समस्त विश्व को भारत के अजस्त्र अनुदान

सृष्टि का प्रथम मानव आर्यावर्त में जनमा

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छान्दोग्योपनिषद में एक कथा आती है । इन्द्र तथा विरोचन दोनों ज्ञान प्राप्ति के लिए स्रष्टा के पास गए । दोनों आत्मतत्व जानना चाहते थे । ब्रह्माजी ने कहा दोनों सज-धजकर अपना प्रतिबिम्ब जल में देखो । जो जल में दिखाई पड़े, वही आत्मा है । विरोचन संतुष्ट होकर लौट आए । उसने शरीर को सजाधजा व अपनी मुखाकृति देखी उसी से उन्हें संतोष मिल गया । किन्तु इन्द्र ने बारम्बार मनन किया-आत्म चिन्तन किया । पुनः बार-बार लौटकर प्रजापिता ब्रह्मा से प्रश्न किया । उन्हें समाधान मिला कि शरीर नहीं, यह स्थूल काया नहीं, वरन् आत्मसत्ता ही परमसत्य है । सजाना-सँवारना उसे चाहिए । उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई । विरोचन ने लौटकर दैहात्मवाद का प्रचार किया । उनने प्रतिपादन किया कि देह ही आत्मा है । इसी की सेवा-श्रृंगार साधना की जानी चाहिए । मरने पर शरीर को सुरक्षित, सुसज्जित किया जाना चाहिए । प्रलय तक आत्मा उसी में रहती है । जब अंततः सृष्टि प्रलय के समय उसी नष्ट होगी तब कर्मों का निर्णय होगा, जबकि इन्द्र ने आत्मसत्ता के उत्कर्ष का प्रतिपादन किया व इसके लिए मानवधर्म का निर्धारण किया । साधना पद्धतियाँ बनीं जिसमें भोगों से त्याग की प्रधानता थी ।

यह कथा कितनी सत्य है, यह ज्ञात नहीं पर इस अलंकारिक प्रतिपादन से एक सत्य उभरकर आता है कि दो प्रकार की जातियाँ उपनिषद्कालीन समाज में थी एक आर्य जिसके प्रतिनिधि थे इन्द्र देवसत्ताओं के प्रतिनिधि, संस्कारी पुरुष । दूसरी दस्यु जातियाँ अथवा आनार्य जातियाँ । इन्हीं को सुर व असुर कहा गया । सुर वे जिनने भारत को अपनी कर्मभूमि बनाया तथा असुर वे जिनने धर्मधारणा के प्रति प्रमाद था देहसुख जिन्हें अधिक प्रिय था । विरोचन इन्हीं सत्तओं का प्रतीक है व इन्हें देहात्मवाद के संस्कारों के साथ आर्यार्वत्त से बहिष्कृत कर दिया गया । इनने ही शवों को 'ममी' की तरह सुरक्षित रखने का प्रावधान बनाया, जिसमें राजा-प्रजा सभी को एक साथ सजा-धजा कर दफना दिया जाता था ।

यह कथा मनोरंजन हेतु नहीं, आदि संस्कृति भारतीय संस्कृति के विकास के विभिन्न आयामों को समझाने हेतु प्रस्तुत की गयी है । वस्तुतः प्रथम मानव इस क्षेत्र में भारतवर्ष में जन्मा व प्रचलित पाश्चात्य विकासवाद के विरुद्ध वह आदिम जाति का नहीं, अनगढ़ नरमानुष नहीं अपितु एक श्रेष्ठ मनुष्य था, सभ्य था, पूर्णतः संयमशील था तथा ज्ञानवान था, उसी से समग्र मानव जाति की उत्पत्ति व विकास का क्रम चला ।

महाभारत ही एक आख्या के अनुसार -
अभगच्छत राजेन्द्र देविकां विश्रुताम् ।
प्रसूर्तित्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ॥
अर्थात्-सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई । प्रमाण यही बताते हैं कि आदि सृष्टि की उत्पत्ति भारत के उत्तराखण्ड अर्थात् इस ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ही हुई ।

संसार भर में गोरे, पीले, लाल और श्याम (काले) ये चार रंगो के लोग विभिन्न क्षेत्रों में पाए जाते हैं । एक भारत ही ऐसा देश है, जहाँ, इन चार रंगो का भरपूर मिश्रण एक साथ देखने को मिलता है । वस्तुतः श्वेत-काकेशस, पीले-मंगोलियन, काले-नीग्रो तथा लाल रेड इंडियन इन चार प्रकार के रंगविभाजनों के बाद वाँचवी मूल एवं पुख्य नस्ल है, जो भारतीय कहलाती है । इस जाति में उर्पयुक्त चारों का सम्मिश्रण है । ऐसा कहीं सिद्ध नहीं होता कि भारतीय मानव जाति उर्पयुक्त चारों जातियों की वर्ण संकरता से उत्पन्न हुई । उलटे नृतत्व विज्ञानी यह कहते हैं कि भारतीय सम्मिश्रण वर्ण ही यहाँ से विस्तरित होकर दीर्घकाल में जलवायु आदि के भेद से चार मुख्य रूप लेता चला गया ।

