महान वैज्ञानिक और महान मानव—सर आइजक न्यूटन

January 1966

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विश्व विख्यात वैज्ञानिक सर आइजक न्यूटन का जन्म भी ईसा की जन्मतिथि 25 दिसम्बर 1642 ई. को वल्सथोर्प नामक गाँव में हुआ था।

तीन वर्ष की अवस्था में पिता के देहान्त तथा माता के पुनर्विवाह कर लेने से न्यूटन का लालन-पालन उसकी नानी पर आ पड़ा। आयु के प्रारम्भिक काल में ही अनाथ हो जाने से न्यूटन का मनोविकास रुक गया वह एक दीन-हीन बालक बनकर रह गया।

नानी ने उसे पढ़ने बिठाया जरूर लेकिन उसका मन पढ़ाई-लिखाई में जरा भी नहीं लगता था। वह स्कूल में सारे दिन उदास बैठा रहता था। सारे साथी उसे खिझाया तथा परेशान किया करते थे। इसी तरह सहन करते-करते एक दिन उसकी मुठभेड़ एक शैतान लड़के से हो गई और न्यूटन ने जी-जान से जोर लगाकर उसे पछाड़ दिया। इस संयोग से न्यूटन जी-जान से प्रयत्न करने के महत्व को समझ गया।

उसने बड़े प्रयत्न से मन लगाकर पढ़ना शुरू किया जिससे कुछ ही समय में वह अपनी कक्षा में सबसे तेज विद्यार्थी बन गया। अध्यापक उसकी इस परिश्रमशीलता की प्रशंसा करके उसे प्रोत्साहित करने लगे। अपने पुरुषार्थ के बल पर आगे बढ़ने वालों को अनायास ही चारों ओर से प्रशंसा एवं प्रोत्साहन मिलने ही लगता है।

इस प्रकार जब न्यूटन अपनी योग्यता के विकास में लगा हुआ था तभी सौतेले पिता की मृत्यु हो जाने पर उसकी माता ने उसे स्कूल से उठाकर खेती-बाड़ी तथा जानवरों की देख-भाल में लगा दिया। न्यूटन का स्कूल अवश्य छूट गया किन्तु उसकी अध्ययन की लगन तथा विचारशीलता में किसी प्रकार की कमी नहीं आई। वह चरागाह में अपनी पुस्तकें ले जाता और पढ़ने में लग जाता। जानवर बिखर जाते खेत चर जाते किन्तु न्यूटन को इसकी कोई खबर न रहती। वह अपने पढ़ने अथवा किसी चीज का मॉडल बनाने में इतना तल्लीन हो जाता कि दीन दुनिया को ही भूल बैठता। न्यूटन की यही वह तल्लीनता थी जिसने आगे चलकर उसे एक विश्व विख्यात अन्वेषक बना दिया।

न्यूटन की माता उसकी इस विद्या विषयक तल्लीनता से अप्रसन्न रहती थी। अनेक बार उसने इसके लिये उसे दण्ड भी दिया किन्तु सारे कष्ट सहकर भी वह अपने अध्ययन में लगा ही रहा। माता ने उसकी इस आदत से परेशान होकर उसकी शिकायत अपने भाई से की और उसे सीधे मार्ग पर लाने के लिये कहा। न्यूटन का मामा एक बुद्धिमान व्यक्ति था। उसने न्यूटन की प्रतिभा को पहचाना और बहन को समझाते हुये कहा कि—इसे स्कूल में भरती करा दो यह बड़ा होनहार है। ये खेती-बाड़ी करना इसके वश का काम नहीं है। इसके कार्य का क्षेत्र तो पढ़ना तथा कुछ बड़ा काम करना है।

न्यूटन की माँ ने भाई की बात मानी और उसे पुनः स्कूल भेज दिया। यदि मनुष्य अपने ध्येय का सच्चा धनी है तो संसार का कोई भी अवरोध उसका मार्ग नहीं रोक सकता। लगनशील व्यक्ति का अवरोध यदि जान-बूझ कर भी किया जाता है तब भी वह अपने अनवरत प्रयत्न से विरत नहीं होता और इस प्रकार अपने प्रतिरोधी को थका कर मार्ग से हट जाने के लिये विवश कर देता है।

न्यूटन दुबारा स्कूल पहुँच कर इतना प्रसन्न हुआ मानो उसने पुनर्जीवन पा लिया हो और इस बार वह पहले से भी अधिक तत्परता से अध्ययन में डूब गया। उसे आशंका हर समय बनी रहती थी कि कहीं ऐसा न हो कि उसकी माँ का विचार फिर बदल जाये और वह उसे स्कूल से उठा ले। इसलिये वह मिले हुए अवसर का अधिक से अधिक लाभ उठाकर अपनी शिक्षा पूरी कर लेना चाहता था। स्कूल के बाद वह घर पर भी हर समय अपने अध्ययन तथा प्रयोगों में लगा रहता था। वह एक क्षण भी बेकार रहकर माँ को यह सोचने का अवसर नहीं देना चाहता था कि न्यूटन के पास पढ़ाई के अतिरिक्त समय बचा रहता है। न्यूटन की इस बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोगी चतुरता ने उसे जो कार्य-व्यस्तता का लाभ पहुँचाया वह आगे चलकर उसके बहुत अधिक काम आया। काम करने की उसकी सारी वृत्तियाँ प्रबुद्ध हो उठीं और उसे अपने ज्ञान कर्म का स्वरूप बना दिया।

