समस्त विश्व को भारत के अजस्त्र अनुदान

सांस्कृतिक पुनरुत्थान् महत्वपूर्ण काम

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
भारतीय संस्कृति कितने वैज्ञानिक आधारों पर खडी़ है और कितनी उपयोगी जीवन-विद्या का प्रतिपादन करती है, यह स्पष्ट हो चुका है। मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने की दिशा में यही हमें अग्रसर करती है। इससे जीवन की सम्पूर्ण गतिविधियों का सुसंचालन होता है। मनुष्य के अन्त्रंग को ठीक मार्ग पर आरूढ़ कराने की शक्ति इसी पद्धति में है। मनुष्य की पशुता का शमन करके उसे देवत्व की ओर अग्रसर करने का मार्ग यही पद्धति है। मनुष्य की व्यक्तिगत तथा सामूहिक सुख-शांति; सच्चरित्रता, सदभावना और सहकारिता पर निर्भर है। इन तीनों महान् तत्वों का उदगम स्थान अन्तरात्मा है। उस केन्द्र को प्रभावित करके कुमार्ग से घृणा और सत्मार्ग में प्रेरणा उत्पन्न की जा सकती है। यह कार्य इस पुस्तक में वर्णित भारतीय संस्कृति के द्वारा ही हो सकता है। भारतीय तत्वज्ञानियों ने हजारों वर्षों के प्रयोगों और परिश्रमों के बाद जिन रहस्यों का उदघाटन किया था, उनका समावेश इस संस्कृति में आ गया है। पहले पहल इस जीवन-पद्धति का आविष्कार और क्रियात्मक प्रयोग भारत में होने के कारण इसका नाम "भारतीय संस्कृति" रखा गया, वस्तुत: यह मानव मात्र के लिए एक समान हितकारी है। यह विश्व-संस्कृति है। यदि विश्व में इन हितकारी जीवन-सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाय, तो शान्ति, सौहार्द और विश्वबन्धुत्व स्थापित हो सकता है।
 
यह बडे़ दु:ख का विषय है कि भारतीय विचारधारा और जीवन-यापन पद्धति आज बहुत विकृत, अव्यवस्थित, उपेक्षित और अस्त-व्यस्त दिशा में पडी़ हुई है। उसे ठीक तरह न समझ सकने के कारण हम विदेशी संस्कृतियों से प्रभावित होते जा रहे हैं।

