''युगान्तर चेतना'' के तत्वावधान में प्रवासी भारतीयों से शुभारंभ करके विश्वभर में देवसंस्कृति का आलोक पहुँचाने का जो निश्चय निर्धारण किया गया है, उसे योजना मात्र न रहने देकर एक सुव्यवस्थित क्रिया- प्रक्रिया में परिणति किया जा रहा हैं ।। यों इस दिशा में युग निर्माण योजना के अन्तर्गत आरंभ से ही प्रयास जारी रखे और प्रयत्न किए जा रहे हैं, पर वे थे इसी स्तर के कि जब, जहाँ, जितना जिस प्रकार संभव हुआ, वहाँ उतना किया गया और कुछ से कुछ अच्छा मानकर काम चलता रहा पर अब युग सन्धि की बेला में जबकि समूची मनुष्यता को नवनिर्माण की महाकाल प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ रहा है ।। इस प्रश्न को उपेक्षित नहीं रखा जा सकता कि देव संस्कृति का स्वरूप एवं वर्चस्व जन- जन के सामने हो और नव निर्माण में उसे प्रमुखतापूर्वक अपनाए जाने के संसाधन बढ़े ।।
कहा जाता रहा है कि विश्वभर में देव संस्कृति का आलोक पहुँचाने की दृष्टि से प्रवासी भारतीयों को मध्यवर्ती कड़ी की भूमिका प्रस्तुत करनी होगी ।। अतएव उन्हें प्रमुखता मिलने की बात स्वाभाविक एवं सुस्पष्ट है ।। इन दिनों क्या किया जाना चाहिये इसके लिए निम्नलिखित तीन प्रयत्न करने होंगे-
(1) ऐसी प्राणवान प्रतिभाओं का निर्यात जो उन स्थानों में देर तक ठहरें और वहाँ संगठक, प्रचारक एवं मार्गदर्शक के रूप में कुमारजीव जैसे उदाहरण प्रस्तुत करें ।। ऐसी प्रतिभाओं को ढालने के लिये नालन्दा, तक्षशिला जैसे समर्थ निर्माण केन्द्रों की आवश्यकता पड़ेगी ।।
(2) अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति कर सकने वाला ऐसा साहित्य प्रकाशित करना, जो देवसंस्कृति के तत्त्वदर्शन की सामयिक विचार पद्धति के साथ तालमेल बिठा सके और सरलतापूर्वक हृदयंगम हो सके ।। यह साहित्य आकार में छोटा किन्तु अत्यन्त सारगर्भित होगा ।। ऐसा, जो पके व सुपाच्य भोजपान की तरह सहज ही गले उतरता और सरलतापूर्वक पचता रहे ।। यह प्रकाशन उन सभी भाषाओं में होगा जो समस्त विश्व के प्रवासी समुदाय में प्रचलित हैं ।।
(3) भारत में समय- समय पर आते रहने वाले प्रवासियों के लिये हरिद्वार में आवास, भोजन, वाहन, गाइड एंवम् विचार- विनिमय के लिये एक सादगी किन्तु सारी आवश्यक आधुनिक सुविधाओं से युक्त 'संस्कृति भवन' की स्थापना ।। इसमें पर्यटकों के अतिरिक्त वे लोग भी रहेंगे और प्रशिक्षण प्राप्त करेंगे जो अपने देशों में इस योजना के अंग बनकर सांस्कृतिक पुनरुत्थान के महान् प्रयोजन में भागीदार बनना चाहते हैं ।। इन्हें भाषण, संगीत तत्त्वदर्शन, धर्मविज्ञान एवं पौरोहित्य में संबंधित सभी आवश्यक कर्मकाण्डों को सम्पन्न करा सकने की योग्यता उत्पन्न कराई जायेगी ।।
इन तीनों प्रयासों का स्वरूप और महत्त्व असाधारण है ।। इसलिये उन्हें हाथ में लेने और आगे बढ़ाने का शुभारंभ तो तत्काल ही करना होगा ।। यह बात दूसरी है कि साधनों की स्वल्पता के कारण उन्हें थोड़े- थोड़े करके छोटे- छोटे खण्डों में धीरे- धीरे बनाया, चलाया और बढ़ाया जाय ।।
(समस्त विश्व का अजस्र अनुदान पृ.सं.1.24(- 41)