स्वभाव संशोधन पर एक विचार-दृष्टि

January 1966

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प्रायः लोगों को यह शिकायत रहती है क्या करें, आदत तो बुरी है, पर अभ्यास में आ गई हैं छूटती नहीं। गन्दी और निकम्मी आदतों पर बहुधा लोग ऐसी सफाई दिया करते हैं। पान खाना, बीड़ी पीना, सिनेमा देखना, अश्लील गाने गाना, बुरे लोगों की संगति, कुटिल-कुटेव, कुविचार—इनको अपने स्वभाव की बुराई मानते हुये भी लोग उन्हें छोड़ने से घबराते हैं। उन्हें ऐसा लगता है जैसे यह आदतें छूट जायेंगी तो कोई हानि हो जायगी, अपने मित्र साथ छोड़ देंगे या जीवन का आनन्द जाता रहेगा। इस तरह की विचारणा बिलकुल निम्न स्तर की है। भूल सुधार मनुष्य का सबसे बड़ा विवेक है। बुरे स्वभाव को अच्छे स्वभाव में बदल लेना मनुष्य की सब से बड़ी चतुराई है। स्व-संशोधन इतनी बड़ी समस्या नहीं जिसे पूरा न किया जा सके। मनुष्य अपने आपको बदल भी सकता है।

लोग तरह-तरह की योजनायें बनाते हैं। कल से प्रातःकाल जल्दी उठा करेंगे और टहलने जाया करेंगे, सिगरेट पीना कम करेंगे और धीरे-धीरे उसे छोड़ देंगे। सप्ताह में एक बार ही सिनेमा देखने जायेंगे। चाय के स्थान पर दूध लिया करेंगे। बुरी आदतों को छोड़ने के लिये योजनायें तो बहुत बनती हैं पर चाहकर भी वे ऐसा कर नहीं पाते। मान्यता भले ही अनुकूल हो पर यदि व्यवहारिकता में कोई परिवर्तन नहीं आता तो योजनायें भी किसी काम की नहीं होतीं। तब फिर एक प्रश्न सामने आता है कि क्या इन आदतों से मुक्ति पाने को कोई उपाय नहीं है? मनुष्य का जो अच्छा-बुरा जीवन-क्रम बन गया है क्या उसमें किसी तरह के परिवर्तन की गुँजाइश नहीं? इस तरह के उलझन भरे प्रश्न प्रायः लोग उठाते हैं, अपने मित्रों, अध्यापकों या अभिभावकों से भी समस्या के हल में मदद माँगते हैं।

आदत सुधार का अर्थ सामान्यतया बुरी आदतों के सुधार से लिया जाता है। यहाँ भी इन्हीं पर विचार किया जाना है। मनुष्य में अच्छी-बुरी दोनों ही तरह की आदतें होती हैं वह स्वभाव शून्य रह नहीं सकता। इसलिये विचारणीय प्रश्न यह है कि बुराइयों का सुधार या निष्कासन किस तरह किया जाय। स्वभाव की गहराइयों में प्रविष्ट आदतों का सुधार करना होता भी कठिन है। वैज्ञानिक सत्य है कि मन के अभ्यास में जो आदतें पड़ जाती हैं वे बुरी ही क्यों न हों वह उन्हें छोड़ना नहीं चाहता। पर चूँकि उनसे शारीरिक, आर्थिक या नैतिक हानि होती है, कष्ट मिलता है या लज्जा का अनुभव होता है अतः लोग उनसे बचना भी चाहते हैं। इसके लिये कुछ लोग संकल्प भी लेते हैं, सौगन्ध भी खाते हैं तो भी बात निभती नहीं और इन्द्रियों की अभ्यासगत् उत्तेजना के आगे उन्हें परास्त हो जाना पड़ता है।

साधारण काम-काज की आदतों में जो बुराइयाँ होती हैं उन्हें तो लोग आसानी से सुधार सकते हैं। घर में झाडू लगाना, कपड़े धोना, दातौन करना, प्रातःकाल उठना, मालिश करना, टहलना आदि इनमें कुछ देर के लिये तात्कालिक प्रसन्नता का अनुभव भी होता है अतः ऐसी स्वाभाविक कमजोरियों को ठीक करने में कुछ अधिक श्रम करना नहीं पड़ता। घर का सामान ठीक-व्यवस्थित ढंग से रखना, टाइम से सो जाना, कम बातें करना, यह आदतें ऐसी हैं जिन्हें मामूली सावधानी से भी ठीक किया जा सकता है। शरीर-सम्बन्धी कई छोटी-छोटी आदतें, बच्चों के साथ, धर्म-पत्नी के साथ व्यवहार, बर्ताव में यदि थोड़ी सावधानी ही रखें तो उससे अनेकों कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं।

हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि आदतों का निर्माण मनुष्य स्वयं करता है। अतः आदतों के सुधार में विवशता प्रकट करना उचित नहीं है। अँगरेज कवि ड्राइडेन का कथन है “मनुष्य पहले आदतें बनाता है बाद में आदतें मनुष्य को बनाती हैं।” इस कथन से यही शिक्षा मिलती है कि आदतों के निर्माण में मनुष्य पूर्ण स्वतंत्र है अतः कुछ आदतों का सुधार मनुष्य स्थानापन्न सिद्धान्त से कर सकता है। गिलास में भरी हुई हवा को निकालने का सबसे अच्छा तरीका है उसमें पानी भर दिया जाय। साइकिल का ट्यूब फट रहा होता है तो साइकिल चालक उसकी हवा निकाल देते हैं। बिजली घरों में शक्ति मात्रा से अधिक होकर मशीन पर विपरीत प्रभाव न डाले इसके लिये एक तार जमीन में गाड़ देते हैं। अनावश्यक आदतों के स्थान पर यदि कुछ उपयोगी और मूल्यवान् आदतों को बदला जा सके तो कुछ गन्दी आदतें सुविधापूर्वक छूट सकती हैं। सिनेमा में धन बरबाद करने की अपेक्षा उपयोगी पुस्तकें, चरित्र निर्माण की कहानियाँ, महापुरुषों के जीवन चरित्र, कथानक-काव्य आदि से भी वही आनन्द मिल सकता है जो सिनेमा से मिल सकता था। इतना ही नहीं यह लाभ अधिक ठोस और रचनात्मक होगा। इससे मन और बुद्धि का विकास भी होगा। यदि कोई मनुष्य अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहता है तो उसे चाहिये कि वह अपनी बुरी आदतों से छुटकारा पाने का प्रयत्न करे। उसके लिये यह उपाय कहीं अधिक अच्छा है कि अपना भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिये अच्छी आदतों का अभ्यास करे। स्वाध्याय, सत्संग, भ्रमण, स्वास्थ्य-संवर्द्धन, प्रेमालाप, मैत्री आदि सद्गुणों का विकास करने से कई बुराइयाँ अपने आप छूट जाएंगी, कई दूर बनी रहेंगी।

बुरी आदतों को छोड़ना कठिन भले ही हो पर बिलकुल असंभव नहीं। किसी बुरी आदत से मुक्ति की दिशा में सबसे पहले यह आवश्यक है कि मनुष्य के मन में सुधार की तीव्र आकाँक्षा हो। यह इच्छा जितनी बलवती होगी उतना ही संकल्प दृढ़ होगा, मनोबल बढ़ा हुआ होगा। देखा गया है कि आवेश में आकर लोग सिगरेट आदि पीना छोड़ देते हैं पर उनका मनोबल इतना कमजोर होता है कि इन्द्रियों की हड़क उठते ही वे अपने पुराने ढर्रे में आ जाने के लिये मजबूर हो जाते हैं। हमें यह जानना चाहिये कि किसी भी महत्वपूर्ण कार्य का सम्पादन सच्ची आकाँक्षा से ही होता है। इसके बिना कुछ भी संभव नहीं। आदतों को बदलने के लिये भी दृढ़ मनोबल की आवश्यकता है। संकल्प की अजेय शक्ति से ही दुष्ट आदतों का निवारण हो सकता है। इस बात की गाँठ बाँध लेनी चाहिये।

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक प्रोफेसर विलियम जेम्स से किसी व्यक्ति ने ऐसी ही शिकायत की और उस बुरी आदत से छूटने का उपाय पूछा तो उन्होंने कहा “किसी आदत को तोड़ने के लिये मनुष्य को पूरे मन से निश्चय करना चाहिये और इस निश्चय को क्रियान्वित करते समय एक भी अपवाद नहीं आने देना चाहिये।”

