बच्चों में सेवा-भाव का विकास कीजिए।

January 1966

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जिन बच्चों में प्रारम्भ से सेवा की भावना का स्वस्थ विकास कर दिया जाता है वे आगे चलकर अपने सेवा-भाव से समाज में प्रतिष्ठा के पात्र बन जाते हैं। सेवा-पथ से चल कर हजारों ऐसे व्यक्ति उन्नति के महान शिखरों पर पहुँचे हैं, जिनके पास साधन नाम की कोई वस्तु ही न थी। उनके परिवार निर्धन और निरक्षर थे।

तन, मन और वाणी से दूसरे की सेवा में तत्पर रहना स्वयं इतना बड़ा साधन है कि उसके सम्मुख किसी अन्य साधन की आवश्यकता ही नहीं रहती। क्योंकि जो व्यक्ति सेवा में सच्चे मन से लग जायेगा उसको सीमा के भीतर के सारे साधन अवश्य ही प्रस्तुत रहते हैं। इस प्रकार प्रत्येक की सेवा में तत्पर रहने से प्रत्येक के साधन सुलभ रहने से साधनों की प्रचुरता हो जायेगी।

किन्तु, जो निःस्वार्थ भाव से सेवा करने के लिए ही करता है वह दूसरे के साधन का अपनी निजी आवश्यकता अथवा उन्नति के लिए उपयोग नहीं करता। और सच बात तो यह है कि उसको किसी के साधनों की आवश्यकता ही नहीं रहती। सच्चा-भाव रखने वाले के लिये पथ के अवरोध स्वयं हटते और सफलताओं के द्वार खुलते चले जाते हैं। हर आदमी उसके सेवा-भाव से प्रसन्न हो, विनिमय रूप में कुछ न कुछ सहायता एवं सहयोग करने के लिए लालायित रहते हैं।

अस्तु, समाज के सुन्दर निर्माण और भविष्य में उन्नति के लिए बच्चे में सेवा-भाव का विकास करना अत्यन्त आवश्यक है। इस सेवा-भाव को विकसित करने के लिए परिवार सबसे सुन्दर संस्था है। धीरे-धीरे गुरुजनों की सेवा से प्रारम्भ करके सारे परिवार की सेवा करने के भाव का जागरण करना चाहिए।

किन्तु यह शिक्षण प्रारम्भ करने से पूर्व सेवा के स्वरूप को भी समझ लेना चाहिए। साधारणतः सेवा के दो स्वरूप होते हैं। एक तो अपनी सुख-सुविधा और आराम के लिए सेवा लेना, दूसरी वह सेवा जो सहायता, सहयोग और सहानुभूति के रूप में की जाती है। जैसे लेट कर थकान दूर करने या नींद लाने के लिए हाथ-पैर दबवाना, शरीर की मालिश करना अथवा नहाने-धोने में उससे सहायता लेना। यह प्रथम प्रकार की सेवा है, जिससे बच्चे में वाँछित सेवा-भाव का उदय न होगा। कदाचित इस प्रकार की सेवा दूसरों को प्रदान करने में उसे संकोच भी होगा और न कोई अन्य व्यक्ति इस प्रकार की सेवा लेने का अधिकारी ही होता है और न वह पसन्द ही करेगा।

विपत्ति के समय सहायता करना किसी काम में सहयोग करना और दुःख में सहानुभूति देना-जैसे असम्भाव्य घटना में दौड़ जाना, ब्याह-शादी आदि उत्सवों में हाथ बटाना, रोगादिक कष्टों में औषधि उपचार आदि का ध्यान रखना और कारुणिक अवसरों पर शान्ति और धैर्य देना दूसरे प्रकार की सेवा है। जिसको प्रदान करने में न तो बच्चे को संकोच होगा और न कोई दूसरा अपने को अनधिकारी समझेगा। इन दोनों प्रकार की सेवाओं में जो एक अन्तर है वह यह है कि प्रथम प्रकार की सेवा में सामान्यतः दास-भाव है और दूसरे प्रकार की सेवा में परोपकार-भाव।

अपनी व्यक्तिगत सेवा लेने का अधिकार होते हुए भी अभिभावकों को बच्चे में परोपकार-भाव ही जाग्रत करने का प्रयत्न करना चाहिए। इसका प्रारम्भ घर की व्यवस्था ठीक करते समय चीजों को उठाने धरने में अपने हाथ बंटवाकर, छोटे भाई-बहिनों को पढ़ाने-लिखाने और पाठशाला जाने-आने में सहयोग करा कर तथा ऐसी सेवायें लेकर किया जा सकता है। जिससे उसे उसका अभ्यास हो और रुचि उत्पन्न हो।

सेवा का अभ्यास कराने के साथ-साथ उसे उसकी प्रेरणा भी देना चाहिए। उसे नित्य-प्रति परोपकार की महत्ता और उससे होने वाले लाभों को बतलाना चाहिए। उसकी असहायों की सहायता और आवश्यकता के समय दूसरों के काम आने के नैतिक कर्तव्य और उसके ढंग का ज्ञान कराना चाहिये।

