निष्ठा का पुतला—महान वैज्ञानिक एडीसन

January 1966

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आज जो हमें तार, टेलीफोन, ग्रामोफोन, चलचित्र, प्रोजेक्टर तथा बिजली के चमत्कार दिखाई दे रहे हैं इनमें वास्तव में अमेरिका के एक वैज्ञानिक एडीसन की लगन, यत्न तथा कार्य कुशलता की विशेषतायें मूर्तिमान हो रही हैं। वह एडीसन, जिसे इस समय लोग जादूगर कहा करते हैं और जिसे ठीक से पेट भर भोजन भी न मिला करता था।

एडीसन का जन्म एक बहुत ही साधारण अमेरिकन परिवार में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के ओहिबो प्रान्त के सलान नगर में 11 फरवरी 1847 ई. को हुआ था। एडीसन के माता-पिता की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि उसको किसी स्कूल में पढ़ाया जा सके। उसकी माता ने ही अपनी योग्यता के अनुसार उसे घर पर ही कुछ शिक्षा दी थी। किन्तु अत्यधिक कार्य व्यस्तता तथा परिश्रम के कारण जब उसकी माता को पढ़ाने के लिये समय की कमी रहने लगी तब उसने अनेक लोगों से कह सुनकर उसे एक स्थानीय पाठशाला में भरती करा दिया। लेकिन माता का यह सारा प्रयत्न व्यर्थ चला गया। एडीसन का मन पढ़ाई में न लग सका। वह स्कूल जाता और बुत जैसा बैठा रहता और न जाने क्या-क्या सोचता रहता। अध्यापकों ने उसकी शिकायत माँ से की और माँ ने हताश होकर उसे पाठशाला से उठा लिया।

स्कूली शिक्षा से मुक्त होकर एडीसन ने धीरे-धीरे यह सिद्ध करना शुरू कर दिया कि वह संसार में स्कूल की कुछ कक्षायें पास करने के लिये नहीं आया बल्कि अपने पुरुषार्थ, प्रयत्न तथा एकाग्र निष्ठा का सुफल वैज्ञानिक आविष्कारों के रूप में संसार को देने के लिये आया है।

उसने अपने घर से कुछ दूरी पर कुछ झाड़-झंखाड़ जोड़कर अपनी एक छोटी-सी प्रयोगशाला बनाई और अपने वैज्ञानिक कार्यों में लग गया। वह दिन का अधिकाँश समय अपनी प्रयोगशाला में ही लगाता। अपनी लगन की धुन में उसे खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती। कभी यदि माँ आ गई तो भोजन खा लिया या किसी दिन समय से घर जा पहुँचा तो माँ ने वहाँ खिला दिया। अन्यथा एडीसन का खाने-पीने से कोई सम्बन्ध नहीं रहा।

ऐसा नहीं कि वह कोई सिद्ध अथवा चमत्कारी पुरुष था जिससे उसे भूख-प्यास लगती ही नहीं थी, बल्कि वास्तविकता यह थी कि वह अपने प्रयोगों में इस सीमा तक डूबा रहता था कि उसे इसका ध्यान ही न रहता था। भूख-प्यास भोजन न मिलने पर शरीर को निर्बल बना देती है किन्तु जब तल्लीनता-वश मनुष्य इनका अनुभव ही नहीं कर पाता तब उसके शरीर पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। सच्चा कर्मयोगी वास्तव में रोटी से नहीं अपने कार्य की बदौलत जीता है। जिसे काम करने को चाव है जिसे परिश्रम से प्रेम तथा कुछ विशेष करने की लगन लगी है, यदि उसे कर्म क्षेत्र से हटा कर भोजन भंडार में रख दिया जाये तो अवश्य ही वह दिन-दिन क्षीण होता हुआ निर्बल हो जायेगा और यदि भोजन की अपेक्षा उसे अधिक से अधिक काम मिलता रहे तो उसका स्वास्थ्य बहुत अंशों तक ठीक रहेगा।

एडीसन की वैज्ञानिक बुद्धि का जागरण जादूगरी दिखाने वाले लोगों के प्रदर्शित अचम्भे से हुआ। उसने जादूगरों के खेल देखे और उनको समझने का प्रयत्न किया। यद्यपि प्रारम्भ में कोई बात उसकी समझ में नहीं आई तो भी वह जादूगरों के कामों को अलौकिकता से न जोड़ सका, उसको सदैव यह विश्वास बना रहा कि अवश्य ही इन चमत्कारों के पीछे इन जादूगरों की कोई चतुरता काम कर रही है। वह निरन्तर उनको जानने के प्रयत्न में लगा रहा और आखिर में बहुत-सा जानकर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि संसार में चमत्कार नाम की कोई वस्तु नहीं है। यह सब मनुष्य के विवेक तथा बुद्धि की ही विलक्षणता होती है जो अनजान लोगों को चमत्कार जैसी दिखती है। जिनकी बुद्धि सजग है, जो किसी अनजानता को जानने का उत्सुक है और अन्ध-विश्वासों से जड़मति नहीं हो गया है। वह किसी विलक्षणता को देखकर भौंचक्का होने के बजाय उसका रहस्य पता करने का प्रयत्न करता है, और जब तक पता नहीं कर लेता अपने प्रयत्न से विरत नहीं होता। मनुष्य की विवेक बुद्धि में संसार के सारे रहस्य छिपे रहते हैं और जो उनको पता करने में ईमानदारी के साथ लग जाता है वह अपने उद्देश्य में अवश्य कृत-कृत्य हो जाता है।

