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योगाभ्यास सामान्य जीवन के साथ भी हो सकता है

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योग साधना में ध्यान धारणा के कितने ही प्रयोग विनियोग हैं। इनमें त्राटक का अपना विशिष्ट स्थान है। इसे एक प्रकार से निराकार ब्रह्म के ज्योति स्वरूप का ध्यान कह सकते हैं। आरम्भिक अभ्यास में भगवान की मनुष्याकृति छवियों का अवलम्बन लिए बिना काम नहीं चलता। उसके साथ भावनात्मक आदान- प्रदान सरल पड़ता हैं। भक्ति योग की साधना भगवान की मनुष्याकृति छवि के साथ आत्मीयता सघन करने के अभ्यास से ही आरम्भ से ही आरम्भ होती है। प्रेम की सरसता इसके बिना आती नहीं और श्रद्धा की परिपक्वता का अवलम्बन बनता नहीं । मन की एकाग्रता के लिए आरम्भ मे यही अभ्यास सरल पड़ता है ।। ऊँची कक्षा में ज्ञान की प्रधानता होती है। तब भावुकता के अवलम्बन की आवश्यकता नहीं पड़ती ।। विवेक और तत्त्वदर्शन भी उतना ही आनन्द लेने लगता है जितना कि आरम्भिक छात्रों को भक्ति भावना के सहारे मिलता है। आत्म दर्शन, आत्म- साक्षात्कार, आत्मानुभूति, ब्रह्म परायणता की स्थिति में तत्त्व निष्ठा ही प्रधान होती है। ऋतम्भरा प्रज्ञा का उदय होने पर आत्मा और परमात्मा का चेतनास्वरूप भली प्रकार दृष्टिगोचर हो जाता है। तब फिर कल्पित आकृतियों का अवलम्बन अपनाना बाल बुद्धि जैसा लगता है ।। प्रौढ़ावस्था में ज्ञान की गरिमा ही सर्वोपरि हो जाती है। आत्मबोध और तत्त्व बोध से ही पूरा- पूरा समाधान हो जाता है। तब सहज स्वाभाविक आनन्द की प्रधानता रहने लगती है। भगवान का सत् चित् आनन्द स्वरूप ही आराध्य बन जाता है उस स्थिति में सत्यं शिवं सुन्दरम् की जो तात्त्विक अनुभूति होती है वह भक्ति भावना की तुलना में न्यून नहीं वरन् अधिक की होती है। समाधान तो तथ्य से ही होता है। व्यापक सत्ता का निराकार होना ही तथ्य है। उच्चस्तरीय साधना तत्त्व बोधिनी ब्रह्म विद्या पर अवलम्बित होती है। वेदान्त विज्ञान की यही पृष्ठभूमि है। ध्यान के लिए आकार का आश्रय आवश्यक है। साधना का प्रमुख अवलम्बन ध्यान है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए पर ब्रह्म को प्रकाश पुंज की ईश्वर प्रदत्त प्रतिमा सूर्य है। उसी की छोटी- बड़ी आकृतियाँ बनाकर निराकार वादी ध्यान करते है। दृश्यमान प्रकाश को ज्ञान और ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। परब्रह्म परमात्मा की सविता के रूप में इसी आधार पर प्रतिष्ठापना की गयी है। गायत्री का प्राण सविता है। सविता की आकृति प्रातःकाल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य जैसी मानी गई है। प्रकाश रूप में ध्यान साधना के सभी प्रकार ‘त्राटक’ कहलाते हैं। सिद्धान्त यह है कि आरम्भ मे खुले नेत्रों से किसी प्रकाश प्रतीक को देखा जाय फिर