स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि पाश्चात्य मनोविज्ञान ने हमें पशु-प्रवृत्तियों का गुलाम बनाकर स्वच्छन्द जीवन जीने, अनैतिक आचरण करने के लिए खुली छूट दे दी किन्तु इस पर अंकुश लगाने व जीवन को सही ढ़ग से जीने का शिक्षण किस विधा ने दिया यदि यह मुझसे पूछा जाय तो मेरा इशारा भारत की ओर होगा जिसके प्राच्य मनोविज्ञानियों ने मानव मात्र के लिए कर्म-प्रारब्ध संस्कार मन-बुद्धि-चित्त अहंकार रूपी अंतःकरण चतुष्टय की व्याख्या कर विश्वमानवता की सबसे बड़ी सेवा की । भारतीय संस्कृति का यह सबसे प्रबलतम पक्ष है व यह समग्र आर्ष वाङ्मय में वेदों से लेकर उपनिषदों व दर्शनों से लेकर गीता तक मुखरित हुआ है । संस्कार शब्द की अवधारणा ही मूलरूप से भारतीय संस्कृति की है, जो आत्मा की नश्वरता व जीवन से सातत्य-अखण्ड रूप पर विश्वास करती है । आस्तिकता का यह मूलप्राण है । योग वशिष्ठ सौ टके की एक बात कहता है-
अतस्त्वं मन एवेदं नरं विद्धि न देहकम् ।
जड़ो देहो मनश्चात्र न जड़ नाजड़ विदुः॥ (3/11(/13)
भाव यह है कि ''मन ही मनुष्य, देह मनुष्य नहीं है । देह तो यह जड़ है । परन्तु मन न जड़ है, न चेतन । यह उभयात्मक है । जड़-चेतन के बीच दुभाषिये का काम करता है । चेतन से चेतना लेकर जड़ को चेतनामय बनाता है ।'' वस्तुतः यह सारी सृष्टि ही मन द्वारा रची गई है । समष्टि मन परमात्मा का मन है ऐसी भारतीय सस्कृति की मान्यता है ।
भारतीय मनोविज्ञान की कुछ मूलभूत अवधारणाएँ यदि हमारी समझ में आ जाए तो मानव जीवन के अनेकानेक पक्ष आज की सारी समस्याओं के कारण, निदान व समाधान तथा भारतीय संस्कृति के विभिन्न उपादानों का उनमें योगदान हमारी समझा में आ जाएगा । भारतीय मनोविज्ञान अंतःकरण चतुष्ट की सत्ता को मानता है व उसके चार भाग बताता है-मन, बुद्धि चित्त व अहंकार । मन व बुद्धि चेतन के अंग है तथा चित्त व अहंकार अचेतन की सृष्टि माने जाते हैं । मनुष्य का विराट जीवन यात्रा को खेल जिन संस्कारों के आधार पर चलता है, जो उसका व्यक्तित्व बनाते हैं उसके भाग्य विधाता हैं, वे इसी अंतःकरण चतुष्ट के अचेतन भाग विराजमान रहते हैं । ऋषियों की मान्यता है कि कर्म-संस्कार जन्म-जन्मान्तरों की चौरासी लाख योनियों की एक लम्बी यात्रा में परिभ्रमण करते हैं । इन्हीं को साथ लेकर मनुष्य जन्म लेता है व उसका अनगढ़ व सुगढ़ होना, उसके भावी कर्मों की गति का निर्धारण, सब कुछ प्रारब्ध व पुरुषार्थ के समीकरण पर टिका होता है । संस्कारों के चित्त पर पड़ने वाले प्रभावों व उनकी यात्रा का विवरण समझ लेने पर एक बहुत बड़ी गुत्थी सुलझ जाती है । कि समान वातावरण व परिस्थितियों के होते हुए भी अपनी कुसंस्कारिता से जूझकर उबरकर आने में क्यों किसी को अधिक संघर्ष करना पड़ता है व क्यों किसी के लिए यह मार्ग निष्कंटक होता चला जाता है बिना अधिक कुछ मार्ग निष्कंट होता चला जाता है बिना अधिक कुछ कर्म-सम्पादन किए । संस्कृति का यह गुह्य पक्ष बड़ा ही अद्भुत व रहस्यों से भरा है ।
श्री अरविन्द ने मनुष्य को दो-तिहाई पशु प्रवृत्तियों को लेकर आया जीवधारी माना है व ''मानवचक्र '' पुस्तक में उसकी विस्तृत व्याख्या करते हुए लिखा है कि यह उसका विस्तृत व्याख्या करते हुए लिखा है कि यह उसका सौभाग्य है कि वह कर्मयोनि में आया है ताकि कर्म करके वह अपनी विगत पशु प्रवृत्तियों को मिटा सके व नये संस्कारों का संग्रह कर अपने लिए या तो श्रेष्ठ स्थिति चुन ले अथवा जीवन-स्मरण के बंधन से मुक्त हो जाए, वस्तुतः हर मानव बेहोशी में जीता है । यह सब अचेतन में ही जीते हैं । जन्म के समय छोटे बच्चे के रूप