न केवल रंग यहाँ चारों के सम्मिश्रण पाए जाते हैं, वरन् भारतीयों का शारीरिक गठन भी एक विलक्षणता लिए है । ऊँची दबी, गोल-लम्बी मस्तकाकृति उठी या चपटी नाक लम्बी-ठगनी, पतली मोटी शरीराकृत, एक्जों व एण्डोमॉर्फिक (एकहरी या दुहरी गठन वाली) आकृतियाँ भारत में पाई जाती हैं । यहाँ से अन्यत्र बस जाने पर इनके जो गुण सूत्र उस जलवायु में प्रभावी रहे, वे काकेशस, मंगोलियन, नीग्रॉइड व रेडइंडियन्स के रूप में विकसित होते चले गए । अतः मूल आर्य जाति की उत्पत्ति स्थली भारत ही है, बाहर कहीं नहीं, यह स्पष्ट तथ्य एक हाथ लगता है । पाश्चात्य विद्वानों ने एक प्रचार किया कि आर्य भारत से कहीं बाहर विदेश से आकर यहाँ बसे थे । संभवतः इसके साथ दूसरी निम्न जातियों को जनजाति-आदिवासी वर्ग का बताकर, वे उन्हें उच्च वर्ग के विरुद्ध उभारना चाहते थे । द्रविड़ तथा कोल, ये जो दो जातियाँ भारत में बाहर से आईं बतायी जाती हैं, वस्तुतः आर्य जाति से ही उत्पन्न हुई थीं, इनकी एक शाखा जो बाहर गयी थी पुनः भारत वापस आकर यहाँ बस गयी ।

भारतीय जातियों पर शोध करने वाले नतृत्व विज्ञानी श्रीनैफील्ड लिखते हैं कि ''भारत में बाहर से आए आर्य विजेता और मूल आदिम मानव (अरबोरिजिन) जैसे कोई विभाजन नही है । ये विभाग सर्वथा आधुनिक हैं । यहाँ तो समस्त भारतीयों में एक विलक्षण स्तर की एकता है । ब्राह्मणों से लेकर सड़क साफ करने वाले भंगियों तक की आकृति और रक्त समान हैं ।''

    
मनुसंहिता(1(/43-44)का एक उदाहरण है
शनकैस्तु क्रियालोपदिनाः क्षत्रिय जातयः ।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च॥
पौण्ड्रकाशचौण्ड्रद्रविडाः काम्बोजाः भवनाः शकाः ।
पारदाः पहल्वाश्चीनाः किरताः दरदाः खशाः॥

अर्थात् ''ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त न होने के कारण उस क्रिया का लोप होने से पोण्ड्र, चौण्ड्र, द्रविड़ काम्बोज, भवन, शक पारद, पहल्व, चीनी किरात, दरद व खश ये क्षत्रिय जातियाँ धीरे-धीरे शूद्रत्व को प्राप्त हो गयीं । स्मरण रहे यहाँ ब्राह्मणत्व से तात्पर्य है श्रेष्ठ चिन्तन, ज्ञान का उपार्जन व श्रेष्ठ कर्म तथा शूद्रत्व से अर्थ है निकृष्ट चिंतन व निकृष्ट कर्म । क्षत्रिय वे जो पुरुषार्थी थे व बाहुबल से क्षेत्रों की विजय करके राज्य स्थापना हेतु बाहर जाते रहे ।

मूल आर्य जाति ने उत्तराखण्ड से नीचे की भूमि में वनों को काटकर, जलाकर उन्हें रहने योग्य बनाया । वहाँ नगर बसाये । इससे पूर्व वहाँ कोई निवास नहीं करता था । इस प्रकार मूल निवासी के रूप में एक ही उत्पत्ति आर्यों के रूप में हिमालय के उत्तराखण्ड क्षेत्र में हुई । वहीं से मनुष्य जाति का सारे विश्व में विस्तार हुआ । आदि मानव हिन्दू समाज था । इस प्रकार शेष सभी धर्म-मत-जातियाँ-रेस-वर्ण कालान्तर में समय प्रवाह के साथ विकसित होते चले गए भारतीय आर्षग्रन्थ ऋग्वेद केवल भारतीय आर्यों की ही नहीं बल्कि विश्वभर के आर्यों (श्रेष्ठ मानवों) की सबसे प्राचीन पुस्तक है ।

मनुसंहिता यही बात कहती है-
एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं-स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्वमानवः॥

