विश्व मानव- श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर

January 1966

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माता शारदा देवी की कुक्षि तथा पूज्य पिता देवेन्द्र नाथ ठाकुर के कुल को गौरव प्रदान करने वाले विश्व-कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म कलकत्ते में 7 मई मंगलवार सन् 1861 में हुआ।

बाल्यकाल ही में पिता के ध्यान, प्रार्थना तथा एकान्त-प्रवास से प्रभावित रवीन्द्रनाथ का मन पढ़ाई-लिखाई में न लगता था। किताबी पढ़ाई से अधिक आनन्द उन्हें प्राकृतिक दृश्यों को देखकर मिलता था। वह कुछ ऐसा ज्ञान प्राप्त करने को उत्सुक थे, जिससे वे पूर्ण आत्म-शाँति पा सकें और उस शान्ति को दुखी मानवता के बीच बाँट सकें। ऐसा दिव्य ज्ञान आध्यात्मिक मार्ग और उसकी साधना के अतिरिक्त और कहाँ रक्खा था। निदान वे अपनी जिज्ञासा शान्त करने और लक्ष्य प्राप्त करने के लिये आध्यात्मिक चिन्तन की ओर झुक गये।

किन्तु उनका यह झुकाव अन्य जिज्ञासु तथा उन मुमुक्षुओं की तरह का नहीं था जो केवल पुस्तकों में बताये गये आत्मिक सुख-शान्ति के साधनों में जबरदस्ती जुटकर हठ साधन किया करते हैं। वे तो सुख-शान्ति के तीनों स्वरूपों ‘सत्यं—शिवं—सुन्दरं’ को हृदय की सुकुमार वृत्तियों और कोमल भावनाओं के माध्यम से आत्मा में आनन्द की स्थायी पुलक के रूप में अनुभव करना चाहते थे। वे नैसर्गिक प्रकृति के साथ तादात्म्य प्राप्त करके परमात्मा के विराट् स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा रखते थे।

बाल्यकाल ही में ममतामयी माता के अंचल की शीतल छाया उठ जाने से उनके भावुक हृदय में बड़ी वेदना हुई। किन्तु उनकी वेदना ने जिन आँसुओं का रूप धारण किया उनमें एक आध्यात्मिक पुट था, जीवन और मरण के रहस्य को जानने की जिज्ञासा थी। माता के विदा हो जाने से रवीन्द्रनाथ की देख-रेख का भार नौकर-चाकरों पर आ गया। वे यथासाध्य उन्हें बहलाने का प्रयत्न करते किन्तु उनकी मौन गम्भीरता की उदासी दूर न होती।

उनको स्कूल भेजा गया। किन्तु वहाँ उनका मन न लगता था। वे स्कूल से भाग जाते और कोलाहल से दूर किसी निर्जन सरिता-तट पर जा बैठते और घंटों प्रकृति के दृश्यों का निरीक्षण किया करते थे। अतएव पिता ने उनकी पढ़ाई का प्रबन्ध घर पर ही कर दिया।

पिता ने पुत्र की भावनायें पहचानी और उसको उपयुक्त मार्ग तथा वातावरण देने की व्यवस्था की। धीरे-धीरे उनकी भावनायें आध्यात्मिक वेदना लेकर मधुर गीतों के रूप में बह चलीं, ऐसे गीत जो आत्मानुभूति के मानसरोवर में स्नान करके जन-मानस का आध्यात्मिक मंगल करने के लिये वायु मण्डल में गूँज जाते। मानसिक रूप से वे काफी प्रौढ़ हो चुके थे। यह प्रौढ़ता उनकी रचनाओं में भी परिलक्षित होने लगती थी। जिस समय ‘मानसी’ नामक उनकी एक सुन्दर रचना प्रकाशित हुई और पत्र-पत्रिकाओं में उसकी प्रशंसा हुई तब उनके बुद्धिमान पिता ने रवीन्द्रनाथ के भविष्य का आभास पा लिया और उन्हें कलकत्ते के कोलाहलपूर्ण वातावरण से दूर जाकर किसी एकान्त स्थान में अध्ययन एवं काव्य साधना करने का परमार्थ दिया। वे गंगा के किनारे स्यालदा नामक ग्राम में जाकर रहने लगे।