जिस प्रकार एडीसन की वैज्ञानिक बुद्धि का जागरण जादूगरों के चमत्कार देखने से हुआ उसी प्रकार उसके वैज्ञानिक प्रयोग एक मूर्खता से प्रारम्भ हुये। सिडिलित्स नाम का एक पाउडर होता है जो गरमी पाकर गैस के रूप में बदल जाता है, और गैस का धर्म है ऊपर उठना और साथ में सामर्थ्य भर अपने पात्र को उड़ा ले जाना। एडीसन ने वह पाउडर एक आदमी को यह देखने के लिये खिला दिया कि पेट में गैस बनने से वह आदमी गुब्बारे की तरह ऊपर उड़ता है या नहीं। आखिर अमेरिका का वह भावी वैज्ञानिक उस समय बच्चा ही था। प्रयोगों की सनक में वह मूर्खता क्यों न करता? यह घटना जहाँ एडीसन की मूर्खता व्यक्त करती है वहाँ आत्म-विश्वास पूर्ण आधारित प्रयोग जिज्ञासा को भी प्रकट करती है, जिसने आगे चलकर उसके बड़े-बड़े प्रयोगों की सफलता में बड़ी सहायता की।

समाज तथा सरकार ने उस बाल-वैज्ञानिक की मूर्खता क्षमा नहीं की। उसकी प्रयोगशाला उखाड़कर फेंक दी गई और उसे पर्याप्त दण्ड दिया गया। यही नहीं उसके घर वालों ने भी उसे एक खतरनाक लड़का समझकर घर से निकाल दिया। तो अब क्या ऐसी विषम स्थिति में वह किसी एकान्त कोने में बैठकर रोता। हाँ वह रोता अवश्य यदि उसकी लगन झूठी होती, उसका उत्साह छुई-मुई और उसकी जिज्ञासा आत्म-प्रवंचना होती। जब वह मन प्राण से ईमानदार रहकर संसार को कुछ देना चाहता था तो भला वह इस धक्के से निराश होकर रोता क्यों। ऐसे न जाने कितने धक्के, कितने झटके और कितनी असफलताएँ जीवन में आवेंगी। तब भला यदि वह यों ही रोने के लिए बैठने लगा तब तो वह प्रयोग कर चुका और दे चुका संसार कोई अनुपम उपहार।

प्रयोगशाला उखाड़ फेंकी गई—घर से निकाल दिया गया—न खाने का ठीक और न रहने का ठिकाना —किन्तु उत्साही एडीसन ने जमीन के नीचे एक तहखाने में अपनी प्रयोगशाला बना ली और रेलों पर अखबार बेच कर अपनी जीविका चलाने लगा।

धीरे-धीरे एडीसन ने अपने प्रयोगों के साथ- साथ अपने व्यवसाय का विकास भी करना शुरू कर दिया। अब वह जिस प्रेस से अखबार लाता वहाँ थोड़ी देर ठहर कर कार्य विधि देखता और छपाई की कला सीखता। छपाई कार्य शिल्प सीखने के लिये उसने छापा खाने का बहुत-सा काम बिना कोई पारिश्रमिक लिये किया। एडीसन को अपनी क्षमताओं पर पूर्ण विश्वास था कि कुछ समय परिश्रम का उत्सर्ग करने के बाद वह छपाई का एक ऐसा काम जान जायेगा जो जीवन भर उसको लाभ पहुँचाता रहेगा, और हुआ भी ऐसा ही। उसका त्याग फलीभूत हुआ। उसने उस गाड़ी पर एक छोटा-सा छापाखाना लगा लिया और स्वयं अपना अखबार छापने लगा। उसकी रोटी की समस्या एक अच्छे स्तर पर हल हो गई।

बुद्धिमान एडीसन ने अपनी आय को खाने-उड़ाने में नहीं खोया बल्कि मितव्ययता के साथ बचा-बचाकर अपनी प्रयोगशाला को उन्नत एवं उपकरण पूर्ण बनाना प्रारम्भ कर दिया। एक व्यवस्थित विधि से जीवन में जो क्रमिक विकास होता है वह सदैव ही स्थिर रहता है और उसमें दिन-दिन सफलता के फल लगते रहते हैं।

एडीसन की प्रयोगशाला तहखाने में और छापाखाना रेलगाड़ी में था, इसलिये उन दोनों आवश्यक उद्योगों की व्यवस्था ठीक न हो पाती। अतएव उसने प्रयोगशाला को भी रेल के एक डिब्बे में लाकर समस्या हल कर ली। इस प्रकार श्रम तथा समय का अपव्यय बच जाने से वह निश्चिन्त होकर अपने प्रयोगों में लग गया।

