मेरा अपना कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर।

January 1966

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एक व्यक्ति शीशे के सामने बैठा हुआ अपनी मुखाकृति पर प्रसन्न हो रहा था। कितना उजला रूप है मेरा, कितनी सुन्दर आँखें हैं, कितने अच्छे घुँघराले बाल, मनमोहक नासिका सुघड़ शरीर देख-देखकर वह फूला नहीं समा रहा था। हर सड़क से गुजरने वाले पर वह दृष्टि दौड़ाता, पर उसे अपनी तुलना में सभी कम सुन्दर दिखाई देते। अपने स्वास्थ्य पर, अपने रूप पर बहुत गर्व हुआ उसे। वह सर्वत्र इतराता घूमा। सब भोंड़ी और कुरूप शक्लें दिखाई दीं। उसकी सुन्दरता का एक भी व्यक्ति उसे न मिला।

अहंकार में डूबे मनुष्य की भेंट एक दिन एक संन्यासी से हुई। सन्त ने उसका घमण्ड तोड़ लिया। बोला-सचमुच तुम बड़े सुन्दर हो, पर क्या अपना स्वरूप मुझे दिखा सकते हो? वह व्यक्ति बड़ा चकराया। हाथ दिखाया, पैर दिखाये, मुख, आँख, नाक, कान, दाँत, पेट, गर्दन सब कुछ दिखाया, पर “मैं कौन हूँ” यह न बता सका।

उसने सोचा-संभव है, मैं शरीर के भीतर घुसा होऊँ। बड़ा विचार किया, पर वहाँ भी उसे रक्त , माँस, मज्जा, तन्तु-अस्थि, वीर्य के अतिरिक्त कुछ न मिला। मनुष्य का सारा अभिमान विगलित हो गया। उसने समझा कि वह शरीर उसका नहीं, वह तो एक संयोग मात्र था, प्रकृति के हाथ का खिलौना मात्र था, जिसे आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, टूट जाना ही होगा। न उसका शरीर था, न उसका रूप, अस्थि-पिंजर मात्रा था वह, माँस का पिंड मात्र था यह। आज बना, कल बिगड़ गया। जब से उसकी समझ में यह बात आ गई तब से उसका देहाभिमान छूट गया। अब उसे सभी प्राणी एक जैसे दिखते हैं। सब में वह परमात्मा को समाया हुआ देखता है। अब उसका अहंकार हट गया है, क्योंकि वह जान गया है, मैं कुछ नहीं हूँ, यह सब ब्रह्म ही है, जो अनेक रूपों में प्रकट हो रहा है, मुझे उसी की उपासना करनी चाहिए।

एक और व्यक्ति है। वह कहता है- मेरा मकान बड़ा आलीशान है। कई लाख रुपये खर्च कर के मैंने उसे बनाया है। उसमें मेरा सामान, कपड़े, फर्नीचर, बर्तन आदि सब सामान रखा हुआ है। मैं इसका हिस्सा अपने भाई को न दूँगा, क्योंकि यह मेरा घर है। मैं प्रति वर्ष इसकी लिपाई-पुताई, सफाई कराता हूँ, रंगवाता हूँ, टूटे-फूटे स्थानों की मरम्मत करवाता हूँ, वर्षा से उसकी रक्षा करता हूँ। इस घर में किसी को ठहरने न दूँगा, यह मुझे बहुत प्यारा है। इसमें और किसी का अधिकार नहीं।

एक दिन रात में वह अपने छत की मुंडेर पर खड़ा बाहर दुनिया की ओर देख रहा था। पास ही एक खण्डहर था। उससे बहुत हल्की आवाज आ रही थी। स्वर बहुत मीठा लगा, वह व्यक्ति ध्यान पूर्वक उस खण्डहर की बात सुनने लगा।

खण्डहर कह रहा था- मुझे देख, मैं भी किसी दिन तेरे महल की तरह ही ऊँचा था, मेरी साज-सज्जा से लोगों की आँखें चकाचौंध हो जाती थीं, मेरे आँगन में बड़ी चहल-पहल रहती थी। बड़े हास्य-विनोद देखे हैं मैंने। पर जब से मेरा मालिक मर गया, तब से किसी ने मेरी ओर ध्यान न दिया। बेखबरी ने मुझे इस हालत में पहुँचा दिया है।

मृत्यु का नाम सुनते ही मनुष्य की आत्मा काँप गई। वह सोचने लगा- अब तक इस घर को कितने लोग अपना कह चुके होंगे। जिस नींव पर यह खड़ा है, उस पर कितने मकान खड़े हो चुके होंगे? आगे न जाने कौन इसमें रहे या यह भी खंडहर हो जाय? उस दिन से उसने घर का अहंकार छोड़ दिया। अपने घर वालों को भी हिस्सा दे दिया। अब उसने समझ लिया है कि यह मकान कुछ दिन के विश्राम के लिये मिला है, आगे की यात्रा में जाने कौन मकान मिले, कहाँ रहना पड़े?