जिस समय ग्राम के शान्त वायुमण्डल और प्रकृति उल्लसित दृश्यों के बीच भाव-विभोर होकर अपने में तन्मय हो जाते थे और कल्पना कुँज में विहार करते-करते कोकिल की तरह गा उठते थे, उस समय वे ग्रामीणों की दीन दशा से उदासीन न रह पाते थे। ग्रामीणों का अशिक्षा पूर्ण जीवन, फटे कपड़े और असभ्य रहन-सहन देखकर उनके हृदय पर इतना आघात लगने लगा कि उन्हें स्वयं ही उस ज्वलन्त यथार्थ को छोड़कर मनोहारी कल्पना-कुँज में विहार करने से ग्लानि होने लगी। जिस जनता के लिये वे आत्मा का प्रकाश अक्षरों में समाहित कर रहे थे उस जनता की वह दयनीय दशा देखकर वे आठ-आठ आँसू रो उठते और काव्य लोक से उतर कर उनके सुधार तथा कल्याण के लिये विचार करने लगे।

स्यालदाह रवीन्द्रनाथ की जमींदारी का गाँव था और वहाँ की जनता उन्हें अपना स्वामी मानकर आदर करती थी। किन्तु फिर भी मानवता के सच्चे पुजारी रवीन्द्रनाथ ने निराभिमान होकर उनकी सेवा तथा सहायता करनी प्रारम्भ कर दी। उनकी सेवाओं में उनका सबसे प्रिय सेवा कार्य था उनके बच्चों को पढ़ाना, उन्हें अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाना। उन्होंने ग्रामीणों की समस्याओं का गम्भीरता से अध्ययन किया और जमींदार की हैसियत से अनेक सुधार करवाये। स्वच्छता की शिक्षा के साथ-साथ वे अवकाश के समय ग्रामीणों को ऐसी रचनायें सुनाते जिनसे उनका मानसिक स्तर ऊँचा हो, उनमें मानव स्वरूप के ज्ञान का उदय हो।

इस प्रकार उनकी आत्मानुभूति मानवीय वेदना में बदलकर दर्द भरे गीतों में बहने लगी। रचनाओं में मानव मूल्य का अंकन होने लगा और वे धीरे-धीरे “स्वान्तः सुखाय” से हटकर “सब जन हिताय, सब जन सुखाय” के क्षेत्र में आ गये।

लगभग चार वर्ष तक उन्होंने ग्रामीणों के बीच रहकर उनकी सेवा करने के साथ-साथ ‘बलिदान, चित्राँगदा आदि नाटकों तथा ‘चित्रा और उर्वशी’ आदि काव्यों की रचना की।

ग्रामों तथा उनके निवासियों की दशा देखकर जिस पीड़ा पूर्ण अनुभूति का उदय उनमें हुआ था उसने आगे चलकर देश-भक्ति का रूप धारण कर लिया और वे विदेशी शासन के अन्यायपूर्ण शोषण के प्रति क्षुब्ध हो गये। उन्होंने अंग्रेज शासकों का कटु विरोध करने के स्थान पर भारतीय जनता का मानसिक तथा आत्मिक स्वर ऊँचा करने और अपना उद्धार आप कर सकने की सामर्थ्य उत्पन्न करने के लिये महान् संदेश देने शुरू कर दिये। उनके उद्बोधन पूर्ण संदेशों का सार इस प्रकार का होता था—”तुम अपने को पहचानो, अपनी शक्तियों का अनुभव करो, अपना जीवन शुद्ध एवं समृद्ध बनाओ, तपस्या से अपनी शक्ति का अभिवर्धन करो। मनुष्यता का मान समझो और अपना ठीक-ठीक मूल्याँकन करो। और इस प्रकार अपने को सर्वशक्तिमान के अंश के अनुरूप बनाकर संसार में स्वाभिमान के साथ जियो। अपनी शक्ति में आप स्थित मनुष्य को, समाज तथा राष्ट्र को संसार की कोई शक्ति अपमानित नहीं कर सकती। इसके अतिरिक्त उन्होंने जन-जागरण के लिये अपने व्याख्यानों का कार्यक्रम प्रारम्भ किया जिसमें उन्होंने भारतीय उच्चादर्श आर्यों की सभ्यता वेद, उपनिषद् तथा वीरतापूर्ण इतिहास को आधार बनाया। उनकी इच्छ थी कि भारत एक बार पुनः अपने गौरवशाली अतीत के दर्शन कर उसके प्रति आस्थावान बने।

