अपने व्यक्तित्व विकास का रहस्य बतलाते हुए एक बार विनोबा भावे ने कहा कि “मैंने अपने शिक्षा काल में एक क्षण भी खराब नहीं किया और न कभी निरर्थक का निरुपयोगी श्रम किया। जो पूँजी मैंने उस समय जमा की है वह मेरे आज तक काम आ रही है। परिश्रम करने से परिश्रमशीलता का विकास होता है और जीवन की सारी सुख-शान्ति का निवास परिश्रम की गोद में ही होता है।”
सन्त विनोबा का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था। इनका जन्म बम्बई प्रान्त के कुलावा जिले में ग्यारह सितम्बर उन्नीस सौ पंचानवे में हुआ। विनायक नरहरि के माता-पिता बहुत ही धर्मात्मा और ईश्वर-भक्त थे। ब्राह्मणोचित गुणों से परिपूर्ण यह मराठा परिवार मध्यवर्ग का था।
विनोबा के जीवन पर माता-पिता के आचरण का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि धार्मिकता उनके रोम-रोम में बस गई। बहुत कुछ धार्मिक होने पर भी इनकी माता के विचार बड़े परिमार्जित एवं प्रगतिशील थे। हानिकर रूढ़ियों तथा निरर्थक परम्पराओं से उन्हें बहुत घृणा थी। जिन रीति-रिवाजों में वे कोई लाभकर तत्व न देखती थीं उनका पालन करना वे आवश्यक नहीं समझती थीं। माता की इस वैचारिक प्रगतिशीलता ने पुत्र की विचारधारा पर बड़ा ही वाँछित प्रभाव डाला जिससे उनमें बाल्यकाल से ही किसी विषय पर मौखिक रूप से विचार करने और उनकी उपयोगिता, अनुपयोगिता की विवेक बुद्धि का विकास हो गया। माता के दिए हुए यह संस्कार आगे चलकर उनके जीवन में ज्योति बनकर चमके, जिससे आज वे धर्म के युगीन व्याख्याकार के रूप में सम्मानित हैं।
आचार्य विनोबा भावे को बाल्यकाल से ही सामूहिकता में बहुत विश्वास रहा है। समय की पाबन्दी उनके माता-पिता की एक विशेष देन थी। प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही पाकर विनोबा ने बड़ौदा हाई स्कूल में कक्षा चार में प्रवेश लिया। घर पर माता-पिता द्वारा पढ़ाई में जगाई रुचि के कारण विनायक-विनोबा कक्षा के पाठ से सदैव आगे-चलते थे। अपनी पाठ्य- पुस्तकों के साथ वे अन्य-ज्ञानवर्धक पुस्तकें भी पढ़ा करते थे जिससे दिनों-दिन उनके ज्ञान की जिज्ञासा बलवती होती गई। मनुष्य जिस विषय के प्रति अपना हृदय समर्पित कर देता है वह समयानुसार उसे अवश्य प्राप्त कर लेता है, फिर वह कितना ही कठिन क्यों न हो।
कठिनता अथवा दुरुहता का अपना कोई मौलिक अस्तित्व नहीं है। ये वास्तव में मनुष्य की अरुचि तथा अलग्नता के ही बदले हुए रूप होते हैं। तन्मयता, लगन, रुचि और परिश्रम किसी भी कठिन कहे जाने वाले कार्य को सरल बना देते हैं। सुरुचिपूर्ण संलग्नता में एक विशेषता है कि वह मनुष्य को कठिन एवं श्रमसाध्य विषयों की ओर ही झुकाती है, उन्हीं में रुचि उत्पन्न करती है। मस्तिष्क की अन्तिम सीमा तक पहुँचकर किसी विषय का निष्कर्ष निकालने पर ही किसी सच्चे अध्यवसायी को सन्तोष होता है। जिन कार्यों अथवा जिन विषयों में मन मस्तिष्क को अपना पूरा कर्तव्य निभाने का अवसर न मिले ऐसे हल्के-फुलके विषयों में ज्ञानान्वेषक की रुचि कम ही रहती है और सुरुचिपूर्ण संलग्नता की प्रवृत्ति ही मनुष्य के व्यक्तित्व को ज्ञान के प्रकाश से जगमगा कर पूर्ण बना देती है।
