विश्व संस्कृति अपने उत्कृर्ष और उन्मेष के लिए सुसंस्कत व्यक्तियों की ढूँढ खोज कर रही है । ऐसे व्यक्ति जो समाज के गढ़ने-तदनुरूप ढलने में तत्पर हो सकें । इस अनिवार्य जरूरत के पूरा करने का दायित्व शिक्षण तन्त्र पर है । इसी की जिम्मेदारी है कि वह समाज की वर्तमान और भविष्य की जरूरतों के अनुरूप व्यक्तियों के अन्दर से व्यक्तित्व को उभारें । ताकि वह आज के और आने वाले समय में आदर्शवादी उपयोगिता की कसौटी पर खरा सिद्ध हो सके । प्रचलित शिक्षण व्यवस्था की छानबीन करने पर हर किसी को यह सहज बोध हो जाएगा कि इस सम्बन्ध में यह प्रायः असफल है । इसकी दशा उस निठल्ले कारखाने की सी है, जिस पर कच्चे लोहे से उत्तम कोटि की मशीनें बनाने की जिम्मेदारी हैं वह अपयोगी और कारगर सिद्ध नहीं हो पा रहीं । यह स्थिति एक देशीय नहीं सार्वभौमिक है ।
अमेरिकन मनीषी इवान इलिच ने अपनी कृति ''डिस्कूलिंग सोसाइटी'' में स्थिति का खुलासा करने की कोशिश की है । उनके अनुसार शिक्षा की दुकानों में बन्द शिक्षण क्रिया अपनी परिणति भौतिकवादी प्रदूषण, सामाजिक ध्रुवीकरण और मनोविज्ञानिक भावना शून्यता में कर रही है । इन सबके प्रधानतया दो कारण हैं । पहला इसे एक खास आयु वर्ग की सीमा में समेट देना । दूसरा अन्य व्यापारों की भाँति शिक्षण का व्यापारीकरण कर देना । इसी का प्रतिफल है कि शिक्षा जन-जन तक द्वार-द्वार तक नहीं पहुँच पा रही । व्यापारीकरण के लोकजीवन को संस्कारित करने की परम्परा निर्जीव प्रायः हो गई है । दिमाग को कम्प्यूटर मानकर उसमें जानकारियाँ तो घुसेड़ी जा रही हैं । पर मानवीय व्यवहार गढ़ पाने में असमर्थता है । परिणाम आज की सामाजिक दशा है । जहाँ अपने को पढ़ा-लिखा कहने वाला व्यक्ति स्वयं के ज्ञानवान और विद्वान होने का दावा तो करता है पर ज्ञान इतना भी नहीं कि स्वयं में क्या है? स्वयं के प्रति, समाज के प्रति क्या दायित्व है, उन्हें किस कौशल और तत्परता से पूरा किया जाय? पढ़ने और पढ़ाने वाले दोनों की एक-सी दशा है ।
कारगर उपचार एक ही है- लोकशिक्षण का एक नया तंत्र विकसित करना । जहाँ शिक्षा कैदमुक्त और सार्वभौतिक हो और श्री इलिच के शब्दों में कहें तो व्यक्तित्वों के गढ़ने की टकसाल हो । ऐसी टकसाल जहाँ से ढले सिक्के आज और कल सोलह आने खरे साबित हों । इसी कारण वह ढालने वाले प्रशिक्षक में दो गुणों की अनिवार्यता बताते हैं । उन्हीं के शब्दों में प्रशिक्षक कुम्हार की तरह-प्रशिक्षक वैद्य की तरह । ऐसा कुम्हार जो मिट्टी के लौंदे को समय के अनुरूप समाज हित में क्षेत्र की समस्याओं को निदान भिन्न-भिन्न रूप देने में तत्पर रहता है । उसे पकाता मजबूती प्रदान करता है । श्रीरामकृष्ण गुरु को वैद्य के अनुरूप होने पर बल देते हैं । ऐसा वैद्य जो मानव व्यक्ति और समूह की आन्तरिक और बाहृ संरचना व क्रिया विधियों में निष्णात हो । बिगड़े को सँवारने, बिखरे को समेटने, नव जीवन संचार करने में माहिर हो ।
आज की स्थिति में इस तंत्र को विकसित करने की तकनीक देवसंस्कृति के उन्नायक ऋषियों के प्राचीन सफल प्रयोगों से सीखनी होगी । अतीत के झरोखे से झाँकने पर साफ दिखाई देता है कि गुरुकुल और आरण्यकों का यह तंत्र कुछ ऐसा ही विकसित रहा है । गुरुकुल अर्थात् बालजीवन को गला-तपाकर समग्र व्यक्तित्व के रूप में गढ़ने-निखारने की कार्यशालाएँ । परिष्कार प्रशिक्षण संस्कार की इसी प्रकिया अनगढ़ को गढ़ने के इसी विधान ने संस्कृति और सभ्यता संस्कृति के इस पुष्पित उद्यान की कटाई-छटाई-गुड़ाई-निराई आदि साज-सँभाल करने की जिम्मेदारी आरण्यकों पर है । इनके ऊपर लोकसेवी वानप्रस्थों के निर्माण और विकास की जिम्मेदारी रही है । इन प्रयासों ने अपने समय-संस्कार शोधन के विस्मयकारी परिणाम प्रस्तुत किए हैं । अनगढ़ कुरूप कोयले जेसस दिखने वाले हीरे के टुकड़ों के सुसंस्कारित कर चमकते-दमकते देवमानवों के रूप में बदल कर देव संस्कृति को जन्म देने में समर्थ हुए हैं ।