 गलत पथ-प्रदर्शन और पूरी जानकारी न होने के कारण हम भारतवासियों को अपनी संस्कृति का पूरा ज्ञान नहीं है। जो ज्ञान है वह अधूरा और अपर्याप्त है। गलत विचार हमारे मन में भर दिये गए हैं। सुयोग्य पंडितों के अभाव में भारतीय संस्कृति को विकृत करके रूढ़िवाद, अन्ध विश्वास एवं मूढ़ता के बुरे रूप में उपस्थित कर दिया है। इस दुहरे आक्रमण से आहत हुई हमारी संस्कृति अपना उच्च स्थान कायम न रख सकी। उपेक्षा और तिरस्कार के गड़्ढों में गिर कर दुर्दशा का जीवन बिताने लगी। पर स्मरण रखिए वही हमारे सब प्रश्नों का एक मात्र हल है। उसी की पुनर्स्थापना द्वारा फिर देश में महापुरूष पैदा हो सकते हैं। पारस्परिक स्नेह, सदभाव और उदारता का समावेश हमारी संस्कृति की पुनरावृत्ति से ही हो सकता है।
  सांस्कृतिक पुनरुत्थान दो प्रकार से होना चाहिए, एक तो भारतीय संस्कृति के लिए व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में सुव्यवस्थित कार्य प्रणाली का होना आवश्यक है। आज भारतीय धर्म, दर्शन, तत्त्वज्ञान, कर्मकाण्ड एवं आचार-विचार का जो रूप सामने उपस्थित है, वह लम्बे अज्ञानान्धकार में गुजरने के कारण विकृत, अव्यवस्थित और अनुपयोगी हो गया है। आज के युग में स्थिति यह है कि वह लाभदायक न होकर हानिकारक एवं प्रतिगामि बन गया है। इस स्थिति में हमें अपनी प्राचीन संस्कृति के वास्तविक एवं विशुद्ध रूप को सर्वसाधारण के सम्मुख उपस्थित करना होगा और बताना होगा कि यह रूढि़वाद, प्रतिगामिता, भ्रमजाल, संकीर्णता एवं साम्प्रदायिकता नहीं, वरन् एक अत्यन्त ही उपयोगी, बुद्धि संगत, विज्ञान सम्मत, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र, समाज व्यवस्था एवं मानवता की दृष्टियों से यह सर्वोकृष्ट प्रक्रिया हैं। तभी हम आज के बुद्धिवादी युग में भारतीय संस्कृति के महत्व को स्वीकार करने एवं उसे आचरण में लाने के लिए किसी को सहमत कर सकेंगे।
  सांस्कृतिक पुनरुत्थान का महान् कार्य पूरा करने के लिए हमें विशाल पैमाने पर कार्यक्रम बनाना और फैलाना होगा। तभी इतने बडे़ देश की इतनी बडी़ जनसंख्या में उन सुसंस्कारित तथ्यों की स्थापना संभव हो सकेगी। जितने अंशों में हम इसे आगे बढा़ने में सफल होंगे, उतना ही सहयोग और सदभाव प्राप्त कर सकेंगे। एक बार अच्छी तरह इसकी उपयोगिता समझ लेने के उपरान्त इस गति-विधि को देश व्यापी और फिर विश्वव्यापी बनाना कठिन न होगा। हमारी योजनाएँ इस प्रकार हैं-
  १-संस्कृति का परिमार्जित रूप जनता के सम्मुख रखना चाहिए। अभी तक भारतीय संस्कृति का कोई परिमार्जित रूप जनता के सामने मौजूद नहीं है। अनेक भ्रान्त विचार, आदर्श और रीति-रिवाज मध्यकाल की विभिन्न परिस्थितियों के कारण इसमें मिल गए हैं। लोग इन्हीं को परम्परागत धर्म मानने लगे हैं। जिस प्रकार सोना, ताँबा और पीतल की मिलावट को चतुर सुनार शोध कर पृथक-पृथक कर देता है उसी प्रकार सनातन भारतीय संस्कृति की शुद्धता और विदेशी आक्रमणों, स्वार्थी तत्त्वों तथा समय की रफ्तार के कारण आई हुई विकृतियों को दूर करना चाहिए। रूढियों की अशुद्धता को अलग छाँट दिया जाय। संस्कृति और विकृति के भेद को स्पष्ट कर जनता से पालन करने योग्य ग्राह्य तत्वों को अपनाने और अग्राह्यों का मोह त्यागने के लिए कहा जाय।
  धर्म के नियम देश, काल और पात्र के अनुसार बदलते रहते हैं। प्राचीन काल से लेकर आज तक जो अन्तर आ गया है, उसे ध्यान में रखते हुए जनता को यह बताया जाय कि प्राचीन परम्पराओं के अनुसार आज के जीवन में इन सिद्धांतों को कितना निवाहा जा सकता है, या कितना हेर-फेर किया जा सकता है। हिन्दू परम्पराओं के अनुसार प्रचलित रीति-रिवाजों पर अनेक दृष्टिकोणों से विचार किया जाय और उनकी उपयोगिता-अनुपयोगिता को स्पष्ट किया जाय।
  सांस्कृतिक जीवन के आदर्श और व्यवहार को अपनाने पर मनुष्य को जो सुविधाएँ, सुख-शांति, समृद्धि एवं सफलताएँ मिल सकती हैं, उनको तर्क, प्रमाण, उदाहरण, तथ्य आदि के आधार पर भली भाँति सिद्ध किया जाय। उन निष्कर्षों को बडे़ पैमाने पर प्रचलित किया जाय, साथ ही उन सांस्कृतिक आदर्शों की अवहेलना पर जो कठिनाइयाँ और परेशानियाँ उत्पन्न हो सकती है, उनका भी बुद्धिसंगत प्रतिपादन किया जाय। इस प्रकार पुस्तक, लेख, भाषण आदि द्वारा जनता को समझाया जाय कि उनकी व्यक्तिगत एवं सामूहिक उन्नति के लिए हमारी संस्कृति कितनी उपयोगी एवं आवश्यक है।
  हमारी संस्कृति में जो शास्त्रों के परस्पर विराधी सिद्धान्त तथा आदर्श पाये जाते हैं, उनको ऐसे सुव्य्वस्थित रूप में रखा जाय कि वे एक दूसरे के विरोधी नहीं, वरन् पूरक प्रतीत हों। दार्शनिक और धार्मिक मतभेदों के कारणों को बताते हुए उनका समन्वय किया जाय।
  हमारी पौराणिक अलंकार गाथाओं का जो कहीं-कहीं असंगत और अनैतिक भी दीखती हैं, गूढा़र्थ स्पष्ट कर जनता में फैले हुए उन भ्रमों को दूर किया जाय, जिनके कारण धार्मिक अविश्वास और सन्देह बढ़ते हैं।
  देवी-देवताओं का अस्तित्व, विभिन्न रूप और उनके विचित्र इतिहास ऐसे हैं, जिनके रहस्यों को साधारण व्यक्ति आज समझने में असमर्थ हैं। जिन बातों को संदिग्ध समझा जाता है, उनका स्पष्टीकरण किया जाय। विद्वानोंका कर्त्तव्य है कि देववाद का वैज्ञानिक रूप सर्वसाधारण के सामने प्रस्तुत करें।
  भारतीय पुनर्जन्मवाद, परलोकवाद, अद्वैत, द्वैत और त्रैतवाद, वर्णाश्रम, धर्म्, स्पर्शास्पर्श, कर्म-विपाक आदि दार्शनिक, विषयों को सरल रूप से सर्व साधारण जनता के समझने योग्य रीति से उपस्थित किया जाय।
  भारतीय आचार-विचार, रहन-सहन, भाषा-भेष, भाव एवं परम्पराओं की उपयोगिता एवं आवश्यक्ता को इस रूप में उपस्थित किया जाय कि जनता उनको अपना ले और उनमें से अपने लाभ की बात ग्रहण करले।
 