यह निश्चित है कि वैज्ञानिक प्रयोग कभी भी एक बार में सफल नहीं होते। उनमें असफलता तथा त्रुटियाँ होतीं और सुधरती रहती हैं। उसके प्रयोग चलते रहे। किन्तु इसी बीच जब वह फास्फोरस के साथ कुछ प्रयोग कर रहा था तभी गाड़ी के झटके से फास्फोरस की शीशी गिरकर फूट गई जिससे डिब्बे में आग लग गई। बड़ी भाग-दौड़ मची। आग तो कुछ पार्सल जलाकर बुझ गई किन्तु रेलवे अधिकारियों ने एडिसन की पूरी प्रयोगशाला मय छापाखाने को उठाकर बाहर फेंक दिया।

एडिसन की प्रगति पर यह दूसरा आघात था। किन्तु वह फिर भी हताश न हुआ और फिर लौटकर अपने अखबार बेचने के व्यवसाय पर आ गया। प्रगति पथ पर कुछ दूर तक बढ़ जाने के बाद पीछे लौटना एक बहुत दुखद संयोग है जिसके आघात से किसी का चल-विचल होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। किन्तु जो प्रगति पथ के सच्चे राही हैं वे एक क्या हजार बार पीछे आकर आगे बढ़ते हैं और ऐसे ही साहसी शूरो को प्रकृति की सहायता भी मिला करती है।

एडीसन प्लेटफार्म पर अखबारों का बंडल लिये खड़ा था और गाड़ी दौड़ती चली आ रही थी। तभी उसकी दृष्टि सामने पटरी पर खेलते हुए स्टेशन मास्टर के बच्चे पर पड़ी। गाड़ी आ ही चुकी थी और बच्चे के बचने की कोई सम्भावना न थी। किन्तु साहसी एडीसन ने तत्काल बंडल फेंका और बालक की प्राण रक्षा में अपने प्राणों को संकट में डालकर बिजली की तरह दौड़कर उसे उठा लाया।

बच्चा स्टेशन मास्टर का था। उस स्टेशन मास्टर का जिसने उसका छापाखाना तथा प्रयोगशाला फिंकवा दी थी। एडीसन यह जानता था, पर क्या वह उसका बदला उस अबोध बच्चे से लेता? अपनी उस मानवता को द्वेष की निकृष्ट वेदी पर बलिदान कर देता जिसने उसे उस बच्चे के प्राण रक्षा के लिये प्रेरित किया था?

एडीसन का पुण्य फलीभूत हुआ। बच्चे की प्राण रक्षा करके उसने स्टेशन मास्टर और उसके परिवार को दुखद सम्भावना से बचाकर जो उपकार किया था वह फल दिया। उपकृत स्टेशन मास्टर ने उसे तार की शिक्षा देकर उसी स्टेशन पर सहायक तार बाबू बना लिया।

यहाँ भी एडीसन ने सोचना, समझना और प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया और एक ऐसा यन्त्र तार की क्रिया में जोड़ दिया जो समय पर स्वयं ही तार खटखटा दिया करता था। एडीसन को समय के साथ विश्राम मिलने लगा जिसका सदुपयोग करके उसने उसी तारतम्य से एक ऐसी फीता-मशीन का आविष्कार कर डाला जिससे भेजा हुआ सम्वाद गन्तव्य स्थान पर एक फीता-पट्टी पर स्वयं छप जाया करता था।

यह एक महत्वपूर्ण आविष्कार था। एडीसन ने अपने को पहचाना अपने महान मस्तिष्क का परिचय पाया और नौकरी छोड़ दी।

जिस समय वह आविष्कारों के लिये एक बड़ा क्षेत्र पाने तथा अधिक साधनों के लिये न्यूयार्क आया उस समय उसके पास एक पैसा भी नहीं था। ‘गोल्ड इन्डीकेटर’ कम्पनी का वह तार यन्त्र खराब हो गया जिससे दलाल लोग व्यापारियों को सम्वाद भेजा करते थे। एडीसन ने यन्त्र ठीक किया जिसके फलस्वरूप वह उस कम्पनी के तार घर का मैनेजर बना दिया गया।

कम्पनी का सहारा पाकर एडीसन ने यूनीवर्सल प्रिंटर नामक एक मशीन बनाई जो आगे चलकर उसके नाम पर ‘एडीसन यूनीवर्सल प्रिंटर’ कही जाने लगी। इस आविष्कार पर कम्पनी के अध्यक्ष ने उसे चालीस हजार डालर का पुरस्कार दिया।

धन की प्रचुर सुविधा पाकर एडीसन ने एक साधन सम्पन्न प्रयोगशाला बनाई और उसमें नये-नये प्रयोग करने लगा। उसने बिजली के एक ही तार पर अनेक सम्वादों के जाने-आने की व्यवस्था बनाई, टेलीफोन यन्त्र का सुधार तथा परिष्कार किया, लाउडस्पीकर बनाया और ग्रामोफोन का आविष्कार कर संसार में हलचल पैदा कर दी।

चित्रपट पर दिखाये जाने वाले चल-चित्रों के लिये ‘स्लोलाइट’ की रील तथा चित्र-प्रदर्शन के लिये प्रोजेक्टर का निर्माण किया, एक्सरे का आविष्कार करने के साथ जल युद्ध में काम आने वाले बहुत से उपकरण तथा अन्य यन्त्र बनाये।

