समस्त विश्व को भारत के अजस्त्र अनुदान

पुनरुत्थान् योजना

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 कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली में एक पादरी ने ईसाई धर्म छोड़कर हिन्दू धर्म में प्रवेश किया है। यह सज्जन जन्मतः भारतीय हैं पर बहुत वर्षों से ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे थे। उन्होंने इस धर्म परिवर्तन का कारण बताते हुए कहा है कि मैंने अपने लम्बे अनुभव काल में यह भली प्रकार देख लिया कि ईसाई होने के बाद मनुष्य की मनोभावना किसी अन्य देश के साथ जुड़ जाती है, और वह उसी के रंग में रंग जाता है। यहाँ के अनेकों मुसलमानों का उदाहरण स्पष्ट है। वे अपनी जन्मभूमि की परवाह नहीं करते, अपने पूर्वजों का आदर नहीं करते, अपने देश के महानुभावों से उन्हें कोई प्रेम नहीं, मक्का, इस्लाम, मुस्लिम देश, अरबी फारसी लिपि, पोशाक तथा उन्हीं देशों के वीर पुरुषों एवं भाषाओं से उनका मानसिक सम्बन्ध जुड़ा रहता है। फलस्वरूप वे लोकाचार की दृष्टि से भारतीय होते हुए भी, मानसिक दृष्टि से विदेशी बन जाते हैं। यह बात किसी जाति विशेष पर लांछन लगाने के लिए नहीं कही जा रही है। यह तो एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है जो ऐसी स्थिति होने पर सभी पर लागू होता है।

इस तथ्य को अंग्रेज मनोवैज्ञानिक भली प्रकार जानते थे। वे अधिक विद्वान थे, इसलिए उन्होंने मध्यकाल के मुसलमान शासकों की तरह बलपूर्वक धर्म परिवर्तन की नीति को न अपनाकर पीछे की खिड़की में होकर प्रवेश किया। उन्होंने यह नीति अपनाई कि धर्म चाहे कोई भी रहे पर संस्कृति हमारी चले। लॉर्ड मैकाले प्रभृति चतुर व्यक्तियों ने अपनी सारी बुद्धिमत्ता खर्च करके स्कूलों, कॉलेजों, दफ्तरों, राजदरबारों तथा अनेक द्वारों से यह प्रयत्न किया कि यहाँ के निवासी हमारी संस्कृति अपना लें तो हमारे सजातीय हो जायेंगे। जन्म से वे भारतीय रहें पर मस्तिष्क में अंग्रेज ही होंगे। काले अंग्रेज पैदा करने की उनकी योजना प्रसिद्ध है। उनकी दूरदर्शिता की प्रशंसा करनी पड़ती है कि वे इस सम्बन्ध में शत- प्रतिशत सफल रहे। अंग्रेज हिन्दुस्तान छोड़ कर चले गये पर अंग्रेजियत को रत्ती भर भी क्षति नहीं पहुँची, सच तो यह है कि वह इन दिनों और अधिक बढ़ी है। जिस प्रकार अनेक अन्धविश्वास, भ्रम, पाखण्ड, व्यसन एवं दुर्गुणों को मनुष्य अनजाने ही वातावरण के प्रभाव से अपना लेता है, उसी प्रकार विदेशी संस्कृति को भी हमने अपना लिया है। इस ‘स्व’ त्याग और ‘पर’ ग्रहण का प्रभाव यदि केवल बोलचाल, पहनाव, उढ़ाव, खान, पान, वेश, विन्यास, रहन- सहन तक ही सीमित रहता तो कोई विशेष हानि न थी पर ऐसा हो सकना भी सम्भव नहीं है क्योंकि आचार और विचार आपस में अत्यन्त घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। जिस प्रकार मुसलमानी पोशाक, भाषा, रीति- रिवाज, खान, पान अपना लेने पर मस्तिष्क पर भी मुसलमानी आदर्श जम ही जाते हैं उसी प्रकार अंग्रेजियत हमारे व्यवहार में गहरी घुस जाती है तो मस्तिष्क में स्वार्थ तो भारतीय रह सकते हैं पर आदर्शों का रह सकना सम्भव नहीं है।

