राष्ट्रीयता का उपासक-सम्राट समुद्रगुप्त

January 1966

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गुप्त-वंश एवं गुप्त-साम्राज्य का सूत्रपात सम्राट चन्द्रगुप्त प्रथम ने किया है, तथापि उस वंश का सबसे यशस्वी सम्राट समुद्रगुप्त को ही माना जाता है। इसके एक नहीं, अनेक कारण हैं। एक तो समुद्रगुप्त बहुत वीर था, दूसरे महान् कलाविद्! और इन गुणों से भी ऊपर राष्ट्रीयता का गुण सर्वोपरि था।

भारतीय सम्राटों में से जिन महान् वैदिक परम्पराओं का लोप हो गया था, समुद्रगुप्त ने उनकी पुनर्स्थापना की। उनमें से एक अश्वमेध यज्ञ भी था। सम्राट समुद्रगुप्त ने जिस अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया था, उसमें उसका दृष्टिकोण मात्र भी यश, विजय तथा स्वर्ग न था। समुद्रगुप्त का उद्देश्य उसके राज्य के अतिरिक्त भारत में फैले हुए अनेक छोटे-मोटे राज्यों को एक सूत्र में बाँधकर एक छत्र कर देना था, जिससे भारत एक अजेय शक्ति बन जाये और आये-दिन खड़े आक्राँताओं का भय सदा के लिए दूर हो जाये।

समुद्रगुप्त अच्छी तरह जानता था कि छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त देश कभी भी एक शक्तिशाली राष्ट्र नहीं बन पाता है और इसीलिए देश सदैव विदेशी आक्राँताओं का शिकार बना रहता है। जिस देश की सम्पूर्ण भूमि एक ही छत्र, एक ही सम्राट अथवा एक ही शासन-विधान के अंतर्गत रहती है, वह न केवल आक्राँताओं से सुरक्षित रहती है, अपितु हर प्रकार से फलती-फूलती भी है। उसमें कृषि, उद्योग तथा कला-कौशल का विकास भी होता है। उसकी आर्थिक उन्नति और सामाजिक सुविधा न केवल दृढ़ ही होती है, बल्कि बढ़ती भी है।

सम्राट समुद्रगुप्त देश-भक्त सम्राट था। वह केवल वैभवपूर्ण राज्य सिंहासन पर बैठ कर ही संतुष्ट नहीं था, वह उन लोलुप एवं विलासी शासकों में से नहीं था, जो अपने एशो-आराम की तुलना में राष्ट्र-रक्षा, जन-सेवा और सामाजिक विकास को गौण समझते हैं। मदिरा पीने और रंग-भवन में पड़े रहने वाले राजाओं की गणना में समुद्रगुप्त का नाम नहीं लिखा जा सकता है। वह एक कर्मठ, कर्तव्य-निष्ठ तथा वीर सम्राट था।

जिस समय पिता की मृत्यु के बाद समुद्रगुप्त ने राज्य-भार सँभाला, भारत में अन्य अनेक राज्य भी थे। जिनका काम था, प्रजा का शोषण करना और भोग-विलास में डूबा रहना। यद्यपि अधिकतर राजाओं की यह नीति रहती थी कि वे किसी अन्य राजा की कर्म-विधि में न कोई हस्तक्षेप करते थे और न कोई अभिरुचि रखते थे। किसी राजा की प्रजा सुखी है अथवा दुःखी, इसकी उन्हें कोई चिन्ता न होती थी और न वे इस बात से कोई सरोकार रखते थे। किन्तु सम्राट समुद्रगुप्त का मानव हृदय यह न देख पाता था। वह सारे संसार के मानवों के प्रति करुणा का भाव रखता था। वह रघु और राम जैसे आदर्श राजाओं की नीति परम्परा का समर्थक और यथासंभव उनके चरण चिन्हों का अनुगमन करने का प्रयास किया करता था।

भारत-भूमि के एकीकरण के मन्तव्य से समुद्रगुप्त ने अपनी दिग्विजय-यात्रा प्रारम्भ की। सबसे पहले उसने दक्षिणापथ की ओर प्रस्थान किया और महानदी की तलहटी में बसे दक्षिण-कौशल महाकान्तार, पिष्टपुर, कोहूर, काँची, अवमुक्त , देव-राष्ट्र तथा कुस्थलपुर के राजा महेन्द्र, व्याघ्रराज महेन्द्र, स्वामिदत्त, विष्णुगोप, कोलराज, कुबेर तथा धनञ्जय को राष्ट्रीय-संघ में सम्मिलित किया। उत्तरापथ की ओर उसने गणपति-नाग, रुद्रदेव, नागदत्त, अच्युत-नन्दिन, चन्द्रबर्मन, नागसेन, बलवर्मन आदि आर्यवर्त के समस्त छोटे-बड़े राजाओं को एक सूत्र में बाँधा। इसी प्रकार उसने मध्य-भारत के जंगली शासकों तथा पूर्व-पश्चिम के समतट, कामरुप, कर्तृपुर, नैपाल, मालव, अर्जुनायन, त्रौधेय, माद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानिक, काक और खर्पपरिक आदि राज्यों को एकीभूत किया।

