समस्त विश्व को भारत के अजस्त्र अनुदान

समस्त रोगों की एक औषधि- तुलसी

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तुलसी के अमृतोपम गुण-
           हर वस्तु में दो प्रकार के गुण होते हैं- एक स्थूल, दूसरा सूक्ष्म। मनुष्य के स्थूल गुण लुहार, बढ़ई, सुनार, वकील, डॉक्टर आदि में हैं। मोटा परिचय कराने में यही कह दिया जाता है कि यह सज्जन वकील, अध्यापक या स्वर्णकार हैं। सूक्ष्म गुण इसके अतिरिक्त हैं स्वभाव, विचार, भाव, सिद्धान्त, विश्वास आदि को परखकर, पहचानकर उसके सूक्ष्म गुणों को जाना जा सकता है। पशुओं को लीजिये, गाय और भैंस दोनों ही दूध देने वाले चौपाये हैं, दोनों का दूध देखने में करीब- करीब एकसा होता है, पर सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर इन दोनों की प्रकृति, में, सूक्ष्म सत्ता में, जमीन- आसमान का अन्तर है। इसी प्रकार नदी, पर्वतों, वनों, प्रदेशों, वृक्षों, वनस्पतियों, धातुओं की भी दो सत्ताऐं होती हैं। स्थूल गुणों को सब लोग जानते हैं। भौतिक विज्ञान के यन्त्रों से उनका रासायनिक विश्लेषण हो जाता है, कि इस पदार्थ के स्थूल गुण क्या है?
            जड़ चेतन सभी में एक अपनी अन्तरंग सूक्ष्म शक्ति होती है। इसमें कुछ सूक्ष्म गुण होते हैं, जिनका भौतिक गुण से बहुत अधिक सम्बन्ध नहीं होता। अध्यात्म विज्ञान के तत्वदर्शी आचार्यों ने, हमारे पूजनीय महर्षियों ने, वस्तुओं की अन्तरंग गुप्त शक्तियों का पता लगाया था और उससे लाभ उठाने का पूरा- पूरा प्रयत्न किया था। स्थूल से सूक्ष्म शक्ति का बहुत अधिक महत्त्व होता है, इस सत्य को भारतीय ऋषिगण भली प्रकार जानते थे। अब विज्ञान भी इसे स्वीकार करने लगा है। होम्योपैथी चिकित्सा प्रणाली में औषधि की सूक्ष्मता ही उनमें अधिक शक्तिशाली होने का कारण मानी जाती है।
            जिन प्रदेश में सूक्ष्म अन्तरंग शक्ति, सतोगुणी, शान्तिमय एवं पवित्रता पूर्ण थी, वहाँ तीर्थ स्थापित किये गये। जो नदियाँ विशिष्ट तत्वों को अपने अन्दर धारण किये हुए हैं उन्हें पूजनीय घोषित किया गया है। मथुरा, काशी, काँची, उज्जयनी आदि पुरियाँ; रामेश्वर, बद्रीनाथ, द्वारिका, जगन्नाथ आदि तीर्थ; मानसरोवर जैसी झीलें; कैलाश, हिमालय, विन्ध्याचल आदि पर्वत; नैमिषारण्य आदि वन; गौ, बैल जैसे पशु; गरुड़ जैसे पक्षी; पीपल, आँवला सरीखे वृक्ष; कुश जैसी घास धार्मिक दृष्टि से पूजनीय माने गये हैं। कारण यह है कि अपने वर्ग में दूसरों की अपेक्षा इनकी अन्तरंग शक्ति में सात्विकता अधिक है। इनके सान्निध्य से मनुष्य में सतोगुण बढ़ता है, पवित्रता आती है, चित्त को शान्ति मिलती है। भौतिक गुणों की अपेक्षा इनके आध्यात्मिक लाभ अधिक हैं। इसी दृष्टि से उन्हें धार्मिक सम्मान प्रदान किय गया है। इस धार्मिक महत्त्व के कारण अधिक लोग उनके सम्पर्क में आवें और अधिक लाभ उठावें यही दूर दृष्टि रखकर हमारे धर्माचार्यों ने उन्हें पवित्र एवं पूजनीय घोषित किया था।
            इस प्रकार की पूजनीय वस्तुओं में तुलसी का स्थान बहुत ऊँचा है। इसे हिन्दू धर्म में उच्चकोटि की मान्यता दी गई है। पुराणों में ऐसे कितने ही आख्यान हैं, जिनमें तुलसी को भगवान कृष्ण की धर्म पत्नी बताया है। इस प्रकार उसे जगजननी का पद प्राप्त है। तुलसी को वृदा भी कहते हैं। वृन्दा की अधिकता के कारण कृष्ण की लीला- भूमी का नाम वृन्दावन रखा गया। तुलसी के महात्म्यों से पुराणों के अध्याय भरे पडे़ हैं, जिनमें से कुछ श्लोकों का उल्लेख आगे के पृष्ठों पर इस पुस्तक में भी किया जायगा।
