इतिहासकार केन्टलई और ली.टीओ युयान के कथानुसार ईसा की तीसरी शताब्दी में कम्बोडिया में हिन्दुराज स्थापित हो चुका था ।। वहाँ उपलब्ध लेखों से विदित होता है कि प्राचीनकाल में वहाँ एक असभ्य जाति रहती थी, जिसकी रानी का नाम ल्यू ए अथवा सोमा था ।। भारत से पहुँचे कौडिन्य नामक ब्राह्मण से उसने विवाह कर लिया ।। यह इन्द्रप्रस्थ के राजा अमृत्यवेश का पुत्र था ।। सोमा और कौडिन्य से जो पुत्र उत्पन्न हुआ, वही आगे चलकर कम्बोडिया का शासक बना ।। उसने छोटे- छोटे कई राज्य स्थापित किये ।। इन्द्र- वर्मन, श्रेष्ठ वर्मन, जय वर्मन, रुद्र वर्मन, गुण वर्मन, भव वर्मन आदि शासक इसी वशं के थे ।। पीछे इसी में वीर वर्मन, ईशान वर्मन, महेन्द्र वर्मन, शुंभ वर्मन, यशो वर्मन, राजेन्द्र वर्मन, उदयादित्य वर्मन आदि शासकों की लम्बी परम्परा चल पड़ी ।। इन लोगों ने कोई छः राज्य बनाये, जिनके नाम कपिल वस्तु श्रावस्ती आदि रखे । भारतीयों के जत्थे इसके बाद लगातार पहुँचते रहे और पाँचवी, छठी शताब्दी में हिन्दू धर्म के साथ बौद्ध धर्म भी जड़े जमाने लगा ।। गुण वर्मन द्वारा अंकित कराये शिलालेखों से स्पष्ट है कि उसे शासनकाल में शिव, विष्णु एवं बुद्ध की उपासना प्रचलित थी ।। वेदपाठी विद्वान ब्राह्मण वहाँ मौजूद थे ।। हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म के मानने वाले प्रीतिपूर्वक साथ रहते थे, चीनी इतिहास ग्रन्थ 'तांग वंश का इतिहास' ओर सुईवंश का इतिहास यह बताते हैं कि छठी और सातवीं शताब्दी में कौडिन्यवंशी शासकों द्वारा कम्बोडिया में सुव्यवस्थित शासन व्यवस्था चलाई जा रही थी और चीनी व्यापारी भी वहाँ घुस- पैठ करने में दत्तचित्त थे ।।
कम्बोडिया प्राचीन काल में कुम्बज कहा जाता था और अब उसे अनाम कहते हैं ।। अब उसके निवासी किसी भी वंश या धर्म के हों, प्राचीन काल में निश्चित रूप से भारतीय धर्मावलम्बी और भारतवंशी थे ।। यहाँ की मेंकांग नदी का नामकरण भी कोंग शब्दों को मिलाकर किया गया है ।। जिसका अर्थ वहाँ की भाषा में 'गंगा माता' होता है ।। सचमुच वहाँ उस सरिता को मात्र जल- प्रवाह नहीं माना जाता वरन् भारतीयों द्वारा गंगा के प्रति जो श्रद्धा- भाव है, उसी के अनुसार मेंकांग को भी उस देश में सम्मानास्पद माना जाता है ।।
यों प्राचीनकाल में इस देश का भारत और चीन से स्थल- सम्पर्क भी था, पर जल यात्रा अधिक सरल और निरापद होने से प्रायः उसी का प्रयोग किया जाता था ।। भारतीय सभ्यता वहाँ समुद्र मार्ग से ही पहुँची ।।
कम्बोडिया में प्रचलित एक जनश्रुति के अनुसार कम्बु स्वयंभू मनु नामक महापुरुष ने उस देश को बसाया, उसकी सन्तानें कम्बु कहलायीं ।। भारत में जिस प्रकार मनु की सन्तान का मानव कहलाना प्रचलित है, उसी प्रकार उस देश के निवासी भी अपने को कम्बु स्वयंभू मनु की संतान मानते हैं ।। अन्य कम्बोज गाथाओं के अनुसार भारत से कम्बु ऋषि वहाँ पहुँचे ।। उस देश की राजकुमारी मीना से उन्होंने विवाह किया और उन्हीं के नाम पर उस देश का नाम कम्बुज पड़ा ।।
