सांस्कृतिक पुनरुथान के लिए स्थान-स्थान पर अनेक संगठन बनाने तथा अनेक सम्मेलन आयोजन करते रहने की आवश्यकता है, ताकि जनसाधारण की मनोभूमि पर सांस्कृतिक छाप गहराई तक डालने में प्रगति हो। इसके लिए निम्नलिखित कार्य-क्रम उपयोगी हो सकता है: सांस्कृतिक शिक्षण के लिए समय-समय पर शिक्षण-शिविर किए जायें। इनमें एक व्याख्यानमाला द्वारा भारतीय संस्कृति का वास्तविक रूप समझाया जाय।
खास-खास मौकों पर या किसी महान् भारतीय नर-रत्न के जन्म दिन पर अनेक सांस्कृतिक उत्सव बराबर होते रहें। ग्राम, मुहल्लों में पर्व त्यौहारों को सामूहिक रूप से मनाया जाय। साधारण सभा-सम्मेलनों की अपेक्षा ऐसे वृहद् यज्ञ करना अधिक प्राभावोत्पादक हो सकता है, जिनमें सांस्कृतिक शिक्षा, धर्म-प्रचार तथा परस्पर विचार-विनिमय की समुचित व्यवस्था हो।
उत्तम योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए विचारशील एवं कार्य-संलग्न व्यक्तियों की विशेष गोष्ठियाँ सामयिक योजनाओं पर विचार करने के लिए होती रहें। प्रदर्शनी, अभिनय, संगीत, कवि-सम्मेलन, प्रतियोगिता, चित्रपट आदि मनोरंजनों द्वारा सांस्कृतिक भावनाओं का प्रचार किया जाय। ऐसे स्मारकों, केन्द्रों तथा संस्थानों का निर्माण हो, जहाँ से सांस्कृतिक प्रेरणा प्राप्त होती रहें। महिलाओं और बच्चों के सांस्कृतिक शिक्षण के लिए विशेष आयोजनाएँ की जाय। सांस्कृतिक विकास के कार्यों पर अधिक ध्यान देने एवं अधिक सुविधाएँ देने के लिए सरकार से प्रार्थना की जाय।
सांस्कृतिक विद्यालय
भारतीय संस्कृति को घर-घर पहुँचने, उसे सुरक्षित रखने और बढा़ने का कार्य जो व्यक्ति करते थे, इस कार्य में पूरा-पूरा समय और मन लगाते थे, उन्हें पाधा, पंडित और पुरोहित आदि नामों से पुकारा जाता था। प्राचीन काल में यह लोग अपनी योग्यता, सेवा, बुद्धि एवं तपस्या बढा़ने के लिए कठोर साधना और अपने सेवा क्षेत्र के यजमानों की विविध विधि सांस्कृतिक सेवा करने में संलग्न रहते थे। यजमान भी समय-समय पर दान-दक्षिणा देकर उनके जीवन-निर्वाह की व्यवस्था करते थे। गांधीजी ने प्रत्येक ग्राम के लिए एक "ग्राम-सेवक" द्वारा रचनात्मक कार्य करने पर जोर दिया है। लगभग वैसी ही सांस्कृतिक योजना के आधार पर प्राचीनकाल में हमारे दूर्दर्शी पूर्वजों ने यजमानों और पुरोहितों की परम-पुनीत परम्परा प्रचलित की थी।
आज उस प्रथा का रूप विकृत हो गया है। उसे शुद्ध करने की आवश्यकता है। जहाँ संभव हो वहाँ पुराने पुरोहितों को नियत कार्य पर लगाने के लिए प्रयत्न करना है, साथ ही नई पीढी़ के नये उपाध्याय इसी आदर्श के अनुसार तैयार करने हैं। इस प्रकार सांस्कृतिक कार्यों के लिए पूरा समय देने वाले लगभग ५ लाख व्यक्तियों की सेना ही तैयार हो सकती है। यह सेना अज्ञान, अन्धकार, कुसंस्कार, निकृष्ट जीवन, असुरता एवं भौतिकवादि के शत्रुओं को परास्त करके भारतीय संस्कृति की विजय-पताका फहराने में सफलतापूर्वक समर्थ हो सकती है।
देव-पूजा कार्यों के लिए भारत में लगभग ५६ लाख व्यक्ति अपना पूरा समय लगाये हुए हैं। साधु, सन्त, पंडे, पुरोहित, पंडित आदि वर्ग के लोग इतनी बडी़ संख्या में देवपूजा के कार्य के आधार पर अपनी जीविका चलाते हैं। देव कार्यों के बने हुए मन्दिरों, भवनों, इमारतों और इनसे सम्बन्धित चल-अचल सम्पत्तियों का मूल्य लगभग २३ अरब आँका जाता है। ५६ लाख की यह विशाल जन-सेना और २३ अरब रूपयों की विपुल सम्पत्ति इतनी बडी़ शक्ति है कि जिससे सांस्कृतिक पुनरुत्थान तो क्या, एक विश्व युद्ध जीता सकता है।
यह धन, जन की प्रचण्ड शक्ति आज निरर्थक पडी़ है। इतना ही नहीं अधिकांश तो इसका दुरुपयोग होता है। कुछ व्यक्तियों की स्वार्थ-सिद्धि के अतिरिक्त वह उद्देश्य पूर्ण नहीं होता, जो इस शक्ति के द्वारा होना चाहिए। देव-तत्वों को जनमानस में स्थापित करना ही वस्तुत: इस देव-सेना का उद्देश्य है। जो वस्तु जिस कार्य के लिए हो, जो व्यक्ति जिस कार्य के लिए जनता से आजीविका प्राप्त करते हैं, उस उद्देश्य को सर्वथा न भुला दिया जाय, इसके लिए कुछ प्रयत्न करना आवश्यक है।
हमें चाहिए कि अपने मन्दिरों को सांसाकृतिक-केन्द्र बना डालें। दान-दक्षिणा से जीविका चलाने वालों को सांस्कृतिक सेवा करने के लिए तैयार लिए भारी प्रयत्न और जनमत को तैयार करने की आवश्यकता है। दान देने वालों, देव सम्पत्तियों के स्वामियों और संरक्षकों को भी उद्देश्य पूर्ति के लिए कुछ करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। दान देने वाले और दान लेने वाले दोनों को ही उनकी जिम्मेदारी बताने और उसे पूरा करने के लिए कुछ करने की प्रेरणा दी जानी चाहिए।
यज्ञ भारतीय सूक्ष्म विज्ञान का प्रधान आधार रहा है। उसमें आत्मोन्नति, स्वर्ग, मुक्ति आदि परमार्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति, बल-वृद्धि, रोग-निवारण, श्रीसमृद्धि, सुसन्तति, अभ्हिष्ट वर्षा, कुसंस्कारों की निवृत्त, दिव्य अस्त्र-शस्त्र, व्यापक वातावरण में परिवर्तन, सूक्ष्म जगत पर अधिकार, आपत्तियों का निवारण एवं सुख-शांति की अपार संभावनाएँ छिपी हुई हैं। आज यह यज्ञ-विद्या लुप्त प्राय: हो रही है। हमें भी पूर्वजों के इस महान् रत्न-भण्डार यज्ञ की शोध के लिए कुछ करना ही चाहिए। संसार में विभिन्न प्रकार की वैज्ञान्क शोधों हो रही हैं। हमें भी पूर्वजों की महान् यज्ञ-विद्या की शोध के लिए कुछ करना चाहिए।