यद्यपि बच्चों को पाठशाला और अनेक अन्य अवसरों पर परोपकार की शिक्षा दी जाती है, किन्तु उसका कोई यथार्थ लाभ नहीं होता। उसका कारण है कि औपचारिक रूप से कार्यक्रमों के अनुसार उसे मौखिक उपदेश-भर दे दिया जाता है। वास्तविक प्रेरणा नहीं दी जाती। वास्तविक प्रेरणा तो बच्चों को ठीक-ठीक अभिभावकों से ही प्राप्त हो सकती है। क्योंकि ऐसे कामों के लिए अन्यों की अपेक्षा माता-पिता के कथन को अधिक प्रभाव पड़ता है।

सामाजिक प्राणी होने वे कारण बच्चे से लेकर बूढ़े तक प्रत्येक मनुष्य में सेवा और सहयोग के कुछ सहज संस्कार भी होते हैं, किन्तु वे जगाये न जाने के कारण प्रत्यक्ष नहीं हो पाते। माता-पिता की प्रेरणा से वे संस्कार शीघ्र जाग सकते हैं। क्योंकि उनके कथन में बच्चे को अधिक विश्वास रहता है। वह जानता है कि माता-पिता उसे जिस बात के लिए कहेंगे उसमें उसका हित निहित होगा।

बहुत से अभिभावक बच्चों को पैसे का लोभ देकर सेवा करने के लिये प्रेरित करते हैं। जैसे—”तुम मेरे एक घण्टा पैर दबाओ तो मैं तुम्हें दो आने दूँगा” -या- “तुम मेरा अमुक काम कर दो तो मैं तुम्हें अमुक वस्तु दूँगा।” यद्यपि इसमें एक स्नेह और बच्चों को सेवा करने के लिए प्रोत्साहित करने की भावना छिपी रहती है, तथापि इस प्रकार सेवाओं का सौदा करने से बच्चों के लोभी बन जाने का भय रहता है। फिर वे हर जगह और हर व्यक्ति से अपनी सेवा का मूल्य चाहने लगेंगे।

किसी बच्चे द्वारा काम किये जाने पर, सभ्यता के नाते हर व्यक्ति यह प्रयत्न करता है कि उसे इसके बदले में कुछ दिया अवश्य जाये। किन्तु बच्चे में इतनी निःस्वार्थता अवश्य होनी चाहिए कि वह विनम्रतापूर्वक उसे लेने से इनकार कर दे। जो बच्चे अपनी सेवाओं का मूल्य ले लेते हैं वे दूसरों की सहज सद्भावना और स्नेह से वंचित हो जाते हैं।

निःस्वार्थ भाव से सेवा करने वाले बच्चे सबको प्यारे लगते हैं। सबके हृदय में उनके लिए एक आशीर्वाद का भाव रहता है। हर व्यक्ति अपनी आत्मा से उनके कल्याण की कामना करता है। इस प्रकार बच्चे के साथ ज्यों-ज्यों उसका सेवा कार्य बढ़ता जाता है त्यों-त्यों उसी अनुपात से समाज में अधिक से अधिक उसके प्रति सद्भावना को कोष बढ़ता जाता है और एक दिन ऐसा आता है कि उसकी उपयोगिता इतनी बढ़ जाती है कि अधिक से अधिक जन समुदाय उस पर निर्भर रहने लगता है। और तब वह राष्ट्र और समाज का एक स्वस्थ नेतृत्व करने योग्य व्यक्ति मान लिया जाता है।

संसार के इतिहास में एक नहीं हजारों ऐसे उदाहरण हैं कि साधारण से साधारण व्यक्ति सामान्य सेवा मार्ग से चलते हुए राष्ट्रों के महान से महान नेता हुए हैं। किन्तु यह होता तब ही है जब किसी का सेवा -भाव निःस्वार्थता की चरम सीमा पर होता है। बड़ी से बड़ी पदवी पर पहुँच कर भी जहाँ उसके सेवा-भाव में दोष आया नहीं कि वहीं से उसका पतन प्रारम्भ हो जाता है। जहाँ अनन्त उन्नति के उदाहरण इतिहास में मिलते हैं, वहाँ इस प्रकार के पतनों के उदाहरणों की भी कमी नहीं है।

अतएव जहाँ बच्चे में सेवा-भाव का विकास किया जाए वहाँ निःस्वार्थ भावना के संस्कार भी डाले जाएँ। निःस्वार्थ सेवा करने से दिनों-दिन उसके प्रति उत्साह की वृद्धि होती है। इसके विपरीत स्वार्थपूर्ण सेवा-भाव आगे चलकर कुछ समय में अपने पर एक बोझ बन जाता है। जिसको वहन कर सकना सामर्थ्य के बाहर हो जाता है।

सेवा का कोई तात्कालिक मूल्य न लेते हुए भी यदि भविष्य की उन्नति का भी ध्यान रक्खा जायेगा तो यह भी एक प्रकार का स्वार्थ ही होगा। क्योंकि इस प्रकार तो यह भाव अपने सेवा-मूल्यों को समाज में संचित करते रहने और आगे चल के नेतृत्व आदि के रुप में इकट्ठा वसूल कर लेने के समान ही होगा, जो उसकी सहज और सच्ची उन्नति में बाधक होगा।

अस्तु, बच्चों को क्या वर्तमान और क्या भविष्य में होने वाले किसी लाभ की भावना से मुक्त रखते हुए उनमें निःस्वार्थ सेवा का भाव सदा के लिए ही उत्पन्न किया जाना चाहिए।


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