दान की परम्परा चलती रहे

January 1966

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अपने पास धन हो तो उसमें से किसी निर्धन की सहायता कर देना कोई उदार-हृदय व्यक्ति का ही कार्य हो सकता है। यह भी समाज सेवा का एक रूप है। इसे परोपकार भी कह सकते हैं पर हो वह उदार वृत्ति ही। भिखारी को दरवाजे से एक मुट्ठी अनाज देकर भगा देना महत्वपूर्ण नहीं, पर किसी को ऐसी आर्थिक सहायता कर देना जिससे उसकी आजीविका की समस्या हल हो जाय, यह पुण्य की, परमार्थ की बात है।

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने एक भिखारी बालक को एक रुपया देकर रोजगार में लगाया था, कुछ दिन में वही व्यक्ति वर्दवान का एक बड़ा साहूकार बना। भिक्षा-जीवन यापन करने से बचाकर विद्यासागर ने उस व्यक्ति को जो नई राह दी उसके लिये वह जीवन-भर उनका कृतज्ञ बना रहा। साथ ही उसके हृदय में भी परोपकार की भावना क्रियाशील रही।

शीत से सिहरते हुये व्यक्ति को थोड़े से कपड़े देकर कष्ट से बचा देना, भूखे को भोजन करा देना, अन्धे को घर तक पहुँचा आना, रोगी की सेवा यह सब मनुष्यता के परिचायक चिह्न हैं। सहृदय व्यक्तियों द्वारा इस तरह से दान की पुण्य परम्परा चलती रहती है और उससे समाज का कुछ भला हो जाता है। यह क्रम सदैव चलते रहना चाहिये, इससे मनुष्य, मनुष्य के बीच आत्मीयता के बन्धन प्रगाढ़ होते हैं। सत्कर्म की प्रेरणायें जागृत होती हैं।

विक्टर ह्यूगो का कथन है— “धन देकर अपनी थैली खाली कर दीजिये, आपका दिल भर जायगा।” धन उन सब वस्तुओं का बोधक है जिससे किसी के अभावों की पूर्ति हो। जिस वस्तु के न मिलने से एक व्यक्ति दुःख पा रहा है वह वस्तु उसे बिना मूल्य दे देना दान कहलाता है। इससे मनुष्य में विनम्रता आती है, सद्गुणों का विकास होता है। दान कोई विवेक-विहीन क्रिया नहीं है। वेद की आज्ञा है—

“शत हस्त समाहर- सहस्र हस्त संकिर।”

अर्थात् —ऐ मनुष्यों, सैकड़ों हाथों से कमाओ और हजार हाथों से उसे दान कर दो।

“आदानं हि विसर्गाय सताँ वारि मुचामिव।” जिस तरह बादल पृथ्वी से जल लेकर फिर उसी में बरसा देते हैं, सज्जनों को भी उसी तरह दान करते रहना चाहिये। भावनापूर्वक दान की हुई वस्तु यज्ञ के समान होती है, उसका सैकड़ों गुना लाभ कालान्तर में मिलता है और दाता के अन्तःकरण में तृप्ति की वृष्टि करता है।

धार्मिक कृत्यों की पूर्णाहुति पर सत्पात्रों को दक्षिणा देने का विधान है। शास्त्रकार का यहाँ कोई ऐसा भाव नहीं रहा कि दान किसी व्यवसाय का रूप धारण कर ले या वह कोई अन्ध-परम्परा बने वरन् यह क्रिया धर्म की सजावट उसकी पूर्णता की दृष्टि से सम्बद्ध की गई है। लोगों की धार्मिक वृत्तियाँ संकुचित न रहें इस दृष्टि से सब कुछ होम कर देने के बाद भी और त्याग करने की भावना विद्यमान रहनी चाहिये। दान, दक्षिणा इसी भावना का प्रतीक है।

साधनों की बहुतायत का लाभ दूसरों को देना मनुष्य की श्रेष्ठता का लक्षण है। अपने स्वार्थों तक ही सीमित रहने का भाव छोटेपन की निशानी है। सज्जन पुरुष अपनी सुविधाओं का एक अंश उदारतापूर्वक दूसरों को देकर अपना बड़प्पन स्थिर रखते हैं। समाज की सुव्यवस्था और प्रगतिशील साम्यवाद की दृष्टि से ऐसी प्रक्रियायें समाज में चलती रहनी चाहिएं। सन्त कबीर की कहावत प्रसिद्ध है—

जो जल बाढै़ नाव में घर में बाढ़ै दाम। दोनों हाथ उलीचिये यही सयानो काम॥

“दान से दुर्गति का नाश होता है” यह शब्द यों सार्थक होते हैं कि जब भी किसी को कुछ देने की बात मन में आती है तो उसके साथ ही दया और करुणा के, आत्मीयता और सहानुभूति के भाव भी जागृत होते हैं। भावनाओं का यह परिष्कार आत्म-विकास की आवश्यक शर्त है, जो दान की परम्परा के साथ बड़ी सजीवता से जागृत होती है। दान से दोनों पक्षों को समान सुख मिलता और आत्म-भाव का आदान-प्रदान होता है। सद्भावनायें अन्तःकरण को शीतल रखती हैं और उस पर दुष्प्रवृत्तियों का सहसा आक्रमण नहीं होता। दान देना यह इंगित करता है कि हमारे अन्दर का देव भाग प्रचुर मात्रा में क्रियाशील है, इस स्थिति में पाप और पतन से घबड़ाने की आवश्यकता नहीं होती। मनुष्य निर्भय रहता है।

