आराम नहीं, काम करिये।

January 1966

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बहुत से लोग इस बात का रोना रोते देखे जाते हैं कि उन्हें उन्नति करने और विकसित होने का अवसर ही नहीं दिया गया। यदि उन्हें अवसर दिया जाता तो बहुत कुछ करके दिखला सकते थे। वे एक बड़े व्यापारी, ऊँचे ओहदेदार, परोपकारी, जन-रोचक, प्रकाँड विद्वान, कवि, लेखक अथवा कोई बड़े नेता बन सकते थे। किन्तु परिवार से लेकर समाज तक ने उनका साथ नहीं दिया जिससे वे अपनी विद्यमान स्थिति में घिर कर रह गये। धनवान, विद्वान, परोपकारी, अधिकारी आदि कुछ भी न बन सके।

प्रथम तो उनका यह रोना, यह शिकायत ही इस बात की गवाही देती है कि यह व्यक्ति केवल बातें बनाने वाले और दूसरों पर दोषारोपण करने वाले हैं। यह सब अन्दर से थोथे और अकर्मण्य हैं। न इन्हें कुछ करना था न अब कुछ करना चाहते हैं और न आगे कुछ करेंगे। यह सब मिथ्याचारी एवं मिथ्यावादी हैं। कुछ करने वाले लोग न तो किसी पर अहसान रखते हैं और न किसी पर दोषारोपण किया करते हैं। उन्हें जो कुछ करना होता है किया करते हैं, कहते नहीं। एक बार यदि संयोगवश परिस्थितियाँ उनका साथ न भी दें और स्वयं कुछ न कर पायें तो किसी दूसरे के महान उद्देश्य के प्रति अपनी सेवायें समर्पित कर देते हैं। सब कुछ कर सकने की योग्यता रखते हुए भी यदि किसी अपरिहार्य संयोग से विवश होकर वे अपनी आकाँक्षाओं को मूर्तिमान नहीं भी कर पाते तब भी इस प्रकार निठल्लों की तरह रोते और शिकायत नहीं करते घूमते। या तो वे अपनी सेवायें हस्तान्तरित कर देते हैं अपनी योग्यता, पात्रता एवं शक्ति सामर्थ्य को किसी कर्मशील के कार्यों में लगा देते हैं, या चुपचाप संसार की गतिविधि का अध्ययन करते हुए अपनी क्षमताओं एवं योग्यताओं को बढ़ाते हुए धैर्यपूर्वक समय की प्रतीक्षा करते रहते हैं, यहाँ तक कि आगामी जन्म में अपने ध्येय को पूरा करने की आशा पर भी अधीर नहीं होते, और कुछ न सही वे अपनी वीरता गम्भीरता को खोकर कम से कम विवशताजन्य असफलताओं और दूसरों की अनुदारता की शिकायत का ढोल पीटकर तुच्छता का परिचय तो नहीं ही देते।

करने वाले को आज तक किसने रोका है। रोध, अनुरोध एवं प्रतिरोध जैसे हेय शब्द कर्मवीरों के कोश में नहीं, निकम्मों की जीभ पर ही चढ़े होते हैं। यदि ऐसा होता तो सिकन्दर विश्वविजयी न होता, सीजर रोम साम्राज्य स्थापित न कर पाता चाणक्य का ध्येय सफल न होता और एक लँगोटी-बन्द महात्मा गाँधी भारत में ब्रिटिश हुकूमत का तख्ता न उलट देता। ज्ञान के पिपासु फाहियान एवं ह्वान्साँग का पथ सिन्धु अवश्य रोक लेता और बौद्ध भिक्षुओं को हिमालय आगे न बढ़ने देता। किन्तु अभियान शील को कौन कहाँ रोक पाया है?

अब इन अभियोगियों की शिकायतें भी सुन ली जायें। कुछ कहते हैं कि उनके माता-पिता ने उन्हें समुचित शिक्षा नहीं दिलाई, नहीं तो वे एक अच्छे विद्वान बन कर समाज की महान सेवा करते। इनसे पूछा जाय जब वे शिक्षा के लिये माता-पिता पर निर्भर थे तब उन बेचारों की स्थिति क्या थी—क्या वे उनको ऊँची शिक्षा दिला सकने में समर्थ थे। यदि नहीं तो इस प्रकार की शिकायत करने का क्या लाभ?

अपनी सामर्थ्य-भर शिक्षा दिलाकर माता-पिता ने अपना दायित्व पूरा किया—अब यह उनका कर्तव्य था कि वे अपने अध्ययन एवं अध्यवसाय से अपनी योग्यता का विकास करके अपना ज्ञान बढ़ाते। विद्या की सच्ची लगन वाले बिना किसी का सहारा पाये भी प्रगति के पथ पर स्वयं बढ़ जाते हैं। अब्राहम लिंकन के माता-पिता ने पुत्र के होश सँभालते ही पट्टी देने के स्थान पर हाथ में कुल्हाड़ी दी। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के माता-पिता ने पुत्र को वर्णमाला का अवसर देने से पहले रोटी की चिन्ता दी और स्वामी रामतीर्थ को तो माता-पिता की पर्याप्त छाया थी न मिल पाई थी। फिर भी इन लगनशीलों ने ज्ञान गरिमा की ऊँची सीमाओं को छुआ और विद्वान बनकर संसार की सेवा की।