भारतीय संस्कृति की आत्मा त्याग, तप, संयम, सेवा, कृतज्ञता, उदारता के सिद्धान्तों से प्रेरित होकर यहाँ आत्मत्यागी ऋषि उत्पन्न होते रहे, सतियाँ और पतिव्रताएँ अपने उदाहरण उपस्थित करती रहीं, समाज सेवी और धर्मकर्तव्यों के लिए प्राण देने वाले सद्गगृहस्थ घर- घर में होते रहे। ऐसे नर रत्नों के उज्ज्वल चरित्रों से भारतीय इतिहास का पन्ना- पन्ना भरा पड़ा है। कारण यही है कि आर्य सिद्धान्तों को व्यवहारिक जीवन में कूट- कूट कर भर देने के लिए जो रीति- रिवाज, आचार- विचार, संस्कार आदि की व्यवस्था थी उस पर सब लोग स्वभावतः चलते रहते थे, फलस्वरूप व्यक्तियों का निर्माण ऐसा ही होता था जिससे वे महापुरूष सिद्ध होते। यही भारतीय संस्कृति की विशेषता है।

पाश्चात्य संस्कृति भोग, संचय, स्वामित्व होने से उसके रीति- रिवाज व्यवहार आदि भी वैसे ही है और उस ढांचे में मनुष्य ढ़लता भी वैसा ही है। श्रेय और प्रेय, त्याग और भोग यह दो विरोधी तत्व इस संसार में हैं इन दोनों के विपरीत ही परिणाम है। एक का परिणाम है- परस्पर सौहार्द, प्रेम, सेवा, सहायता, मैत्री, शांति, दीर्घायु, श्री, सदबुद्धि, सादगी, सदगति दूसरी का परिणाम है- अतृप्त वासना, अशान्ति, कलह, द्वेष, उत्पीड़न, दरिद्र, रोग, युद्ध, कृत्रिमता, दुर्गति। इन दोनों संस्कृतियों का आदि अन्त इसी प्रकार है।

यह दो संस्कृतियाँ जीवन की दो दिशाएँ हैं। लोग इन्हीं में से एक को पकड़ते है और उन्हीं के अनुसार फल भोगते है। आज अधिकांश व्यक्ति भोगवादी भौतिक संस्कृति को अपना रहे हैं। उसी आधार पर अपना फैशन, बोलचाल, रहन- सहन, आचार- विचार बना रहे है। तदनुसार परिणाम भी सामने है।

 व्यक्तिगत उन्नति तथा सुख- शांति तथा सामाजिक स्थिरता तथा सुव्यवस्था के लिए अंततः श्रेय प्रधान, त्यागमयी भारतीय संस्कृति की ही आवश्यकता पड़ेगी। जब भौतिक तृष्णाओं से पीड़ित दुनिया थकान और पीड़ा से चूर हो जायेगी तब उसके लिए अंततः एक मात्र यही आश्रय होगा। भौतिकवादी संस्कृति बढ़ती रही तो मनुष्य जाति का ही नहीं इस पृथ्वी गृह का भी अणु परमाणुओं के संघर्ष से नष्ट होना निश्चित है। मनुष्य को चाहे आज, चाहे कल अपनी सुख शांति की रक्षा के लिये उन्हीं आदर्शों को अपनाना पड़ेगा जिनकों सूक्ष्मदर्शी ऋषियों ने हजारों वर्षों के तप तथा विचार द्वारा निर्धारित किया था।

अतीत को वापिस लाने का सपना

धर्म, शिक्षा, न्याय, सभ्यता, विज्ञान,कला आदि मानव जीवन की आवश्यक प्रवृत्तियों की जन्मभूमि यह भारत भूमि है। पशु को मनुष्य बनाने वाली जिस सभ्यता और संस्कृति का उद्भव यहाँ हुआ वह किसी देश, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग या समाज के लिए नहीं, वरन् समस्त संसार के लिए है। भारतीय सभ्यता- मानवता की, समस्त मनुष्य जाति की अत्यन्त ही विवेक एवं दूरदर्शिता से भरी हुई जीवन पध्दति है। इसे अपनाने पर मनुष्य अगणित प्रकार की असुविधाओं, विकृतियों और बुराइयों से बच कर सुख, समृद्धि, सफलता और सद्गति का अधिकारी बनता है। तत्वदर्शी ऋषियों ने इसी दृष्टि से अनेक प्रकार के आदर्श, नियम, प्रतिबन्ध, रीति- रिवाज, आचार- विचार विनिर्मित किये थे। इनमें अन्धविश्वास या मूढ़ परम्परा के लिए रत्ती भर भी स्थान नहीं है। यह समस्त सांस्कृतिक ढांचा मानव जाति के कल्याण को ध्यान में रख कर ही खड़ा किया गया है। इसकी एक- एक ईंट विज्ञान, तत्वज्ञान और दूरदर्शिता से परिपूर्ण है।

