"तकला मकान" मरुस्थल के दक्षिणी सिरे पर युरंगकाश नदी बहती है ।। उसकी हरी- भरी सुरम्य घाटी का नाम खोतान हैं ।। यह क्षेत्र यारकन्द से दक्षिण- पूर्व में लगभग २०० मील है ।। युरंगकाश और कराकाश नदियाँ इसे सिंचति है ।। दोनों नदियाँ जहाँ मिली है, वहाँ से उनका सम्मिलित नाम "खोतान" पड़ जाता है ।। यह क्षेत्र आजकल चीनी तुर्किस्थान के अन्तर्गत आता है ।।
इस क्षेत्र पर ईसा से ५३ वर्ष पूर्व राजा विजय संभव का शासन था ।। इसके बाद कण्व राजा भूमि मित्र का शासन हुआ ।। इन्हीं दिनों काश्मीर से अर्हत विरोचन नामक एक बौद्ध भिक्षु खोतान पहुँचा ।। उसने राजा को बौद्ध धर्म का अनुयायी बनाया और प्रजाजनों ने भी उसे उत्साहपूर्वक स्वीकार किया ।। उसी समय "सरमा" नामक बौद्ध विहार बना और संस्कृत से मिलती- जुलती 'ली' भाषा का प्रसार हुआ । तिब्बती सूत्रों में प्रथम बौद्ध राजा विजय- संभव को ही बताया गया है ।। उनके वंशज विजय वीर्य ने 'गन्क्तर' चैत्य और 'गोशंग' विहार का निर्माण कराया गया ।।
इसके बाद इस वंश के ११वें राजा विजय- जय ने चीन की राजकुमारी 'लुशी से अपना विवाह कर लिया ।। उसके नाम से राजधानी से ६ मील पर "लुशी बौद्ध विहार" बना ।। इस प्रकार चीनियों को उस प्रदेश में घुस- पैठ करने का अवसर मिला और अन्ततः उस क्षेत्र की आधी आबादी चीनी और आधी भारतीय हो गयी ।।
विजय- जय के तीन पुत्र थे ।। इसमें से विजय धर्म राज्याधिकारी बना दूसरा धर्मानन्द बौद्ध- भिक्षु बन गया ।। उसने भारत की तीर्थयात्रा की और वापस लौटकर उस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रचार किया ।। उन्हीं दिनों आठ नये विहार बने ।। भारत से मंत्र सिद्ध नामक एक प्रकाण्ड विद्वान वहाँ धर्म प्रचार के लिये पहुँचा, उसने "संगतीर" नामक एक नये विहार की स्थापना की ।।
सन् ४०४ में चीनी यात्री फाहियान कूच होता हुआ खोतान पहुँचा ।। उसने इस क्षेत्र की समृद्धि को भरपूर सराहा है और लिखा है- यहाँ के सब निवासी बौद्ध है ।। घर- घर के आगे स्तूप बने हैं ।। इस देश में १४ बड़े संघराम हैं ।। पर्वों पर प्रतिमाओं के शानदार जुलूस निकलते हैं, उसके निर्माण में ८० वर्ष लगे हैं । तीन राजाओं के शासन में वह पूरा पाया है ।। स्तूप की ऊँचाई २९० फुट है ।।
सन् ५१२ में एक दूसरा यात्री "सुंगयुंग" खोतान पहुँचा ।। उसने लिखा है- "यहाँ मुर्दे जलाये जाते हैं ।। हड्डियों पर स्तूप खड़ा किया जाता है मृतक के सम्बंधी शिर के बाल मुड़ाते है ।"
सन् ६४४ में तीसरा यात्री हवानत्सांग खोतान पहुँचा उसने लिखा है- "यहाँ की भाषा भारतीयों से मिलती- जुलती है ।। लिपि में भी थोड़ा- सा ही अन्तर है ।। बौद्ध धर्म को मान्यता है ।। इस क्षेत्र में १६ के करीब संघराम हैं, यहाँ का राजा बौद्ध है और अपने को वैराचन वंश का कहता है ।"