इस प्रकार अपनी बुद्धि, लगन तथा निष्ठा के बल पर मानव जाति की सुख-सुविधा की व्यवस्था में जीवन के 84 वर्ष लगाकर महान आविष्कार कर टाँमस अल्वा एडीसन 18 अक्टूबर 1931 ई. को स्वर्ग सिधार गया। एडीसन आज संसार में नहीं है किन्तु बिजली के बल्ब और चलचित्रों का चमत्कार अन्य आविष्कारों के साथ उसकी यश गाथा युग-युग तक गाते रहेंगे।

युग-निर्माण आन्दोलन की प्रगति

पाँच सामाजिक कार्यक्रम

जो इसी मास कार्यान्वित होने चाहिए।

अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों को अपने कन्धों पर आये हुए नव निर्माण के उत्तरदायित्वों को अधिक तत्परता एवं श्रद्धा के साथ सँभालना चाहिए। यों स्वभावतः इस संगठन के अंतर्गत वे ही लोग एकत्रित हुए हैं, जिन में पूर्व जन्मों के संचित कुछ विशेष संस्कार विद्यमान हैं और जो अपने इस मानव-जीवन को ईश्वर की महान अनुकम्पा मानकर उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग के लिए प्रयत्नशील हैं।

सामान्य स्तर के लोग वासना और तृष्णा के गोरखधन्धे में उलझे हुए किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करते हैं। मानव-जीवन के अनुपम सौभाग्य का सदुपयोग कर भविष्य उज्ज्वल बनाने की बात कभी उनके मन में उठती ही नहीं, पाशविक इच्छा आकांक्षाएं ही उनके इस सौभाग्य का अपहरण कर लेती हैं, जैसे खाली हाथ आये थे वैसे ही खाली हाथ चले जाते हैं, वरन् बहुत करके गुनाह और पापों की दुखदायी गठरी ही सिर पर बाँध ले जाते हैं। ऐसे लोगों के साथ रहते हुए भी जिनके अन्तःकरण में आत्म-कल्याण, परमार्थ, लोक मंगल एवं मानवीय कर्तव्यों की पूर्ति की उमंगें उठती रहती हैं उन्हें भाग्यवान ही कहना चाहिए। अखण्ड-ज्योति परिवार ऐसे ही भाग्यवानों का समूह- संगठन है।

निस्संदेह अगला समय बहुत ही प्रकाशवान आ रहा है। अँधियारी रात अब समाप्त होने ही वाली है, ऊषाकाल निकट है। नवयुग का प्रभात उगने ही वाला है। इस अरुणोदय के स्वागत सत्कार का श्रेय जिन्हें मिलने वाला है उनका मानव-जीवन सार्थक ही कहा जायेगा। राम राज्य आने वाला था, उसकी भूमिका सम्पादन में रीछ, वानरों को श्रेय सुयोग मिला उन्हें धन्य ही कहना चाहिए। भारत स्वाधीन होने वाला था, उसकी पूर्व भूमिका बनाने में योगदान दिया वे इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में अंकित रहेंगे। जन-श्रद्धा की पुष्पाञ्जलियाँ सदा उनके चरणों पर बिखरती रहेंगी। उन्हें बेशक कुछ कष्ट उठाने पड़े, त्याग करने पड़े पर जो लोग ऐसे उदार कार्यों से दूर रहते हैं उन्हें ही कौन सदा सुख-समृद्धि का उपयोग मिलता है। स्वार्थी और संकीर्ण जीवन बिताने वाले भी एक से एक बढ़कर कष्ट सहते और हानि उठाते हैं। ऐसे शोक सन्ताप से भरे संसार में जिसने देश-धर्म के लिए कुछ त्याग किया, कष्ट सहा उन्हें दूरदर्शी एवं बुद्धिमान ही कहा जायगा। हमारा परिवार ऐसे ही दूरदर्शियों और उदार चेतना, प्रबुद्ध व्यक्तियों का समुदाय है। ऐसा देव समाज संगठित होना, समस्त मानव समाज के लिये एक आशा, उल्लास एवं सन्तोष का विषय ही माना जायगा।

अखण्ड-ज्योति का 26 वर्ष से पय-पान करते रहने के कारण परिजनों को अपने कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्व का समुचित ज्ञान है, और उस ज्ञान को वे कर्म रूप में भी परिणित कर रहे हैं। ज्ञान की महत्ता कर्म की परिणति में ही है। कर्म रहित धर्म तो विडम्बना मात्र है। जिनने धर्म के तत्व को समझा है वे कर्म के महत्व को भुला नहीं सकते। शूरवीर बात कम और काम अधिक करते हैं। हम लोगों के सम्मुख एक विशाल कार्यक्रम है। जिससे आत्म-कल्याण और लोक मंगल के दोनों लक्ष्य पूरे होते हैं। युग निर्माण योजना आज के युग की व्यक्ति और समाज की— आवश्यकताएं पूरी करने वाली एक सर्वोत्तम साधना है। इसमें जहाँ व्यक्ति जीवन में आत्म-सन्तोष, आन्तरिक आह्लाद, शरीर और मन की स्वस्थता चिरस्थायी यश, परमार्थ का पुण्य, परिवार की उत्कृष्टता, स्वर्ग एवं मुक्ति की आशा और ईश्वर के अपार प्यार का सौभाग्य मिलना निश्चित है वहाँ सामाजिक रूप से देश, धर्म, समाज एवं संस्कृति की सेवा भी कम नहीं। युग निर्माण की साधना करते हुए हम स्वयं ही पार नहीं होते वरन् साथ ही असंख्य लोगों को भी अपने साथ ही पार कराते हैं। ऐसा उभय पक्षीय स्वर्ण सुयोग शायद ही किसी अन्य कार्य-पद्धति को अपना कर कोई प्राप्त कर सके।