जब भारतीय संस्कृति का लोग महत्व समझते थे, उस पर विश्वास करते थे, उसको आचरण में लाते हुऐ अपना गौरव समझते थे, तब इस देश में घर- घर महापुरुष उत्पन्न होते थे। भौतिक समृद्धि और सामाजिक सुख- शान्ति की कमी न थी। इस संस्कृति के ढाँचे में ढ़ले हुए नर रत्न अपने प्रकाश से समस्त संसार में प्रकाश उत्पन्न करते थे और उसी आकर्षण के कारण विश्व की जनता उन्हें जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं भू सुर- पृथ्वी के देवता मानती थी। यह देश स्वर्ग की अपेक्षा भी श्रेष्ठ समझा जाता था। अतीत का इतिहास इस तथ्य को मुक्त कण्ठ से उद्घोष कर रहा है।

भारतीय संस्कृति के प्रभाव से प्रभावित प्रत्येक परिवार में स्वर्गीय शान्ति एवं सद्भावनाओं का निवास रहता था। पिता और पुत्र के बीच कैसे सम्बन्ध थे इसका उदाहरण देखना हो तो विमाता की आज्ञा से १४ वर्ष के लिये वनवास जाने वाले राम, अन्धे माता- पीता को कन्धे पर कांवर में बैठाकर तीर्थ यात्रा कराने वाला श्रवण कुमार, पिता के दान करने पर यमपुर खुशी- खुशी प्रस्थान करने वाले नचिकेता का चरित्र पढ़ लेना चाहिए। भाई का भाई के लिए क्या कर्तव्य है इसकी झाँकी राम, लक्ष्मण और भरत का चरित्र पढ़ लेने से सहज ही हो जाती है। कौरवों को जब यक्षों ने बन्दी बना लिया तो युधिष्ठर ने भ्रातृ प्रेम के वशीभूत होकर उन्हें छुड़वाया। पुष्कर के दुर्व्यवहार को भुला कर नल ने अपने भाई को क्षमा ही कर दिया। ऐसे भ्रातृ प्रेम के उदाहरण पग- पग पर मिलेंग। सच्चे मित्र कैसे होते हैं यह कृष्ण ने सुदामा और अर्जुन के साथ अपना कर्तव्य पालन करके दिखाया था।

पति- पत्नी के बीच कैसे सम्बन्ध होने चाहिये इसके उदाहरण पत्नीव्रती पुरूष और पतिव्रता नारियों ने पग- पग पर उपस्थित किये हैं। सीता, सावित्री, शैव्या, दमयन्ती, गान्धारी, अनुसूया, सुकन्या आदि की कथाएँ घर- घर गाई जाती हैं। पर स्त्री को माता एवं पुत्री समझने वाले भी सभी कोई थे। शिवा जी द्वारा, यवन कन्या को सुरक्षित रूप से सम्मानपूर्वक राजमहल में पहुँचा देना, अर्जुन का उर्वशी को लौटा देना, कच का रूपगर्विता देवयानी का प्रस्ताव अस्वीकार करना, सूर्पनखा का लक्ष्मण द्वारा उपहास करना जैसे प्रसंगों की कमी नहीं है। भीष्म, हनुमान, जैसे अखण्ड ब्रह्मचारी प्रचुर संख्या में परिलक्षित होते थे। अतिथि सत्कार के लिये मोरध्वज का अपना पुत्र दे देना, भूखे बहेलिये के लिए कबूतर- कबूतरी का अपना शरीर दे देना, दुर्भिक्ष पीड़ित समय में अनेक दिनों से भूखे ब्राह्मण परिवार का अपनी थाली की रोटियाँ चाण्डाल को दे देना आदि अनेकों वृतान्त महाभारत में देखे जा सकते हैं। शरणागत कबूतर की रक्षा के लिए राजा शिव ने माँस काट- काट कर दे दिया था। कुन्ती ने ब्राह्मण कुमार के बदले अपने पुत्र भीम को राक्षस का आहार बनने के लिए भेजा था।

