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ज्ञान विज्ञान का सागर आर्षवाङ्मय

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ज्ञान की साथर्कता-व्यापक बोध और समग्र दृष्टि पाने में है । मानवीय ज्ञान-विज्ञान के आदि स्रोत से रूप में वेद ने यही तत्व जीवन मे बिखेरे हैं, जिनको ग्रहण कर ऋषि भूमि की सांस्कृतिक सम्पदा अक्षुण्ण प्राण और शाश्वत जीवन पा सकी । सत्य अर्थों में वेद एक पोथी मात्र न होकर जीवन और सृष्टि के रहस्यों को खोलने वाला व्यापक विश्वकोश है । इसका सम्यक विभाजन और सम्पादन करने वाले भगवान व्यास ने इस चार वर्गों में विभक्त किया । ऋक्-जिसका अर्थ है-प्राथर्ना अथवा स्तुति, यजुष का तात्पर्य है यज्ञ-यागादि का विधान, साम-शान्ति अथवा मंगल स्थापित करने वाला गान है और अथर्व में धर्म दशर्न के अतिरिक्त लोक-जीवन के सामान्यक्रम में काम आने वाली ढेरों-उपयोगी सामग्री भरी पड़ी है ।

भाष्यकार महीधर के अनुसार-प्रत्येक वेद से जो वाङ्मय विकसित हुआ, अध्ययन की सुविधा के लिए उसे पुनः चार भागों में वगीर्कृत किया गया-
(1) संहिता
(2) ब्राह्मण
(3) आरण्यक
(4) उपनिषद्
संहिता में वैदिक स्तुतियाँ संग्रहीत हैं । ब्राह्मण में मंत्रो की व्याख्या और उनके समथर्न में प्रवचन दिए हुए हैं, आरण्यक में वानप्रस्थियों के लिए उपयोगी आरण्यगान और विधि-विधान है । उपनिषदों में दाशर्निक व्याख्याओं का प्रस्तुतीकरण है । कालक्रम के प्रवाह में इस वगीर्करण का लोप हो जाने के कारण इनमें से प्रत्येक को स्वतन्त्र मान लिया गया और आज स्थित यह है कि वेद शब्द सिर्फ संहिताके अर्थों में प्रयुक्त होता है ।

जबकि वग्रीर्करण का तात्पर्य अस्तित्व का बिखराव नहीं उसका सुव्यवस्थित उपयोग है । जिसके क्रम में वैदिक अध्ययन कई शाखाओं में विकसित हुआ । ऋग्वेद की पाँचवाँ शाखायन और मांडूक्य । इनमें अब शाकल शाखा ही उपलब्ध है । शुक्ल यजुवेर्द की उपलब्ध शाखाएँ इस समय चार हैं- तैत्तिरीय, मैत्रीयणी, काठक और कठ । सामवेद की दो शाखाएँ हैं- कौथमी और राणायनीय । अथवर्वेद की उपलब्ध शाखाओं के नाम पैप्पलाद तथा शोनक हैं ।

संहिताओं के नाम विवेचन क्रम में अध्ययन करने पर ऋग्वेद संहिता में दस मंडलों का पता लगता है । जिनमें 85 अनुवाक और अनुवाक समूह में 1028 सूक्त हैं । सूक्तों के बहुत से भेद किए गए हैं यथा-महासूक्त, मध्यसूक्त, क्षुद्र, सूक्त, ऋषिसूक्त, छन्दःसूक्त और देवतासूक्त । वेदज्ञ मनीषियों के अनुसार ऋग्वेद के मंत्रो की संख्या 10,402 से 10,628 तक है । यजुवेर्द के दो भाग हैं- शुक्ल और कृष्ण इनमें कृष्ण यजुवेर्द संहिता की तैत्तिरीय संहिता भी कहते हैं । मुक्तिकोपनिषद के अनुसार इसकी 109 शाखाएँ थी, जिनमें मात्र 12 और 14 उपशाखाएँ ही उपलब्ध हैं । इस संहिता में कुल सात अष्टक हैं । 700 अनुवाकों वाले इस ग्रन्थ में अश्वमेघ अग्निरूटोम, राजसूय अतिरात्र आदि यज्ञों का वणर्न है । इसमें 18000 मंत्र मिलते हैं । शुक्ल यजुवेर्द की संहिता को बाजसेनेयी और माध्यन्दिनी भी कहते हैं । इसमें 40 अध्याय 290 अनुवाक और अनेक काण्ड हैं । यहाँ दशर्पौणर्भास, बाजपेय आदि यज्ञों का वणर्न है ।

सामवेद के पूर्व और उत्तर दो भाग हैं । पूर्व संहिता को छन्द, आथर्क औश्र सप्त साम नामों से भी अभिहित किया गया है । इसके छः प्रपाठक हैं । सामवेद की उत्तर संहिता को उत्तराचिर्का या आरण्यगान भी कहा गया है । अथवर्वेद की मंत्र संख्या 12300 है । जिसकी अति न्यून अंश आजकल प्राप्त है । इसकी नौ शाखाएँ पैप्पल, दान्त, प्रदान्त, स्नात, सौत, ब्रह्मदावल, शौनक, दैवीदशर्न, औश्र, चरण विद्य में से केवल शौनक शाखा ही आज रह पाई है । इसमें २० काण्ड है ।