वर्तमान राजधानी ''नाम पेन्द'' का इतिहास यह बताया जाता है कि पेन नामक एक महिला को नदी में बुद्ध- भगवान की मूर्ति मिली ।। वह उसने निकाली और एक झोंपड़ी में रखकर उन्हीं के समझ साधना करने लगी ।। लोग उसके दर्शन करने पहुँचने लगे और धीरे- धीरे वहाँ एक बस्ती बस गयी, जिसका नाम पड़ा 'पनीम पेन' ।। पनीम का अर्थ होता है पहाड़ी ।। तपस्विनी पेन वाली पहाड़ी को ध्यान में रखते हुए उस बस्ती का जो नाम पड़ा वही पीछे बदलकर 'नीमपेनया नाम पेन्ह' हो गया ।। इसके समीपवर्ती क्षेत्र में कितने ही भव्य बौद्ध अवशेष उपलब्ध हैं ।। उस तपस्विनी के उपरान्त वह क्षेत्र बौद्ध- धर्म का क्षेत्र बनता चला गया ।। चौदहवीं सदी का यह आरंभ अठारहवीं सदी तक फलता- फूलता ही चला गया ।।
अब वहाँ तिब्बती, वर्मी और 'मों रूपेट' नस्ल के लोगों का बाहुल्य है, पर पुरातत्ववेत्ताओं को खुदाई में जो अवशेष मिले हैं, उनसे स्पष्ट है कि उनमें ''प्रोटो इण्डोनेशियन नस्ल'' के लोग ही थे ।। मध्य और पूर्व भारत में मुण्ड ओर खस जातियाँ इसी नस्ल की हैं ।। श्रीबागची ने अपनी पुस्तक 'पूर्व आर्य और पर्व द्रविण' ग्रन्थ के इतिहासकार लेवी, प्रिजुलस्की तथा जूब्लैक के लेखों का संकलन किया है ।। इन लेखों से यही सिद्ध होता है कि कम्बोडिया के प्राचीन निवासी भारतीय नस्ल के थे ।। पुरातत्त्ववेत्ता क्रोम तो इससे एक कदम और भी आगे बढ़ गये हैं ।। उन्होंने तो कहा है कि जावा निवासी पहले भारत में बसे, वहाँ उन्होंने अपनी जड़े जमाईं और पीछे मजबूत होकर कम्बोडिया आदि पहुँचे ।।
कम्बोडिया की प्राचीन भाषा भारत में उन दिनों प्रचलित मुण्ड और खस लोगों की भाषा से बहुत कुछ मिलती है ।। बौद्ध जातक कथाओं में इस देश का उल्लेख 'कर्पूर द्वीप'- नारिकेल द्वीप के नाम से किया गया है ।। यहाँ नारियल, कपूर और मसालों का अधिक उत्पादन है ।। 'टालेमी' के ''हिन्द- चीन तथा इण्डोनेशिया के हिन्दू राष्ट्र'' ग्रन्थ में उस समय भारतीयों द्वारा बनाये गये ऐसे विशाल जलपोतों का वर्णन है, जिन पर सवार ७०० व्यक्ति आसानी से लम्बी समुद्री यात्रायें करते थे ।। इन्हीं पर सवार होकर धर्म प्रचारक, व्यापारी तथा राजवंशी लोग वहाँ पहुँचे थे ।। इस क्षेत्र में प्राचीन प्रचलन जिस प्रकार की वर्ण- व्यवस्था तथा धर्म व्यवस्था का था, उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि वहाँ पहले धर्म प्रचारकों का ही पदार्पण हुआ होगा ।। इन लोगों ने न केवल कम्बोडिया में वरन् हिन्द- चीन, इण्डोनेशिया, ब्रह्मा मलाया आदि में भी भारतीय संस्कृति की पताका फहरायी थी ।। ब्रह्मा से लेकर हिन्द चीन तक के सारे क्षेत्र में हिन्दू सभ्यता का प्रचलन था ।। फ्रांसीसी शोधकर्त्ता 'पिलियो' ने लिखा है कि ''इस क्षेत्र में उपलब्ध प्राचीन शिलालेखों की लिपि हिन्दू सभ्यता की देन है ।। इतिहासकार पेरीपियस ईसा की प्रथम शताब्दी में हुए थे ।। उनने अपने समय में भारतीय जहाजों से मलाल, हिन्द- चीन आदि के लिये जाने का उल्लेख किया है ।। इससे प्रतीत होता है कि अब से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भारतीयों द्वारा अपनी सभ्यता का प्रवेश इस क्षेत्र में हो चुका था ।।
(समस्त विश्व का अजस्र अनुदान पृ.सं. 3.5 (- 51)