अपने स्वार्थ, सुख- साधन, धन सम्पदा संग्रह, ऐश आराम को लात मारकर अपनी आत्मा का कल्याण करने के निमित्त लोक सेवा और परमार्थ में जीवन व्यतीत करने में यहाँ के लोग अपने जीवन की सफलता मानते रहे हैं। गौतम बुद्ध अपने राजपाट और सुख सौभाग्य को छोड़ कर हिंसा और अज्ञान में डूबे हुये संसार को दया और आत्म ज्ञान की शिक्षा देने के लिए निकल पड़े। महावीर ने लालची और विषयासक्त दुनियाँ को त्याग और संयम का पाठ पढा़ने के लिये अपना जीवन उत्सर्ग किया। भागीरथ ने राज सुख को छोड़कर दीर्घकाल तक कठोर तप किया और प्यासी पृथ्वी को तृप्त करने के लिए तरण तारणी गंगा का अवतरण कराने का महान् कार्य सम्पादन किया। नारदजी कुछ घड़ी भी एक स्थान पर न ठहर कर आत्म- ज्ञान का प्रसार करने के लिए हर घड़ी प्रयत्न करते रहते थे। व्यास जी ने संसार को धर्म ज्ञान देने के लिए अष्टादश पुराणों की रचना की। आदि कवि वाल्मीकि ने रामायण की रचना करके मानव जाति को कर्तव्यपथ पर चलने के लिये अग्रसर किया। चरक, सुश्रुत, वाणभट्ट, धन्वन्तरि, प्रभृति ऋषियों ने जीवन भर जडी़ बूटियों, धातुओं, विषों आदि का अन्वेषण करके रोगग्रस्त पीडि़तों का त्राण करने के लिये सर्वांग- पूर्ण चिकित्सा शास्त्र का आविर्भाव किया। ज्योतिष विद्या की महान खोज, आकाशस्थ ग्रह नक्षत्रों की गति विधियों और उनका मनुष्य जाति पर जो प्रभाव पड़ता है उसकी खोज करने वाले वे ऋषि ही थे सूर्य सिद्धान्त, मकरन्द, ग्रहलाघव, आदि को देखने से आश्चर्य होता है कि उस समय बिना वैज्ञानिक यन्त्रों के इस प्रकार की शोध करके संसार को महान ज्ञान देने के लिये उन्हें कितना श्रम करना पडा़ होगा।

 सदा अपने को तप से तृप्त करके अपनी महान सेवाएँ विश्व मानव के उत्कर्ष में लगाने वाले ऋषियों की जीवनियाँ पढ़ने पर मनुष्य की अन्तरात्मा उनके चरणों पर लोट जाने को करती है। विश्वमित्र, वशिष्ठ, जमदग्नि, कश्यप, भारद्वाज, कपिल, कणाद, गौतम, जैमिनी, पाराशर, याज्ञवल्क्य, शंख, कात्यायन, गोमिल, पिप्पलाद, शुकदेव, श्रृंगी, लोमस, धौम्य, जरूत्कार, वैशम्पायन, आदि ऋषियों ने अपने को तिल-तिल जलाकर संसार के लिए वह प्रकाश उत्पन्न किया जिसकी आभा अभी तक बुझ नहीं सकी है। सूत और शौनक निरन्तर प्राचीनकाल के महापुरूषों की गाथाएँ, विरूदावलियाँ, धर्मचर्चाएँ सुना-सुना कर मानव जाति की सुप्त अन्तरात्माओं को जगाया करते थे। दधीचि ने असुरत्व से देवत्व की रक्षा के लिये अपनी हड्डियाँ ही दान कर दीं। धर्म की मर्यादा की रक्षा के  लिए बन्दा बैरागी खौलते तेल के कढ़ाव में प्रसन्नतापूर्वक कूद पड़ा। हकीकतराय के कत्ल, गुरू बालकों के जीवित दीवारों में चुन जाने की कथाएँ आज भी धर्म कर्त्तव्य की उपेक्षा करके धन संग्रह और इन्द्रिय भोगों में लगे हुये लोगों पर लानत देती  हुई आकाश में विहार कर रही हैं।

