मानवता का सच्चा सेवक—लुई पास्ट्युर

January 1966

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मानवता की सेवा करने के लिये किस प्रकार की तत्परता, तन्मयता, त्याग एवं तपस्या की आवश्यकता पड़ती है, यदि कोई यह जानना चाहे तो उन्नीसवीं शताब्दी के महान वैज्ञानिक लुई पास्ट्युर के जीवन पर दृष्टिपात कर ले।

लुई पास्ट्युर का जन्म फ्राँस के डोल नाम स्थान पर 27 दिसम्बर सन् 1822 ई. को हुआ। इनका परिवार वास्तव में एक मजदूर परिवार था। इनके पिता चमड़े का साधारण व्यवसाय किया करते थे।

घर का वातावरण ही कुछ ऐसा था कि लुई पास्ट्युर को पढ़ने-लिखने में कुछ रुचि नहीं थी। किन्तु उनके पिता की हार्दिक इच्छा थी कि उनका पुत्र पढ़-लिखकर एक अच्छा विद्वान बने और संसार में नाम पैदा करे।

लुई पास्ट्युर जब-जब पिता का हाथ बटाने के लिये उनके साथ काम करने बैठता था तब-तब वे उससे कहा करते थे कि—लुई, मेरी बड़ी इच्छा है कि तुम पढ़-लिखकर विद्वान बनो। किन्तु मैं देखता हूँ कि मेरी यह इच्छा पूरी न हो सकेगी। एक तो यों ही मेरी परिस्थिति तुम्हें उच्च शिक्षा दिला सकने योग्य नहीं है, दूसरे यदि मैं अपना सर्वस्व बेचकर, ऋण लेकर अथवा भूखा रहकर तुम्हारा पढ़ाई का प्रबन्ध कर भी दूँ तो तुम्हारा मन पढ़ाई की ओर न देखकर निराश हो जाता हूँ। ऐसा कहते-कहते लुई पास्ट्युर के पिता की आँखें जब-तब गीली हो जातीं।

लुई पास्ट्युर ने पिता की इच्छा की गहराई को अनुभव किया और हर प्रकार से पढ़ने का निश्चय करके प्रारम्भिक शिक्षा के लिये अरवोय की एक पाठशाला में प्रवेश ले लिया। किन्तु संस्कारवश उसकी बुद्धि विद्या प्राप्ति की दिशा में गतिवान नहीं होती थी। उसे कक्षा में पढ़ाया हुआ पाठ न तो ठीक से समझ आता था और न याद होता था। इस कारण वह कक्षा में सबसे अधिक बुद्धू समझा जाता था। पढ़ाई के विषय में उसे मन्द बुद्धि समझ कर शिक्षकों ने उसकी ओर से निराश होकर ध्यान देना छोड़ दिया और राय दी कि वह पढ़ाई छोड़कर कुछ व्यवसाय करना शुरू कर दे, यही उसके जीवन के लिए अधिक हितकर होगा।

लुई पास्ट्युर को अध्यापकों की इस उपेक्षा से अपनी मन्द-बुद्धिता पर घोर खेद हुआ। एक बार पढ़ाई छोड़कर, पुनः पिता के व्यवसाय में पदार्पण करने की सोची। किन्तु पिता के आँसुओं की याद आते ही उसने पुनः अपना साहस संचय किया और पढ़ने में जी जान से जुट गया। उसने अपना अध्ययन किया और अपनी कमी खोज निकाली। उसकी समझ में ठीक-ठीक आ गया कि अध्ययन में उसकी अगति का कारण उसका आत्म-अविश्वास ही है। उसने कुछ ऐसी धारणा बना ली है कि उसे विद्या आ ही नहीं सकती और उसकी यही धारणा उसकी बुद्धि पर मोर्चा बनकर लगी हुई है जिससे वह विद्या में प्रगति नहीं कर रहा है।