में हमारे ''नेचुरल इंस्टींक्स'' जीवित रहते हैं । तब स्वचालित प्रक्रियाएँ उसी क्रम से चलती हैं । क्रमिक गति से धीरे-धीरे मन का विकास होने लगता है व अचेतन में विद्यमान संस्कार हावी होकर वैसे कर्म कराने लगते हैं । हमारी नब्बे प्रतिशत गतिविधियाँ यहीं से संचालित होती हैं । पूर्वात्य मनोविज्ञान का सारा जोर इसी पर है । कि व्यक्ति के अचेतन का परिष्कार कर दिया जाय ताकि वह नरपशु से नरमानव व देवमानव बन सके । सारी पद्धतियाँ, षोडष संस्कार विधान व तीर्थ, आरण्यक आदि उपादान इसी अचेतन की परिष्कृति के निमित्त ही हैं । व्यक्तित्व की परिष्कृति ही प्रकारांतर से संस्कृति है व इस प्रकार भारतीय संस्कृति अपने शब्दार्थ के अनुरूप ही मानवों मन पर अपना सारा प्रभाव दिखाती व उसी क्षेत्र में परिवर्तन कर सही मानव, सही समाज व सही युग की रचना करने की बात कहती है ।
ऋषियों की यह मान्यता है इस जन्म में जीव प्रधान रूप से जो कार्य करता है, उसके सारे संस्कार उसके चित्त में अंकित हो जाते हैं । इन संस्कारों के चित्त पर अंकित होने की प्रक्रिया की तुलना ग्रामोफोन रिकार्ड, फोटोग्राफ की नेगेटिव प्लेट या ऑडियों कैसेट की टेप पर किये गए अंकन से की जा सकती है । इन्हीं अंकित संस्कारों को धारण कर जीव अग्रिम जन्म में उन्हीं के अनुरूप शरीर जन्म लेकर आता है और उन संस्कारों के अनुरूप ही उसकी आसक्ति या कर्मों में सहज प्रवृत्ति होती है । मीमांसा दर्शनकार लिखता है ''कर्मबीजं संस्कारः'' अर्थात् संस्कार ही कर्म का बीज है तथा ''तत्रिमित्ता सृष्टिः'' वही सृष्टि का आदि कारण है । इस प्रकार जीव सर्वथा संस्कारों का दास है, ऐसी मान्यता वैदिक ऋषि की है ।
''कर्म संस्कार'' या ''कर्मवासना'' शब्द का प्रयोग कर प्राच्य मनोविज्ञान कहता है कि न केवल मानसिक संकल्प, विचार आदि से अपितु देह, इन्दि्रय, मन, बुद्धि, अहंकार आदि की सभी हलचलों से-चेष्टाओं-व्यापारों से संस्कारों की उत्पत्ति होती है । कर्म करते समय हमारा जितना मनोयोग होता है चित्त पर रेखांकन (मार्किंग) भी उतना ही स्पष्ट होता है । हमारे समीप चाहे जो होता रहे किन्तु यदि हमारा ध्यान उधर नहीं गया है तो हमारे चित्त पर उसका कोई संस्कार नहीं पड़ता ।
चित्त पर पड़े संस्कारों के भी दो रूप होते हैं-एक स्मृति रूप दूसरा कर्म रूप । स्मृति रूप संस्कार अध्ययन, ज्ञानार्जन, दृश्यांन आदि से जन्म लेते हैं व चूँकि स्मृति की मेमोरी की एक सीमा होती है, ये बहुधा नष्ट होते रहते हैं । बनते है, बिगड़ते है व पुनः जन्म लेते रहते हैं, कर्म रूप संस्कार वे हैं, जिनमें हमारा कर्ता वाला अहंकार जुड़ा होता है । ये हमारे अंतःकरण के अंग बनकर जन्म-जन्मान्तरों तक हमारे साथ चलते हैं । अहंभाव से ग्रहीत संस्कार विस्मृति के गर्भ में जाकर भी कभी मिटते नहीं । वे अन्तर्मन में, मन की गहरी परतों से संचित बने रहते हैं । इन्हीं को पाश्चात्य मनःविदों ने डिस्पोजिशन्स या एनग्राम्स कहा है । प्रख्यात मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग ''साइकॉलाजीकल टाइप्स'' में लिखते हैं Sanskar is simply the result of habitual repetition of common thought or behaviour pattern until it becomes deeply rooted in psyche '' अर्थात् ''अभ्यासपूर्वक सतत् दुहराये जाने वाले विचार व व्यवहार ही संस्कार बनकर मन की गहराइयों में जड़ जमा लेते हैं ।'' इसमें कोई संदेह नहीं कि प्राच्य मनोविज्ञान को काफी सीमा तक समझने का प्रयास जुंग ने किया था व समय-समय पर वह उनके चिंतन में अभिव्यक्त भी हुआ ।
(समस्त विश्व का अजस्र अनुदान पृ.सं. 1.149-5)