    आज अधिकांश पण्डित, पुरोहित, साधु, ब्राह्मण आदि संसार को मिथ्या बताते हुये मुफ्त का माल चरते रहते हैं और आलस्य प्रमाद से चित्त हटाकर संसार का बौद्धिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए कुछ भी श्रम नहीं करते। पर भारतीय संस्कृति की परम्परा इससे सर्वथा भिन्न रही है। साधुता और ब्राह्मणत्व का आदर्श दूसरा ही है। शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, सिख धर्म के दस गुरु, दयानन्द, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास, चैतन्य, कबीर, विवेकानन्द, रामतीर्थ आदि असंख्यों धर्मगुरु लोक हित के लिये जीवन भर घोर परिश्रम प्रयत्न और परिभ्रमण करते रहे। उन्होंने लोक सेवा को एकान्त मुक्ति से अधिक महत्व दिया। भगवान बुद्ध जब अपनी जीवन लीला समाप्त करने लगे तो उनके शिष्यों ने पूछा- "आप तो अब मुक्ति के लिए प्रयाण कर रहे हैं।" बुद्ध ने उत्तर दिया-"जब तक संसार में एक भी प्राणी बन्धन में बँधा हुआ है तब तक मुझे मुक्ति की कोई कामना नहीं है। मैं मानवता का उत्कर्ष करने के लिए बार-बार जन्म लेता और मरता रहूँगा।" स्वामी दयानन्द सरस्वती भी योग साधना करने हिमालय में गये थे, पर उन्हें वहाँ ईश्वरीय प्रेरणा हुई कि-"लोक सेवा ही सर्वोत्तम योग साधना है।" स्वामी जी तपस्या से लौट आये और अज्ञानग्रस्त जनता में ज्ञान प्रसार करने को ही अपनी साधना मानते हुए जीवन समाप्त कर दिया। शंकराचार्य और दयानन्द अपने इस महान त्याग के उपलक्ष में विषपान करके स्वर्ग सिधारे। गांधी जी ने जीवन भर ऐसा ही तप करके महात्मा शब्द को सार्थक किया। लोकमान्य तिलक और महामना मालवीय जैसे व्यक्तियों का चरित्र ही ‘पण्डित’ शब्द का वास्तविक प्रमाण है। गुरु कैसे होते हैं यह जानना हो तो गुरु गोविन्द सिंह आदि सिखों के दश गुरुओं का चरित्र पढ़ना चाहिये। शिष्य भी तब ऐसे ही होते थे। एकलव्य, अरुणि, उद्दालक, धौम्य, नचिकेता आदि शिष्यों के चरित्र पढ़ने से अपनी संस्कृति पर सहज ही गर्व होने लगता है।

    भारतीय संस्कृति में पले हुए राजा कैसे होते थे इसका उदाहरण राजा जनक के जीवन से मिल सकता है। वे अपने गुजारे के लिये स्वयं खेती करते थे और राज्य कोष से एक पाई भी अपने लिए न लेकर उसे जनता के निमित्त ही खर्च करते थे। जनक को अपना खेत जोतते समय हल की नोंक की उचाट से एक कन्या मिली थी। हल की नोंक को संस्कृत में सीता कहते हैं, इसलिए जनक ने अपने खेत में मिली हुई इस कन्या का नाम भी सीता रखा था। महर्षि विश्वामित्र को जब किसी यक्षीय (लोक हितकारी) कार्य के लिए धन की आवश्यकता पड़ी तो राजा हरिश्चन्द्र ने समस्त राज्य कोष ही दान नहीं कर दिया वरन अपने स्त्री-बच्चों के शरीर को बेच कर भी उसकी पूर्ति की और एक सच्चे राजा का आदर्श उपस्थित किया।

छत्रपति शिवाजी का विशाल राज्य था उसे उन्होंने समर्थ गुरु रामदास के चरणों में अर्पित कर दिया था और स्वयं गुरु की आज्ञानुसार एक मुनीम की तरह इसका संचालन करते थे। भरत भी राम की चरण पादुकाओं को शासक मानकर स्वयं एक तुच्छ सेवक की भाँति १४ वर्ष राज्य चलाते रहे। धौलपुर की राजगद्दी के मालिक नृसिंह भगवान और मेवाड़ की राजगद्दी के मालिक भगवान एकलिंग जी माने जाते थे। राजा लोग अपने को उनका संचालक कहते थे। पीछे यद्यपि यह बात दिखावा मात्र रह गई, पर आरम्भ में त्याग भी उसी श्रृंखला का एक प्रतीक अवश्य था।  विक्रमादित्य प्रजा की वास्तविक स्थिति जानने के लिए वेश बदले प्रजाजनों के बीव घूमता रहता था। राणा प्रताप  राजसुख  की परवाह न करके जीवन भर स्वाधीनता संग्राम में धर्म युद्ध लड़ते रहे। महान राजपुत्र दुर्गादास राठौर को लड़ाई में रोटी भी  नसीब नहीं हो पाती थी  तो वह घोड़े  पर चढ़ा हुआ भाले की नोंक में छेद कर भुट्टे भून कर खाता और स्वाधीनता संग्राम लड़ता रहता था। छत्रसाल की गाथा सर्वविदित हे। ऐसे होते थे यहाँ के शासक।  राज्यों के मन्त्री प्रधानमन्त्री कैसे होते थे उसका नमूना चाणक्य का जीवन है। यह विश्व का अभूतपूर्व कूटनीतिज्ञ एक फूँस की झोंपड़ी में गरीब लोगों की भाँति रहता था और राज्यकोष से अपने व्यय के लिये कुछ भी नहीं लेता था।