न्यूटन का स्वभाव था कि वह संसार की हर गतिविधि को बड़े ध्यान से देखा करता था जिससे उसे एक छोटी से छोटी गतिविधि भी एक रहस्य मालूम होती थी और उसमें उसे खोज निकालने की जिज्ञासा जाग उठती थी, जिससे धीरे-धीरे वह वैज्ञानिक अन्वेषणों की ओर प्रवृत्त हो गया।

कोई वैज्ञानिक खोज करने के पहले न्यूटन ने, जिस समय बी. ए. की तैयारी की थी उसने गणित के दो नये सिद्धान्त खोज निकाले थे जिससे विद्वज्जनों के बीच उसकी बड़ी प्रशंसा हुई थी और लोगों ने उसकी ओर ध्यान देना शुरू कर दिया।

अपने अन्वेषणों में न्यूटन ने एक पानी से चलने वाली घड़ी, एक धूप घड़ी तथा एक आटा पीसने वाली पवन चक्की बनाकर छोटी आयु में ही बड़े भविष्य का आभास दे दिया था। अपनी इन प्रारम्भिक सफलताओं से न्यूटन का साहस इतना बढ़ गया कि उसने संसार को उपयोगी खोजें देकर मानवता की सेवा करने का संकल्प कर लिया।

मनुष्य में यदि कुछ करने की इच्छा है और वह उसके लिये ईमानदारी से प्रयत्नशील भी है तो कोई कारण नहीं कि वह अपने संकल्प में कृत-कृत्य न हो सके। सच्ची लगन के लोगों का मस्तिष्क इतना उर्वर हो जाता है कि एक छोटा-सा सूत्र पाकर वह सृष्टि के बड़े से बड़े रहस्यों को बाहर निकाल लाता है।

निरन्तर विचार क्रिया से न्यूटन ने अपने मस्तिष्क को इतना ग्राही बना लिया था कि एक बार बाग में घूमते हुये उसने पेड़ से एक सेब को गिरते देखा। उसके जिज्ञासु मस्तिष्क ने तत्काल प्रश्न किया कि यह सेब टूटकर नीचे जमीन पर ही क्यों गिरा ऊपर आकाश में क्यों नहीं गया? बस फिर क्या था? प्रश्न उठते ही न्यूटन का मस्तिष्क-यन्त्र कारण खोजने की दिशा में गतिशील हो उठा। विचारों के स्तर पर स्तर खुलने लगे। एक के बाद एक रहस्यों के नक्षत्र कल्पना क्षितिज पर उदय और अस्त होने लगे। उधर मस्तिष्क की सूक्ष्म शक्तियों ने रहस्य बिन्दुओं को खोजना शुरू किया और इधर न्यूटन ने भौतिकता की कसौटी पर उनकी परख करने के लिए प्रयोग प्रारम्भ कर दिए। इस प्रकार न्यूटन का अन्तर तथा बाह्य, विचार एवं क्रिया मिलकर प्रकृति का रहस्योद्घाटन करने पर एक मत हो गये। मनुष्य का मन मस्तिष्क तथा इन्द्रियाँ जब एक रूप होकर क्रियाशील होते हैं तब वह देवत्व की एक ऐसी कक्षा में पहुँच जाता है जहाँ पर जीवन और जग के रहस्य उस पर स्वयं प्रकट होने लगते हैं।

न्यूटन सेब के पतन का कारण खोजने से डूब कर संसार को भूल गये और जब वे विचारधारा से निकल कर ऊपर आये तब उनके हाथ में “गुरुत्वाकर्षण” का सिद्धान्त था।

अनेक वर्षों के अनवरत परिश्रम के बाद न्यूटन ने जिस गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को खोज निकाला था और जिसके कारण उनका नाम संसार में फैल गया था उस पर वे सहर्ष सन्तोष करके ही नहीं बैठे रहे थे। एक सीढ़ी से दूसरी सीढ़ी पर आगे बढ़े और इसी सिद्धान्त के बल पर आकाशीय प्रकाश पिंडों की गतिविधि की गणना कर डाली और एक ऐसी दूरबीन का आविष्कार किया जिसकी मदद से दूरस्थ ग्रह-नक्षत्रों को आसानी से देखा जा सकता था। इस प्रकार मानवता के कल्याण कामी न्यूटन ने अपने को तिल-तिल खपाकर व्योमस्थ लोकों के लिए मनुष्य का प्रारम्भिक पथ प्रशस्त कर दिया। आज विज्ञान के बढ़े हुए युग में भले ही हमें न्यूटन की यह खोज साधारण लगे और आधुनिक गृह मंडलीय अभियान की तुलना में न्यूटन के सिद्धान्तों को हेय समझें किन्तु यह मानना ही होगा कि आज की इस वैज्ञानिक उन्नति के शिलान्यास का श्रेय सर आइजक न्यूटन को ही है, जिसके लिए संसार सदैव उनका आभारी रहेगा। किसी क्राँति को मूर्तिमान कर दिखाने वालों की अपेक्षा उसकी चेतना देने वाला भी किसी दशा में कम अभिनन्दनीय नहीं होता।

गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्तदाता न्यूटन की योग्यता और कीर्ति ने उन्हें अनेक शिक्षा संस्थानों द्वारा आमंत्रित कराया। यद्यपि उनकी इच्छा अध्यापन करने की नहीं थी तथापि नये-नये वैज्ञानिक निर्माण करने के मन्तव्य से वे कैम्ब्रिज कॉलेज में गणित के प्रोफेसर हो गये। अध्यापन क्षेत्र में हुए उन्हें अभी दो ही वर्ष हुए थे कि इंग्लैण्ड की महान वैज्ञानिक संस्था राँयल सोसाइटी ने उन्हें अपना सम्मानित सदस्य बना लिया और अपनी सूझ-बूझ तथा योग्यता के बल पर शीघ्र ही वे उसके अध्यक्ष चुन लिये गये। इस पद पर निरन्तर वे पच्चीस साल तक काम करते रहे।

इसके अतिरिक्त वे यूनीवर्सिटी क्षेत्र से पार्लियामेंट के मेम्बर भी चुने गये और इंग्लैण्ड की सरकार ने उनकी खोजों से प्रसन्न होकर टकसाल का अध्यक्ष बना दिया तथा रानी ऐन ने उन्हें “सर” की उपाधि भी दी।

मनुष्य के लगनशील पुरुषार्थ का यह कैसा जीता-जागता चमत्कार है और ज्ञान का कितना बोलता हुआ जादू है कि एक दिन भेड़ें चराने वाला अनाथ बालक न्यूटन आज इंग्लैंड की टकसाल का अध्यक्ष था।

अपने इन सब उत्तरदायित्वों को सँभालते हुये भी सर आइजक न्यूटन अपने खोज सम्बन्धी कार्यों में निरन्तर लगे रहे। गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त के बाद वे प्रकाश के सिद्धान्त की खोज कर रहे थे इसी बीच 1729 ई. में 85 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई।

न्यूटन ने बीस वर्ष के अनवरत परिश्रम के बाद प्रकाश सम्बन्धी अपने सिद्धान्त पूरे कर लिये थे, जिस समय अपना कार्य पूर्ण करने के बाद वे मेज पर सारे कागज रखकर किसी कार्यवश बाहर गये उसी समय कमरे में बैठा हुआ उनका कुत्ता एक चूहे पर इस प्रकार झपटा कि मेज पर रक्खा हुआ लैम्प गिर गया जिससे उनके प्रकाश सम्बन्धी सारे कागज भस्मीभूत हो गये।

जिस समय न्यूटन ने कमरे में आकर उस दृश्य को देखा तो आह करके कुर्सी पर पड़ गये। उनका कुत्ता पास आकर दुम हिलाने लगा। उन्होंने कुत्ते पर क्रोध करने के बजाय उसको थपथपा कर केवल इतना ही कहा—”प्यारे डायमण्ड! तुम्हें पता नहीं कि तुमने मेरा कितना बड़ा नुकसान कर डाला है।”

निःसन्देह न्यूटन का यह धैर्य, वह क्षमाशीलता ऋषित्व के स्तर की थी। उन्होंने वह वज्राघात एक साधारण घटना की भाँति सह लिया किन्तु कुत्ते पर जरा भी क्रोध नहीं किया।

सर आइजक न्यूटन ने अपनी सारी कमाई परोपकार में ही लगाई। न्यूटन अपने पर बहुत ही कम व्यय किया करते थे, अपनी सारी आय वे कुटुम्बियों तथा दीन-जनों की सहायता में ही खर्च किया करते थे।

अपने युग का महानतम व्यक्तित्व होते हुये भी न्यूटन में अभिमान की दुर्बलता नहीं थी। वे अपने विषय में कहा करते थे कि “मैं सत्य के अगाध तथा असीम समुद्र के किनारे केवल सीप और शाखों को बीनने वाला बालक हूँ।”

कहना न होगा इन्हीं महान गुणों ने सर आइजक न्यूटन को संसार का महान पुरुष बना दिया। इन गुणों को धारण किये बिना कोई भी महान नहीं बन सकता और जिसमें इन गुणों का विकास होगा वह महान पुरुष बने बिना रह नहीं सकता।


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