एक मनुष्य का परिवार बड़ा लम्बा-चौड़ा था। कई बेटे, कई नाती-पोते। सब में प्रेम भाव था। सब मिलकर रहते थे। उस आदमी को अपने परिवार का बड़ा घमण्ड था। इसकी वह अक्सर चर्चा भी करता रहता था। घर वालों की ताकत से उसने जिससे जो चाहा, कराया। किसी की सम्पत्ति छीन ली, किसी को पीटा, किसी से बेगार ली। सब उससे डरते थे। उससे मुकाबला करने की किसी में शक्ति भी तो न थी। आखिर कौन सामना करता? उस व्यक्ति की ताकत के आगे किसी की एक न चलती थी।

एक रात खबर फैली- “चूहे मर रहे हैं, ताऊन आ गया है।” सब लोग गाँव छोड़कर जंगल में झोंपड़े बना कर रहने लगे, पर वह व्यक्ति जो कभी किसी से दब कर नहीं रहा, उस ताऊन से कैसे डर जाता। ऐंठ-ऐंठ में वहीं पड़ा रहा, हटा नहीं। ताऊन की प्रतीक्षा में, उससे लड़ने की तैयारी में कई दिन, कई रातें गुजर गई। एक दिन अचानक उसके घर में ताऊन घुसा। एक-एक कर मरने लगे। चार दिन में मकान अपने आप खाली हो गया। सब मर गये। न भाई रहे, न बेटे। काल की आँधी ने सारी लाशों को उड़ा दिया। जिस मनुष्य को अपने परिवार पर बड़ा घमण्ड था, उसके घर में कोई दीपक जलाने वाला भी शेष न रहा।

वह मनुष्य अंधेरे में बैठा रो रहा था। आज उसका सारा दर्प आँखों के सामने था। अपनी भूल पर पछताता था और आँसू बहाता था। बहुत दिन बाद वह समझ पाया कि मनुष्य के वश में कुछ नहीं, वह तो सब ईश्वर का खेल था।

एक किसान के पास बड़ी अच्छी जमीन थी। सिंचाई के सब साधन थे। स्वस्थ बैल, स्वस्थ बेटे। बड़ी अच्छी खेती होती थी। गाँव का कोई भी किसान उससे अच्छी फसल नहीं कमाता था। उन खेतों में उसने बड़ा परिश्रम किया था। बड़ी सुरक्षा की थी, तब वे इतने उपजाऊ हुये थे।

एक बार उसकी फसल हर वर्ष से अच्छी हुई। बड़े-बड़े पौध, बड़ी-बड़ी बालें। अन्न के बोझ से डालियाँ झुकी जा रही थीं। किसान फसल देख-देखकर अभिमान से चूर हुआ जा रहा था। तरह-तरह के मनसूबे बाँध रहा था वह। करता भी क्यों नहीं, था भी तो वह बड़ा किसान।

एक दिन असमय पुरवैया चली, बादल मँडराने लगे। देखते-देखते आसमान काला पड़ गया। बिजली तड़पने लगी और पानी गिरने लगा। बड़े-बड़े ओले गिरे। सारी फसल देखते-देखते बरबाद हो गई। कुछ टूट गई, कुछ बह गई। जो बची वह भी सड़ गई। किसान का भाग्य फूट गया। अब बादल छट गये थे। किसान अपने खेत के पास खड़ा दुर्भाग्य से कोस रहा था। ऊपर दूर तक आकाश फैला हुआ था, मानो वह किसान को संकेत कर रहा था, अरे- किसान यह धरती, यह खेत सब हमारे हैं। तू तो इसका किरायेदार मात्र है। यह खेत तुझे आजीविका के लिए मिले थे। इसमें तेरा अधिकार क्या? अब तक किसी और के पास थे, आगे किसी दूसरे के पास होंगे। यह क्रम इसी तरह चलता रहेगा, पर यह खेत, ओ किसान! तेरे नहीं, मेरे ही रहेंगे।

एक मनुष्य ने विद्याध्ययन में निपुणता प्राप्त की थी। कई भाषाओं तथा विद्याओं का वह ज्ञाता था। जब तक लिखा-पढ़ी का काम आता तो मुहल्ले वाले उसके पास सहायता के लिए पहुँचते। आदमियों की आवक बढ़ जाने से उसने समझ लिया कि संसार में मुझसे ज्यादा और कोई विद्वान नहीं। मैं सारे संसार का ज्ञान रखता हूँ। जो कुछ भी पूछा जाय, हर बात बता सकता हूँ।

घर में एक बालिका बड़ी वाचाल थी। एक दिन वह एक कीड़ा हाथ में उठाकर पिता के पास गई और उसका नाम पूछने लगी। पंडित ने सारी पुस्तकें खोज डालीं, जन्तु शास्त्र के कई बार पन्ने पलटे, न तो उस आकृति का कोई कीड़ा समझ में आया, न कोई नाम। बालिका बोली- आप तो सब जानते हैं, फिर इस कीड़े का नाम क्यों नहीं बताते? वह व्यक्ति बोला-बेटी? यही तो मेरी भूल थी, जो मैंने अपने को सर्वोपरि ज्ञानी समझा। सत्य तो यह है कि संसार में फैले विस्तृत ज्ञान के एक अंश को भी मैं नहीं जानता।

संसार के सभी व्यक्ति एक प्रकार के अहंकार से ग्रस्त हैं। किसी को अपने रूप और सौंदर्य का अभिमान है, किसी को अपनी सम्पत्ति का। जो इन वस्तुओं का साधनों का, सुन्दरता का अभिमान करते हैं, वे मूढ़ हैं और झंझटों में फँसे रहते हैं। पर ज्ञानी सारे संसार को दिव्य परमात्मा से ओत-प्रोत देखता है, किसी वस्तु से मोह नहीं करता। ईश्वर की इच्छा मान कर वह अपने कर्त्तव्यों का पालन करता है।


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