    धन सम्पत्ति जिनके पास होती थी उसे सात पीढ़ियों के लिए तिजोरी में बन्द नहीं करते थे वरन् तात्कालिक लोक हित के लिए उसे मुक्त हस्त से दान करते रहते थे। राजा कर्ण की दान वीरता प्रसिद्ध है। कहते हैं कि वे सवा मन स्वर्ण रोज दान करते थे। कृष्ण ने जब उनकी दान वीरता की परीक्षा कराई है तो उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर कवच कुण्डल दिये हैं। मरते समय भी दाँत तोड़कर उसमें लगा हुआ स्वर्ण दान करके याचकों को विमुख नहीं लौटने दिया है। मोरध्वज ने अपने पुत्र को दिया है।

राजा बलि ने तीन लोक का राज्य ही नहीं अपना शरीर भी उस समय लोक सेवा के प्रतीक समझे जाने वाले ब्राह्मण-वामन-को दान दिया है। जरूरतमन्दों के लिए लोग अपनी परसी थाली तक दे देते थे। भामाशाह ने  अपनी करोड़ों की सम्पत्ति तिनके की तरह राणा प्रताप को दे डाली। राजा महेन्द्र प्रताप अपना राज-पाट राष्ट्रीय शिक्षा के लिए अर्पित करके भारतीय स्वाधीनता के लिए विदेश भागे थे। परशुराम ने २१ बार पृथ्वी का राज्य प्राप्त करके उसे दान दिया था। सुभाष बोस को बर्मा में भारतीयों ने अपना सर्वस्व स्वाधीनता संग्राम चलाने के लिए दिया था। उससे पूर्व श्री० बोस भारत की अपनी लाखों रूपये की सम्पत्ति को राष्ट्र के लिए सौंप कर उसको सार्वजनिक सम्पत्ति घोषित कर गये थे। सी० आर० दास अपनी बैरिस्ट्री में हजारों रूपया कमाते थे, वह सारा का सारा देकर और कई बार कर्ज लेकर भी सार्वजनिक आवश्यकताओं को पूर्ण करते थे। जमुनालाल बजाज ने अपने को गाँधी जी का पाँचवा दत्तक पुत्र घोषित करके अपनी सारी सम्पत्ति महात्मा गाँधी के चरणों में अर्पित कर दी थी।

ईश्वरचन्द विद्यासागर, राजा राममोहन राय, गोपाल कृष्ण गोखले, महादेव गोविन्द राणा, गणेश शंकर विद्यार्थी, श्रद्धानन्द, सर्वदानन्द, दर्शनानन्द, लेखराम, हैडगेवार आदि का जीवन जिस प्रकार से व्यतीत हुआ है उसमें भारतीय संस्कृति की झाँकी देखी जा सकती है। भूषण, गंग और चन्दवरदाई आदि चारणों ने अपनी ओजस्वी वाणी और कविता से अनेकों निष्प्राणों को प्राणवान बनाया। गंग इसी अपराध में हाथी के पैर के नीचे कुचलवाये गये, चन्दवरदाई ने गजनी में जो कष्ट सहा वह किसी से छिपा नहीं हे। सन् ५७ से लेकर स्वाधीनता के हिंसात्मक संग्राम के क्रान्तिकारी वीर सैनिक और सन् २१ से लेकर सन् ४७ तक तक की अहिंसात्मक राज्य क्रान्ति में अगणित व्यक्तियों ने जो त्याग किये हैं, उनकी गाथाएँ पढ़ते, सुनते हुए भुजाएँ फड़कने लगती हैं। पाकिस्तानी बर्बरता के सामने सिर न झुकाकर अपने धर्म को अक्षुण्य रखने के लिए पंजाब और बंगाल के लाखों स्त्री- पुरूषों ने जो त्याग किये हैं उनका स्मरण करके चित्तौड़ की रानियों के जौहर और गुरू गोविन्दसिंह के पुत्रों की स्मृति ताजी हो जाती है।

आस्तिकता की प्रतिष्ठापन के लिये घोर तप करने वाले लोगों की संख्या कम नहीं है। ध्रुव प्रहलाद, सरीखे भक्त प्राचीनकाल में हुए हैं और मध्यकाल में सूर, तुलसी, रामकृष्ण परमहंस, रैदास, कबीर, दादू, रामानन्द, रामानुज, षट्कोपाचार्य, तिरूवल्लवर जैसे संतों की संख्या बहुत बडी़ है। अनीति के निवारण के लिए त्रेता में ऋषियों ने अपना खून निकाल- निकाल कर एक घडा़ भरा था और वह रक्त घट अन्त में राक्षसों के विध्वंस कराने के निमित्त- सीता जन्म- का हेतु बना था। इसी मार्ग पर आस्तिक सन्त अपनी साधना, भक्ति, ज्ञान, दीक्षा, आदि के द्वारा अनीति निवारण और धर्म विस्तार कार्य करते रहे है।