आँखें बंद करके उस ज्योति का ध्यान किया जाय। उगते हुए सूर्य को दो पाँच सेकेण्ड खुली आँखों से देख कर आकाश में उसी स्थान पर देखने का कल्पना चित्र बनाया जाता है। वहाँ अधिक स्पष्ट अनुभूति के साथ दीखने लगे, इसके लिए चिन्तन क्षमता पर अधिक दबाव दिया जाता है। सूर्य की ही तरह चन्द्रमा पर, किसी तारक विशिष्ट पर भी वह धारणा की जाती है। प्रकाश को भगवान का प्रतीक माना जाता है और उसकी किरणें अपने आने तक की (चेतना में प्रवेश कर जाने की) दिव्य बलिष्ठता प्रदान करने की धारणा की जाती है। मोटे तौर से इसी को त्राटक साधना का आरंभिक अभ्यास कहा जाता है। इससे आगे का अभ्यास अंतःत्राटक का है।

दोनों नेत्रों के बीच आज्ञा चक्र है। इसे तृतीय नेत्र भी कहते हैं। शिव और दुर्गा की देवियों में तीन नेत्र दिखाई पड़ते हैं। यह विशिष्ट अवयव प्रत्येक मनुष्य में होता है, किन्तु प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है। जगाने से जाग जाता है। इसके जागृत होने पर दिव्य दृष्टि जागृत होती है। दिव्य दर्शन- दूरदर्शन इसी जागरण का नाम है। गान्धारी ने इसी दिव्य दृष्टि को जगा लिया था और उसी के सहारे उसने अपने पुत्र दुर्योधन का शरीर वज्रवत बनाया था। संजय ने इसी जागृत क्षमता के सहारे महाभारत के सारे दृश्य घर बैठे देखे और धृतराष्ट्र को सुनाये थे। भगवान शिव ने तृतीय नेत्र को खोलकर उसकी ऊर्जा से कामदेव को जलाकर भस्म किया था। ऐसे- ऐसे कितने ही प्रसंगों का वर्णन मिलता है जिसने प्रतीत होता है कि जागृत तृतीय नेत्र की (आज्ञाचक्र की) समर्थता कितनी महत्त्वपूर्ण है? अन्तःवाटक से प्रकाश ज्योति की धारणा शूक्ष्म शरीर के अन्तर्गत विद्यमान अतीव्र क्षमता सम्पन्न शक्ति केन्द्रों पर की जाती है। षटचक्रों वर्णन साधना विज्ञान में विस्तार पूर्वक दिया गया है। उन्हें जागृत बनाने के लिए जिन उपायों को काम में लाया जाता है। उनमें एक यह भी है कि उनमें उन केंद्रों का प्रकाश ज्योति जलने का ध्यान किया जाय । मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहद, विशुद्ध और आज्ञा चक्र यह षठ चक्र हैं। उनके स्थान सुनिश्चित हैं। उन्हीं स्थानों पर प्रकाश को धारण करने से उनमें हल- चल उत्पन्न होती है और मूर्छना जागृत में बदल जाती है। दक्षिण मार्गी साधना में जागरण की प्रक्रिया ऊपर से नीचे की ओर चलती है और वाम मार्ग में नीचे से ऊपर। गायत्री की उच्चस्तरीय पंचकोषीय साधना में आज्ञाचक्र प्रथम है और कुण्डलिनी जागरण में मूलधार से यह जागरण प्रक्रिया आरम्भ होती है। ध्यानयोग में अन्तःत्राटक का अभ्यास आज्ञा चक्र से आरम्भ होता है। सूर्य या दीपक की लौ का प्रकाश आज्ञा चक्र के स्थान पर किया जाता है और विश्वास किया जाता है कि उस अतिरिक्त ऊर्जा के पहुँचने से उस केन्द्र में आलोक उत्पन्न होता है और प्रकाश से सूक्ष्म शरीर में अभिनव ऊष्मा का शक्ति संचार बढ़ता है। दीपक सर्वसुलभ है। वह हर समय सर्वत्र, सरलतापूर्वक उपलब्ध हो सकता है। सूर्य तो देखने योग्य तभी तक रहता है जब तक वह स्वर्णिम है।