बालक विनायक-विनोबा को अन्य विषयों की अपेक्षा गणित में अधिक रुचि थी। प्रश्नों के अन्तराल में प्रवेश कर उनका हल निकालने में उसे वैसा ही आनन्द आता था जैसा किसी गोताखोर का समुद्र से मोती पाने में। गणित के विषय में अन्य सारे विद्यार्थी विनायक-विनोबा को अपना नेता मानते थे। दूसरों के दुरूह प्रश्नों को हल करने, उन्हें उसकी रीति बतलाने, नई विधियाँ सिखाने के कारण विनायक-विनोबा में एक उत्तरदायित्वपूर्ण गुरु-भाव का उदय हो जाने से उसमें प्रारम्भ से ही एक अपेक्षित गम्भीरता का समावेश हो गया जिसने उसके आचरण पर बड़ा ही अनुकूल प्रभाव डाला। अब वह प्रयत्न एवं परिश्रमपूर्वक अपनी योग्यता को निरन्तर तरो-ताजा बनाये रखने के लिये अधिकाधिक अध्ययन करते और नये-नये विषयों में अपना पथ प्रशस्त करते। जिसके परिणामस्वरूप उनका मस्तिष्क प्रखर से प्रखर तर होता गया और वे बड़ौदा हाईस्कूल के विशेष विद्यार्थी बन गये।
अपनी लोकप्रियता के कारण हाईस्कूल तक पहुँचते-पहुँचते विनायक विनोबा विद्यार्थियों की एक बड़ी संख्या से घिरे रहने लगे। अपनी लोकप्रियता का उपयोग उन्होंने एक ऐसी मित्र-मंडली बनाकर किया जो अवकाश के समय में दूर-दूर तक भ्रमण करने जाती और देश, राष्ट्र तथा समाज की तात्कालिक समस्याओं के समझने समझाने के लिये विचार विमर्श करती और आगे चलकर उसके समाधान के उपाय सोचती। माता-पिता के दिए संस्कारों के कारण विनायक विनोबा ने अपनी रुचि के अनुसार अपनी मित्र-मंडली में भी आध्यात्मिक रुचि उत्पन्न कर दी जो उनके चरित्र-निर्माण में बहुत दूर तक काम आई।
मैट्रिक के बाद कालिज के प्रथम वर्ष में विनायक-विनोबा ने अपनी मित्र-मंडली को “विद्यार्थी-मंडल” नामक संस्था में बदल दिया और सुव्यवस्थित कार्यक्रम के साथ शिक्षा-प्रसार तथा समाज सेवा का कार्य आरम्भ कर दिया। इसकी बैठकों में सामाजिक कुरीतियों तथा नैतिक पतन की कड़ी आलोचना की जाती। लोगों को सुधार की प्रेरणा दी जाती और प्रगतिशील नये विचारों की प्रतिस्थापना की जाती थी। जन-जागरण के लिये विनायक-विनोबा के इस ‘विद्यार्थी-मंडल’ ने “शिवाजी जयन्ती” ‘हनुमान जयन्ती’ ‘गणपति-उत्सव’ तथा ‘दास नवमी’ जैसे उत्सव इस प्रकार से मनाने आरम्भ किये, जिससे लोगों में धर्म के साथ राष्ट्रीय एवं सामाजिक चेतना भी जागने लगी। इसके अतिरिक्त विनायक-विनोबा के नेतृत्व में इस विद्यार्थी मंडल ने जनता से एक-एक पैसा तथा पुस्तकें माँगकर एक विशाल पुस्तकालय की स्थापना की जिसमें भोलर्स्वथ, क्यान्डी के अप्राप्य कोष भी प्राप्य हो गये।
किन्तु पराधीनता की गन्ध देने वाली स्कूली शिक्षा से विनायक-विनोबा को सन्तोष न हो सका, अस्तु वे दूसरे वर्ष ही कॉलेज छोड़कर सच्चे ज्ञान की तलाश में काशी चले गये और वहाँ से महात्मा गाँधी के साबरमती आश्रम।
महात्मा गाँधी के साबरमती आश्रम के वातावरण तथा गाँधी जी के संपर्क में पहुँचने पर विनायक नरहरी भावे को जिनका कि नाम गाँधी जी ने विनोबा भावे रख दिया था, हार्दिक शान्ति मिली। वहाँ आकर उन्होंने अनुभव किया कि यही वह जगह है जहाँ संयमपूर्ण स्वावलम्बी तथा सच्ची सेवा भावना से ओत-प्रोत जीवन अपनाकर पूर्ण मनुष्य बनने का अवसर मिल सकता है।