           तुलसी की सूक्ष्म शक्ति, सात्विकता, सरलता, कोमलता, भावुकतामयी है। उसकी समीपता से यह गुण समीप रहने वाले व्यक्ति को भी प्राप्त होते हैं। तुलसी की माला धारण करने से हृदयगत दुर्भावनाएँ शान्त होती हैं और अनिद्रा, बुरे स्वप्न दीखना, स्वप्न- दोष तथा हृदय की धड़कन को लाभ पहुँचता है। तुलसी की माला किसी मन्त्र का जप करने से चित्त शान्त रहता है, कुविचारों का तूफान नहीं उठता। तुलसी के पौधे को स्पर्श करके जो वायु बहती है, उसके साँस द्वारा भीतरी जाने पर पवित्र भावनाओं का संचार होता है और ईश्वर की ओर मन का प्रवाह बहने लगता है, सतोगुणी विचार- धाराएँ मन में गूँजती हैं। जल में तथा अन्य प्रवाही पदार्थों में मिलने से तुलसी की सूक्ष्म शक्ति और भी अधिक प्रस्फुटित हो जाती है। जल में तुलसी के पत्ते डालकर चरणोदक लिया जाता है, इससे तुरन्त क्रोध शान्त होता है, कामोत्तेजना का दमन होता है। दूध, दही, मधु मिश्रित पंचामृत में तुलसी डालकर पीने से स्वर मधुर होता है, वाणी में मिठास आती है, नम्रता एवं विनय की अभिवृद्धि होती है। विविध अनुमानों के साथ तुलसी के उपयोग से विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म लाभ प्राप्त होते हैं, तुलसी द्वारा आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। आत्मोन्नति के साथ- साथ सत्कर्म होते हैं और सत्कर्मों से लोक- परलोक में सुख मिलता है, इस प्रकार तुलसी माहात्म्य में जो पाप नाश और स्वर्ग प्राप्ति का फल बताया है वह सच्चा हो जाता है।
           आरोग्य- शास्त्र की दृष्टि से तुलसी के अपरिमित लाभ हैं, जिनका वर्णन इस पुस्तक में आगे के पृष्ठों में किया जायगा, पर इन लाभों की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण लाभ आध्यात्मिक लाभ है। मरते समय, रोगी के मुख में तुलसी- पत्र डालते हैं, जिससे मृत्यु के समय का शोक, सन्ताप और उद्वेग शान्त हो जाय तथा पवित्र भावनाओं के साथ प्राणान्त हो सके। प्रायश्चित में, भगवान के भोग में, तुलसी- पत्र प्रधान रूप से प्रयुक्त होता है, भेंट के लिए तुलसी- दल सबसे सस्ता, सात्विक एवं महत्त्वपूर्ण पदार्थ है, इसे जिस समय भेंट किया जाता हैं, उस समय तक सात्विक आध्यात्मिक वातावरण उत्पन्न होता है। दो हृदयों को एक दूसरे के निकट लाने में सद्भाव एवं मित्रता उत्पन्न करने में यह भेंट अपनी एक निजी विशेषता रखती है।
           ईसाई धर्म ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख है कि महाप्रभु ईसा क्रूस पर चढा़ए जाने के पश्चात् कब्र में पधरा दिए गये तो उनकी कब्र पर तुलसी का पौधा उग आया। ईसा के शिष्यों ने उसे ईश्वर के पुत्र के मूर्तिमान आशीर्वाद के रूप में ग्रहण किया। पूर्वीय योरोप के गिरजों में अब तक पूजी जाती है और "सेन्ट वेसिल्स डे"- तुलसी उत्सव दिवस मनाया जाता है। वहाँ की महिलाएँ तुलसी का एक पल्लव लेकर गिरजाघर में दैवी आशीर्वाद पाने के लिए जाती हैं और वहाँ से लौटकर उस पल्लव को आँगन में प्रतिष्ठित करती हैं। उनका विश्वास होता है कि ऐसा करने से अगला वर्ष सुख, शान्ति के साथ व्यतीत होगा।
        