श्वेत होते ही उसकी ध्यान उपयोगिता चली जाती है। हर जगह, हर किसी को, हर दिन यह सुविधा भी नहीं होती कि नियत समय पर स्वर्णिम सूर्य का दर्शन करने के साथ- साथ त्राटक का अभ्यास आरंभ कर सके। कुछ दिन बाद तो बिना किसी प्रकाश अवलम्बन के ही संकल्प से दिव्य नेत्रों द्वारा प्रकाश ज्योति के दर्शन होने का क्रम चल पड़ता है पर आरम्भ में तो माध्यम चाहिए। इसके लिए दीपक को सरल माना गया है। पाँच सेकेण्ड खुले नेत्रों से दीपक के लौ को देखकर आँखे बन्द कर ली जाती है और भूमध्य भाग के भीतरी खोखले में उस ज्योति के जागृत होने की भावना की जाती है। उस प्रकाश से सूक्ष्म शरीर का सारा क्षेत्र ज्योतिर्मय एवं सशक्त होने की धारणा की जाती है। जब प्रकाश दर्शन धूमिल होने लगे तो आँखे खोलकर उसे देखने और फिर पलक बन्द कर लेने की प्रक्रिया अपना कर उस प्रक्रिया को चलाते रहते हैं। और उसे धीरे- धीरे बढ़ाकर आधा घण्टे तक पहुँचाया जाता है। भूमध्य भाग की सीध में मस्तिष्कीय मध्य भाग में पीनियल और पिट्यूटरी नामक दो ग्रन्थियाँ है। उनके हॉरमोन स्त्राव तथा ऊर्जा प्रवाह शरीर और मस्तिष्क को विभिन्न प्रकार के अनुदान प्रदान करने हैं। शरीर शास्त्री इन ग्रन्थियों के असाधारण महत्व को स्वीकार करते हैं। मनःशास्त्र के सूक्ष्म विज्ञानी इन ग्रन्थियों में चेतना की अतीन्द्रिय क्षमताओं की रहस्यमय परतें समाविष्ट मानते हैं। इन ग्रन्थियों को अधिक सक्रिय सक्षम बनाने के लिए अन्तःत्राटक द्वारा प्रकाश प्रवेश का अभ्यास किया जाता है। इसमें क्रमशः जितनी सफलता मिलती जाती है उसी अनुपात में आज्ञाचक्र की जागृति का तृतीय दिव्य नेत्र खुलने का लाभ मिलने लगता है। इस जागरण के सत्यपरिणामों का (असाधारण महिमा एवं फलश्रुति का) साधना विज्ञान में विस्तार पूर्वक वर्णन विवेचन हुआ है। आज्ञा चक्र के जागरण की भौतिक और आत्मिक सिद्धियों के अतिरिक्त लक्ष्य प्राप्ति का उच्चस्तरीय उद्देश्य भी इस साधना से प्राप्त होता है। पर ब्रह्म का अन्तर्जगत् में प्रकाश पुँज सविता के रूप में दर्शन करना यह गायत्री मंत्र की प्राण चेतना का ही साक्षात्कार है। समीपता बढ़ने से ज्योति से ज्योति मिलाकर साधक परम ज्योति बनता है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ सूत्र में आत्मा की परम यात्रा का लक्ष्य परम प्रकाश की प्राप्ति को ही बताया गया है। त्राटक अन्तरंग हो और बहिरंग यह साधक की स्थिति पर निर्भर है। दोनों से ही अन्धकार से छूटने और परम प्रकाश को पाने का उद्देश्य पूरा होता है। ध्यान नाद और त्राटक के उपरान्त योग साधना का चौथा चरण प्राणायाम और पाँचवा