सन्तोष की बात है कि अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्य अपनी साधना में श्रद्धा एवं निष्ठापूर्वक लगे हुए हैं। युग निर्माण योजना के शतसूत्री कार्यक्रम अपने-अपने ढंग से, अपनी-अपनी जगह चला रहे हैं। फिर भी बार-बार प्रोत्साहन एवं उद्बोधन की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि यदि कहीं कुछ शिथिलता आने लगी हो तो वह दूर हो जाय। कुछ सदस्य ऐसे भी हो सकते हैं जिनने परिवार में अभी नया प्रवेश किया हो और यह अनुभव न किया हो कि अखण्ड-ज्योति के पन्ने पढ़ना ही नहीं, वरन् एक प्रबुद्ध परिवार के सम्मान्य सदस्य होने के नाते कुछ विशेष कर्तव्य पालन करने का उत्तरदायित्व भी उन पर है। ऐसे लोगों के लिए भी सामयिक उद्बोधन की अपेक्षा रहती है। इस स्तंभ के अंतर्गत हर अंक में ऐसा ही प्रेरणा प्रकाश उद्बोधन एवं मार्ग दर्शन प्रस्तुत किया जाता रहता है, और आशा की जाती रहती है कि उसे पढ़ा ही नहीं जायगा वरन् समझा, विचारा, स्वीकारा एवं कार्यान्वित भी किया जायगा।

इस महीने हम में से प्रत्येक को निम्नलिखित पाँच कार्यक्रमों पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिये और जहाँ कहीं इस सम्बन्ध में शिथिलता बढ़ती जा रही हो वहाँ उसे तुरन्त पूरा कर लेना चाहिए।

(1) इस वर्ष की शक्ति साधना— अखण्ड- ज्योति परिवार की ओर से प्रति मास 24 करोड़ गायत्री महापुरश्चरण का एक महान अभियान चल रहा है। देश पर शत्रुओं के आक्रमण को निरस्त करने के लिये जहाँ शस्त्र एवं सुरक्षा साधनों की आवश्यकता है वहाँ इस संदर्भ में किये गये आध्यात्मिक उपचार भी कम महत्वपूर्ण नहीं। ‘क्लीं’ बीज मन्त्र युक्त गायत्री पुरश्चरण जहाँ शत्रुओं की दुष्टता को निरस्त करेगा वहाँ देश में सर्वतोमुखी शक्ति एवं जागृति का भी विकास होगा। हमें एक वर्ष तक इस शक्ति साधना में किसी न किसी प्रकार भाग लेते ही रहना चाहिये। प्रति परिवार पीछे आठ माला प्रतिदिन करने से हर महीने 24 हजार का एक अनुष्ठान हो सकता है। प्रयत्न उसी के लिये किया जाय पर ऐसा न बन पड़े तो भी एक माला तो हम में से हर एक को उपरोक्त प्रयोजन के लिये करनी ही चाहिये। जहाँ अभी वह क्रम न चला हो वहाँ इस अंक के पहुँचते ही आरम्भ कर दिया जाना चाहिये।

(2) आत्म निरीक्षण-जीवन निर्माण —प्रातः उठते समय और रात को सोते समय, आत्म-निरीक्षण करने का क्रम नियमित रूप से चलाना चाहिये। अपने आप से नित्य ही प्रश्न करना चाहिये कि हमारी शारीरिक एवं मानसिक गतिविधियाँ उत्कृष्टता की ओर योजना-बद्ध रूप से बढ़ रही हैं या नहीं? आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। ढीला-पोला स्वभाव अपने भविष्य को ही अन्धकारमय बनाता है। इन दोषों को कड़ाई के साथ हटाना चाहिये और अपनी दिनचर्या इस प्रकार निर्धारित करनी चाहिये जिससे आजीवन उपार्जन ही नहीं, उपासना एवं लोक मंगल के कार्यों के लिये भी समुचित भावना रहे। डायरी लिखना आरम्भ कर दें। प्रातः अपनी शारीरिक एवं मानसिक गतिविधियों की दिनचर्या बनावें। समय और पैसे का बजट बनाकर खर्च करें। अपने भीतर जो दोष-दुर्गुण दिखाई दें, उन्हें क्रमशः घटावें और सद्गुणों का क्रमिक विकास करने के लिये सचेष्ट रहें। जीवन को अस्त-व्यस्त एवं फूहड़ ढंग से न जिएँ वरन् ऐसी गतिविधि अपनावें मानो साधनात्मक जीवन ही जिया जा रहा हो। थोड़ी-सी सतर्कता एवं दृढ़ता बरतने लगा जाए तो कुछ ही दिनों में ऐसा ढर्रा बन जाता है। उपासना का ही एक आवश्यक अंग जीवन साधना भी है। भजन के साथ ही हमें जीवन शोधन की प्रक्रिया भी अनिवार्य रूप से जोड़ लेनी चाहिये। दोनों पहिये की गाड़ी ही आध्यात्मिक प्रगति का प्रयोजन पूरा करेगी। अस्त-व्यस्त जीवन रखते हुये, केवल भजन के सहारे आध्यात्मिक प्रगति नहीं हो सकती, इस तथ्य को हमें भली प्रकार हृदयंगम कर लेना चाहिए और आत्म-कल्याण का लक्ष प्राप्त करने के लिए आत्म-निर्माण एवं जीवन-निर्माण की साधना पूरी श्रद्धा एवं तत्परता के साथ चलानी चाहिए। हमारा जीवन क्रम दूसरों के लिए आदर्श एवं अनुकरणीय ही होना चाहिए।