गुरुकुल आरण्यकों की यह प्रणाली आज के प्रचलित स्वरूप से तत्व और प्रक्रिया दोनों ही दृष्टियों से भिन्न रही है । इसकी तलाश के लिए प्रख्यात अध्येता आर. एन. पाणि ने अपने ग्रन्थ ''इन्टीग्रल एजूकेशन थॉट एण्ड प्रैक्टिस'' में प्रशंसनीय प्रयास किया है । उनके अनुसार, मानवी प्रकृति को प्रशिक्षित, रूपान्तरित करने के तीन सोपान हैं शिक्षा, कला और विद्या । प्रत्येक सोपान परस्पर अन्योन्याश्रित होते हुए अपने में एक विधा है । पहली दोनों की सार्थकता इसी में है कि तीसरी को उपलब्ध कर ले । ऐसा न हो पाने पर इनकी स्थिति कुछ वैसी ही होती है जैसी लंगड़े या लूले की । आज के स्कूल कालेजों में पढ़ाई जाने वाली शिक्षा है- जिसका उद्देश्य विभिन्न माध्यमों बालकों का बौद्धिक विकास स्मृति अभिवर्धन करना है । परीक्षा लेने की तकनीकों से उर्पयुक्त कथन की सत्यता प्रमाणित होती है । बल्कि अधिकाधिक अंशों में परीक्षा बौद्धिक विकास की अपेक्षा स्मरण शक्ति की कहीं होती है ।
गुरुकुलों का उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से विद्या को विकसित करना रहा है । प्रक्रिया की दृष्टि से देखें तो कोई भी शिक्षा सही दिशा में अपने बढ़ते कदमों से कला तक पहुँचती है । कला की प्रवृत्ति प्रारम्भ से भावोन्मुखी होती है । यदि कोई भी कला अभी तक भावों को नहीं स्पर्श कर पाई है तो समझना चाहिए कि उसका दायरा अभी शिक्षा तक ही है कला नहीं बन पाई । उदाहरण के लिए संगीत शिक्षा भी है और कला भी । अपने प्राथमिक चरणों में उस्ताद जब सीखने वाले तबला, सितार आदि वाद्य यंत्रों के बजाने की तकनीकें, समझाता है तब वह शिक्षा होती है, सिर्फ बुद्धि समझे स्मृतिगम्य । मतलब इतना ही होता है कि बुद्धि समझे और स्मृति याद रखे ।
शिक्षा की परिपक्वता के बाद जब संगीत साधक अन्तर भावों में डूबकर गाता है । स्वयं विभोर होकर औरों को विभोर करता है । तब इन क्षणों में शिक्षा-कला का स्वरूप प्राप्त करती है । इस अपूर्व तन्मयता में उसकी विकसित होती जा रही भाव चेतना अपनी मौलिकता की अभिव्यक्ति विषय की निगूढ़ताओं अन्तर की अनेकानेक सूक्ष्मताओं में करती है ।
भाव-स्पर्शी कला यदि विकास की गति पर बढ़ सकी-तो कला साधना बन पाती है । ऐसी साधना जो भावों के प्रगाढ़ परिपक्व होने पर जीवन बोध करा दे । अलाउद्दीन खाँ, रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कला का विकास इसी स्तर तक किया था । यह कथन सिर्फ संगीत के क्षेत्र में नहीं विज्ञान के क्षेत्र में भी सत्य है । इमर्सन ने साहित्य तथा रमन-आइन्सटाइन ने विज्ञान के माध्यम से विद्या के इसी स्वरूप को उपलब्ध किया था । इस सम्भावना के बावजूद आवश्यक नहीं कि शिक्षा कला बने और प्रत्येक कला विद्या के स्तर तक विकसित हो सके ।
आज की स्थिति में शिक्षा अर्थात विकसित बौद्धिकता अपेन निहित स्वार्थों के रक्षण अभिवर्धन के रूप में खपती रहती है । कला सम्मान अर्जित करने में व्यय हो रही है? फिर भला इनका विकास विद्या के रूप में कैसे हो? यही कारण है कि सच्चे अर्थों में कला भी खोती जा रही है । प्रत्येक क्षेत्र में कला-निष्णात् पुष्ट होते जा रहे है । कारण एक ही उनकी रीति-नीति का भाव-स्पर्शी होने के स्थान पर वैभव स्पर्शी होना ।
उपनिषदों ने इन सबका वर्गीकरण दो वर्गों में किया है ''अपरा विद्या और परा विद्या'' पहले में शिक्षा और कला की समस्त विधाओं का समावेश है । दूसरे में जीवन बोध के सूत्रों का । इन सूत्रों को उचित ढंग से समाविष्ट करने पर जीवन का प्रत्येक कार्य आत्मोन्नति का साधन बनता है और अपरा विद्या भी परा विद्या का स्वरूप प्राप्त करती है । आचार्य शंकर की प्रश्नोत्तरी माला में एक सवाल आता है ''कः विद्या?'' वह उत्तर देते हैं-''सा विद्या या विमुक्तये ।'' अर्थात् विद्या वही जो मुक्ति दिला सके । मुक्ति किससे भ्रम जंजालों से, इन्द्रियों की दासता से, स्वयं की दैन्यता से । हर उस चीज से जो जीवन बोध में अवरोध बनती है ।
(समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान पृ.सं.1.169-7)