मुद्रा है। प्राणायाम में नासिका द्वारा विशेष विधि और विशेष क्रम से साँस खींचने और निकालने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। साथ ही संकल्प शक्ति का उपयोग भी किया जाता है। इससे वायुमण्डल में संव्याप्त प्राण तत्त्व खींचकर शरीर में प्रवेश करता है और स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर में प्राण शक्ति की प्रखरता का संचार सम्वर्धन करता है। कई व्यक्ति हवा में मिले ऑक्सीजन भाग में प्राण मानते हैं, पर बात ऐसी नहीं है ऑक्सीजन मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक तत्त्व हैं। वायु में घुला रहने के कारण वह प्रचुर मात्रा में सर्वसुलभ भी है। इतने पर भी वह मात्र पदार्थ है। प्राण चेतन तत्त्व है। जो ईश्वर तत्त्व की तरह ही अदृश्य रहते हुए भी सर्वत्र संव्याप्त है। साँस के साथ मात्र हवा और उसके साथ घुली हुई गैसें ही शरीर में प्रवेश करती है। संकल्प शक्ति चेतन है। उसका चुम्बकत्व ही आकाश में भरे हुए जीवन तत्त्व को (प्राण को) अपनी सामर्थ्य के अनुरूप खींचता है। प्राणायाम में श्वाँस लेने की विशेष विधि और विशेष प्रकार की संकल्प शक्ति का समन्वय ही वैसा अनुकूलन उत्पन्न करता है जिससे साधकों को अधिक से अधिक प्राणवान बनने का अवसर मिलता चला जाय। प्राण शक्ति का परिचय शरीर में जीवनी शक्ति के- बलिष्ठता, दृढ़ता, प्रतिकूलताओं सहन करने की क्षमता के रूप में मिलता है। मन में प्राण की मात्रा का आभास साहस, स्फूर्ति, पराक्रम, पुरुषार्थ, धैर्य, सन्तुलन जैसे गुणों के रूप में मिलता है। अंतःकरण में प्राणशक्ति को श्रद्धा, निष्ठा, प्रज्ञा के सुनिश्चित दृष्टिकोण एवं प्रचंड संकल्प शक्ति के रूप में पाया जाता है। इन विशेषताओं के कारण व्यक्तित्व हर दृष्टि से निखरता और सुसम्पन्न होता है।

सर्वतोन्मुखी प्रगति के पथ पर चल सकना इन्हीं विभूतियों के सहारे संभव होता है। बाहरी साधनों एवं परिस्थितियों की भी अपनी उपयोगिता है किन्तु व्यक्तित्व जिस अधार पर अन्तः प्रतिभा से सुसम्पन्न होते और उच्चस्तरीय प्रयोजन पूरे करते हैं उन्हें प्राण शक्ति के रूप में ही जाना जाता है। इस तत्त्व का जो जितना संचय कर सके समझना चाहिए कि उसने उतनी ही मात्रा में वास्तविक समर्थता का सम्पादन कर लिया। प्राणायामों में उच्चस्तरीय प्राण विनियोग सोऽहम् साधना है। इसे हंस योग के नाम से जाना जाता है। शरीर में श्वाँस के प्रवेश के साथ ‘सो’ की और निकालने के साथ ‘हम’ की सूक्ष्म ध्वनी होती है। श्वास- प्रश्वास क्रिया के साथ अनायास ही चलने वाले इस ध्वनि प्रवास पर मन को केंद्रित करके उस दिव्य ध्वनि को श्रवण करने का अवसर मिलता है जो जीव और ब्रह्म के संयोग समन्वय से उत्पन्न होती हे। प्रकृति और ब्रह्म के मिलन केन्द्र के ओंकार की ध्वनि निस्रत होती है। उसी समागम से