संसार के इतिहास में एक-दो नहीं ऐसे असंख्यों उदाहरण पाये जाते हैं जिन्होंने अवसर के अभाव का ही नहीं विद्याध्ययन के विरोध का सामना करते हुये भी विद्या प्राप्त की। बन्दीगृहों में बैठकर ज्ञानोपार्जन किया और मेहनत, मजदूरी करते हुये भी विद्वान बने।

सच्ची लगन पहाड़ फोड़कर भी अपना रास्ता बना लेती है, पानी पर पथ रच लेती है और आकाश के तारे तोड़ लाती है। वह कौन-सी बात थी जिसने उन्हें विद्वान बनने की इच्छा होते हुए भी विद्वान नहीं बनने दिया। वह और कुछ नहीं लगन की कमी, इच्छा की अप्रौढ़ता और ज्ञान-पिपासा की झूठी अनुभूति, जिसने कि उन्हें विद्वता की इच्छा के भ्रम में रखकर हजार प्रकार के बहानों को देकर पढ़ने नहीं दिया। उनकी लगन कच्ची थी, पिपासा झूठी थी।

प्रथम तो धनवान बनने की आकाँक्षा ही तुच्छ है। इसमें न तो कोई महानता है और न विशेषता। धन की आकाँक्षा अन्तर की दरिद्रता ही प्रकट करती है। जो धनवान होते हैं लालायित रहें, नींद में जिसे ऊँची-ऊँची कोठियों और भरी हुई तिजोरियों के स्वप्न आयें, वास्तव में वह दया का पात्र है।

जिनका मन ‘धन-धन-धन’ की माला जपा करता है, उनसे पूछा जाये कि वे इतना धन पाकर क्या करेंगे? तो उनके दो ही उत्तर हो सकते हैं—जो ईमानदार होंगे वह कहेंगे धन होने से वे अधिक से अधिक सुख-सुविधा के साधन जुटा सकेंगे, मनोरंजन के मनमाने उपकरण उनको मिल सकेंगे देश-विदेश की यात्रा और सैर-सपाटे का आनंद ले सकेंगे। आशय यह है कि उनका उत्तर सुख-सुविधा और भोग-विलास के ही आस-पास चक्कर लगाते हुये होगा। जो धूर्त और बेईमान होंगे उनका उत्तर होगा—धन से वे गरीबों की सहायता करेंगे, संस्थाओं को दान देंगे जनता की सेवा करेंगे और परोपकार के कार्य करेंगे।

इस प्रकार के उत्तर इसलिये बेईमान माने जायेंगे-कि धन की आवश्यकता तो किसी को भी हो सकती है, किन्तु धन आकाँक्षा केवल उसकी बन जाती है जो उसके प्रति उपासना भाव रखता होगा। उसको जीवन का ध्येय मानता होगा, और धन जिसका ध्येय है उपास्य देव है वह उसका यापन दिल खोलकर परहित में नहीं कर सकता। अस्तु, इस प्रकार के उत्तर देने वाले धनाकाँक्षी झूठे ही कहे जायेंगे।

जहाँ तक सेवा एवं परोपकार का सम्बन्ध है, धन की सेवा सबसे निकृष्ट और तन-मन की सेवा सबसे उत्कृष्ट मानी जाती है। जो सच्चा सेवा भावी है मन से परोपकारी है, वह धन की माला जपता हुआ उसकी प्रतीक्षा नहीं करेगा बल्कि अपने उपलब्ध साधनों अथवा शरीर द्वारा ही दूसरों की सेवा करने में लग जायेगा। किसी के घर जाकर उसका दुःख-दर्द पूछते और यथा-साध्य सेवा द्वारा उसमें कमी करने का महत्व एवं मूल्य घर बैठे हजार मुद्रायें भेज देने से कहीं अधिक है। अस्तु धन का रोना रोने वाले लोभी मात्र हैं, जन-सेवी भावना वाले नहीं।

महत्वाकाँक्षाओं की आपूर्ति, उद्देश्य की असफलता का दायित्व, फिर वह किसी भी क्षेत्र की क्यों न हो, किसी दूसरे पर नहीं है वह एकमात्र मनुष्य की अपनी कमियों पर है।

जीवन की सफलता एवं सार्थकता के लिये आवश्यक नहीं कि ऊँचे-ऊँचे आयोजन बनाये जायें, बड़े-बड़े साधन तलाश किये जायें। सामान्य स्थिति में, सामान्य साधनों से सामान्य कार्यों को भी यदि पवित्र भावना और सद्बुद्धि से पूर्ण मनोयोग, सम्पूर्ण दक्षता से किया जाये तो वह सामान्य कार्य भी एक महान कार्य का महत्व रखता है। छोटी से छोटी सेवा और साधारण से साधारण परोपकार भी यदि पूर्ण भावना से किया जाए तो अपने में एक महान लक्ष्य की गरिमा रखेगा। खेत निराने के साधारण कार्य से लेकर किसी को बोझ उठवा देने की सेवा तक जीवन में सार्थकता का समावेश कर देगी यदि उसके साथ भावना का समन्वय और आत्मा की अनुभूति हो। वह हर कार्य बड़ा है, वह हर सेवा महान है जिससे उपकारी की आत्मा को प्रसन्नता और उपकृत की आत्मा को संतोष हो।


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