विश्व मानव की सेवा के लिये भारतीय स्त्रियाँ भी पुरूषों से पीछे नहीं रही है। उनका कार्यक्षेत्र पुरूषों के समान विस्तृत क्षेत्र में न रह कर सीमित क्षेत्र में रहा है, इसलिये उन्हे यश उतना ही मिला है। केवल कुछ पतिव्रता स्त्रियों के कौतूहलपूर्ण चरित्रों का ही ग्रथों में विस्तृत वर्णन आया है पर सच बात यह है कि भारतीय नारी ने प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों से अधिक कार्य किया है। उन्हीं की प्रेरणा और छत्रछाया से समर्थ होकर पुरुष जाति कुछ कर सकने में सफल हो सकी। सीताराम, राधेश्याम, गौरीशंकर, लक्ष्मीनारायण, उमामहेश, मायाब्रह्म, सावित्री सत्यवान, आदि नामों में पहला नाम नारी का है, दूसरा नर का है। कोई क्षेत्र ऐसा नहीं रहा है जिनमें भारतीय नारी ने महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादन न की हो। वेदों के दृष्टा जिस प्रकार विश्वामित्र आदि ऋषि हुए हैं वैसे ही ऋषिकाएँ- स्त्रियाँ भी हुई हैं। ऋगवेद् १०। ८५। १०- १३४।१०। १०- ४०। ८- ९१। १०- ९५। ५- २८। ८- ९१। आदि अनेकों सूत्रों की दृष्टा घोषा, गोधा, विश्व- धारा, अपाला, जुहु, अदिति, सरमा, रोमशा, लोपा मुद्रा, शास्वती, सूर्या, सावित्री आदि ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ ही हैं। मनु की पुत्री इड़ा बड़ी प्रकाण्ड याज्ञिक थी। उसने अपने पिता मनु का यज्ञ कराया था। मैत्रेयी एक समय की अद्वितीय विद्वान थी। शाण्डिल्य की पुत्री श्रीमती ने अत्यन्त कठोर तप किये थे। महाभारत में शान्ति पर्व के अध्याय ३० में सुलभा नामक एक विदुषी का वर्णन है जिसने शास्त्रार्थ में राजा जनक जैसे ब्रह्मज्ञानी के छक्के छुड़ा दिये थे। भागवत में स्वधा की पुत्री वयुना और धारिणी का वर्णन है वे विज्ञान विद्या में निष्णात् थीं। ब्रह्म वैवर्त पुराण में वर्णित वेदवती को चारों वेद सस्वर कण्ठाग्र थे। भारती देवी नामक महिला ने शंकराचार्य से ऐसा शास्त्रार्थ किया था कि बडे़- बडे़ विद्वान भी अचम्भित रह गये थे। उसके प्रश्नों से निरूत्तर होकर शंकराचार्य को उत्तर देने के लिये कुछ मास की मोहलत मांगनी पडी़ थी।

युद्ध कला प्रवीण कैकेयी को दशरथ जी लड़ाई में अपने साथ ले गये थे और जब रथ टूटने लगा तो कैकेयी ने ही उसका तात्कालिक उपचार करके पराजय से बचाया था। मदालसा, महामाया के चरित्र भी प्रसिद्ध है। चित्तौड़ की रानियाँ, बूँदी की रानी दुर्गावती, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, चाँदबीबी आदि के पराक्रम से दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। द्रौपदी, गान्धारी, कुन्ती आदि की असाधारण योग्यता को सुनते- सुनते तृप्ति नहीं होती। मीरा ने लोक लाज छोड़कर राज परिवार त्याग कर जनता जनार्दन के हृदयों में भक्ति का दिव्य रस ओत- प्रोत किया था। समाज सुधार और राजनैतिक क्षेत्रों में प्राण- प्रण से संलग्न महिलाएँ इस शताब्दी में भी कम नहीं हुई हैं।