लुई पास्ट्युर ने अपना आत्म-विश्वास जगाया, अपनी निराशापूर्ण धारणा को दूर किया और विश्वास पूर्ण अध्ययन में संलग्न हो गया। ऐसा करते ही उसे अपने अन्दर एक ऐसी जीती-जागती प्रखर शक्ति का आभास मिला जो पुकार-पुकार कर कह रही थी—”लुई! संसार का ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जो लगन पूर्ण पुरुषार्थ के बल पर न किया जा सके। निरन्तर सच्चे मन से लगे रहने से मनुष्य रेत से तेल प्राप्त कर सकता है तब विद्या प्राप्त करना कौन बड़ी बात है। वह तो अपने जिज्ञासुओं को स्वयं प्राप्त हो जाती है। मनुष्य को न तो कभी हिम्मत हारनी चाहिये और न निराश होकर प्रयत्न से विमुख होना चाहिये। असफलता से हतोत्साह होकर निरुपाय हो जाना पुरुष को शोभा नहीं देता। असफलता मनुष्य की अक्षमता की द्योतक नहीं होती बल्कि यह प्रयत्न की कमी की संबोधक संयोग ही होती है। पूरी लगन से काम में जुट जाओ शीघ्र ही तुम सफलता का वरण करोगे।”

आत्मा का उद्बोधन पाते ही लुई पास्ट्युर ने अपने को प्रयत्न के पारावार में डुबा दिया। अब वह कोई मन्द-बुद्धि लड़का न था बल्कि एक कुशाग्र बुद्धि छात्र था।

अरवोय में प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त करते ही लुई के पिता ने उसे उच्च शिक्षा के लिये पेरिस भेज दिया। जहाँ वह इकोल नारमेल नामक एक ऊँचे विद्यालय में प्रवेश कर पढ़ने लगा। किन्तु कुछ ही समय में पेरिस के अनियंत्रित तथा अनवरत कोलाहल तथा शोर-गुल से उसका जी ऊब गया और वह पिता की अनुमति से घर से दूर वेसाको के एक कॉलेज में अध्ययन करने लगा

वेसाको-कॉलेज की शिक्षा पूर्ण करने के बाद लुई पास्ट्युर की इच्छा रसायन-शास्त्र का अध्ययन करने की थी जिसके लिये उसे पुनः पेरिस जाना पड़ा। चूँकि पेरिस के सिवाय रासायनिक अध्ययन के लिये कोई अन्य साधन नहीं था, इसलिये उसने अब की बार नगर के कोलाहल से ऊबने के बजाय उसका अभ्यस्त बनने की कोशिश की। कोलाहल से अप्रभावित रहने के लिये उसने अपनी एकाग्र तन्मयता को और अधिक केन्द्रीभूत कर लिया। जिससे वह एक प्रकार से कोलाहल-शून्यता की स्थिति में रहने लगा। सच्ची लगन से काम करने वाले किसी बाह्य वातावरण अथवा परिस्थिति को काम में विघ्न डालने वाला बताकर कार्य से मुख मोड़ने का बहाना नहीं निकालते बल्कि घोरतम विपरीत परिस्थितियों में भी अंगद के चरण की तरह अपने कर्तव्य पर अटल रहते हैं। उन्हें छोटी-मोटी परिस्थितियाँ काम से उखाड़ नहीं पातीं।

पेरिस में इकोल नारमेल कालेज में भरती होकर लुई पास्ट्युर ने न केवल रसायन-शास्त्र का ही अध्ययन किया बल्कि चिकित्सा शास्त्र में भी पारंगति प्राप्त की। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि जीवन के प्रारम्भिक काल में जो लुई पास्ट्युर मन्द-बुद्धि कहा जाकर उपेक्षा का पात्र बना था वह अब परीक्षाओं पर परीक्षायें और विषयों पर विषय पार करता चला जा रहा था। जिसने आत्म-विश्वास के साथ परिश्रमपूर्ण पुरुषार्थ करना सीख लिया है, बुद्धि को निर्णायक गुण से गौरवान्वित कर दिया है और अपने विचारों में सूझ-बूझ का प्रवाह-भर गया है। किसी भी विषय अथवा दिशा में उसकी गति में विरोध होना सम्भव नहीं।

पेरिस के अध्ययन काल में लुई पास्ट्युर का संपर्क विज्ञान के महान विषय से भी हुआ जिससे उसकी रुचि उस ओर हो गई और उसने एक वैज्ञानिक बनकर संसार का हित करने का विचार बना लिया। उसके इस विचार को रसायन-शास्त्र के पारंगत विद्वान श्री जीन वैप्टिस्टे डय़ूमा के ओजस्वी भाषणों ने और भी पक्का कर दिया, जिनके अन्त में वे विज्ञान के विद्यार्थियों से अपील किया करते थे कि वे अपनी योग्यता का उपयोग केवल स्वार्थ साधन के लिये न करके उसका उपयोग रोग पीड़ित मानवता की रक्षा करने के लिये भी करें।