(3) नियमित समय दान-अनुदान —अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रायः सभी प्रबुद्ध सदस्यों ने “एक घंटा समय और एक आना नित्य” नव निर्माण प्रयोजन के लिये नियमित रूप से लगाते रहने की प्रतिज्ञा की है। यह व्रत जिन्होंने अभी न लिया हो उन्हें अब ले लेना चाहिए। वह छोटा त्याग किसी भी भावनाशील व्यक्ति के लिए यह कोई बड़ा काम नहीं है। 23 घंटा अपने निज के काम में लगाते हैं तो एक घंटा परमार्थ प्रयोजन के लिए भी लगाना चाहिए। अपनी आजीविका का सारा उपयोग अपने लिये करते हैं तो एक आना जन-जागरण महान ज्ञान यज्ञ में भी लगाना चाहिये। हमारी भावनाओं की सचाई एवं गहराई की यह जो छोटी परीक्षाएं हैं, उनमें हमें उत्तीर्ण ही होना चाहिये। भावनात्मक उत्कृष्टता का प्रमाण उदार गतिविधियों में ही देना होता है। आज छोटी-सी कसौटी सामने प्रस्तुत होने पर बगलें झाँकना या बहाने बनाना उचित न होगा। इतना साहस तो हम में से हर एक को करना ही चाहिए।

यह समय और धन जिस कार्य के लिये निश्चित निर्धारित है उसे उसी में लगाना चाहिये। गंगा स्नान में लगे समय को और गाय को घास खिलाने के लिये खर्च हुए धन को, अखण्ड-ज्योति परिवार के नव-निर्माण उद्देश्य की पूर्ति के लिये आरम्भ किये गये ज्ञान यज्ञ में सम्मिलित न किया जा सकेगा। अन्य कार्यों के लिये अपना अलग समय या धन लगाया जाय। यह एक घंटा समय और एक आना नित्य का अनुदान तो विशुद्ध रूप से जन-जागरण के लिये, विचार क्रान्ति के लिये है। दो हजार वर्षों के अज्ञान अन्धकार के युग में से गुजरने के कारण आज हमारी विचार-पद्धति बुरी तरह अस्त-व्यस्त, विकृत लगभग उलटी हो गई है। इसे प्राचीनकाल जैसी—भारतीय संस्कृति के अनुरूप —सही किये बिना, प्रगति का एक भी प्रयोजन पूरा न हो सकेगा। भौतिक प्रगति का तभी कोई लाभ है जब साथ ही आध्यात्मिक सुव्यवस्था भी बनी रहे। हमें लोक मानस के संशोधन एवं परिष्कार में ही अपना यह समय और धन लगाना चाहिये।

अपने परिजनों में से जो भी विचारशील, भावनाशील हों उनसे संपर्क बनाने के लिये यह एक घंटा निर्धारित रहे। भले ही उन्हें अपने पास बुलाये, भले ही स्वयं उनके पास जायें, यह एक घंटा समय ज्ञान-चर्चा के लिये जन संपर्क बनाने में खर्च होना चाहिये। मानव-जीवन में प्रस्तुत वर्तमान कालीन कुँठाओं एवं विकृतियों पर हमें जी खोलकर बातें करनी चाहिए। जन-मानस की उलझी-उलटी विचारणाओं को सही करना चाहिये। चर्चा से जितना बन पड़े वह चर्चा से करना चाहिये। अन्यथा इसी प्रयोजन के लिये प्रस्तुत जन-जागरण साहित्य को पढ़ाने के लिए—सुनाने के लिए—लोगों को विवश कर यह प्रयोजन पूरा करना चाहिए। इस प्रयोजन के लिए 20 न. पै. सीरिज के सर्वांग सुन्दर और लागत से भी कम मूल्य के ट्रेक्ट छापे जा रहे हैं। अब तक 30 छप चुके हैं आगे भी छपने वाले हैं। एक आना प्रतिदिन जमा की जाने वाली धन राशि इन ट्रैक्टों के रूप में अपना घरेलू पुस्तकालय होना चाहिए, और उसका लाभ कम से कम दस व्यक्तियों को तो मिलना ही चाहिये। एक आना अनुदान इस घरेलू पुस्तकालय के लिये ही सुनिश्चित रहना चाहिये। यह और किसी काम में खर्च न किया जाय। अपना परिवार, अपना पड़ौस, अपने रिश्तेदार, अपने परिचित सभी इस एक आना अनुदान से नव जीवन का प्रकाश प्राप्त करें तभी उसकी सार्थकता है। एक घंटा समय दान-अनुदान का क्रम शिथिलता पूर्वक अन्यमनस्क मन से ढीला-पोला नहीं चलना चाहिये वरन् इसके पीछे पूरी प्रखरता श्रद्धा एवं तत्परता जुड़ी रहनी चाहिये।

