समस्त विश्व को भारत के अजस्त्र अनुदान

कोरिया और मंगोलिया में बौद्ध धर्म

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 जापान और चीन की सीमा से लगा हुआ कोरिया अब दो भागों में विभक्त है ।। उत्तर कोरिया में साम्यवादी शासन है और दक्षिण कोरिया में राष्ट्रवाद ।। उससे पूर्व समूचा कोरिया एक था और वहाँ बौद्ध- धर्म का एक छत्र प्रभाव था ।। अब तो वहाँ नास्तिक, ईसाई एवं मुसलमान भी बहुत है ।।

कोरिया में भी चीन जापान की तरह भारतीय धर्म प्रचारक पहुँचे थे और उन्होंने धर्म विजय अभियान के प्रकाश से उस क्षेत्र को भी आलोकित किया था ।। पीछे उत्साही चीनी भिक्षु भी अपने इस समीपवर्ती क्षेत्र में जाते रहे और वहाँ धर्म- चक्र प्रवर्तन का उत्तरदायित्व सँभालते रहे ।।

कोरिया के वज्रगिरी में आचार्य विहारों के भिक्षु संस्कृत मिश्रित कोरियाई भाषा बोलते हैं ।। इस देश में आचार्य मल्लानन्द सन् 364 में पहुँचे और उनके प्रयत्न से ''सुंगमोन्सा'' तथा 'इब्बुल्लांसा' बौद्ध विहारों की स्थापना हुई ।। इसके बाद अन्यान्य प्रचारक वहाँ जाते रहे ।। कोरिया का 'हेचो' नामक एक बुद्ध भक्त भारत की तीर्थयात्रा कने सातवीं सदी में आया ।। उसने अपना यात्रा वृत्तान्त भी लिखा था ।। संस्कृत भाषा के कोरियाई विद्वान 'बुन चडक' ने ''विज्ञपप्त मात्रता'' ग्रंथ पर सुन्दर भाष्य लिखा ।। सिल्ला वंशी कोरियाई सम्राट भी बौद्ध- धर्म के अनुयायी रहे और ध्यान योग की साधनाओं के अभ्यासी बने ।। प्राचीन कोरियाई साहित्य तथा भवन निर्माण कला पर भारतीयता की गहरी छाप है ।। ''सुकगोलम'' गुफायें भारतीय गुफाओं की शैली पर ही बनी हैं ।। मन्दिरों में बजने वाले वाद्य यन्त्र वहीं हो भारत में प्रयुक्त होते हैं ।। सम्राट ताइजो की नीति थी कि देश में अधिक मन्दिर बनाये जायें, ताकि धर्मनिष्ठा की वृद्धि हो ।।

कोरिया का सबसे बड़ा बौद्ध ग्रंथ ''महाधर्म' है, जो संस्कृत से कोरियाई भाषा में अनुवादित हुआ है और लकड़ी के ठप्पे वाले प्रेस में छपा है ।। उसकी विशालता को देखते हुए उसे संसार का अद्भुत विस्तार वाला ग्रंथ कहा जा सकता है ।। उस देश की लिपि ''हाँगेडल'' चीनी- जापानी पड़ोसी भाषाओं से सर्वथा भिन्न हैं ।। इसका निर्माण संस्कृत वर्णमाला और उसकी ध्यान पद्धति का सहारा लेकर किया गया है ।।

सन् 384 में एक दूसरा चीनी भिक्षु कोरिया के 'पाकचि' क्षेत्र में पहुँचा ।। उसका नाम था -मसनद ।। इसकी प्रचार शैली भी 'सुन दो' जैसी ही थी ।। उसके प्रभाव से पाकचि का राज्य धर्म भी बौद्ध बन गया और प्रजा ने उसी धर्म को अंगीकार कर लिया ।। पाकचि के बौद्ध प्रचारक सिल्ला पहुँचे और चौथी शताब्दी के प्रथम चरण में वहाँ का राज धर्म भी बौद्ध धर्म का झण्डा फहराने लगा ।। पाकचि के शासकों ने धर्म- विजय में विशेष उत्साह दिखाया ।। सन् 552 में कोरिया नरेश सिमाई ने एक प्रतिनिधि मण्डल जापान के राजा 'किम्मई' के पास भेजा और उस देश में बौद्ध धर्म विस्तार की सुविधायें देने का अनुरोध किया । यहीं से जापान में भी बौद्ध- धर्म के प्रसार का सिलसिला आरंभ हो गया ।। उन दिनों कोरिया आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत समृद्ध था ।। उसका व्यापार भारत, तिब्बत चीन, ईरान, जापान आदि तक फैला हुआ था ।। व्यावसायिक आदान- प्रदान के साथ- साथ कोरिया से बौद्ध धर्म भी अन्यान्य देशों को निर्यात होता रहा ।।

सन् 202 में जापानी सेनाओं ने कोरिया को अपने आधीन कर लिया और कई शताब्दियों तक उस पर अधिकार रखा ।। राजनैतिक दृष्टि से जापान विजयी और कोरिया पराजित रहा, पर धार्मिक दृष्टि से कोरियाई बौद्ध धर्म जापानी प्रजा पर हावी होता चला गया ।। धार्मिक दृष्टि से वह पराजय भी विजय के रूप में परिणित हुई ।। कोरिया और जापान का सम्पर्क बढ़ा ।। इसमें धर्म और संस्कृति का भी आदान- प्रदान हुआ ।। जापान में उन दिनों बहुदेववादी शिन्तो धर्म प्रचलित था उसके सिद्धांत और प्रतिपादन ऐसे ही बेसिर- पैर के थे ।। बौद्ध धर्म का दर्शन उसकी तुलना में बहुत ही समाधान कारक था ।। अस्तु प्रबुद्ध लोगों को उसे विस्तार तेजी से होने लगा ।। सन् 522 में एक चीनी भिक्षु शिवतात्सु कोरिया होते हुए जापान पहुँचा और उसने वहाँ की जनता को बौद्ध सन्देशों से अवगत कराके श्रद्धा भरा वातावरण बनाया ।।

(समस्त विश्व का अजस्र अनुदान पृ.सं.1.42- 43)

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