रूस के विचारोद्धारक—महात्मा टॉलस्टाय

January 1966

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जिनकी गणना आज संसार के महानतम महात्माओं, दार्शनिकों तथा साहित्य-सृष्टाओं में होती है, वे 28 अगस्त, 1888 को रूस देश में टूला के निकट भासनाया पोलथाना नामक ग्राम में जन्म लेने वाले टॉलस्टाय जन्मजात महात्मा ही नहीं थे। उन्होंने संसार तथा घटित होने वाली घटनाओं से शिक्षा लेकर अपने को पूर्ण मानव के रूप में निर्माण किया था।

महात्मा टॉलस्टाय ने संसार को बहुत कुछ देने के साथ-साथ जो सबसे मूल्यवान् निधि दी है, वह अपने महान् जीवन के परिवर्तन तथा निर्माण का उदाहरण है। महात्मा टॉलस्टाय रूस के एक सामन्त वंशी राजकुमार थे। वीरता, साहस तथा युद्ध उनके स्वाभाविक गुण थे। अपने पूर्वजों की भाँति वे भी अनेक वर्षों तक रूसी सेना में सेनानायक के पद पर कार्य करते रहे। सामंत- सेनापतियों की सारी बुराइयाँ उनमें भरी पड़ी थीं। उनके जीवन के दो ही काम थे। या तो किसी युद्ध में शामिल होकर लड़ा करते थे अथवा विलासिता में डूबे रहते थे।

महात्मा टॉलस्टाय जिस समय लगभग एक वर्ष के थे, उनकी माता का देहान्त हो गया और नौ वर्ष की अवस्था में पिता चल बसे। निदान उनका पालन-पोषण टटियाना भरगोल्सकी नामक एक महिला ने उनकी बुआ की देख−रेख में किया। टॉलस्टाय कई भाई-बहिन थे, किन्तु उनको सबसे अधिक प्रेम करने वाले उनके बड़े भाई निकोलस ही थे।

जिन टटियाना भरगोल्सकी नामक भद्र महिला ने उनका पालन किया था, वह उनके पिता काउन्ट निकोलस टॉलस्टाय को हृदय से प्रेम करती थी, किन्तु उसने अपने इस प्रेम को कभी प्रकट नहीं किया। उसे टॉलस्टाय से अत्यधिक प्रेम था। वह उन्हें प्राणों से भी ज्यादा प्यार करती थी और उनके हृदय में भी प्रेम की भावना उत्पन्न कराना चाहती थी। अपनी इस धाय के व्यवहार, चरित्र तथा प्रेम का प्रभाव टॉलस्टाय के बाल-हृदय पर इतना पड़ा कि उनका हृदय मानव मात्र के लिए प्रेम से भर गया। जिसके फलस्वरूप उन्होंने बचपन में ही अपने बड़े भाई की सहायता से ‘आँट ब्रदर्श’ नाम की एक ऐसी संस्था की स्थापना की, जिसका उद्देश्य संसार भर के मानवों में एक भ्रातृ-प्रेम की भावना पैदा करना था और जिनके प्रतीक रूप में उन्होंने एक पहाड़ी पर पेड़ की एक हरी डाल भी आरोपित की थी।

जिस समय वे कजान विश्वविद्यालय में अध्ययन कर रहे थे, उनका विचार राजदूत बनने का था और जिसकी तैयारी में उन्होंने पूर्वीय भाषाओं को सीखना प्रारम्भ किया। किन्तु मानसिक संतुलन के अभाव में भाषाओं को छोड़ कर वकालत पढ़ने लगे, किन्तु कुछ समय बाद ही उन्होंने कानून का अध्ययन भी छोड़ दिया। इसी समय उनके हृदय में विचारों का भयंकर द्वन्द्व प्रारम्भ हो गया। वे क्या सत्य है और क्या असत्य? इस विचार में पड़ कर, इतने परेशान हो गये कि कॉलेज ही छोड़ बैठे।

विचारों के असन्तुलन तथा कालेज छोड़ देने से जब महात्मा टॉलस्टाय के पास कोई विशेष काम न रहा, वे दिनभर बेकार तथा निठल्ले बैठे रहने लगे तो धीरे-धीरे दुर्व्यसनों ने इन्हें घेरना प्रारम्भ किया, जिसके फलस्वरूप वे मद्यप बन कर विषय-भोगों में डूब गये। उनकी नैतिकता का पूरी तरह पतन हो गया।

