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पंचतत्वों द्वारा चिकित्सा

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यह सृष्टि पंच तत्वों से बनी हुई है ।। प्राणियों के शरीर भी इन पांच तत्वों के ही बने हुए हैं ।। मिट्टी, पानी, हवा, आग और आकाश इन तत्वों का ही सब कुछ संप्रसार है ।। जितनी वस्तुऐं दृष्टिगोचर होती हैं या इन्द्रियों द्वारा अनुभव में आती हैं उन सबकी उत्पत्ति पंच तत्वों द्वारा हुई है ।। वस्तुओं का परिवर्तन, उत्पत्ति, विकास तथा विनाश इन तत्वों की मात्रा में परिवर्तन आने से ही होती है ।।
सृष्टि के परमाणु पंच तत्वों से बने हैं और उन्हीं की तन्मात्राओं से इन परमाणुओं में हलचल जारी रहती है ।। भौतिक जगत की समस्त गति विधि का आधार इन पंच तत्वों की गति शीलता ही है ।।

भूमण्डल के विभिन्न भागों में जो विभिन्नताएँ दिखाई देती हैं उनकी मूल में तत्वों का परिवर्तन ही काम करता है ।। ध्रुव प्रदेशों में शीत की अधिकता है, सदा बर्फ जमी रहती है, वनस्पतियाँ नहीं उगती, कुछ गिने चुने शीत प्रकृति के जीव ही वहाँ रहते हैं ।। इस विचित्रता का कारण प्रदेश में अग्नि तत्व की कमी होना है ।। दक्षिण अफ्रीका और दक्षिणी अमरीका में अत्यन्त गर्मी पड़ती है, उन प्रदेशों में पृथ्वी के समान जलती है, दिशाएँ आग उगलती रहती हैं, सूर्य की प्रचण्ड किरणें सरस चीजें की सरसता नष्ट करके उन्हें अपनी ज्वाला में भूनती रहती है ।। यह प्रदेश भी अपने ढंग के निराले हैं ।। ध्रुव देश तथा विषुवत रेखा के समीपवर्ती प्रदेशों में जो असाधारण अन्तर है उसका कारण अग्नि तत्व की न्यूनता और अधिकता है ।। अरब में आने वाले तूफान वहाँ वायु तत्व की अधिकता प्रकट करते हैं ।। आसाम एवं पूर्वी द्वीप समूहों में वर्षा की अधिकता जल तत्वों की अधिकता का सूचक है ।। घने जंगल, दलदल, विचित्र- विचित्र पौधें और जीव- जन्तु, खनिज पदार्थ, आदि विभिन्नताओं का कारण उन प्रदेशों की तात्विक न्यूनाधिकता ही है ।।

यह प्रसिद्ध है कि जल वायु का स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है ।। यूरोपियन ठण्डे मुल्कों का रंग रूप, कद, स्वास्थ्य, अफ्रीका निवासियों के रंग, रूप और स्वास्थ्य से सर्वथा भिन्न होता है ।। पंजाबी, कश्मीरी, बंगाली और मद्रासी लोगों के शरीर एवं स्वास्थ्य की भिन्नता प्रत्यक्ष है ।। यह जलवायु का अन्तर है ।। किन्हीं स्थानों मे मलेरिया, पीला बुखार पेचिश, चर्मरोग, फीलपांव, कुष्ठ आदि रोंगों की बाढ़ सी रहती है और किन्हीं स्थानों का जलवायु ऐसा होता है कि वहाँ जाने पर तपेदिक सरीखे कष्ट साध्य और असाध्य रोग भी अच्छे हो जाते हैं । यही बात पशुओं के सम्बन्ध में हैं, हिसार की गाय और निजामाबाद की गाय में जमीन आसमान का अन्तर देखा जाता है ।। यही प्रभाव खाद्य पदार्थों पर पड़ता है ।।

गेहूं, चावल, दूध, घी, मछली, चाय, शाक−भाजी, औषधि, वनस्पति आदि के गुण और स्वाद में अन्तर के हिसाब से फर्क पड़ता है ।। प्रादेशिक अन्तर का कारण, उन स्थानों में तत्वों की न्यूनता एवं अधिकता ही है ।।

शरीरों में तत्वों की मात्रा के अन्तर के हिसाब से देह का ढाँचा और स्वभाव बनता है ।। पुत्र कन्या की उत्पत्ति का आधार स्त्री पुरुषों में तत्वों की न्यूनधिकता का होना है ।। ऋतुओं के प्रभाव के कारण स्वास्थ्य में लगने वाले झटकों का अस्तित्व भी इसी बात पर अवलम्बित है ।। किसी को कोई मौसम अनुकूल पड़ता है तो किसी को कोई, किसी के लिए एक वस्तु रुचिकर एवं हितकर होती है तो किसी के लिए कोई ।। यह बातें प्रकट करती हैं, कि इन मनुष्यों में तत्वों की मात्रा में भिन्नता है ।।
रोगी होना और निरोग रहना यह भी तत्वों की स्थिति पर निर्भर करता है ।। आहार- विहार की असावधानी के कारण तत्वों का नियत परिणाम घट बढ़ जाता है ।।