उन्होंने भारतीयों तथा विशेष तौर पर तरुणों को सत्यं-शिवं-सुन्दरम् से परिपूर्ण भावनाओं के साथ ईश्वर की ओर उन्मुख करने और उन्हें भारतीय एवं पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली के समन्वय से जीवन के प्रति एक नवीन दृष्टिकोण देने के लिये ‘शाँति-निकेतन’ के नाम से एक ऐसी शिक्षा संस्था की स्थापना की जहाँ विद्यार्थियों में महान् राष्ट्रीय भावनाओं के साथ-साथ साँस्कृतिक चेतना का निर्माण किया जाता था।

इसी बीच एक-दो वर्ष के अन्तर से उनकी पत्नी, पुत्री, पिता तथा पुत्र की मृत्यु हो गई। क्रूर काल के यह क्रमिक आघात किसी भी व्यक्ति का धैर्य हर कर उसे विक्षिप्त कर देने के लिये काफी थे। किन्तु जिन्होंने जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण को आध्यात्मिक बनाया हुआ था, धर्म के तत्व को समझा था, आत्मा में दृढ़ आस्था स्थापित कर रक्खी थी और जीवन मृत्यु के परिवर्तन को ठीक-ठीक समझा हुआ था उन रवीन्द्रनाथ पर इसका प्रभाव पड़ा अवश्य किन्तु भिन्न रूप में। वे इन निरन्तर आघातों से इतने करुण हो उठे कि उनका सारा प्रेम विश्व के बीच बिखर गया। उन्होंने अपनी इस वैयक्तिक पीड़ा को विश्व-वेदना में ढाल कर ‘स्मरण’, ‘खेवैय्या’ तथा ‘नौका डूबी’ आदि काव्य रचनाओं का सृजन किया। इनमें मनुष्य की पीड़ा को इतनी सच्चाई के साथ व्यक्त किया गया था कि वे महाकवि के रूप में माने जाने लगे। अपने गीतों का उपभोग विश्व-व्यापक बनाने के लिये उन्होंने अपनी इन्हीं पुस्तकों में से कुछ गीतों को चुनकर गीताँजलि संग्रह किया और स्वयं अँग्रेजी में उसका अनुवाद करके सभी में प्रसारित किया। उनकी इस महान रचना गीतांजलि ने विश्व के विद्वानों को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने इस पर ‘नोबल प्राइज’ दिलाकर अपनी आत्मा को संतुष्ट किया।

विश्व का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘नोबल प्राइज’ पाने से रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्व-कवि बन गये। वास्तव में वे केवल विश्व कवि ही नहीं अपितु विश्व मानव भी बन गये, और उन्होंने ‘विश्व-भारती’ नाम की एक इतनी बड़ी संस्था की स्थापना की जिसमें समस्त संसार की समग्र संस्कृतियों के समन्वय से एक विश्व-संस्कृति को जन्म दिया जाने का अभूतपूर्व कार्य प्रारम्भ हुआ। ‘विश्व-भारती’ की उन्नति तथा विकास के लिये उन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति तथा पुस्तकों की ‘रायल्टी’ के साथ अपना सम्पूर्ण जीवन ही समर्पित कर दिया। स्थापना के दिन से जीवन के अन्तिम समय तक वे केवल प्रबन्धक ही नहीं एक अध्यापक के रूप में स्वयं भी काम करते रहे। यह गुरुदेव की ही लगन, पुरुषार्थ, त्याग तथा परमार्थ का फल है कि विश्व-भारती शीघ्र ही एक महान विश्व-विद्यालय के रूप में परिणित होकर विश्व की संस्कृति की तथा वैचारिक एकता के साथ-साथ विश्व-शान्ति की स्थापना का प्रयत्न कर रही है।

अँग्रेज सरकार ने गुरुदेव के महान कार्यों को देखकर उन्हें नाइट (सर) का खिताब दिया जिसको उन्होंने बंग-भंग तथा जलियावाला के कुकाण्डों से क्षुब्ध होकर त्याग दिया।

इस प्रकार लगभग अस्सी वर्ष तक लेखनी, वाणी तथा स्थापनाओं से देश और संसार की शान्तिपूर्ण आध्यात्मिक तथा साँस्कृतिक सेवा करने और संसार में भारतीय प्रतिभा का सिक्का जमाने के बाद 8 अगस्त सन् 1941 को उन्होंने कैवल्य पद प्राप्त किया।

इस प्रकार लगभग अस्सी वर्ष तक लेखनी, वाणी तथा स्थापनाओं से देश और संसार की शान्तिपूर्ण आध्यात्मिक तथा साँस्कृतिक सेवा करने और संसार में भारतीय प्रतिभा का सिक्का जमाने के बाद 8 अगस्त सन् 1941 को उन्होंने कैवल्य पद प्राप्त किया।


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