किन्तु महात्मा टॉलस्टाय के जीवन की यह असत्य स्थिति बहुत समय तक न चल सकी। उन्होंने महात्माओं, सन्तों तथा सज्जनों के जीवन से अपनी तुलना की तो ऐसा अनुभव किया कि मानो वे मनुष्य हैं ही नहीं। चारित्रिक तथा पतित-जीवन के दृष्टिकोण से वे एक पशु हैं। कहाँ एक ओर सज्जन संत तथा आचरण शील व्यक्ति प्रसन्न मुद्रा में मानवमात्र की सेवा करते हुए स्वच्छन्द जीवन व्यतीत करते हुए आनन्द ले रहे हैं और कहाँ मैं व्यसनों तथा विलासों का दास बना हुआ एक मृत मनुष्य की तरह सीमित तथा विषैली परिस्थितियों में बन्दी बना विविध रोगों तथा विकारों को भोग रहा हूँ। वे व्यसन मुक्त महात्मा भी मनुष्य हैं और मैं भी मनुष्य हूं, किन्तु आचरण के अन्तर से हम दोनों में आकाश पाताल का अन्तर है। वे स्वर्ग में निवास कर रहे हैं और मैं घोर नरक में। इन विचारों के आते ही टॉलस्टाय को अपने जीवन पर बड़ी आत्म-ग्लानि हुई और उनको विलासितापूर्ण निकम्मे जीवन से विरक्ति हो गई।

महात्मा टॉलस्टाय आखिर एक मनुष्य ही थे। सत्य का प्रकाश आते ही उन्होंने अपने जीवन की धारा बदल ली और सोचने लगे कि मेरी तरह संसार में न जाने कितने मनुष्य विषय-वासना का नारकीय जीवन काट रहे होंगे। उन्हें मानव जाति की इस दुर्दशा की कल्पना से बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने आगे से अपना सारा जीवन उनके उद्धार में लगा देने का संकल्प कर लिया। जो मनुष्य ज्ञान पाकर उसका प्रकाश दूसरों को देने का विचार बना लेता है, उसका ज्ञान न केवल स्थायी ही हो जाता है, अपितु दिनों-दिन बढ़ने भी लगता है, जिससे एक दिन उसका जीवन देव तुल्य बन कर धन्य हो जाता है।

विचारों में परिवर्तन तथा परिमार्जन होते ही जीवन के दस वर्ष लूटमार, मद्यपान, क्रूरता , हत्या तथा विषयों में बिताने वाले टॉलस्टाय का पूरा जीवन ही बदल गया। अब वह बुरे से अच्छे बन कर प्रेम, करुणा, सहृदयता, सहानुभूति तथा त्याग-तपस्या की मूर्ति बन गये। वे जब तब बैठे-बैठे रो उठते, उन्हें अपने वे दिन याद आ जाते, जब वे रूसी तोपखाने में थे और युद्ध में जाकर हजारों मनुष्यों का वध किया करते थे, गाँव के गाँव और नगर के नगर वीरान किया करते थे। उस समय अनाथ हुए बच्चों, विधवा हुई वधुओं तथा पुत्र हीन माताओं के क्रन्दन के साथ आहतों की कराह का स्वर बड़ा सुखद लगता था। खेत-खलिहानों को जलाती हुई आग की लपटें बड़ी सुहावनी लगती थीं। किन्तु आज जब उन्होंने अपना जीवन बदल डाला है, तब उन्होंने जो कुछ किया और देखा-सुना उसकी वास्तविकता ठीक-ठीक समझ में आने लगी। अपने विचारों की तीव्रता तथा आत्म-ग्लानि के आघात की वेदना कम करने के लिए उन्होंने कलम का सहारा लिया और ‘बचपन’ नाम का एक उपन्यास जनता के लिए दिया, जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की गई। इस हृदय से निकले प्रथम उपन्यास ने ही उनको काफी लोक-प्रिय बना दिया और जिस समय ‘सेवस्टोपोल’ नामक कहानी संग्रह प्रकाशित होकर जन-साधारण में आया, तब तो रूस के शासक ‘जार’ का ध्यान भी उनकी ओर आकर्षित हो उठा।

इसी बीच 1860 में उनके बड़े भाई का स्वर्गवास हो गया। इसका प्रभाव उनके हृदय पर इतना गहरा पड़ा कि उनके हृदय पर विलासी जीवन, युद्ध की भयानकता तथा विकृत आचरण के दुष्परिणाम अंकित हो गये, और उन्होंने बिलखती हुई मानवता के दुःख दूर करने के अपने संकल्प को पुनः दोहराया।