अंग्रेजी में तुलसी को 'होली बेसिल' (holy basil), मैंकिश बेसिल (monkish basil), सैक्रेड बेसिल (sacred basil), कहते हैं। जर्मन भाषा में बेसिलीन क्राट (basilien kraut), लैटिन में ओसिमय बेसिलिकम सेण्ट (ocimum basilicum), फ्रेंच भाषा में उसे बेसिलिक सेण्ट (basilie saint), कहा जाता है। अंग्रेजी, फ्रेंच तथा ग्रीक भाषाओं में बेसिल का अर्थ है- "दैवी या शाही।" उपयोक्त नामों के अनुसार तुलसी उस भाषा में "पवित्र वनस्पति- सम्राट्", "सन्तजनों का राजकीय पौधा", "पुरोहितों का राजकीय पौधा" है। इन इन नामों सें प्रतीत होता है कि पूर्वकाल में योरोप के देशों में भी तुलसी भारत की ही भाँति पवित्र तथा पूजनीय मानी जाती रही है। संसार की समस्त भाषाओं में तुलसी का अस्तित्व पाया जाता है, इससे प्रकट है कि अपनी उपयोगिता और महत्ता के कारण वह प्राचीन काल में भी समस्त संसार में लोकप्रिय हो गई थी।

            इसराईल जाति के लोग विवाहोत्सवों में, अन्त्येष्ठि संस्कार में, धार्मिक कृत्यों में तथा सामाजिक उत्सवों में तुलसी का प्रयोग बडी़ श्रद्धापूर्वक करते हैं। बौद्ध धर्म में तुलसी को धार्मिक कर्म- काण्डों में आदरपूर्ण स्थान मिला है।
            हमारे पूजनीय पूर्वजों ने चिरकालीन शोधों के उपरान्त कुछ ऐसी वस्तुओं का पता लगया था, जो सर्वसाधारण के लिए अनेक दृष्टियों से बहुत उपयोगी थी। इन वस्तुओं में तुलसी का पौधा प्रमुख था। इन उपयोगी वस्तुओं का समुचित आदर हो, उनका प्रचार दिन- दिन बढे़, उनके लाभों से सब लोग लाभान्वित हों, यह सोचकर उसे धार्मिक महत्त्व दिया गया। तुलसी हिन्दू धर्म में बहुत ही पवित्र और पूजनीय समझी जाती है।
           तुलसी के निरन्तर प्रयोग से ऋषियों ने यह अनुभव किया कि यह वनस्पति एक नहीं सैकडो़ं छोटे- बडे़ रोगों में लाभ पहुँचाती है और इसके द्वारा आस- पास का  वातावरण भी शुद्ध और स्वास्थ्य- प्रद रहता है, तो उन्होंने विभिन्न प्रकार से इसके प्रचार का प्रत्यन किया। उन्हें प्रत्येक घर में तुलसी का कम से कम एक पौधा लगाना और अच्छी तरह से देखभाल करते रहना धर्म कर्त्तव्य बतलाया। खास- खास धार्मिक स्थानों पर 'तुलसी कानन' बनाने की भी उन्होंने सलाह दी, जिसका प्रभाव दूर तक के वातावरण पर पडे़।
         धीरे- धीरे तुलसी के, स्वास्थ्य- प्रदायक गुणों और सात्विक प्रभाव के कारण उसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि लोग उसे भक्ति- भाव की दृष्टि से देखने लगे, उसे पूज्य माना जाने लगा। इस प्रकार तुलसी की उपयोगिता और भी अधिक बढ़ गई, क्योंकि जिस वस्तु का प्रयोग श्रद्धा और विश्वास के साथ किया जाता है उसका प्रभाव बहुत शीघ्र और अधिक दिखलाई पड़ता है। हमारे यहाँ के वैद्यक ग्रन्थों में कई स्थानों पर चिकित्सा कार्य के लिए जडी़ बूटियाँ संग्रह करते समय उनकी स्तुति प्रार्थना करने का विधान बतलाया गया है और यह भी लिखा है कि उनको अमुक तिथियों या नक्षत्रों में तोड़कर या काट कर लाया जाय। इसका कारण यही है कि इस प्रकार की मानसिक भावना के साथ ग्रहण की हुई औषधियाँ लापरवाही से बनाई गईं दवाओं की अपेक्षा कहीं अधिक लाभप्रद होती हैं।
           कुछ लोगों ने यह अनुभव किया कि तुलसी केवल शारीरिक व्याधियों को दूर नहीं करती, वरन् मनुष्य के आन्तरिक भावों और विचारों पर भी उसका कल्याणकारी प्रभाव पड़ता है। हमारे धर्म ग्रन्थों के अनुसार किसी भी पदार्थ की परीक्षा केवल उसके प्रत्यक्ष गुणों से ही नहीं की जानी चाहिए वरन् उसके सूक्ष्म और कारण प्रभाव को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। तुलसी के प्रयोग से ज्वर, खाँसी, जुकाम आदि जैसी अनेक बीमारियों में तो लाभ पहुँचता ही है, उससे मन में पवित्रता, शुद्धता और भक्ति की भावनायें भी बढ़ती हैं। इसी तथ्य को लोगों की समझ में बैठाने के लिए शास्त्रों में कहा गया है- जैसे "यदि प्रातः दोपहर और संध्या के समय तुलसी का सेवन किया जाय तो उससे मनुष्य की काया इतनी शुद्ध हो जाती है जितनी अनेक बार चान्द्रायण व्रत करने से भी नहीं होती। तुलसी की गन्ध वायु के साथ जितनी दूर तक जाती है, वहाँ का वातावरण और निवास करने वाले सब प्राणी पवित्र- निर्विकार हो जाते हैं।"
            तुलसी की यह महिमा- गुण गरिमा केवल कल्पना ही नहीं है। भारतीय जनता हजारों वर्षों से इसको प्रत्यक्ष अनुभव करती आई है और इसीलिए प्रत्येक देवालय, तीर्थ स्थान और सद् गृहस्थों के घरों में तुलसी को स्थान दिया गया है। वर्तमान समय में भी कितने ही आधुनिक विचारों के देशी और विदेशी व्यक्ति उसकी कितनी ही विशेषताओं को स्वीकार करते हैं और वातावरण को शुद्ध करने के लिए तुलसी के पौधों के गमले अपने बंगलों और कोठियों पर रखने की व्यवस्था करते हैं। फिर तुलसी का पौधा जहाँ रहेगा। सात्विक भावनाओं का विस्तार तो करेगा ही।
          इसलिये हम चाहें जिस भाव से तुलसी के सम्पर्क में रहें हमको उससे होने वाले शारीरिक मानसिक और आत्मिक लाभ न्यूनाधिक परिणाम में प्राप्त होगें ही। तुलसी से होने वाले इन सब लाभों को समझ कर पुराणकारों ने सामान्य जनता में उसका प्रचार बढा़ने के लिए अनेक काथाओं की रचना कर डाली।