(4) सुसंस्कृत समाज की अभिनव रचना —समाज को विचारों से ही नहीं, आध्यात्मिक उपचारों से भी सुसंस्कृत बनाया जाना चाहिए। षोडष संस्कारों का प्रचलन, पुनर्जागरण इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए नितान्त आवश्यक है। हम लोग अपने परिवार के सदस्यों के षोडष संस्कार करावें। इसके लिए उनका विधि-विधान जानने वाले लोग हर शाखा से होने चाहिये। इस वर्ष सुरक्षा कार्यों में हमारी व्यस्तता के कारण माघ का शिविर तो स्थगित रखा गया है पर जून का एक महीने का शिविर इन्हीं प्रयोजनों के लिए है, उसमें जन-जागरणों के लिये बहुत कुछ सिखाया जायगा। हर शाखा अपना एक प्रतिनिधि उसमें भेजे। इसके लिए अभी से तैयारी की जाय। वैसे इस प्रयोजन के लिये छोटी-छोटी सस्ती विधान पुस्तकें भी छाप दी गई हैं और हर संस्कार के समय क्या प्रवचन किया जाय, इसके लिए एक-एक ट्रैक्ट अलग से भी लिखा छापा जा रहा है।

संस्कारों का आन्दोलन मजबूती के साथ चलाया जाय ताकि हमारे परिवारों के सदस्य सुसंस्कृत बनें और उनमें से आध्यात्मिक विशेषताएं उत्पन्न हों जो बाह्य जीवन को सुविकसित बनाने के लिए आवश्यक है। यह कार्य संस्कार आन्दोलन के आध्यात्मिक उपचार को सजीव किए बिना और किसी प्रकार संभव न होगा। पर्व और त्यौहार को मनाने की सामूहिक एवं प्रेरणाप्रद व्यवस्था करके भी समाज निर्माण के लिये ठोस कार्य किया जा सकता है।

फिलहाल हमें जन्म दिन मनाने की प्रथा हर जगह अविचल आरम्भ कर देनी चाहिये। इससे परस्पर प्रेम-भाव बढ़ेगा, संगठन मजबूत होगा और युग निर्माण योजना के आगामी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के लिये पृष्ठभूमि विनिर्मित होगी। जहाँ कहीं भी अखण्ड-ज्योति पहुँचती है, वहाँ के विचारशील परिजन मिलकर एक पाँच या न्यूनाधिक सदस्यों की युग निर्माण शाखा बना लें। एक व्यक्ति इसका संचालक नियुक्त कर दिया जाय। अधिकाँश स्थानों पर तो पहले ही यह शाखाएं बन चुकी हैं। उत्तराधिकारियों और प्रतिनिधियों की नियुक्ति हो चुकी है। इन लोगों का कर्तव्य है कि अपने यहाँ के सभी सदस्यों की जन्म-तिथियाँ नोट कर लें और उस दिन उन्हें अपने-अपने घर एक छोटा हवन उत्सव मनाने के लिये कहें। सामूहिक गायत्री जप, छोटा हवन भजन कीर्तन, सत्संकल्प का दुहराना आदि धार्मिक कृत्यों के अतिरिक्त, कम से कम एक घंटा प्रवचनों के लिये अवश्य रखें। जिससे मानव-जीवन के महत्व एवं उसके सदुपयोग की बात समझाई जा सके। पति-पत्नी दोनों मिलकर हवन करें, शेष आगन्तुक मन्त्रोच्चारण करें तो उससे खर्च और समय की बचत होगी। आगन्तुक उपहार में पुष्प लेकर आवें, और उनका स्वागत सुपाड़ी, इलायची, सौंफ, शरबत जैसी सस्ती चीजों से किया जाय ताकि हर आर्थिक स्थिति के व्यक्ति के लिये वैसी व्यवस्था कर सकना संभव हो सके। यह प्रथम संस्कार—जन्म दिन—मनाया जाना सहज ही आरम्भ हो सकता है। अन्य संस्कारों का प्रचलन भी थोड़े से प्रशिक्षण मिलने पर आरम्भ हो सकता है। शाखाओं को सजीव सक्षम, सक्रिय बनाये रहने के लिये भी संस्कारों का प्रचलन आवश्यक है।

संगठन इस युग की एक मात्र प्रेरक शक्ति है। युग निर्माण जैसे महान प्रयोजन की पूर्ति तो बिना समर्थ संगठन के और किसी प्रकार हो ही नहीं सकती। इसलिए हमें समस्त समाज को धार्मिक आधार पर संगठित करना होगा। इस प्रयोजन की तैयारी के लिये सक्रिय कार्यकर्ताओं की एक सेना के रूप में हमें अखण्ड-ज्योति परिवार को संगठित कर लेना चाहिये। जहाँ जितने सदस्य हैं वे सब एक युग निर्माण शाखा के रूप में संगठित हो जायें। शाखा का एक कार्यालय एक जगह बना लिया जाय, जहाँ से विभिन्न रचनात्मक कार्यों का सृजन होता रहे। इस शाखा कार्यालय में एक केन्द्रीय पुस्तकालय तो अनिवार्य रूप से होना चाहिए जिसका लाभ सदस्यों को ही नहीं, उस सारे क्षेत्र को मिलता रहे।