तिब्बत के इतिहास से पता चलता है कि सन् १००७ में इस क्षेत्र पर एक चीनी राजा "लो युल" का आधिपत्य हो गया था, उसने बौद्ध धर्म को उखाड़ने के लिये भारी अत्याचार किये ।। अन्ततः भिक्षुगण वहाँ से भाग खड़े हुए और वे तिब्बत और गान्धार क्षेत्र में छितरा गये ।। तुर्की इतिहास के अनुसार सन् १००० में तुर्क आक्रान्ता यूसुफ कादरखाँ ने इस क्षेत्र पर हमला किया और वहाँ फैले हुए बुद्ध धर्म को उखाड़कर इस्लाम धर्म की स्थापना की ।। १२५ वर्ष के शासन काल में उन्होंने वहाँ की जनता में से अधिकांश को बलपूर्वक मुसलमान बना लिया ।। १२१८ में मंगोल आक्रमणकारी चंगेज खाँ ने इस क्षेत्र पर हमला किया उसने मंगोलिया से लेकर आस्ट्रिया तक अपना आधिपत्य जमाया ।। इसी सिलसिले में खोतान भी उसके कब्जे में आ गया ।। उसके बेटे कुवे लई खाँ ने इस प्रदेश को पूरी तरह इस्लाम का अनुयायी बना दिया ।। सन् १८७८ में इस देश पर चीन का कब्जा हो गया, अब वह उसके "सिनक्यांग" प्रान्त का एक प्रमुख अंग बनकर रह गया है ।।
"दन्दान यूलिक" नगर में भी अभी भी चारों ओर बौद्ध अवशेष बिखरे पड़े हैं ।। खुदाई में ऐसे और बौद्ध मन्दिर निकला है, जिसमें खड़ी और बैठी भगवान बुद्ध की कितनी ही प्रतिमायें हैं ।। दीवारों पर तथागत की जीवन चर्चा से संबंधित भित्ति चित्र हे ।। लकड़ी पर गणेश प्रतिमा है ।। कुबेर वैश्रवण की मूर्तियाँ भी मिली हैं ।। इसी मन्दिर में एक ग्रन्थ भी मिला है, जो ब्राह्मी लिपि में है ।। तालपत्रों पर तथा काष्ठ पत्रों पर लिखे और भी लेख हैं ।।
योतकन नगर के पास समज्ञा (मो.मो.जोह) नामक एक स्थान के समीप स्तूपों के सैकड़ों ध्वंशावशेष अभी भी उपलब्ध हैं ।। "हो को" के जर्जरित बिहार में बुद्ध भगवान के दस बड़े चित्र तथा ब्राह्मी लिपि तथा संस्कृत भाषा में ताल- पत्रों पर लिखे आठवीं शताब्दी के ग्रन्थ मिले हैं ।। इसी में एक शंकर जी का काष्ठ चित्र भी है ।।
पुरातत्त्ववेत्ता अर्ल स्टेन ने "एनशिएण्ट खोतान"- इनरमोस्ट एशिया "" आदि ग्रंथों में उन अवशेषों और उदाहरणों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, जिनसे खोतान- क्षेत्र में प्राचीनकाल की बौद्ध संस्कृति पर गहरा प्रकाश पड़ता है ।। युरंकाश नदी के पश्चिमी किनारे पर बसे रोतकन नगर में जो अवशेष मिले हैं, उनमें भारतीय राजाओं के आठ सिक्के मिले हैं, उनमें छः काश्मीर शासकों के हैं और दो काबुल के हिन्दू राजा सामन्त ।। एक मुहर पर गौमाता की छाप है ।।
निय नगर में खरोस्ट्री लिपि और संस्कृत भाषा में काष्ठ- पत्रकों पर लिखे लेख मिले हैं ।। कुछ चमड़े पर भी लिखे है ।। एक स्तूप तो अभी भी वहाँ जीवित अवस्था में खड़ा है, जिसकी दीवारों पर बुद्ध के चित्र बने हैं ।। एन्देर नगर के समीप रेत के टीले में दबा एक मन्दिर मिला है, जिसमें बुद्ध की चार मूर्तियाँ और कुछ रत्न जटित आभूषण भी मिले हैं ।। एक गणेश चित्र भी है ।। तिब्बती भाषा में लिखा "शालिस्तम्भ- सूत्र" भी