अनासक्त जीवन में सुख-शान्ति

January 1966

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मनुष्य का जीवन एक वाटिका है। वाटिका को अच्छी स्थिति में रखने के लिये उस पर चारों ओर की दृष्टि रखनी पड़ती है। किस पौधे को पानी देना है, कहाँ निकाई की जाय, कौन-सी मेंड़ टूट रही है, कौन-सा फूल फूलने लगा, किस वृक्ष में फल लग रहे हैं, किसे खाद दी जाय आदि-आदि— इन सब बातों का ध्यान रखने वाला ही कुशल माली कहा जाता है। उसी का बाग भी सुन्दर, सुरभित और हरा-भरा रहता है। पौधे खूब फूलते-फूलते हैं, आस-पास का वातावरण भी सुवास से भरा रहता है। माली को भी प्रसन्नता होती है और मालिक को भी। पास से आने-जाने वालों को भी उतनी ही प्रसन्नता होती है। पूर्ण विकसित, पुष्पित, पल्लवित और सुरक्षित वाटिका से सभी को प्रेरणा और प्रसन्नता मिलती है।

इतने प्रबन्ध न जुटा कर माली यदि किसी आकर्षक फूल की डाली के पास ही बैठा रहे या केवल फल ही ढूँढ़ता रहे तो सारी वाटिका अव्यवस्थित हो जायगी। पौधे मुरझा जायेंगे। फूल सूख जायेंगे। न हरियाली रहेगी, न सुवास। पतझड़ की तरह सारा वातावरण शुष्क, निष्प्राण और नीरस लगेगा। वहाँ कुछ भी आनन्द दिखाई नहीं देगा।

मनुष्य का जीवन भी ठीक इसी तरह का है। उसमें अनेकों तरह की व्यवस्थायें मनुष्य को करनी पड़ती हैं। परिवार के लिये अन्न और वस्त्र आदि की व्यवस्था, बच्चों की पढ़ाई, रोजी-रोजगार, बीमारियों के चक्कर, शादी-विवाह, मेल-मिलाप आदि तरह-तरह के कर्म उसे करने होते हैं। जहाँ पर जीवन के सम्पूर्ण विधान में ऐसी व्यवस्था होगी, वहाँ जरूर सुख-शान्ति और सन्तोष की परिस्थितियाँ होंगी। प्रत्येक कार्य को चतुराई के साथ पूरा करने से ही यह व्यवस्था ठीक रह सकती है। समय और परिस्थिति के अनुसार सभी पूरे करने पड़ते हैं। यदि किसी ओर ध्यान न दिया जाय तो उधर ही अव्यवस्था फैलेगी, गड़बड़ी उत्पन्न होगी। दिनभर काम तो खूब करें, पर आहार की व्यवस्था न रहे, तो काम न चलेगा। धन खूब कमाया जाय, पर बच्चे सुशिक्षित न हों तो पारिवारिक व्यवस्था ठीक न जमेगी। रोगी को दवा का प्रबन्ध रहने को मकान,खेती के लिये कपड़े, यात्रा के लिये सवारी—प्रत्येक वस्तु का यथास्थान उपयोग है। कोई भी वस्तु उपेक्षणीय नहीं। समय के अनुसार आवश्यकताओं की माँग बदलती रहती है। उन्हें उसी क्रम से पूरा भी किया जाना चाहिए, तभी जीवन में ठीक व्यवस्था रह सकती है।

इस व्यवस्था को चौपट करने वाली स्थिति का नाम है— आसक्ति । किसी खास तरह के सुख या इच्छा पूर्ति के लिये अपने आपको एक ही स्थान पर रोक देना ही आसक्ति कहलाती है। सुख की इच्छा से बँध जाना आसक्ति है। जो वस्तु प्रिय लगे, आकर्षक लगे उसके साथ गठबन्धन बाँध कर लिप्त हो रहना ही उसका प्रधान लक्षण है। दुराव, अव्यवस्था और असंतोष का कारण यह आसक्ति ही है।

यदि शरीर का कोई भी अंग अपने नियत कार्य के करने में प्रमाद करे तो उसका फल सारे शरीर को भुगतना पड़ता है और शारीरिक मशीन के चलने में बाधा आ जाती है। जैसे हाथ यदि भोजन को ग्रहण करके बैठा रहे, उसे मुँह तक न पहुँचावे तो शरीर की दुर्बलता के साथ ही हाथ भी दुर्बल पड़ जायगा। मुँह भोजन का पूरा स्वाद तो ले, पर उसे पेट में न पहुंचावे तो भी यही दशा होगी। पेट उस खाये हुए अन्न को अपने में ही ठुंसे बना रहे, उसका रक्त बना कर शरीर को न दे और मल-विसर्जन की क्रिया का परित्याग कर दे तो सारा शरीर रोग-ग्रस्त हो जायगा। प्रत्येक कार्य को नियत समय, क्रम और आवश्यकता के अनुसार उचित परिणाम में करते रहना ही कर्मयोग या अनासक्ति कहा जाता है। मनुष्य जीवन की सारी सुन्दरता इसी बात पर निर्भर है कि वाटिका की तरह उसके प्रत्येक अंग, प्रत्येक विभाग की समुचित देख-रेख होती रहे। चित्त-वृत्तियाँ तथा इच्छायें एक ही स्थान पर केन्द्रित न होने पायें, अन्यथा गड़बड़ी फैलने की आशंका बनी रहेगी।