तुलसी का धार्मिक महत्त्व

हिन्दू- धर्म में तुलसी को अत्यधिक धार्मिक महत्त्व दिया गया है। गंगा, गौ, गीता, तुलसी और प्रणव यह पाँच प्रधान धार्मिक उपकरण माने गये हैं। घर- घर में इनके लिए श्रद्धा है और पूजा- अर्चना का विधान होता रहता है। हिन्दू महिलाएँ नाना विधि- विधानों से तुलसी के पूजन, व्रत, उपवास, कथा, कीर्तन, उद्यापन। अनुष्ठान आदि कर्मकाण्ड करती- कराती हैं। घरों में तुलसी- वृक्ष का लगाना बहुत शुभ पुण्य- कर्म माना जाता है और विश्वास किया जाता है कि जिस घर में तुलसी होती है, उसमें यमदूतों का प्रवेश नहीं होता। जब कोई व्यक्ति मरने को होता है तो उसके मरणोन्मुख शरीर को तुलसी के समीप लिटाते हैं, मुख में तुलसी- दल डालते हैं, गले में तुलसी  की माला पहनाते हैं। ऐसा करने से मृतक को यमदूत को यमदूत नरक को न ले जा सकेंगे, वरन् विष्णु- दूतों द्वारा उसे स्वर्ग ले जाया जायगा, ऐसा समझा जाता है।
           हिन्दू- धर्म में तुलसी की धार्मिक महत्ता अत्यन्त विस्तारपूर्वक गाई गई है, उसके सम्बन्ध में नाना प्रकार की गाथाएँ लिखी गई हैं। विष्णु भगवान् की धर्मपत्नी जगत्- माता के उच्च पद पर उसे प्रतिष्ठित किया गया है और बताया गया है कि उनकी पूजा करने से विष्णु लोक की, स्वर्ग की प्राप्ति होती है। नीचे कुछ श्लोक ऐसे दिये जाते हैं, जिनसे पाठक यह परिचय प्राप्त करेंगे कि तुलसी के सम्बन्ध में हमारे ग्रन्थ कितनी ऊँची भावना रखते हैं।