मनुष्य के जीवन में आत्म-दर्शन का एक पहलू होता है अपनी बुराइयों से संघर्ष करना। यह ध्वंसात्मक स्थिति है इसलिये कुविचारों पर विजय हो जाने पर भी शक्ति का एक अंश अनावश्यक व्यय हो जाता है। प्रायश्चित में शक्ति और चेष्टायें दोनों प्रयुक्त होते हैं। दान इसका रचनात्मक पहलू है और उससे मनोविकारों से सहज ही निवृत्ति हो जाती है।

मनुष्य जीवन को सार्थक करने में दान का असाधारण महत्व है इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। जब तक समाज जीवित है तब तक यह प्रक्रिया किसी न किसी रूप में अवश्य जीवित रहेगी पर अब दान देने और लेने की प्रवृत्तियाँ कुछ दूषित हो चली हैं इसलिये न तो देने वालों को ही कुछ आत्म-सन्तोष होता है और न पाने वालों का उपकार होता है। कारण एक ही है पात्रता का अभाव। न देने वाले ही भावनापूर्वक देते हैं और न पाने वाले ही उसके अधिकारी रह गये हैं। दान का अर्थ अब भावनात्मक परिष्कार न रहकर स्वर्ग और मुक्ति की प्राप्ति अथवा प्रदर्शन की भावना मात्र रह गई है। दान लेने का अधिकार समाज सेवी या अशक्त व्यक्तियों को रहा है पर अब यह क्षेत्र भी पवित्र नहीं रहा। दान ने अब भीख माँगने का रूप ले लिया। शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ, पर अकर्मण्य और आलसी व्यक्ति ही दान ले रहे हैं। इस तरह दुष्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलता है। तात्पर्य यह है कि दान का सात्विक उद्देश्य इन दिनों किसी भी क्षेत्र में पूरा होता नहीं जान पड़ता। सब तरफ विकृति दिखाई दे रही है।

पूर्वकाल में समाज-सेवी व्यक्ति धर्म शिक्षण का कार्य करते थे। उन्हें ब्राह्मण कहते थे। ये लोग तपश्चर्या की अग्नि में तपकर अनुभव सिद्ध, गुणी, चरित्रवान् और ज्ञानी होते थे। समाज विकारग्रस्त न होने पाये इसलिये सन्मार्ग का उपदेश देना ही उनका लक्ष्य होता था। यह लोग निरन्तर ज्ञान दान करते थे और उसका प्रभाव यह होता था कि समाज बुराइयों से बचा रहता था और उसमें सतोगुणी प्रवृत्तियाँ चलती रहती थीं। यह दान मनुष्य का वास्तविक कल्याण करने वाला होता था इसलिये ऐसे व्यक्तियों को समाज में अधिक सम्मान की दृष्टि से जाता देखा था और उनके जीवनयापन का भार लोग खुशी-खुशी वहन कर लेते थे।

इस युग में ज्ञान की बड़ी आवश्यकता है। स्थूल दान का महत्व अब इसलिये कम हो गया है कि उनमें पात्र-कुपात्र का अन्दाज नहीं होता पर ज्ञान की आवश्यकता अच्छे-बुरे हर व्यक्ति के लिये है। उससे किसी का अहित नहीं हो सकता और न ही उस दान का दुरुपयोग किया जा सकता है।

ज्ञान मनुष्य के सर्वतोमुखी विकास का साधन है। समाज में ज्ञानवान् व्यक्ति अधिक सुखी और सन्तुष्ट समझे जाते हैं। समाज का एक वर्ग इस तरह का हो और दूसरा मूढ़ताग्रस्त हो तो वह समाज दुःखी समाज होगा। ज्ञान का उद्देश्य मानव मात्र को एक स्तर पर लाना है। यह कार्य निःसन्देह कुछ कठिन है पर इसका महत्व अत्यधिक है। आज की स्थिति में सर्वोच्च दान “ज्ञान” का मानें तो वह सर्वथा उपयुक्त ही होगा।

मनुष्यों पर ऋषियों का भी एक ऋण है। ऋषि का अर्थ है वेद। वेद अर्थात् ज्ञान। आज का हमारा जो विकास हुआ है उसका श्रेय ज्ञान को है, ऋषियों को है। जिस तरह हम यह ज्ञान दूसरों से ग्रहण कर विकसित हुये हैं उसी तरह अपने ज्ञान का लाभ औरों को भी देना चाहिये। यह हर विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य है कि वे समाज के विकास में अपने ज्ञान का जितना अंश दान कर सकते हों वह अवश्य करना चाहिये।

ज्ञान-दान मनुष्य को सन्मार्ग की ओर ले जाने के लिये किया जाता है इसलिये यह अन्य दानों की अपेक्षा अधिक सार्थक होता है।

जो प्रत्यक्ष या परोक्ष, विचार, वाणी या सत्साहित्य पढ़ाकर दूसरों को ऊँचे उठाने का प्रयत्न करते हैं वे सच्चे अर्थों में ब्राह्मण हैं, उन्हीं के दान को सर्वश्रेष्ठ दान कहेंगे। आज इसी दान की विश्व को आवश्यकता है।


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