अतः यह आवश्यक हो जाता है कि अपनी इच्छाओं को, रोगों की कल्पना को कम करें, पर यह तभी हो सकता है, जब यज्ञीय जीवन की महत्ता का भान हो। सन्तोषी-जीवन, स्वल्प-निर्वाह और निर्लेप आचरण से ही ऐसी सुविधा उत्पन्न हो सकती है। मन शुभ कामनाओं में लगा रहे। बुद्धि के पीछे तर्क जुड़ा हुआ हो। प्रत्येक कर्म विवेक और हित-अहित के विचार पर आधारित हो। हाथ में जो काम लें, उसमें तन्मय हो जायँ, पर जैसे ही वह काम पूरा हो जाय, उसे इस तरह भूल जायँ, जैसे उससे उस कर्म का कोई सम्बन्ध ही न रहा हो। मनुष्य के सामने जो भी कर्त्तव्य आयें, उन्हें निष्काम भावना से पूरा करता रहे।

भारतीय परम्परा सदैव ऐसी ही रही है। यहाँ सदैव प्रवृत्ति में ही निवृत्ति के दर्शन हुए हैं। बलि, दधीचि, कर्ण, हरिश्चन्द्र, रन्तिदेव आदि महापुरुषों के उदाहरण मौजूद हैं, जिनसे जीवन को यज्ञमय बनाकर उदारतापूर्वक जीने, खिलाड़ियों की तरह खेलने की ही प्रेरणा मिलती है। शरीर-सुख और साँसारिक भोग सामयिक है। अतः उनमें आसक्त होकर अजर-अमर जीवन को कष्टमय बना लेना बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती। यह बहुत बड़ा अनुसंधान है, दर्शन है, जिसे ऋषियों ने दीर्घकालीन तप के बाद निर्धारित किया है। वर्णाश्रम धर्म का मूल मन्त्र भी अनासक्ति ही है। लोक-धर्म की मर्यादा के लिये सन्तान उत्पन्न की जाती थी। इससे कुल और संसार भी चलने की बात कही जा सकती है। आज की तरह पुत्र न होना कोई दुर्भाग्य नहीं समझा जाता था।

मातायें अपने बच्चों को छोटी व्यवस्था में ही गुरुकुलों में भेज देती थीं और देव-सेवा में, गृह-कार्यों में लग जाती थीं। प्राकृतिक जीवन में रहकर वह बालक शरीर, मन और बुद्धि-विवेक से पूर्ण परिपक्व होकर निकलते थे। रूप, गुण, यौवन तथा बल सम्पन्न होकर गृहस्थ में प्रवेश करते थे तो एक सुयोग्य नाविक की भाँति गृहस्थी की नाव को ठीक तरह से संचालित रखते थे। जब उनके भी बालक इस योग्य हो जाते थे कि आश्रितों का पालन-पोषण भली भाँति कर सकें, तो धीरे-धीरे उन्हें पारिवारिक उत्तरदायित्व सौंप कर वानप्रस्थ आश्रम के लिये उद्यत हो जाते थे। तीर्थाटन आदि करते हुए मुक्त प्रकृति का ज्ञान लाभ प्राप्त करते थे और अन्तिम अवस्था में घर-परिवार आदि का बिल्कुल मोह त्याग कर केवल ब्रह्मानुभूति में तल्लीन होकर इस मनुष्य जीवन को सार्थक बना जाते थे। जब तक यह व्यवस्था हमारे राष्ट्र में रही तब तक इस देश में किसी तरह के दुःख-दारिद्रय तथा अभाव भी नहीं रहे।

दुःख को दूर करने के लिये अनासक्ति ही सर्वोत्तम उपाय है। आसक्ति सभी प्रकार के दुःखों की जननी है। मोह के कारण ही सम्बन्धियों के बिछुड़ने पर वियोग-जनित दुःख का अनुभव होता है। अतः मोह को नष्ट कर दीजिए। देहाभिमान के कारण ही थोड़ा-सा सम्मान न मिलने या अपमान हो जाने से असह्य दुःख प्राप्त होता है। अतः देहाभिमान का नाश करना चाहिये। जो लोग संसार और उसके सुखोपभोग के साधनों की आशा लगाये बैठे हैं, उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि यह तन्मात्रायें केवल तब तक हैं, जब तक शरीर जीवित है। प्राण निकलते ही इनका कुछ भी मूल्य न रह जायगा। केवल मन में बसा हुआ— मोह, ममत्व और राग ही शेष रह जायगा, इसी के कारण लोग जन्म-मरण के सब-बन्धनों में बँधे हुए साँसारिक कष्ट भोगते रहते हैं।

मनुष्य आनन्द की खोज में है। आनन्द में ही उसे तृप्ति मिलती है, पर यह आनन्द मिलता उन्हीं को है, जिन्होंने सुख और दुःख की वास्तविकता को समझ लिया है अर्थात् जिन्होंने संसार और उसके प्रपंच, आत्मा और उसके स्वरूप को जान लिया है। यह स्थिति बन जाने पर वह मोह ग्रसित नहीं होता, संसार की किसी वस्तु से उसे लगाव नहीं रहता। लोकोपकारी कर्मों का सम्पादन करना ही उसका ध्येय बन जाता है। इस तरह के कर्त्तव्य पालन में ही सर्वांगीण व्यवस्था रहती है और व्यवस्था रहते हुए दुःख का कोई नाम नहीं रहता। कर्मयोग का इतना ही रहस्य है कि मनुष्य कर्म को पा कर्त्तापन का अभिमान न करे। इसमें साँसारिक सुख भी है और पारलौकिक हित भी। अनासक्त जीवन ही शुद्ध और सच्चा जीवन है।


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