इस दिग्विजय में समुद्रगुप्त ने केवल उन्हीं राजाओं का राज्य गुप्त-साम्राज्य में मिला लिया, जिन्होंने बहुत कुछ समझाने पर भी समुद्रगुप्त के राष्ट्रीय उद्देश्य के प्रति विरोध प्रदर्शित किया था। अन्यथा उसने अधिकतर राजाओं को रणभूमि तथा न्याय-व्यवस्था के आधार पर ही एक छत्र किया था। अपने विजयाभिमान में सम्राट समुद्रगुप्त ने न तो किसी राजा का अपमान किया और न उसकी प्रजा को संत्रस्त। क्योंकि वह जानता था कि शक्ति बल पर किया हुआ संगठन क्षणिक एवं अस्थिर होता है। शक्ति तथा दण्ड के भय से लोग संगठन में शामिल तो हो जाते हैं किन्तु सच्ची सहानुभूति न होने से उनका हृदय विद्रोह से भरा ही रहता है और समय पाकर फिर वे विघटन के रूप में प्रस्फुटित होकर शुभ कार्य में भी अमंगल उत्पन्न कर देता है।

किसी संगठन, विचार अथवा उद्देश्य की स्थापना के लिये शक्ति का सहारा लेना स्वयं उद्देश्य की जड़ में विष बोना है। प्रेम, सौहार्द, सौजन्य तथा सहस्तित्व के आधार पर बनाया हुआ संगठन युग-युग तक न केवल अमर ही रहता है बल्कि वह दिनों-दिन बड़े ही उपयोगी तथा मंगलमय फल उत्पन्न करता है।

साधारणतः मनुष्य अपने संस्कारों के प्रति बड़ा दुराग्रही होता है। बुरे से बुरे अनुपयोगी तथा अहितकर संस्कारों के स्थान पर वह शुभ एवं समय-सम्मत संस्कारों को आसानी से सहन नहीं कर पाता। प्राचीन के प्रति अनुरोध तथा अर्वाचीन के प्रति विरोध उसका सहज स्वभाव बन जाता है। समाज में इस प्रकार के प्राचीन संस्कार रखने वाले लोगों की कमी नहीं होती, और वे उनके प्रति किसी सुधार का सन्देश सुनते ही अनायास ही संगठित होकर नवीनता के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं। ऐसे अवसर पर यदि किसी शक्ति का सहारा लेकर उन्हें नवीन संस्कारों में दीक्षित करने का प्रयत्न किया जाता है तो एक संघर्ष या निरर्थक टकराव की स्थिति पैदा हो जाती है जिससे समाज अथवा राष्ट्र शक्तिशाली होने के स्थान पर निर्बल ही अधिक बन जाता है।

अतएव समझदार समाज सुधारक, बुद्धिमान राष्ट्रनायक विचार बल से ही किसी परिवर्तन को लाने का प्रयत्न किया करते हैं। हठ से हठ का जन्म होता है। यदि कोई अपने शुभ विचारों को भी हठात किसी अविचारी के मत्थे मढ़ना चाहता है तो उसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप वह अपने अविचार के प्रति ही दुराग्रही हो जाता है। किसी बाह्य शक्ति का सहारा लेने की अपेक्षा अपने उन विचारों को ही तेजस्वी बनाना ठीक होता है जिनको कोई हितकर समझकर समाज अथवा व्यक्ति में समावेश करना चाहता है। विचारों का समावेश आचरण बल से ही होता है। जिसका आचरण शुद्ध है चरित्र उज्ज्वल और मन्तव्य निःस्वार्थ है उसके विचार तेजस्वी होंगे ही, जिन्हें क्या साधारण और क्या असाधारण कोई भी व्यक्ति स्वीकार करने के लिये सदैव तत्पर रहेगा।

यद्यपि राष्ट्र को एक करने के लिये परम्परा के अनुसार समुद्रगुप्त ने सेना के साथ ही प्रस्थान किया था, किन्तु उसको शायद ही कहीं उसका प्रयोग करना पड़ा हो। नहीं तो अधिकतर राजा लोग उसके महान राष्ट्रीय उद्देश्य से प्रभावित होकर की एक छत्र हो गये थे। कहना न होगा कि जहाँ समुद्रगुप्त ने इस राष्ट्रीय एकता के लिये अथक परिश्रम किया वहाँ उन राजाओं को भी कम श्रेय नहीं दिया जा सकता जिन्होंने निरर्थक राजदर्प का त्याग कर संघबद्ध होने के लिये बुद्धिमानी का परिचय दिया। जिस देश के अमीर-गरीब, छोटे-बड़े तथा उच्च निम्न सब वर्गों के निवासी एक ही उद्देश्य के लिये बिना किसी अन्यथा भाव के प्रसन्नतापूर्वक एक ध्वज के नीचे आ जाते हैं वह राष्ट्र संसार में अपना मस्तक ऊँचा करके खड़ा रहता है। इसके विपरीत राष्ट्रों के पतन होने में कोई विलम्ब नहीं लगता।

सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने प्रयास बल पर सैकड़ों भागों में विभक्त भरत भूमि को एक करके वैदिक रीति से अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया जो कि बिना किसी विघ्न के सम्पूर्ण हुआ, और वह भारत के चक्रवर्ती सम्राट के पद पर प्रतिष्ठित हुआ। उस समय भारतीय साम्राज्य का विस्तार ब्रह्मपुत्र से चम्बल और हिमालय से नर्मदा तक था।

भारत की इस राष्ट्रीय एकता का फल यह हुआ कि लंका के राजा मेघवर्मन, उत्तर-पश्चिम के दूरवर्ती शक राजाओं, गाँधार के शाहिकुशन तथा काबुल के आक्सस नदी तक राज्य करने वाले शाहाँशु आदि शासकों ने स्वयं ही अधीनता अथवा मित्रता स्वीकार कर ली।

इस प्रकार सीमाओं सहित भारत की आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ बनाकर समुद्रगुप्त ने प्रजा रंजन की ओर ध्यान दिया। यह समुद्रगुप्त के संयमपूर्ण चरित्र का ही बल था कि इतने विशाल साम्राज्य का एक छत्र स्वामी होने पर भी उसका ध्यान भोग-विलास की ओर जाने के बजाय प्रजा जन की ओर गया। सत्ता का नशा संसार की सौ मदिराओं से भी अधिक होता है। उसकी बेहोशी सँभालने में एक मात्र आध्यात्मिक दृष्टिकोण ही समर्थ हो सकता है। अन्यथा भौतिक भोग का दृष्टिकोण रखने वाले असंख्यों सत्ताधारी संसार में पानी के बुलबुलों की तरह उठते और मिटते रहे हैं, और इसी प्रकार बनते और मिटते रहेंगे।

चरित्र एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अभाव में ही कोई भी सत्ताधारी फिर चाहे वह राजनीतिक क्षेत्र का हो अथवा धार्मिक क्षेत्र का मदाँध होकर पशु की कोटि से भी उतरकर पिशाचता की कोटि में उतर जाते है।

सम्राट समुद्रगुप्त ने अश्वमेध के समन्वय के बाद जहाँ ब्राह्मणों को स्वर्ण मुद्रायें दक्षिणा में दीं वहाँ प्रजा को भी पुरस्कारों से वंचित न रक्खा। उसने यज्ञ की सफलता की प्रसन्नता एवं स्मृति में अनेकों शासन सुधार किये, असंख्यों वृक्ष लगवाये, कुएँ खुदवाये और शिक्षण संस्थाएँ स्थापित कीं।

एकता एवं संगठन के फलस्वरूप भारत में धन-धान्य की वृद्धि हुई। प्रजा फलने और फूलने लगी। बुद्धिमान समुद्रगुप्त को इससे प्रसन्नता के साथ-साथ चिन्ता भी हुई। उसकी चिन्ता का एक विशेष कारण यह था कि धन-धान्य की बहुतायत के कारण प्रजा आलसी तथा विलासप्रिय हो सकती है। जिससे राष्ट्र में पुनः विघटन तथा निर्बलता आ सकती है। राष्ट्र को आलस्य तथा उसके परिणामस्वरूप जड़ता की सम्भावना के अभिशाप से बचाने के लिये सम्राट ने स्वयं अपने जीवन में संगीत, कला, कौशल तथा काव्य साहित्य की अवतारणा की। क्योंकि वह जानता था कि यदि वह स्वयं इन कलाओं तथा विशेषताओं को अपने जीवन में उतारेगा तो स्वभावतः प्रजा उसका अनुकरण करेगी ही। इसके विपरीत यदि वह विलास की ओर अभिमुख होता है तो प्रजा बिना किसी अवरोध के आलसी तथा विलासिनी बन जायेगी।

प्रजा के कल्याणार्थ सम्राट समुद्रगुप्त ने संगीत, काव्य तथा चित्रकला का स्वयं अभ्यास ही नहीं किया प्रत्युत्तर उसमें निष्णात बना, जिसका फल यह हुआ कि उस समय के भारत में सब से अधिक कवि कलाकार तथा चित्र एवं मूर्तिकार हुये हैं। अपने युगीन भारत की विजयों तथा विशेषताओं की इन कलाओं के स्मृति रूप में समुद्रगुप्त ने समय-समय पर जो सिक्के चलाये उनमें किसी पर स्वयं को वीणा लिये अंकित कराया, किसी पर विजय श्री के रूप में साम्राज्ञी, अश्व तथा कृपाण को अंकित कराया है।

इस केवल एक संयमी सम्राट के हो जाने से भारत का वह काल इतिहास में स्वर्णयुग के नाम से प्रसिद्ध है, तो भला जिस दिन भारत का जन-जन संयमी तथा चरित्रवान बन सकेगा उस दिन यह भारत, यह विशाल भारत उन्नति के किस उच्च शिखर पर नहीं पहुँच जायेगा?


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