जो लोग बुराई को धीरे-धीरे खतम करने की बात कहते हैं वे यथार्थतः पूर्ण निश्चय से परे होते हैं। उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार उनके संकल्प में अपवाद बना रहता है। धीरे-धीरे छोड़ेंगे—इसका अर्थ है चित्त अभी दुविधा की स्थिति में है वह छोड़ भी सकता है और नहीं भी। इस स्थिति के रहते हुये कोई महत्वपूर्ण सफलता नहीं मिल सकती। मन बहलाव या बाल-बुद्धि के लोगों को समझाने के लिये कोई ऐसा भले ही कह दे पर सच बात तो यही है कि आदतों का सुधार पूर्ण इच्छा से किया जाना चाहिये।

इस सम्बन्ध में एक सुभीता यह हो सकता है कि जिस बुराई को छोड़ना चाहते हैं उसके सम्बन्ध में सदैव उन हानियों पर विचार किया करें जो उस स्वभाव के कारण पैदा होतीं या हो सकती हैं। तम्बाकू-पान खाने वाले यह सोच सकते हैं कि इससे फेफड़े खराब होंगे, रक्त अशुद्ध होगा, पाचन-क्रिया पर दूषित प्रभाव पड़ेगा। इससे मुँह तथा फेफड़े का कैन्सर हो सकता है। मुँह से बदबू आती है इत्यादि। इस तरह के विचार करने लगेंगे तो कितनी ही अव्यक्त हानियाँ भी समझ में आने लगेंगी और उस बुराई से बचना आसान हो जायगा।

जिन नशों की आपको आदत पड़ी हो उनके बारे में ऐसी कल्पना कीजिये कि वह आपके पेट पर बुरा असर डालते हैं, स्नायु-संस्थान को शिथिल करते हैं, आँखों की ज्योति नष्ट करते हैं और वीर्य को निर्बल बनाते हैं, तो आपके अन्तःकरण से उसके प्रति घृणा उत्पन्न होगी। बुराइयों के बुरे पहलू को जब तक नहीं देखते तब तक घृणा उत्पन्न नहीं होती। वासना से उत्पन्न शारीरिक दुर्बलता का ध्यान पहले से हो जाय तो काम-प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जाना संभव हो सकता है। जिस तरह बुरी आदत से उत्पन्न बुरे परिणामों का चिन्तन करने से उसके प्रति घृणा उत्पन्न होती है उसी तरह उससे छुटकारा मिलने पर होने वाले लाभों का चिन्तन करना आनन्द का विषय भी बनाया जा सकता है। सिगरेट पीना छूट जायगा तो प्रतिदिन 40 पैसे बचेंगे। एक महीने में 7॥ रुपये और एक वर्ष 84 रुपये बचेंगे। इस तरह की बचत यदि 10 वर्ष की तो पोस्ट आफिस में 900 रुपये की रकम जमा हो सकती है। इसका ब्याज जो बनेगा सो अलग। इसी तरह शरीर स्वस्थ रहेगा। खाँसी नहीं आयेगी। बीमारी का भय नहीं रहेगा। फेफड़े शुद्ध रहेंगे। इन सारे लाभों पर आप प्रसन्नता व्यक्त करते रहिये तो बुराई छोड़ने से उत्पन्न मानसिक अस्थिरता आपको तंग नहीं करेंगी। वरन् आपको अपने उद्देश्य में सफल हो जाने की प्रसन्नता ही अनुभव होगी।

आदत बदलने की यह क्रियायें पूर्णतया मनोवैज्ञानिक हैं। इनका उपयोग यदि स्व-संशोधन में किया जा सके तो मनुष्य बुराइयों को दूर करने में आशाजनक सफलता प्राप्त कर सकता है। यह कहते रहने से किसी समस्या का हल नहीं निकलता। उसके लिये रचनात्मक कदम भी उठाने पड़ते हैं तभी कुछ लाभ दिखाई दे सकते हैं। अपनी आदतों का सुधार कर जो आत्म-निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त होते हैं उनका जीवन सुखी और समुन्नत भी होता है। हमें भी अपने जीवन के पुनर्निर्माण पर सदैव गम्भीर दृष्टि रखनी चाहिये।


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