लक्ष्य सिद्धि के लिए धैर्य आवश्यक है।

January 1966

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स्वर्ग या अत्यधिक सुख की प्राप्ति की कामना से संसार के सब प्राणी नाना प्रकार की योजनायें बनाया करते हैं। इस दृष्टि से मनुष्यों को दो श्रेणियों में विभक्त किया जाता है- (1) नास्तिक और (2)आस्तिक। नास्तिक उन्हें कहते हैं— जो “विश्व का संचालन तथा पालन करने वाली भी कोई शक्ति है” इस बात को नहीं मानते। उनकी दृष्टि में संसार एक रसायनशाला है। जहाँ सब कुछ अपने आप बनता, अपने-आप बिगड़ जाता है। नास्तिक व्यक्ति अपनी भौतिकवादी मान्यता तक ही सीमित रहे, तब तक उससे कोई हानि नहीं, किन्तु जब किसी नियन्त्रण करने वाली शक्ति के अस्तित्व को भुला दिया जाता है, तो मनुष्य वैसी ही स्वच्छंदता बरतने लगता है, जैसे अंधेरी रात में चोर। इस स्थिति में मनुष्य की स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियाँ प्रमुख होती हैं। अतः यदि उनकी मान्यता सच भी हो जाय तो भी कष्ट, कलह और विनाश के ही दृश्य उपस्थित करती है, इसलिये नास्तिकता की निन्दा की जाती है, उसे मनुष्य के लिये अहितकर बताया जाता है।

दूसरे व्यक्ति ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। जन्म-मरण को मानते हैं। यह अपेक्षाकृत विवेकी वर्ग है। विज्ञान की कमी ऐसे व्यक्तियों में भले ही हो, पर उनका यह सामान्य ज्ञान भी सापेक्ष है, जिसके द्वारा वे संसार को इसी नियम-व्यवस्था को बनाये रखने में कुछ न कुछ योग करते रहते हैं। यदि वे किसी का भला नहीं कर सकते तो किसी का बुरा भी नहीं करते।

धर्म ऐसे ही व्यक्तियों से किसी तरह की कुछ आशा रखता है। नास्तिकों की वह उपेक्षा करता है और नास्तिक व्यक्तियों का मार्ग-दर्शन करता है। फिर भी धर्म और ईश्वर-विश्वास का जो प्रतिफल मनुष्य को मिलना चाहिये वह नहीं मिलता, उल्टे नास्तिक अपनी चतुराई और धूर्तता के कारण भौतिक सुख अधिक मात्रा में उपलब्ध कर लेते हैं। यह देखकर ऐसा समझ में आता है—धर्म में कहीं कोई भूल है। कोई अंग ऐसा है-जिसे लोग नहीं पा रहे। अन्यथा इसी धर्म-निष्ठा के कारण भारतवर्ष पहले इतना अधिक सुखी और समृद्ध था, पर अब साधन और विकास की अधिक परिस्थितियाँ होते हुए भी धार्मिक व्यक्तियों को असफल ही देखा जाता है। उनके जीवन में परमात्मा का प्रकाश हिलोरें मारता दिखाई नहीं देता। उनके जीवन में वह शक्ति , शौर्य, शान्ति, सुख और सन्तोष दिखाई नहीं देता, जो मिलना ही चाहिए था।

लोगों की मान्यताओं का विकृत होना एक कारण है। किसी भी बात पर मानवीय दृष्टि से विचार किया जाता है। परमात्मा की कल्पना—दो हाथ, दो पाँव, नाक, मुँह, आँख, कान, पेट वाले मनुष्य के रूप में की जाती है। स्वर्ग एक विशेष स्थान माना जाता है, ठीक ऐसा ही जैसी पृथ्वी और वहाँ भी स्थूल भोग होने का मत पुष्ट किया जाता है। स्वर्ग और भगवान् के ऐसे अलंकारिक चित्रों में संभव है—कुछ शिक्षाएं हों, कुछ गूढ़ रहस्य या मनोवैज्ञानिक तथ्य सन्निहित हों, पर वे वास्तविक नहीं है। परमात्मा शरीरधारी मनुष्य नहीं और न उसे इस रूप में देखा ही जा सकता है। यदि कोई ऐसा कहता है तो यह भ्रम है। इसी प्रकार स्वर्ग किसी लोक या स्थान विशेष का नाम नहीं है। स्वर्ग का अर्थ है- सुख का स्थान और नरक का अर्थ है-दुःख का स्थान। जहाँ सुख है, वहीं स्वर्ग है। जहाँ दुःख है, वही नरक है। फिर यह स्थान पृथ्वी भी हो सकती है। सूर्य, चन्द्र, मंगल या कोई अन्य ग्रह भी हो सकते हैं।

सुख की प्राप्ति दरअसल एक साधना है, जो अनवरत श्रम, अटूट लगन, धैर्य और विश्वास से ही मिल सकती है। विद्यार्थी वर्षों तक विद्याध्ययन की साधना करते हैं, तब उन्हें विद्वान् कहलाने का गौरव प्राप्त होता है। पहलवान बहुत दिन तक व्यायाम करने, पौष्टिक आहार जुटाने आदि की साधना के उपरान्त कसदार शरीर प्राप्त करते हैं। सेनाओं के अभ्यास शान्ति काल में भी बराबर चलते रहते है, तब कहीं वे दुश्मनों से लड़ पाते हैं। वास्तव में सुख प्राप्ति के लिये जो शक्ति चाहिए, वह साधना से ही उपलब्ध हो सकती है। इसके अतिरिक्त ओर कोई मार्ग नहीं है।