यहाँ प्राप्त हुआ है ।। "डलाय मजर" स्थान के आस- पास बौद्ध विहारों के ढेरों अवशेष बिखरे हुए हैं ।। "अर्ककदम तिमि" नगर का जर्जर स्तूप वहाँ किसी समय की बड़ी- चढ़ी बौद्ध संस्कृति का स्मरण दिलाता है ।। "अक्सिपिल" के ध्वस्त मंदिर की दीवारों पर तथागत की अभय मुद्रा में मूर्तियाँ बनी हैं ।। ऐसी ही अन्य कितनी ही टूटी मूर्तियाँ यहाँ उपलब्ध हुई हैं ।। "आक्सिपिल" के उत्तर में रेत के टीलों में दबा किसी समय का रबक विहार और स्तूप मिला है ।। इसमें आदम कद बुद्ध प्रतिमा भी है ।। भित्ति चित्रों में बुद्ध के जीवन वृत्तान्त से सम्बन्धित घटनायें अंकित हैं ।।
इतिहास बताता है कि खोतान को अशोक पुत्र कुस्तन ईसा से २४० वर्ष पूर्व बसाया ।। उसके प्रपौत्र विजय- संभव ने बौद्ध- धर्म के प्रचार में विशेष रुचि ली और पहला विहार ईसा से २११ वर्ष पूर्व स्थापित हुआ ।। आठवीं सदी तक इस क्षेत्र में लगभग १००० वर्ष तक बौद्ध धर्म छाया रहा ।। निय, काल मदन, (र्चचेन) क्रोराइना, लूलन और कोक्कुक (काशनर) उके प्रमुख केन्द्र थे ।।
आज की चीनी तुर्किस्तान ईसा की प्रथम शताब्दी में चार राज्यों में बँटा था- (१) मरुक (अस्सु) (२)आंग्रदेश (कर शहर) (३) को ओ चंग (४)कूचा ।। इन चारों में सबसे समृद्ध था कूचा,जहाँ बौद्ध धर्म की गहरी जड़ जमीं ।। चीनी इतिहासकारों ने लिखा है कि उन दिनों कूच में लगभग एक हजार बौद्ध विहार और मन्दिर थे स्तूपों का जाल बिछा हुआ था यहीं से शेष तीन राज्यों में प्रचार की योजना बनाई जाती थी ।।
बौद्ध साहित्य का क्षेत्र की भाषाओं में अनुवाद कार्य करने के लिये राज्याश्रय से बड़ी राशि प्राप्त होती थी ।। सहस्रों विद्वान उस कार्य में जुटे रहते थे ।। इन ग्रंथों को वहाँ के धर्म- स्थानों और पुस्तकालयों में सम्मानपूर्वक स्थान मिला ।। इससे इस विचारधारा के व्यापक बनने में बड़ी सहायता मिली ।। इससे पूर्व उस क्षेत्र में कन्फ्यूशियस धर्म और ताओ मत फैला हुआ था ।। निःसन्देह बौद्ध दर्शन उसकी तुलना में अधिक गहरा और अधिक प्रभावोत्पादक था ।। साथ ही बौद्ध भिक्षु स्वयं जिस प्रकार का आदर्श जीवन व्यतीत करते थे, वह भी कम आकर्षक नहीं था ।। जनता का हृदय जीतने और बुद्धि को आकर्षित करने में इन दोनों ही कारणों से आशाजनक सफलता प्राप्त हुई ।। बुद्धिजीवियों ने उसका भरपूर समर्थन और स्वागत किया ।। विद्वान 'माउतिसिङ '' ने द्वितीय शताब्दी के अन्त में एक वार्तिक भाष्य लिखा, जिसमें बौद्ध धर्म के साथ चीन के प्रचलित धर्मों की तुलना की गयी और बौद्ध दर्शन को हर दृष्टि से श्रेष्ठ ठहराया ।। ऐसा ही प्रतिपादन अन्य स्थानीय विद्वानों ने भी किया है ।। युन कांग- हंडमेन उन- हुआंग आदि से उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर इस तथ्य की भली प्रकार पुष्टि से होती है ।।
(समस्त विश्व का अजस्र अनुदान पृ.सं.३.१६)