(5)परिवार बढ़े तो-पर बिखरे नहीं —अखण्ड-ज्योति परिवार के अभी केवल 40 हजार सदस्य हैं। यही वह सेना है, जिसके आधार पर हम 40 करोड़ के भारत का ही नहीं—तीन अरब की आबादी वाले विश्व के नव-निर्माण का युग परिवर्तन का स्वप्न देखते हैं। भौतिक निर्माण, राजनैतिक, इंजीनियर वैज्ञानिक आदि कर सकते हैं, पर आध्यात्मिक आधार पर संसार का भावना स्तर सुविकसित करना केवल वैसे ही लोगों का काम है जैसे कि युग निर्माण योजना के झंडे के अंतर्गत अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्य संगठित हो रहे हैं। कार्य की महानता और क्षेत्र की विशालता को देखते हुए अपना परिवार अभी बहुत छोटा है—इसे अभी बहुत बढ़ाया जाना चाहिये।

सदस्यों की अन्तः प्रेरणा को सक्षम एवं गतिशील बने रहने के लिये उनका अखण्ड-ज्योति पढ़ते रहना आवश्यक है। हम अपने हृदय के रक्त से जो कुछ लिखते हैं, उसका कुछ भी असर पाठकों पर न हो ऐसा हो नहीं सकता। इतना विशाल परिवार इन प्रेरणाओं के आधार पर ही विनिर्मित हुआ है, आगे भी इन प्रेरणाओं का प्रवाह जारी रहे और वह वर्तमान सदस्यों तक ही नहीं—नये लोगों तक भी पहुँचे इसके लिये यह आवश्यक है कि अखण्ड-ज्योति के पाठकों की संख्या घटने न पावे वरन् बढ़ती ही रहे। आर्थिक दृष्टि से अखण्ड-ज्योति सदा से घाटे से चलती है, पर उसका सबसे बड़ा लाभ यही है कि जो इसे पढ़ता है, अपने भीतर, एक चेतना, प्रेरणा, स्फूर्ति एवं जागृति अनुभव करता है। ऐसा प्रकाश अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाना ही चाहिये।

कितने ही स्थायी सदस्य अपना चन्दा आलस्य-वश नहीं भेजते। बी.पी. में बारह आना बिलकुल निरर्थक खर्च करने-कराने की बात हमें पसंद नहीं, इसलिए बिना मँगाये बी.पी. किसी को नहीं भेजी जाती। मनीआर्डर भेजने में लोग आलस्य कर जाते हैं। इस प्रकार हर साल कितने ही सदस्य टूट जाते हैं। प्रबुद्ध परिजनों को इसके लिये इस महीने संगठित प्रयास करना चाहिए और जहाँ जितने सदस्य हैं उनके घर जाकर चन्दा वसूल कर लेना चाहिये और इकट्ठा ही मनीआर्डर, पोस्टल आर्डर या बैंक ड्राफ्ट से भेज देना चाहिए। साथ ही वर्तमान सदस्यों को साथ लेकर उनके प्रभाव क्षेत्र के कुछ लोगों को नया ग्राहक भी बनाना चाहिए। यदि एक महीना थोड़ा प्रयत्न कर लिया जाय तो अगले वर्ष सहज ही सदस्य संख्या दूनी हो सकती है और अपना परिवार अपेक्षाकृत नव निर्माण की दिशा में दूनी भूमिका प्रस्तुत कर सकता है।

बसन्त पंचमी अखण्ड-ज्योति का जन्म-तिथि है। सदस्य अपनी माता की तरह ही उसका भी ज्ञान रूपी दूध पीते हैं। वर्ष में एक ही बार इस ज्ञान माला को अखण्ड-ज्योति की—श्रद्धाँजलि अर्पित करने का अवसर आता है। थोड़ा समय लगाकर एक टोली के रूप में यदि चल पड़ने का साहस कर सकें तो इतनी भर चेष्टा अखण्ड-ज्योति के प्रति उसके जन्म-दिन पर समर्पित की गई सर्वश्रेष्ठ श्रद्धाँजलि हो सकती है। पुराने सदस्यों से चन्दा वसूल करने और नये ग्राहक बनाने के लिए रसीद बहियाँ छपा ली गई हैं। आवश्यकतानुसार पृष्ठों की रसीद बहियाँ इस प्रयोजन के लिए मथुरा से मँगाई जा सकती हैं।

इस संदर्भ में एक और बात भली प्रकार ध्यान में रखने की है कि— “युग निर्माण योजना” पाक्षिक अपने नव निर्माण आन्दोलन का प्राण है। आन्दोलन का मार्गदर्शन, प्रेरणा, प्रसार, प्रचार, सभी कुछ तो उसके द्वारा होता है। अखण्ड-ज्योति रूपी कृष्ण के सन्देश को कार्यान्वित करना इसी अर्जुन रूपी पाक्षिक का काम है। दोनों की जोड़ी ही अभीष्ट प्रयोजन पूरा कर पाती है। इसलिए हर अखण्ड-ज्योति सदस्य को ‘युग निर्माण योजना’ पाक्षिक के पढ़ने की आवश्यकता अनुभव करनी चाहिए। उसे भी मिल-जुलकर सब सद


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