मनुष्यता की पूर्णता प्राप्त करने के लिये विनोबा जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन आश्रम की सेवा तथा उसके कार्यक्रमों को समर्पित कर दिया। लोक-कल्याण की भावना से किसी विशेष प्रयास के बिना ही विनोबा जी का आत्मिक स्तर स्वयं ही कुछ ऊँचा उठ गया और उनमें काम करने की एक अद्भुत शक्ति भर गई। कहना न होगा कि मानवता की मंगल कामना करने वाले को अन्य मनुष्यों की शक्ति का एक अंश स्वतः प्राप्त हो जाता है। इस विषय में जिसका दृष्टिकोण जितना व्यापक, जितना निःस्वार्थ और जितना ऊँचा होगा उसे दूसरों की शक्ति का अंश उसी अनुपात में अधिक प्राप्त होगा।
आश्रम में रहकर विनोबा जी सूत कातते, आध्यात्मिक अध्ययन करते, बच्चों को पढ़ाते, उन्हें दैनिक आचरण की शिक्षा देते, स्वावलम्बन, उद्योग तथा शारीरिक श्रम का अभ्यास कराते। उनकी इस परिश्रमपूर्ण शिक्षण कला से प्रभावित होकर आश्रमवासियों ने “वर्धा-शिक्षण-योजना” के नाम पर शिक्षा की एक पद्धति का ही श्रीगणेश कर दिया।
पर्याप्त समय तक आश्रम में रहकर जब प्रयत्नपूर्वक विनोबा जी ने अपने पवित्र आचरण को पूर्ण परिपक्व बना लिया और संयम की आँच में अपने को तपाकर शुद्ध मानवता के दर्शन कर लिये तब वे एक साल की छुट्टी लेकर देशाटन के लिये आश्रम से चल पड़े। जिस अपने पूर्व गीता ज्ञान को उन्होंने गाँधी जी के संपर्क में विस्तृत किया था उसे अब व्यापक बनाने के लिए प्रकाण्ड विद्वान नारायण शास्त्री मराठी के पास गये और पाठशाला में निरन्तर छः माह तक ब्रह्मसूत्र का अध्ययन किया। अन्तर नगर-नगर, ग्राम-ग्राम गीता का ज्ञान वितरित कर देश की सामाजिक अवस्था का अध्ययन करते हुये समय समाप्त हो जाने पर पुनः आश्रम वापस आ गये। अपने अनुभव, अध्यवसाय, अध्ययन, परिश्रम तथा सेवा भाव से विनोबा जी ने जो पात्रता अपने में उत्पन्न की थी उसके सम्मान में गाँधी जी द्वारा ग्राम सेवा मंडल, सेवा ग्राम आश्रम, तालीमी संघ, चरखा संघ, ग्रामोद्योग संघ, गो सेवा संघ, महिला आश्रम आदि संस्थाओं के संचालन एवं प्रबन्ध का दायित्व उन्हें सौंप दिया, जिसे उन्होंने निस्पृह भाव से महात्मा गाँधी की सन्तोष-सीमा तक अदा कर दिखाया।
इसके अतिरिक्त स्वतन्त्रता संघर्ष में वे हर आन्दोलन तथा हर योजना के अंतर्गत जेल गये और अनेकों यातनायें सही। विनोबा जी के जीवन का प्रमुख लक्ष्य दरिद्र नारायण की सेवा करना रहा है। अपने जीवन में उन्हें दो ही बातें पसन्द हैं—आध्यात्मिक चिन्तन और दरिद्र नारायण की सेवा।
यद्यपि राजनैतिक आवश्यकता के समय भी विनोबा जी राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे तथापि राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से तो वे देहातों तथा गरीबों को आर्थिक स्वतन्त्रता दिलाने के लिए दिन-रात पैदल चलकर गरीबों के लिए भूमि माँगते हैं। उनकी यह सेवा भूदान तथा ग्राम दान के नाम से प्रसिद्ध है, और वे महात्मा गाँधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी की भाँति भारत में पूजे जाते हैं।