फलस्वरूप बीमारी खड़ी हो जाती है ।। वायु की मात्रा में अन्तर आ जाने से गठिया, लकवा, दर्द कम्पन, अकड़न, गुल्म, प्रस्फुटन, नाड़ी, विक्षेप आदि रोग उत्पन्न होते हैं ।। अग्नि तत्व के विकार से फोड़े, फुन्सी, रक्त पित्त, हैजा, दस्त, क्षय, स्वांस, उपदंश, वाह, खून फिसाद आदि बढ़ते हैं ।। जल तत्व की गड़बड़ी से जलोदर, पेचिश, संग्रहणी, बहुमूत्र प्रमेह, स्वप्नदोष, सोम ,, प्रदर, जुकाम, खाँसी, जैसे रोग पैदा होते हैं ।। पृथ्वी तत्व बढ़ जाने से फीलपांव, तिल्ली, जिगर, रसौली, भेदवृद्ध, मोटापा आदि रोग होते हैं ।। आकाश तत्व के विकार से मूच्छार् मृगी, उन्माद, पागलपन, सनक, अनिद्रा, बहम, घबराहट, दुःस्वप्न, गूँगापन, बहरापन, विस्मृति, आदि रोगों का आक्रमण होता है ।। दो, तीन या चार पांच तत्वों के मिश्रित विकारों से विकारों की मात्रा के अनुसार अनेकानेक रोग उत्पन्न होते हैं ।।

अग्नि की मात्रा कम हो जाय तो शीत जुकाम नपुंसकता, गठिया, मन्दाग्नि, शिथिलता, सरीखे रोग उठ खड़े होते हैं और यदि उसकी मात्रा बढ़ जाय तो चेचक, ज्वर, फोड़े सरीखे रोगों, की उत्पत्ति होती है इसी प्रकार अन्य तत्वों की कमी हो जाना, बढ़ जाना अथवा विकृत हो जाना रोगों का हेतु बन जाता है ।। शरीर पंच तत्वों का बना है यदि सब तत्व अपनी नियत मात्रा में यथोचित रूप से रहें तो बीमारियों का कोई कारण नहीं रहता ।। जैसे ही इनकी उचित स्थिति में अन्तर आता है वैसे ही रोगों का उद्भव होने लगता है ।। रसोई का स्वादिष्ट और लाभदायक होना इस बात पर निर्भर है कि उसमें पड़ने वाली चीजें नियत मात्रा में हों ।। चावल, दलिया, दाल, हलुआ, रोटी आदि में यदि अग्नि ज्यादा कम लगे, पानी ज्यादा या कम पड़ जाय, नमक, चीनी, घी आदि की मात्रा बहुत कम या बहुत ज्यादा हो जाय तो उस भोजन का स्वाद गुण और रूप बिगड़ जाता है यही दशा शरीर की है तत्वों की मात्रा में गड़बड़ी पड़ जाने से स्वास्थ्य में निश्चित रूप से खराबी आ जाती है ।।

जिस कारण से कोई विकार पैदा हुआ हो उस कारण को दूर करने से वह विकार भी दूर हो जाता है ।। कांटा लग लाने से दर्द हो रहा हो तो उस कांटे को निकाल देने से दर्द भी बन्द हो जाता है ।। मशीन में तेल न होने के कारण वह भारी चल रही हो और आवाज कर रही हो तो उसके कल पुर्जों में तेल डाल देने से वह खराबी दूर हो जाती है ।। दीवार में से ईंट निकल जाय तो वहाँ ईंट लगानी पड़ती है और जहाँ−कहीं से चूना निकल गया हो वहाँ चूना लगा देने से मरम्मत हो जाती है ।। यही बात स्वास्थ्य सुधार के बारे में भी है ।। जिस तत्व की न्यूनता अधिकता या विकृति से वह गड़बड़ी पैदा हुई हो उसे सुधार देने से सारा संकट टल जाता है ।।

तत्व चिकित्सा का यही आधार है, पंचतत्वों के बने शरीर को निरोग बनाने के लिए पंच तत्वों द्वारा चिकित्सा करना ही सबसे अच्छा उपाय है ।। इस उपाय से सुविधा पूर्वक बीमारियों का निवारण हो जाता है ।।
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