उत्पन्न महत्त्व से यह सारा सृष्टि संचार (प्रपंच) चल रहा है। जीव और ब्रह्म के मिलन संयोग में सोऽहम् का संचार होता है। इन दोनों ही ध्वनि प्रवाहों के सहारे ब्रह्मतत्त्व तक पहुँच सकना सम्भव हो सकता है। सांस के साथ शरीर में प्राण प्रवेश के साथ ‘सो’ शब्द का श्रवण प्रयत्न इस भावना के साथ करते हैं के ‘स’- वह परमात्मा इस कलेवर में प्रवेश करके साँस के साथ- साथ कण- कण को प्रभावित परिपोषित करता है। साँस छोड़ते समय ‘हम्’ ध्वनि की अनुभूति की जाती है और निष्ठा जमाई जाती है कि अहम् अहंकार (मैं पन) बाहर निकल रहा है बहिष्कृत हो रहा है। अहंता का विसर्जन दिव्यता का संस्थापन- यही है वह प्रत्यावर्तन जिसके आधार पर मानवी काया में देवत्व का दर्शन होता है। सोऽहम् प्राण साधना को अजपा गायत्री भी कहते हैं। इसकी महिमा योगाभ्यासों की पंक्ति में बहुत ही उच्चस्तरीय गिनाई गयी है। सामान्य प्राणायामों में सूर्य वेदना लोम विलोम, प्राणाकर्षण भस्त्रिका, भ्रामरी, शीतली, शीत्कारी, उज्जायी आदि ८४ प्रमुख प्राणायामों की गणना है। उन्हें शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए (विभूतियों के निराकरण के लिए) चिकित्सा उपचार की तरह प्रयोग किया जाता है।

प्राण विद्या का अपना स्वतन्त्र विज्ञान है। योगाभ्यास के आध्यात्म प्रयोजनों उसकी उच्चस्तरीय विधियों का ही प्रयोग होता है। योग साधना का पाँचवाँ सोपान है मुद्रा। बन्ध और मुद्राओं का विस्तृत उल्लेख ‘‘घेरण्ड संहिता’’, ‘‘शिव संहिता’’, ‘‘गोरक्ष पद्धति’’, आदि साधना ग्रन्थों में विस्तार पूरक मिलता है।‘‘मूल बन्ध’’, ‘‘जालन्धर बन्ध’’, ‘‘उड्डियान बन्ध’’ प्रमुख हैं। महाबन्ध और त्रिबन्ध इन्हीं के संयोग से बनते हैं। शक्ति चालिनी मुद्रा, महामुद्रा, शांभवी मुद्रा, उन्मनी मुद्रा, आश्विनी मुद्रा, योनि मुद्रा अथवा चेतनी मुद्रा, खेचरी मुद्रा आदि के नाम मुद्रा प्रकरण में विषेश रूप से उल्लेखनीय हैं। मुद्रा और बन्धों का युग्म है। दोनो की गणना एक ही प्रकरण में होती है। मुद्राओं में खेचरी मुद्रा को गायत्री उपासना की उच्चस्तरीय साधना में प्रमुखता दी गयी है। जिह्वा को पलट कर तालु से लगाना। जीभ की नोंक से तालु को धीरे- धीरे सहलाना उस सहलाने से रसानुभूति का अनुभव करना, संक्षेप में यही खेचरी मुद्रा का मोटा रूप है। सिर शीर्ष को ब्रह्याण्ड की उपमा दी गयी है। उसकी पोल में भरे हुए द्रव को क्षीर सागर कहते हैं। इसके मध्य में अवस्थित सहस्त्रार चक्र को सहस्त्र फन वाला शेष कहा सर्प गया है जिस पर विष्णु भगवान सोये हुए हें। ब्रह्म लोक की प्रतिकृति ब्रह्मरन्ध्र को (मस्तिष्कीय गह्वर को) माना गया है। तीनों देवताओं के लोक भी इसी गह्वर को अपनी निष्ठा के अनुरूप अनुभवी आचार्यों ने इसी क्षेत्र को बताया है। ब्रह्मा जी का नील जल- सहस्त्रदल कमल इसी क्षेत्र