देव- संस्कृति प्राचीनकाल में समूचे विश्व के हर क्षेत्र एवं समुदाय को सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों से अनुप्राणित एवं सराबोर बनाने में समर्थ और सफल रही है ।। सतयुग इसी का प्रमाण है ।। यह समृद्धि एक वर्ग समुदाय विशेष तक सीमित नहीं रही ।। सूर्य की ऊर्जा ने बादलों की सरसता और वायु की सजीवता बनकर इस धरती पर न केवल निवास करने वाले मनुष्यों को वरन् समूचे प्राणी समुदाय को सुखी समुन्नत बनाने में अपनी क्षमता को लगाया ।। फलतः कृतज्ञता भरा, सद्भाव, सम्मान पाया ।।
इस प्रवृत्ति की पुनरावृत्ति इन दिनों नितान्त आवश्यक है हो रही है ।। दुर्बुद्धि जन्य दुराचरण ने व्यक्ति और समाज के हर क्षेत्र को उलझाकर रख दिया है ।। साधनों का तो बाहुल्य है पर उनका सदुपयोग न होने के कारण वे सुख- सन्तोष देने प्रगति में सहायक बनने के स्थान पर उलटे विपत्ति की विभीषिकायें विनिर्मित कर रहे हैं ।। समाधान के रास्ते बंद जैसे दीखते हैं ।। सर्वनाश की घड़ी निकट आती चली जा रही है ।। ऐसी विषम बेला में कारगर उपाय एक ही रह जाता है कि देव- संस्कृति को पुनर्जीवित किया जाय । उसका आलोक जन- जन तक पहुँचने दिया जाय ।। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्त्तत्व की परम्पराओं को लोक व्यवहार में मान्यता मिल सकी तो ही सुखद सम्भावनाओ का आधार बन सकेगा ।।
विज्ञान और बौद्धिक विकास ने संसार को बहुत छोटा- एक गाँव- मुहल्ले की तरह अत्यन्त निकट एवं सघन बनाकर रख दिया है ।। बड़ी समस्याओं के विचार क्षेत्रीय दृष्टिकोण अपनाने से हल नहीं हो सकते ।। उसके लिये व्यापक दृष्टि, व्यापक कार्य पद्धति और व्यापक परिधि की बात ध्यान में रखनी होगी ।। उलझने स्थानीय दीखती भले हों, पर वे एक- दूसरे के साथ इस प्रकार जुड़ी और गुँथी हुई हैं कि छोटे क्षेत्र का समाधान कारगर हो नहीं सकेगा ।। समूचा गाँव जल रहा हो तो किसी कोने को न जलने देने की चेष्टा भर करने से क्या काम चलेगा? अब किसी देश या वर्ग की प्रगति से बात नहीं बनती ।। अनास्था संकट के कारण उत्पन्न असंख्य विग्रहों का समाधान महाप्रज्ञा को- उदार सार्वभौम चेतना को मान्यता देते हुए लोक मानस को देव- संस्कृति का पक्षधर बनाने से ही हो सकेगा ।।
राजनैतिक या साम्प्रदायिक उपनिवेशवाद के दिन अब लद गये ।। एक विश्व की बात सोचने के साथ ही एक संस्कृति को भी ध्यान में रखना होगा ।। प्रचलित अनेकानेक संस्कृतियों के उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण अंश यदि एक स्थान पर एकत्रित कर दिये जायें तो उसका स्वरूप एक देव- संस्कृति जैसा बनता है ।। इस दृष्टि से पुरातन भारतीय संस्कृति का स्वरूप अनायास ही इस स्तर का बनता है कि उसे मानवी संस्कृति का स्थान मिल सके ।।
देव- संस्कृति को व्यापक बनाने में, उसका स्वरूप निखारने में भारत भूमि में प्रबल प्रयत्न होना चाहिए, ताकि उसकी उपयोगिता बौद्धिक प्रतिपादनों में नहीं, परिणति को देखकर समझी और अपनाई जा सके ।। इस दृष्टि से भारत भूमि में युगान्तर चेतना के युग निर्माण योजना के प्रबल प्रयास चल भी रहे हैं और आशाजनक गति से सफल भी हो रहे हैं ।। पर इतने भी से सन्तुष्ट हो बैठने से काम चलने वाला नहीं है ।। इन प्रयोगों को विश्वव्यापी बनाये जाने का भी आवश्यकता है ।।
(समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान पृ.सं.1.244)