धन कमाना हो तो धन की साधना की जाती है। कोई रोजगार तलाश कर पूँजी लगाते हैं, माल मँगाते हैं, दिन भर दुकान पर बैठते हैं, किफायत करते हैं, आवश्यकतायें घटाते हैं, तब कहीं धन इकट्ठा हो पाता है। वायुयान चालक अन्तरिक्ष में जाने से पूर्व पृथ्वी पर ऊपर उड़ने की साधना करते हैं। किसान सालभर खेतों में जुटे रहते है, तब कहीं अन्न की पैदाइश होती है। संसार में हर तरह की उपलब्धि के लिये साधना करने का एक निश्चित विधान है। इस विधान से देव, दनुज, मनुज आदि सभी बँधे हैं, इस नियम का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।

स्वर्ग और सुख की प्राप्ति के लिये भी यह साधना परमावश्यक है। साधना का अर्थ है-कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए प्रयास जारी रखना। उपासना, जप, यज्ञ आदि भी आध्यात्म की मुख्य प्रक्रियाओं में से हैं, किन्तु यह सर्वांगपूर्ण नहीं हैं, यह भी साधन का ही एक अंग है। साधना एक प्रकार की परीक्षा है। यह साधनाशील जीवन का कठोर किंतु कल्याणकारी प्रसंग है। परीक्षा पर परीक्षा ली जाती है, तब कहीं उत्तीर्ण होने का सौभाग्य मिलता है। साधना पथ से विचलित हो जाने वाले इन परीक्षाओं को पार नहीं कर पाते, बीच में ही फेल हो जाते हैं। जो कठिनाइयों, संघर्षों, आपदाओं, मुसीबतों, विपरीत परिस्थितियों से भी नहीं घबड़ाते, अन्ततः साधना की सफलता का सौभाग्य उन्हीं को मिलता है। इस सीढ़ी को वही पार करते हैं-जो “प्रभो! पग-पग मेरी परीक्षा ले” की भावना रखते हैं। ध्रुवता के साथ साधना-पथ पर आरुढ़ रहने वाले ही संसिद्धि प्राप्त करते हैं।

मनुष्य बड़ा उतावला प्राणी है। तत्काल लाभ प्राप्त करने की उसकी बड़ी इच्छा होती है। सफलता के परिपाक के लिये जितने घड़ी-घण्टे अभीष्ट होते हैं, वह उन्हें लाँघना चाहता है, पर ऐसी आशा दुराशा-मात्र है। हथेली में सरसों जमाने की बाल कल्पना कभी फलवती नहीं होती। नौ माह गर्भ में पकने वाला बालक एक-दो माह में पैदा हो जाना कठिन ही नहीं, असम्भव भी है। सफलता की अन्तिम मंजिल तक पहुँचने के लिये प्रतीक्षा करनी ही पड़ती है। इसके लिये धैर्य चाहिए, ध्रुव-धैर्य चाहिए। एक-एक सीढ़ी चढ़ने से सैकड़ों सीढ़ियाँ चढ़ी जा सकती हैं। एक ही छलाँग में कोई 100-200 फुट की ऊँचाई नहीं लाँघ सकता उतावलापन एक कमजोरी है, जल्दबाजी में धोखा होता है। उसमें कभी भी विश्वास नहीं किया जाना चाहिए।

कोई भी कार्य प्रारम्भ करने के पूर्व एक बात मन में बिठा लेनी चाहिए। “हम इसे अन्त तक, सफलता मिल जाने तक पालन करेंगे। मनुष्य जीवन में दृढ़ता और गता की अनिवार्यतः आवश्यकता होती है। अपने को किसी और पर आधारित रखकर स्वयं उसे सँभालना तथा बहुत देर तक प्रतीक्षा करने में अधिक सता है। साधना एक प्रकार का आनन्द है, जिसे थोड़ी भोगने से तृप्ति नहीं होती, वरन् चिरकाल तक उस रस को लूटा जाता है। भार की तरह ढोने के लिये साधना वह तो पुरुषार्थ का आनन्द देने वाली होती है।

अधिक बड़े संघर्ष न पैदा हों, इसके लिये यह आवश्यक है कि आपका साधन छोटा हो। साइकिल साइकिल से टकरोयेगी तो क्षति कम होगी। रेल, रेल टकराएंगी तो बड़ी हानि होगी। छोटे साधन सरल होते हैं बड़ों में असफलता के क्षण अधिक आते हैं। अपनी योजना छोटी हो तो उसमें भी बड़ा लाभ उठाया जा सकता है। धीमी गति में स्थिरता और स्थायित्व होता है।

साधना सिद्धि और लक्ष्य सिद्धि के यह शाश्वत नियम हैं। इन्हें कोई साधारण भले ही समझे पर इसकी वास्तविकता में राई-रत्ती गुँजाइश नहीं। लक्ष्य छोटा हो, चाहे बड़ा- स्वर्ग और मुक्ति की यश, धन अथवा कीर्ति की, मनुष्य को संतुलन मन्द-गति से, लगन के साथ धैर्यपूर्वक साधना है। कहा भी गया है-

धीरे-धीरे रे सना, मेरे सब कुछ होय।

माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय॥

ऐ मेरे मन! धीरे-धीरे चल, इससे तुझे सब कुछ मिल जायेगा। माली चाहे सौ घड़ों से ही वृक्ष को क्यों न सींचे, फल तो मौसम में ही लगते हैं।


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