समस्त विश्व को भारत के अजस्त्र अनुदान

योग का स्वरूप

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
योग कहते हैं जोड़ने को, दो और दो मिलकर चार होते हैं । यह योग है । आत्मा और परमात्मा में एकता स्थापित करना योग का उद्देश्य है । सामान्यतया दोनों के बीच भारी मनमुटाव और मतभेद रहता है । एक दूसरे की उपेक्षा भी करते हैं और रुष्ट भी रहते हैं । ईश्वर चाहता है कि मनुष्य जीवन के अनुपम अनुदान का श्रेष्ठतम सदुपयोग किया जाय । अनुकरणीय पद्धति अपनाकर जन-साधारण को अनुगमन की प्रेरणा दी जाय । इसी अवसर का लाभ उठाकर पूर्णता का महान लाभ प्राप्त कर लिया जाय । संसार को सुसंस्कृत समुन्नत बनाने में हाथ बँटाया जाय ।

महत्त्वकांक्षाओं को मानवी गरिमा के अनुरूप बनाया जाय किन्तु देखा जाता है कि मनुष्य इसके ठीक विपरीत आचरण करता है । पेट और प्रजनन की पशु प्रवृत्तियों से ऊँचा नहीं उठना चाहता । वासना, तृष्णा और अहं की पूर्ति के अतिरिक्त चिन्तन और कर्तव्य का अन्य कोई विषय नहीं रहता । ईश्वर भक्ति की विडम्बना भी मनुष्य निकृष्ट मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए ही रचता रहता है । ईश्वर को इस प्रकार की जीवन पद्धति में मानव जीवन की असाधरण अनुदान की अवमानना दिखती है । इसलिए वह खींचता है । वह असीम और अनावश्यक भोग साधना माँगता है । वे अभीष्ट मात्रा में नहीं मिलते तो अभाव अनुभव होता रहता है। दूसरे दुष्प्रवृत्तियों की परिणति आये दिन की विपत्ति बन कर सामने आती रहती है । इसमें वह अपना नहीं ईश्वर का दोष मानता है फलतः उसकी भी अश्रद्धा एवं उपेक्षा बनी रहती है । किसी का किसी से प्रेम नहीं । इस असहयोग में मनुष्य ही घाटे में रहता है । ईश्वरीय अनुग्रह से जो लौकिक वैभव और आत्मिक वर्चस्व मिलता है उससे वह प्रायः वंचित ही बना रहता है ।

इस असमंजस भरी स्थिति को हटाने का उपाय योग है । इस प्रक्रिया के द्वारा साधक की मनःस्थिति को ईश्वर की ओर मोड़ा-मरोड़ा जाता है उसे ईश्वरीय निर्देशों के अनुरूप ढलने एवं चलने की प्रेरणा मिलती है । दोनों की दिशा धारा एक हो जाने से परस्पर घनिष्ठता उत्पन्न होती है-और आदान-प्रदान का द्वार खुलता है । जीव और ब्रह्म की आकांक्षाएँ एक हो जाने से उनके बीच समुचित तालमेल बैठता है और इस आधार पर विकसित व्यक्तित्व में ऋषि तत्वों की, देव तत्वों की मात्रा दिन-दिन बढ़ती चली जाती है दर्पण पर सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ने से उसमें से भी वैसी ही चमक प्रादुर्भूत होती है । योगी का अन्तःकरण कषाय कल्मषों से मुक्त हो जाने के कारण इतना स्वच्छ हो जाता है कि उस पर ईश्वर का प्रतिबिम्ब चमकता हुआ प्रत्यक्ष दिखाई देने लगे । ऐसे व्यक्तियों का भावनात्मक स्तर दिव्य मान्यताओं से, दिव्य आकांक्षाओं से, दिव्य योजनाओं से उमगता रहता है, फलतः उसका चिन्तन और क्रिया-कलाप वैसा आदर्श होता है जैसा कि ईश्वर भक्तों का-योगियों का होना चाहिए ।

स्पष्ट है कि ऐसे व्यक्तियों में क्षमताएँ एवं विभूतियाँ भी उच्च स्तरीय ही पायी जाती है । वह सामान्य मनुष्यों की तुलना में निश्चित ही उतने समर्थ और उत्कृष्ट होते हैं कि उनकी प्रतिभा एवं क्षमता को बिना संकोच के चमत्कारी कहा जा सकेगा । व्यक्तित्व की पूर्णता ही मानव जीवन की सबसे बड़ी सफलता है । अस्तु योगियों के सिद्धपुरुष होने की मान्यता सच ही होती है । महापुरुष सिद्धपुरुष आदि नामों से किसी को स्त्री-पुरुष के लोक भेद का भ्रम नहीं करना चाहिए । अध्यात्म क्षेत्र में पुरुषार्थियों को पराक्रमियों को पुरुष कहा जाता है । इस अर्थ में नर और नारी दोनों के ही योगी एवं चमत्कारी सिद्ध हो सकने की बात स्पष्ट हो जाती है ।

