जीवन का शृंगार (Kavita)

January 1966

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तोड़ अहन्ता की प्राचीरें करो आत्म-विस्तार रे! स्वार्थ मृत्यु, परमार्थ-भाव है जीवन का शृंगार रे!!

ये नन्हें-से फूल मुदित हो निज मकरन्द बनाते फल से बोझिल तरु नत होकर सबकी भूख मिटाते।

कोकिल ने भी खोल दिया गीतों का भदिर खजाना, के की का नर्तन लख जन-जन अतिशय हर्ष मनाते।

धरती निज उर चीर दे रही जग को अन्न अपार रे! स्वार्थ मृत्यु परमार्थ-भाव है जीवन का शृंगार रे!!

देह लुटा जल देते घन, धरती की प्यास बुझाते, सूरज-चन्दा जल - थल - नभ में ज्योतिर्धार बहाते।

पवन अहर्निशि जीवन देता, रुकता कभी न पल भर, पर हित सम्पादन करने को सज्जन प्राण लुटाते।

छोड़ कुटिल व्यवहार, सभी का करो सदा उपकार रे! स्वार्थ मृत्यु परमार्थ-भाव है जीवन का शृंगार रे!!

तुहिनाचल अणु-अणु कर गलता, करता पर जल दान है, पावक जला स्वयं तन, करता मंगल का आह्वान है।

क्षण-क्षण जल लघु दीप तिमिर में भरता नव आलोक है, यद्यपि उसे बुझाने आता शलभ निपट नादान है।

तन-मन-धन-जीवन अर्पण कर भरो रिक्त भण्डार रे! स्वार्थ मृत्यु, परमार्थ-भाव है जीवन का शृंगार रे!!

वह कैसा नर जो न नीर कण पोंछे दुखिया नैन से, वह कैसा नर जो न वेदना मेटे मीठे बैन से।

जब भूखे, असहाय, नग्न नारी-नर हों चिंघारते- मानव नहीं, पिशाचाधम जो सोए फिर भी चैन से।

मानव वह होता है जिसका ममतामय व्यवहार रे! स्वार्थ मृत्यु, परमार्थ-भाव है जीवन का शृंगार रे!!

-भगवान शरण भारद्वाज ‘प्रदीप’

*समाप्त*


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