या दृष्टा निखिलाघसंघ शमनी स्पृष्ट्रावपुः पाविनि।
रोगानाममिवन्दिता निराशिनी सिक्तान्तक त्रासिनि।।
प्रत्यासत्ति विधायिनी भगवतः कृष्णष्य संरोपिता।
न्यस्तातच्चरणे विमुक्ति फलदा तस्यै तुलस्यै नमः।।
           अर्थ- जिसको देखने मात्र से सब पापों का नाश होता है, जिसके स्पर्श से पवित्र हो जाता है, जिसके स्पर्श से सब रोग दूर होते हैं, जिसके जल सिंचन से यम का त्रास नहीं होता, लगाने से ईश्वर की प्राप्ति होती है, कृष्ण प्रतिमा पर चढा़ने से मुक्ति मिलती है, ऐसी तुलसी को प्रणाम करते हैं।

महा प्रसाद जननी, सर्व सौभाग्य वर्द्धिनी।
आधि व्याधि हरिर्नित्यं तुलसित्वं नमोस्तुते।।
           अर्थ- हे तुलसी ! आप सम्पूर्ण सौभाग्यों के बढा़ने वाली हैं, सदा आधि- व्याधि को मिटाती हैं, आपको नमस्कार है। धर्म ग्रन्थों में तुलसी का स्वास्थ्यवर्द्धक और रोग- निवारक गुण भी स्वीकार किया गया है। कहा गया है-

त्रिकालं विनता पुत्र प्राशर्य तुलसी यदि।
विशिष्यते कामशुद्धिश्चान्द्रियाण शतं बिना।।
          अर्थ- हे विनता पुत्र ! प्रातः मध्यान्ह तथा शाम को जो तीनों संध्याओं में तुलसी का सेवन करता है, उसकी काया वैसी ही शुद्ध हो जाती है जैसे कि सैकडो़ं चान्द्रायण व्रतों से होती है। तुलसी मनुष्यों के लिए नहीं; प्राणिमात्र के कल्याण के लिये ईश्वर ने उत्पन्न की है ऐसा शास्रों का मत है

सर्वोषधि रसेनवै पुराह्यमृत मन्थने।
सर्वसत्वोपकाराय विष्णुना तुलसी कृत्ता।।
           अर्थ- अमृत के मंथन के समय सब औषधि और रसों से पूर्व विष्णु ने सम्पूर्ण प्राणियों के उपकार के लिए तुलसी को उत्पन्न किया।
तुलसी का पूजन करते समय कहा जाता है कि-

'अकाल मृत्यु हरणं सर्व व्याधि विनाशनम्'
           तुलसी को अकाल मृत्यु हरण करने वाली और सम्पूर्ण रोगों को दूर करने वाली माना गया है।

तुलसी काननं राजन् गृह यस्यावतिष्ठति।
तद्गृहं, तीर्थरूपं तु नायान्ति यमकिंकराः।।
          अर्थ- हे राजन् ! जिस घर में तुलसी का वन होता है, वह घर तीर्थरूप होता है। वहाँ यम के दूत नहीं आते।

दर्शनं नर्मदायास्तु गंगास्नानं तथैव च।
तुलसीवनसंसर्गः सममेव त्रयं स्मृतम्।।
          अर्थ- नर्मदा का दर्शन, गंगा- स्नान और तुलसी- वन का संसर्ग यह तीनों एक समान ही कहे गये हैं।

रोपनात् पालनात् सेकात् दर्शनातस्पर्शनान्नृणाम् ।।
तुलसी दह्यते पापं वाङ्मनः कायसञ्चितम् ।।
           अर्थ- तुलसी लगाने से, पालने से, सींचने से, दर्शन करने से, स्पर्श करने से मनुष्यों के मन, वचन और काया से संचित किए हुए पाप जल जाते हैं।

पुष्कराद्यानि तीर्थानि गंगाद्याः सरितस्तथा।
बासुदेवादयो देवस्तिष्ठन्ति तुलसीदल।।
अर्थ- तुलसी दल पुष्कर आदि तीर्थ, गंगा आदि सरिताएँ, वासुदेव आदि देवों का निवास है।

तुलस्यां सकला देवाः बसंति सततं यतः।
अतस्तामर्चयेल्लोकः सर्वान्देवान् समर्चयन् ।।
अर्थ- तुलसी में सब देवता बसते हैं, इसलिए संसार को उसकी अर्चना करनी चहिए।

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