योग का स्वरूप और उद्देश्य समझते हुए मनीषियों ने कहा है-

न योगो नभसः पृष्ठे न भूमौ न रसातले । एक्यं जीवत्मनोराहुयोर्ग योगविशारदाः । ।

योग आसमान से नहीं टपकता न जमीन फाड़कर निकलता है । आत्मा और परमात्मा के मिलन को ही योग कहा गया है ।

द्विज सेवित शाखस्य श्रुति कल्पतरों फलम् । शमन भव तापस्य योगं भजत सत्तमः॥

वेदरूपी कल्प वृक्ष के फल इस योग शास्त्र का सेवन करो । जिसकी शाखा मुनि जनों से सेवित है और यह संसार के तीन प्रकार के ताप को शमन करता है ।

भवतापेन तप्तानां योगो हि परमौषधम् । -गरूड़ पुराण इस संसार के दुःखियों का योग ही उत्तम औषधि है ।

योगाग्निदर्र्हति क्षिप्रमशेषं पापपञ्जरम् । प्रसन्नं जायते ज्ञानं ज्ञानान्निवार्मृच्छति॥ योग सन्ध्या

योग रूप अग्नि शीघ्र ही पाप के समूह को दग्ध करता है और ज्ञान प्राप्त होता है, ज्ञान से मोक्ष होता है ।

दुःसहा राम संसार विष वेग विसूचिका । योगगारूड़ मन्त्रेण पावनेनोपशाम्याति॥

हे राम! यह संसार रूप विष विसूचिका का वेग बड़ा दुःखदायी है वह योग रूप गरुड़ के मन्त्र करके शान्ति को प्राप्त होता है ।

अथ तदृशर्नाभ्युपायो योगः अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हषर्शोकौ जहाति॥

उस आत्मा के साक्षात्कार करने में ही एक उपाय है दूसरा नहीं, योगाभ्यास द्वारा ही उस आत्मादेव को जानकर श्रेष्ठ पुरुष हर्षशोक (जन्म-मरण) रूप संसार का परित्याग करते हैं ।

यास्मिन् ज्ञामे सर्वमिदं ज्ञातं भवति निश्चितम् । तस्मिन् परिश्रमः कार्य किमन्यच्दास्म भाषितम्॥

निश्चिय जिसके जानने से सब संसार जाना जाता है । ऐसे योग शास्त्र के जानने के लिए परिश्रम करना अवश्य उचित है फिर जो अन्य शास्त्र हैं उनका क्या प्रयोजन है अर्थात कुछ भी प्रयोजन नहीं है ।

वक्ये सरस्वती देवी सदा नृत्यति निर्भरम् । मन्त्र सिद्धिभर्वेत्तस्य जपादेव न संशयः॥

योगी के मुख में सर्वदा निरन्तर सरस्वती देवी नृत्य करती है और योगी की ही साधना से मन्त्र आदि उपचारों की सिद्धि होती है ।

आलोक्य सवर्शास्त्राणि विचायर् च पुनः पुनः । इदमेकं सुनिष्पन्न योग शास्त्र परं मतम्॥ शिव संहिता

सम्पूर्ण शास्त्रों पर बार-बार विचार करने के उपरान्त यह सुनिश्चित मत निर्धारित हुआ कि एक योग शास्त्र ही सर्वोपरि है ।

ब्रह्मभूतः स एवेह योगी चाङत्मरतोङमलः । विषयेन्दि्रसंयोगात्केचिद्योगं वदन्ति वै॥

आत्मा को निर्मल बनाकर, इन्द्रियों का संयम कर उसे परमात्मा के साथ मिला देने की प्रक्रिया का नाम योग है ।

युवा वृद्धोङतिवृद्धो वा व्याधितो दुबर्लोङपि वा । अभ्यासात्सिद्धिमाप्नप्रोति सवर्योगेध्वतन्दिंतः । । न वेषधारणं सिद्धेः कारणं न च तत्कथा । क्रियैव कारणं सिद्धेः सत्यमेतन्न संशयः॥ हठयोग प्र. युवा,वृद्ध,अति वृद्ध,रोगी दुर्बल कोई भी योगाभ्यास करके सिद्धि प्राप्त कर सकता है॥ 64॥