किन्तु भारत से बाहर जाने के बावजूद अपने धर्म आचरण के प्रति अनुराग के उनने अपने सम्बन्ध भारतवर्ष से बनाए रखे । महाभारत काल तक भारतीय नरेशों से उनके वैवाहिक सम्बन्ध हुए । उनकी कन्याएँ भारत आयीं । सत्याभामा व शैव्या के प्रसंग यही बताते है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि सारी धरित्री पर बसे विश्व के सारे मानव आज से पाँच सहस्र वर्ष पूर्व तक भारतीय संस्कृति के ही अनुयायी इसी की संतति थे । भारतीय दृष्टि से वे संस्कारच्युत थे किन्तु बहुसंख्य सतत् प्रयत्नशील रहते थे कि वे भारतीय आचारधारा के संपर्क में रहें ।

भारतीय नृतत्वविज्ञान के अन्वेषणकर्ता श्रीटेलर कहते हैं कि विश्व में ईरान की पारसी जाती और भारतवासी हिन्दू यही प्राचीनतम संस्कृतियों के उपासक मूलतः हैं । दोनों अपना निवास मूलतः हिमालय को मानते हैं । पारसी धर्म से ही क्रमशः यहूदी, ईसाई, मुसलमान धर्म विकसित हुए । बौद्धधर्म हिन्दू धर्म की ही एक शाखा है और जैन धर्म की भाँति हिन्दू धर्म से ही वह उत्पन्न हुआ है । इन सभी को मत-सम्प्रदाय कहा जाय तो उचित होगा । मूलतह एक ही है वैदिक धर्म-हिन्दू धर्म । पारसी धर्म इस वैदिक धर्म से ही निकला है, इस पर सभी अन्वेषक सहमत हैं । भारत से बाहर जाकर बसी एक आर्यों की शाखा पारस्य देश (फारस) में बस गयी व पारसी बनकर भारत व अन्यान्य-क्षेत्रों को गयी । फारसी में 'स' का उच्चारण 'ह' होता है अतः उन्होंने सिंधु देश को हिन्दू कहा, स्वयं को पश्चिमी हिन्दू तथा भारतीयों को पूर्वी हिन्दू कहा । अपनी नदी-नगरों के नाम भी उन्होंने संस्कृतनिष्ठ रखे । सरस्वती वहाँ हरहवती कहलायी, सरयू हरयू तथा भारत यूफरत (यूफ्रेटिस) भूपालन बेबिलोन तथा काशी कास्सी बन गए । अथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा ही पारसी धर्म की मूल है इस तथ्य पर सभी वैदिक साहित्यकार व अन्वेषक एकमत हैं । गोपथ ब्राह्मण में शन्नो देवी इस मंत्र से अथर्ववेद पढ़ना चाहिए यह बात 1.19 मंत्र बतायी गयी है । पारसी धर्मग्रन्थ होमयस्त के १.२४ मंत्र में यही बात कही गयी है । इस प्रकार ईसाई इस्लाम सभी धर्म वैदिक धर्म से जन्मे, ही प्रमाणित है । यहाँ उद्देश्य किसी प्रकार का साम्प्रदायिक विद्वेष खड़ा करना व अपने धर्म की श्रेष्ठता बताने का नहीं, वरन् देवसंस्कृति के विराट सामयिक रूप का परिचय देना है, जिसका मूल खोजने पर हुई शोध हमें ''एकं सद्विप्र बहुधा वदन्ति'' का संदेश देकर एक ही सत्ता को परमसत्ता मानने की प्रेरणा देती है।

नृतत्व विज्ञान से लेकर चिरपुरातन इतिहास का आमूलचूल सवेर्क्षण एक ही तथ्य प्रामणित करता है कि आदिकालीन मानव आयर् था,वैदिक धमर् को मानता था व चिंतन चरित्र व व्यवहार की दृष्टि से श्रेष्ठ था । शक , हूण, मिस्त्री, यवन आदि सब हिन्दू ही थे । कालान्तर में संस्कार विहीन होने के कारण ये जातियाँ आयार्वत्त से बाहर जाती रहीं, निवार्सित होती रहीं, पुनः मातृदेश लौटती रहीं । पुरातन काल में जातिच्युत व्यक्ति को पुनः आर्य-मानव जाति का अंग बना लेना ही शुद्ध का प्रतीक था । जाति की मिथ्या परिभाषा, वर्ण जातिभेद की गलत व्याख्याएँ तथा व्यापक पैमाने पर बहिष्कार की परम्परा ने हिन्दू संस्कृति का कालान्तर में कितना नुकसान किया व आज भी विश्व मानवता के पथ पर एक अवरोध बनकर खड़ा है, इस पर सभी मानवतावादियों का मत एक है । परम पूज्य गुरुदेव ने हिन्दू संस्कृति को देवसंस्कृति कहकर उसके चिरपुरातन गौरव की ओर ध्यान दिए जाने को तो हम सबसे कहा पर साथ ही यह भी निदेर्श दिया कि हमारी संस्कृति में कालक्रम के अनुसार कई विकृतियां का समावेश होता रहा है । हमें युगानुकूल संस्कृति विकसित करना है व इसे विज्ञान सम्मत, पुनः इसके शाश्वत सावर्जनीन रूप में लाकर इसके द्वारा विश्वमानवता का मागर्दशर्न करना है ।

(समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान पृ.सं.1.113)


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