षोडस-संस्कारों को परिष्कृत रूप में उपस्थित किया जाय। बहुत लम्बा समय और धन व्यय कराने वाले विधानों को सरल बनाकर संस्कारों को ऐसे ढ़ंग से कराया जाये कि सर्वसाधारण को उनमें रूचि और आकर्षण हो जाये। पुंसवान सीमन्त-संस्कार के समय गर्भस्थ बालक के प्रति गर्भिणी के तथा गर्भिणी के प्रति घर-वालों के कर्तव्यों का उपदेश विस्तारपूर्वक किया जाय। बच्चों के उत्तम संस्कार उत्पन्न करने वाले नाम रखे जायें। नामकरण के समय बालक को सुविकसित करने के लिए घरवालों को समुचित उपदेश दिया जाय। यज्ञोपवीत के समय बालक को द्विजत्व की, आदर्श्मय जीवन की शिक्षा दी जाय। विवाह के समय पति-पत्नी को उनके कर्तव्यों को भली भाँति समझाया जाय और उन कर्तव्यों के पालन की चिह्न-पूजा के रूप में नहीं, वरन् विधिवत् प्रतिज्ञा कराई जाय। अन्त्येष्ठि- संस्कार के समय जीवन की नश्वरता, सत्कर्मों की श्रेष्ठता आदि का उपदेश दिया जाय। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक संस्कार कर्तव्य और भावनाओं को गहराई और मजबूती से करने वाला बनाया जाय। साथ ही उन्हें इतना सरल बना दिया जाये कि उनका उपयोग साधारण व्यक्ति भी कर सके।
  पर्वों और त्यौहारों को मनाने की ऐसी रीति बनाई जाय, जिससे हर एक त्यौहार कुछ नई शिक्षा एवं प्रेरणा दे सके। त्यौहारों के उत्सव सामूहिक रूप से मनाये जायें और उनमें छिपे हुए सन्देशों को समझाया जाय, उनसे प्रकाश ग्रहण किया जाय।
  संस्कृति की उपयोगिता को तर्क और प्रमाण सहित सिद्ध करने के लिए विद्वानों का एक शोध मण्डल कार्य करे। वे ऐसी ठोस जानकारी प्रस्तुत करें, जो शास्त्रीय दृष्टि से ही नहीं, भौतिक दृष्टिकोण से भी काफी मजबूत हो। सांस्कृतिक जीवन के पक्ष में प्रबल आधार खडा़ कर सामान्य बुद्धि की जनता एवं परिष्कृत मस्तिष्क के विद्यार्थियों को समझा सकने योग्य प्रमाणिकता यह शोध मण्डल तैयार करे।
  ऐसे शोधों के निष्कर्षों को अधिकाधिक जनता तक पहुँचाने के लिए अत्यन्त सस्ते ट्रैक्ट छापे जायें तथा लेखों द्वारा अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करने के लिए लेखक तैयार किये जायें। पत्रकारों से इस कार्य के लिए अपने पत्रों में स्थान देते रहने का अनुरोध किया जाय।
 
स्थान-स्थान पर ऐस चलते-फिरते पुस्तकालय खोलने की आवश्यकता है, जो सांस्कृतिक साहित्य से परिपूर्ण हों। भले ही उनमें पुस्तकों की संख्या थोड़ी हो, पर उद्देश्यपूर्ण हो। उनके द्वारा घर-घर पुस्तकें पढ़वाने की अच्छी व्यवस्था अवश्य हो। यदि कुछ लगन वाले व्यक्ति इस कार्य के लिये थोड़ा-सा समय नियमित रूप से दे सकें, तभी ऐसे पुस्तकालय चल सकते हैं। पुस्तकालय खुलवाने और उन्हें प्रेरणा देने के लिये संगठित और उन्हें प्रेरणा देने के लिये संगठित और व्यवस्थित रूप से प्रयत्न किया जाय। गीता प्रेस गोरखपुर की रामायण और गीता परीक्षाएँ,ईसाईयों कह बाइविल कोर्स की तरह सांस्कृतिक शिक्षाओं का एक पाठ्यक्रम बनाया जाय, पास होने वाले विद्यार्थियों को प्रमाण-पत्र, पदक, पुरस्कार, उपहार दिये जाय। ऐसी शिक्षाओं के लिये समय-समय पर शिक्षण-शिविरों, रात्रि विद्यालयों एवं व्यवस्थित विद्यालयों की व्यवस्था की जाय।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118