विषयासक्त होने से मनुष्य में दोष आ जाते हैं और उनके निग्रह से अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है इसमें संशय की बात नहीं।

न जातु कामः कामा ना मुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभि वर्धते॥

इच्छायें, इच्छाओं की पूर्ति से कभी शान्त नहीं होतीं, अपितु वे उल्टे अग्नि में घी डालने की भाँति और बढ़ती हैं।


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