में है। जहाँ उन्होंने तप किया और सृष्टि रची। मानसरोवर, कैलाश सहित शिव लोक के रूप में ही इस क्षेत्र का वर्णन है। ब्रह्मलोक का आधार- तल ही तालु है। इसमें तालु तल की कितनी ही उपमाएँ दी गयी हैं। आकाश में टँगे तारकों की तरह इसके छोटे कोष्टकों को बताया गया है। यह मधुछच्छन्न भी है जिसमें से मधु टपकते रहने की बात कही गयी है। तालु कोष्टकों को इन्द्र की सहस्त्र आँखें एवं सहस्त्र योनियाँ बताया गया है और उनसे सोम रस टपकते रहने की बात कही गयी है। काकचंचु को कामधेनु गौ का स्तन बताया गया है। अमृत कलश इसी शीर्ष भाग को कहते हैं। अमृत वर्षा की बूँदें यहीं से टपकती हैं। ऐसे- ऐसे अनेकों प्रतिपादन, विभिन्न साधना विज्ञानियों ने अपने- अपने तर्क प्रमाण और अनुभवों को साक्षी देते हुए प्रस्तुत प्रस्तुत किए हैं। खेचरी मुद्रा के सहारे- तालु संस्थान के साथ जिह्वा के अग्रभाग का समन्वय होता है तो क्रमशः कई प्रकार की मधुर संवेदनाएँ उभरती हैं। तन्त्र ग्रन्थों में इसे प्रतिक्रिया के समतुल्य सरस बताया गया है। उसका एक नाम आत्म रति भी मिलता है। माता के स्तन से दूध पीते समय बालक को जैसी तुष्टि, पुष्टि और संतुष्टि का आनन्द मिलता है वैसी ही खेचरी मुद्रा के अभ्यास से भी कही गयी है। ‘खे’ कहते हैं आकाश को ‘चर’ कहते हैं विचरण करने को।

आकाश में विचरण करने वाले पक्षियों एवं ग्रह नक्षत्रों को ‘खेचर’ कहते हैं। स्वच्छ आकाश में परिभ्रमण करने वाली मनःस्थिति को खेचरी कहा गया है। जिस प्रकार पिंजरे से निकल कर पक्षी आकाश में उड़ता है। उसी प्रकार इस साधना के सहारे भव- बन्धनों से मुक्त होकर स्वच्छंदतापूर्वक अभीष्ट दिशा में उड़ चलने का अवसर जिस स्थिति में मिले उसे खेचरी मुद्रा नाम दिया गया है। इस साधना में सफलता मिलने पर साधक को जीवन मुक्त स्थिति में पहुँचने का लाभ मिलता है। ब्रह्म लोक शिव लोक, विष्णु लोक, शिव लोक अपने काय कलेवर में विद्यमान हैं। ब्रह्म गह्वर उनका केन्द्र है। तालु को उसका प्रवेश द्वार माना गया है। द्वार खटखटाने पर खोलने वाले उसे खोल देते हैं। तालु और जिह्वा के अग्रभाग का समागम एक प्रकार के परब्रह्म का द्वार खटखटाना ही है। उस अनुरोध पर प्रवेश की सम्भावना बढ़ती है। बच्चा स्तनपान करता है तो उसे दूध भी मिलने लगता है। खेचरी मुद्रा के अभ्यास को इन्हीं प्रयोजनों से मिलती- जुलती प्रक्रिया समझा जाना चाहिए। योगाभ्यास के पाँच प्रकरणों में खेचरी मुद्रा अन्तिम है किन्तु उसका प्रभाव ध्यान, नाद, त्राटक, प्राणायाम को पूर्व चरणों की किसी भी प्रकार कम नहीं है। इनमें से कौन किसे, किस तरह, कितनी मात्रा में सम्पन्न करे यह अपनी स्थिति का उचित पर्यवेक्षण करते हुए किसी अनुभवी साधक से ही निर्णय निर्धारण कराया जाना चाहिए।

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