जीवन की दिशा निश्चित होते ही महात्मा टॉलस्टाय कार्य क्षेत्र में उतर पड़े। सबसे पहले उन्होंने अशिक्षा एवं अज्ञान मिटाने के लिये रूस के किसानों के लिये अनेकों स्कूल खोल दिये, जिनमें अन्य अध्यापकों के साथ टॉलस्टाय स्वयं भी शिक्षा देते थे। किसानों तथा सामन्त सरदारों के बीच जमीन के बंटवारे में उन्होंने किसानों का ही पक्ष लिया और उनके पक्ष में जन-मत बनाने के लिये नगर-नगर तथा गाँव-गाँव घूम कर प्रचार किया। उनके इस कार्य को रोकने के लिये पहले तो उनके सम्बन्धी जमींदारों ने उन्हें यह कहकर समझाना चाहा कि “लियो टॉलस्टाय! तुम स्वयं एक काउंट (सामन्त) होते हुए भी इन जलील किसानों का पक्ष करते हो। यह कार्य तुम्हारे टॉलस्टाय वंश के अनुरूप नहीं है, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।” इस पर महात्मा टॉलस्टाय ने यही उत्तर दिया कि मेरा वंश केवल एक मानवता है, मेरा कार्य उसकी सेवा करना है, इसके अतिरिक्त मेरा अन्य कोई वंश नहीं है और न इसके विरुद्ध कोई काम ही है।

टॉलस्टाय के इस मानवोचित उत्तर से अहंकार के मद में चूर रूसी सामन्त सरदार तथा अधिकारी उनके बुरी तरह विरुद्ध हो गये और उनका विरोध ही नहीं, बल्कि तरह-तरह से त्रास देने का प्रयत्न करने लगे। किन्तु जिसने सारा भोग-विलास छोड़कर धन-दौलत का त्याग करके अपना सम्पूर्ण जीवन किसी ज्वलन्त सत्य के लिये समर्पित कर दिया है, वह भला विरोधों तथा विपत्तियों से क्या डरे?

रूस के निरंकुश तथा अत्याचारी शासक की गोली बन्दूक का मुकाबला उन्होंने लेखनों के सहारे विचारक्राँति का आह्वान करके करना शुरू किया। उन्होंने निराश जनता का मार्ग-प्रदर्शन करते हुए ‘क्या करें?’ नामक एक ऐसी पुस्तक लिखी जिसने जार के निरंकुश शासन के विरुद्ध एक क्राँति उपस्थित कर दी। यद्यपि रूस की सशस्त्र क्राँति उनके जीवन-काल में न हो सकी थी फिर भी उन्होंने अपने जीवन काल में जो विचार-बीज बोये थे, वे ही कुछ समय आगे चल कर जार के विरुद्ध सशस्त्र क्राँति में अंकुरित हुए और जिसका फल स्वतन्त्रता के रूप में गरीब रूसी जनता को मिला।

इसके अतिरिक्त उन्होंने सामाजिक कुरीतियों, कुप्रथाओं तथा जड़ता पूर्ण धार्मिक रूढ़ियों पर इतने गहरे आघात किये कि कट्टरपंथी उन्हें नास्तिक समझने लगे और उनके चर्च जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।

शहर के जड़ बुद्धि नागरिकों से ऊब कर वे देहातों की ओर चले गये और एकान्त, शान्त स्थान में बैठ कर छोटी-छोटी पुस्तिकाओं द्वारा जन-जीवन में प्राणपूर्ण नवीन चेतना फूँकने लगे। उनकी पुस्तिकायें इतनी पसन्द की गई कि करोड़ों की तादाद में उनकी प्रतियों का प्रकाशन तथा विक्रय हुआ करता था।

महात्मा टॉलस्टाय अपने जीवन के महानतम राजनीतिक तथा धार्मिक नेता थे। वे जनता को सत्य-धर्म का उपदेश दिया करते थे। उनका कहना था कि बिना सत्य-धर्म के जीवन नहीं और बिना त्याग के धर्म का कोई अस्तित्व नहीं। त्याग का अर्थ है—अपनी इन्द्रियों की गुलामी से मुक्त होकर अपनी मानसिक वासनाओं को बुद्धि के अधीन कर देना। जो मनुष्य कामवासना के अधीन रहता है। उसका जीवन सर्वथा असफल ही रहता है। अत्याहार तथा आलस्य, कामवासना को जन्म देने वाले हैं। जो अधिक खाने वाला है, आलसी है, वह अपनी कामवासना पर कदापि विजय नहीं पा सकता। प्रत्येक धर्म के अनुसार त्याग का प्रथम सोपान जिह्वा को वश में रखना है।

महात्मा टॉलस्टाय मद्यपान तथा माँस भोजन मानव जीवन का भयानक अभिशाप मानते थे और इसके विरुद्ध खुल कर प्रचार किया करते थे, उनके एक नवीन तथा क्राँतिकारी विचारों के कारण उन्हें अनीश्वरवादी तथा अधार्मिक समझते थे और इसी कारण जब सन् 1910 में उन्होंने संसार छोड़ा तो पादरी ने उनके अन्तिम संस्कार में प्रार्थना करने से इन्कार कर दिया। किन्तु इससे क्या, उस महान् महात्मा के अन्तिम संस्कार में हजारों किसानों ने भाग लिया और हजारों ही आदमियों ने नत-मस्तक होकर प्रार्थना की।


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