संहिताओं के पश्चात् ब्राह्मणों का स्थान आता है । इनके विषय को चार भागों में बाँटा गया है । विधिविभाग, अथवादभाग, उपनिषद्भाग और आख्यानभाग । इसमें अथर्वाद में यज्ञों के महात्म्य को समझाने के लिए प्ररोचनात्मक विषयों का वणर्न है । विचार किया गया है । आख्यान भाग में प्राचीन ऋषिवंशों,आचायर् वंशो और राजवंशो की कथाएँ वरि हैं ।

प्रत्येक वैदिक संहिता के अलग-अलग ब्राह्मण ग्रन्थ हैं । ऋग्वेद के दो ब्राह्मण हैं ऐतरेय और कौषीतकि । यजुवेर्द के भी दो ब्राह्मण हैं कृष्ण यजुवेर्द का तैत्तिरीय ब्राह्मण और शुक्ल यजुर्वेद शतपथ ब्राह्मण । सामवेद की कौथुमीय शाखा के ब्राह्मण ग्रन्थ चालीस अध्यायों में विभक्त है । इसकी जैमनीय शाखा के दो ब्राह्मण ग्रन्थ हैं- जैमिनीय ब्राह्मण और जैमनीय उपनिषद् ब्राह्मण । इन्हें क्रमशः आषेर्य और छान्दोग्य ब्राह्मण भी कहते हैं । अथवर्वेद की नौ शाखाएँ हैं किन्तु एक ही ब्राह्मण उपलब्ध है गोपथब्राह्मण । आरण्यकों की विषय वस्तु सायणाचार्य के शब्दों में लोकसेवी वानप्रस्थों की प्रशिक्षण सामग्री है । मुख्य आरण्यक ग्रन्थों के क्रम में ऋग्वेद में ऐतरेय और कौषीतकि आरण्यक मिलते हें । यजुवेर्द में कृष्ण यजुवेर्द का एक आरण्यक है तैत्तिरीय आरण्यक । जिसके दस काण्डों में विधि का प्रतिपादन हुआ है बृहदारण्यकशुक्ल यजुवेर्द का है । सामवेद में सिर्फ छान्दोग्य आरण्यक मिलता है । जो छः प्रपाठकों में विभाजित है ।

वेद का चरमोत्कर्ष उपनिषदों में मिलता है । अन्तिम भाग होने के कारण इसे वेदान्त की संज्ञा भी प्राप्त है । उपनिषदों ने ही स्वयं इस शब्द की व्याख्या सूचित की है 'यदा वै बली भवति अथ उत्थाता भवति, उत्तिष्ठन परिचरिता भवति, परिचन् उपासना भवति उपसीदन् द्रष्टा भवति, श्रोता भवति, मन्ता भवति, बोद्धा भवति, कर्ता भवति, विज्ञाता भवति (छान्दोग्न 7/8/1) जब मनुष्य बलवान होता है, तब वह उठकर खड़ा होता है । उठकर खड़ा होने पर गुरु की सेवा करता है । फिर वह गुरु के पास (उप) जाकर बैठता है । (सद) पास जाकर बैठने पर वह गुरु का जीवन ध्यान से देखता है । उनका व्याख्यान सुनता है, उसे मनन करता है, समझ लेता है और उसके अनुसार अचरण करता है । उसमें उसे विज्ञान यानि अपरोक्ष अनुभूति का लाभ होता है 'उप' 'नि' ये दो उपसर्ग और 'सदा' धातु से बने इस शब्द की इस व्याख्या में 'नि' अथार्त् निष्ठा से की व्याख्या छूट गई है, जिसका उल्लेख एक-दूसरी जगह हुआ है ।''ब्रह्मचारी आचायर्कुलवासी अत्यन्तम् आत्मनम् आचायर्पूवर्क अवसादसन्(छान्दोग्य 2/23/1) ब्रह्मचर्य पूवर्क गुरु के पास रह कर (उप) गुरु सेवा में अपने आप को विशेष रूप से (नि) खपाने वाला (सद) जो रहस्यभूत विद्या प्राप्त करता है, वह है उपनिषद् ।

इन दोनों पयार्यों को इकट्ठा करके देखें तो (1) आत्मबल (2) उत्थान (3) ब्रह्मचयर् (4) गुरु सेवा में शरीर को खपा देना (5) गुरु (हृदय) सान्निध्य (6) जीवन निरिक्षण (7) श्रवण (8) मनन (9) अवबोध (10) आचरण (11) अनुभूति-इतना सारा भाव-इस छोटे षट शब्द में निहित है । इनकी संख्या कितनी है? इस सन्दर्भ में भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग-अलग विवरण प्राप्त होते हैं । मुक्तिकोपनिषद् में 108 उपनिषदों की सूची है । 'उपनिषदवाक्य महाकोश में 223 उपनिषद् ग्रन्थों का नामोल्लेख हुआ है । इनकी वेदों से अभिन्नता और प्राचीनता की दृष्टि में रखकर विचार करें 108 उपनिषदों की सूची ही साथर्क लगती है । अन्य के सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि मध्ययुग में विभिन्न सम्प्रदायों ने अपनी प्राचीनता सिद्ध करने के लिए इनकी रचना की गई इन 108 उपनिषदों में भी अपनी विशेष गहनता के कारण ईश, केन, कठ,प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर कुछ अधिक ही महत्वपूर्ण है ।


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