डॉक्टर डय़ूमा की अपीलें लुई पास्ट्युर के हृदय में गूँज बन कर भर गई जिनसे वह एक आविष्कारक की दृष्टि से विज्ञान के अध्ययन में डूब गया।

इकोल नारमेल कॉलेज से उपाधि प्राप्त कर लुई पास्ट्युर ने केवल छब्बीस वर्ष की अवस्था में डिजोन में भौतिक विज्ञान के शिक्षक का पद स्वीकार किया। उन्हें आशा थी कि अध्यापन काल में उनको अन्वेषण करने के लिये पर्याप्त साधन तथा अवकाश मिल सकेगा। किन्तु परिस्थितियाँ उनके अनुमान के विपरित निकलीं। पढ़ाने की तैयारी में सारा समय लग जाने के कारण उन्हें अपने अनुसंधान के लिये समय का अभाव रहने लगा। यद्यपि उन्हें इस पद पर पर्याप्त वेतन तथा रहन-सहन की सुविधायें मिली हुई थीं, तथापि अपने उद्देश्य में उक्त सुविधाओं को बाधक देख कर उन्होंने उनका बिना किसी संकोच के त्याग कर दिया, और स्ट्कास वर्ग में सहायक तथा प्रधान अध्यापक के पद पर कुछ दिन काम करने के बाद लिले में विज्ञान-विभाग के अध्यक्ष का पद स्वीकार किया और अपना अनुसंधान कार्य प्रारम्भ कर दिया।

लुई पास्ट्युर ने जो सबसे पहला अनुसंधान किया वह था इमली के अम्ल से अंगूर का अम्ल बनाना। यद्यपि यह अनुसंधान कोई महत्वपूर्ण खोज नहीं थी तथापि इसका मूल्य इस माने में अवश्य है कि इसी एक खोज में अन्य अनेक वैज्ञानिक लगभग तीस वर्षों से लगे हुये थे। उनकी समस्या का हल करके लुई पास्ट्युर ने उनके मस्तिष्क को मुक्त करके अन्य महत्वपूर्ण कार्यों की ओर मोड़ दिया।

दूसरा महत्वपूर्ण अनुसंधान जो लुई पास्ट्युर ने किया वह था विषैले जन्तुओं द्वारा काटे जाने पर मनुष्यों को मरने से बचाने के उपादानों की खोज। फोड़ों की चीरफाड़ के बाद जख्मों में कीड़े पड़ जाने के कारणों की खोज और उसके उपचार की विधि निकालना। उपचार क्षेत्र में मानवता की सेवा का यह अनुसंधान एक महान देन थी जिससे उस समय से आज तक असंख्यों मनुष्य जख्मों के सड़ने तथा उससे मरने से बचते चले आ रहे हैं।

इसके अनन्तर रेशम के कीड़ों के रोग की रोकथाम करने तथा उनके बीमार होने पर उनका उपचार करने की विधि का अन्वेषण एक बहुत बड़ी खोज थी, इससे रेशम के व्यवसाय में महान लाभ हुआ। रेशम के कीड़ों के रोग तथा मरण के निवारण की खोज करने में लुई पास्ट्युर ने छः वर्ष तक घोर परिश्रम किया, जिससे एक बार वह इतना बीमार हो गये कि मित्रों को उनके बचने की आशा न रही। मरण शैय्या पर पड़े हुए उन्होंने अपने मित्रों से कहा कि—हो सकता है कि आप लोग मेरी बात सुन कर मुझे कायर समझें किन्तु वास्तव में मैं मरना नहीं चाहता। मैं जीवित रहकर देश की अधिकाधिक सेवा करना चाहता हूँ।

सबसे अन्तिम जो दो अनुसन्धान लुई पास्ट्युर ने संसार के लिये दिये उनसे मानवता का महान हित हुआ। वे हैं पागल कुत्तों से काटे मनुष्य के इलाज का टीका तथा हैजा, प्लेग जैसे संक्रामक रोगों की रोक-थाम के लिये टीकों की खोज।

इस प्रकार जीवन-भर बिना किसी वैयक्तिक लाभ के लुई पास्ट्युर निष्काम भाव से मानवता की सेवा में लगे रहे और भयानकतम रोगों से मनुष्यता की रक्षा के साधन प्रदान कर 28 सितम्बर सन् 1895 में स्वर्ग सिधार गये।


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