सिद्धि वेष धारण से नहीं मिलती । केवल पढ़ने, सुनने से भी काम नहीं चलता । अभ्यास करने से ही सफलता मिलती है यह निःसन्देह है ।

॥ 66॥ एते गुणाः प्रवतर्न्ते योगमार्गकृतश्रमैः । यस्माद्योगं समादाय सवर्दुःखवहिष्कृतः॥ ब्रह्म-विद्योपनिषद् 58

योगाभ्यास में जो श्रम किया जाता है वह निरर्थक नहीं जाता । प्रयत्नपूर्वक की हुई साधना समस्त दुःख,शोकों का निवारण कर देती है ।

योगात्परतरं पुण्यं योगात्परतरं शिवम् । योगात्परतरं सूक्ष्मं योगात्परतरं नहि॥ योग-शिखोपनिषद

योग से श्रेष्ठ न कोई पुण्य है, न कोई कल्याणदायक है और न कोई सूक्ष्म वस्तु है अर्थात योग से बढ़कर कुछ नहीं है ।

(1) योग साधना करने वाले के पितर धन्य होते हैं । देश और कुल कृतार्थ होता है । अभाव मिटते हैं । सिद्धियाँ उभरती हैं और सागर से पार होने का अवसर मिलता है ।

(2) गृहस्थों में, वानप्रस्थों में, ब्रह्मचारियों में योगाभ्यास की ही अधिक श्रेष्ठता है ।

कृतार्थैर पितरौ तेन धन्यो देशः कुलं च तत् । जायते योगवन्यत्र दत्तमक्षय्यातां व्रजत्॥ दृष्टः संभाषितः स्पृष्टः पुप्रकृत्योविर्वेकवान् । भवकोटिशतायातं प्रुनाति वृजिनं नृणाम्॥ गृहस्थानां सहस्रेण वानप्रस्थशतेन च । ब्रह्मचारिसहस्रण योगाभ्यास विशिष्यते॥ ब्रह्मांड पुराण

योग साधना एक प्रबल पुरुषार्थ है जिसके सहारे प्रसुप्त आत्म-शक्तियों को जगाया जाता है । दैवी अनुग्रह आकर्षित करने का चुम्बकत्व योग साधना के साथ जुड़ा हुआ है । स्वाध्याय,चिन्तन, सत्संग आदि का अपना महत्त्व है, पर इतने से ही काम नहीं चल सकता ज्ञान क साथ कर्म भी चाहिए । ब्रह्म विद्या चिन्तन प्रधान है । उसके माध्यम से श्रद्धा को स्थिर किया जाता है । और अज्ञान का निवारण होता है इतने पर भी योग रूपी परम पुरुषार्थ की आवश्यकता बनी ही रहती है । उसी परिश्रम से आत्म सत्ता की उर्वरता निखरती है । उसी के सहारे आत्मतेज एवं ब्रह्म तेज से सुसम्पन्न बन सकने का अवसर मिलता है ।

योगे न रक्षते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते । विदुरनीति योग से धर्म और विद्या दोनों की रक्षा होती है । ज्ञान निष्ठों विरक्तो वा धमर्ज्ञोङपि जितेन्द्रियः । बिना योगे न देवेङपि न मोक्षं लभते प्रिये॥

कोई मनुष्य चाहे जितना ज्ञानी, विरक्त, धार्मिक और जितेन्द्रिय क्यों न हो पर वह बिना योग मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता ।

योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवति ध्रुवम् । योगो हि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकमर्णि॥ तस्माज्जानं च योगं च मुमुक्षुदृर्ढमभ्यहोत॥ योग-तत्वोपनिषद

बिना योग का ज्ञान निश्चय करके मोक्ष का देने वाला कैसे हो सकता है और बिना ज्ञान के योग भी मोक्ष देने में समर्थ नहीं है, इसलिए मोक्षाभिलाषा ज्ञान और योग दोनों का दृढ़ता से अभ्यास करे ।

योगात्सम्प्राप्यचते ज्ञानं योगाद्धमर्स्य लक्षणम् । योगः परं तपोज्ञेयस्ताद्युक्तः समभ्यसेत्॥ अग्नि संहिता

योग साधना से ही वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति होती है, योग ही धर्म का लक्षण है, योग ही परम तप है इसीलिए योग का सदा अभ्यास करना चाहिए ।

आत्मज्ञानेन मुक्तिः स्यात्तच्च योगादृते नहि ।

सच योगश्चिरंकालमभ्यासदेव सिद्धयति॥ योगाग्निदंहति क्षिप्रमशेषं पापपञ्जरम् । प्रसन्नं जायते ज्ञानं ज्ञानाग्निवार्णमृच्छति॥

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118