महापुरूषों और महान नारियों के दिव्य चरित्र से भारतीय इतिहास का पन्ना- पन्ना जगमगा रहा है। यहाँ घर- घर में ऐसे नर- रत्न पैदा होते रहे हैं जिनके उज्जवल चरित्र प्रकाश स्तम्भों की भाँति आज भी गिरी हुई मनुष्य जाति का पथ- प्रदर्शन करने के लिए जाज्वल्यवान हो रहे हैं। यह क्रम इस देश में केवल इसलिए चलता रहा है कि यहाँ ऋषि प्रणीत संस्कृति के प्रति लोगों की गम्भीर आस्था रही है। इन धर्म शास्त्रों, ऋषि प्रणालियों, आप्त वचनों का अनुगमन करने के लिए लोग श्रद्धापूर्वक हृदय और मस्तिष्क के द्वार खोले जा रहे हैं। आज भोगवादी भौतिक संस्कृति ने उस हमारी सनातन परम्परा से जनसाणरण को विमुख कर दिया है। फलस्वरूप सर्वत्र घोर अशान्ति, दरिद्र, रोग, शोक, भय, उत्पीड़न, तृष्णा और वासना से सभी के हृदय जर्जर हो रहे हैं।

हमारा निश्चित विश्वास है कि भारतीय संस्कृति, ऋषि प्रणीत, रीति- नीति अपना करके ही मनुष्यता का उत्कर्ष हो सकता है, अन्यथा वर्तमान गतिविधि उसे सब प्रकार नष्ट करके ही छोड़ेगी। सत्य अमर है, श्रद्धा अमर है, धर्म अमर है, वह आज तमसाच्छन्न हो रही है पर कल अवश्य ही निर्मल होगी। हमारी अन्तरात्मा कहती है कि वह पुनः सजीव होगी और उसकी विजय दुन्दभी फिर एक बार विश्व में बजेगी।

 हम उस भविष्य की प्रतीक्षा करते हैं जिसमें भारत में घर- घर अपने प्राचीन आदशों की भावना एवं मान्यता का विकास होगा। लोग आपस में ऐसे व्यवहार रखेंगे जैसे प्राचीन भारत में रखे जाते थे। माँ- बाप, भाई- बहिन, पिता- पुत्र, सास- बहू, स्त्री- पुरूष, स्वजन- सम्बन्धी, बन्धु- बन्धुओं के बीच ऐसे प्रचुर एवं प्रेमपूर्ण सम्बन्ध होंगे जिन्हें देखकर देवता भी ईर्ष्या करें। पुरूष स्त्रियों के प्रति और स्त्रियाँ पुरूषों के प्रति अत्यन्त ही पवित्र भावनाएँ रखा करेंगे। व्यापारी और ग्राहक क बीच उचित मुनाफे पर ठीक वस्तुओं का ईमानदारी के साथ क्रय- विक्रय होगा। मजदूर पूरा काम करने में और मालिक पूरी मजदूरी देने में कसर न रखेंगे। आलस्य को, काम से जी चुराने को मानवीय अपराध समझा जायगा और हर आदमी पसीना बहाये बिना रोटी खाना पसन्द न करेगा। मनुष्य परस्पर सहिष्णु, सहनशील, एक- दूसरे की स्थिति और कठिनाई को समझने वाले, तथा उदार व्यवहार करने वाले होंगे। छल, चोरी, व्यभिचार, बेईमानी दगाबाजी, विश्वासघात, अनीति, अन्याय आदि से लोग वैसी ही घृणा करेंगे जैसे अखाद्य और अभक्ष को भूखा रहने पर भी कोई नहीं खाता। संयम, सदाचार और दीर्घजीवी रहेंगे। सन्तोषी और परिश्रमी होने के कारण उन्हें किसी बात का घाटा न रहेगा। परस्पर स्नेह और सद्भावों के कारण आपसी व्यवहार स्वर्गीय सुख जैसे मधुर हो जायेंगे।

यह बातें आज की स्थिति में तुलना करते हुये असम्भव- सी दीखती हैं पर वस्तुतः ये कुछ भी कठिन नहीं है। भारतीय संस्कृति के यह सहज फलितार्थ हैं। इस देश में लाखों- करोड़ों वर्षों तक लगातार ऐसा ही वातावरण स्थिर रहा है। हमारी यही विशेषताएँ हैं। यदि हम अनार्य संस्कृति की कीचड़ में से अपने पैर निकाल लें और आर्य संस्कृति की ओर कदम बढ़ावें तो उस प्राचीन इतिहास की पुनरावृति होना बिलकुल सहज और स्वभाविक है। इस भूमि में वह विशेषताएँ हैं कि वे सहज विकास करती रहें तो घर- घर में राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, भीम, अर्जुन, गाँधी, जवाहर पैदा हो सकते हैं और सब प्रकार की सुख सुविधाओं से परिपूर्ण होते हुए, हम भटके हुए संसार को सही रास्ते पर ला सकते हैं। आइये, अपने उसी प्राचीन गौरव को वापिस लाने के लिये हम सब मिल कर भागीरथ प्रयत्न करें।



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