मानव शरीर में स्वाभाविक रूप से एक ऐसी प्रकृत्ति दत्त प्रवृत्ति पाई जाती है जो सदैव बाहरी और भीतरी हानिकारक प्रभावों से उसकी रक्षा करती रहती है । शरीर- विज्ञान के ज्ञाता जिसको नियमितता रखने वाला संयंत्र कहते हैं और साधारण लोग जिसे जीवनी शक्ति के नाम से पुकारते हैं, वही शक्ति सब प्रकार के रोगों के कारणों को स्वयमेव दूर करती रहती है ।। वह निरन्तर शरीर का पुनः निर्माण करती रहती है और जो कुछ टूट- फूट हो जाती है उसकी मरम्मत का भी ध्यान रखती है ।। साथ ही शरीर के भीतर जो अस्वाभाविक तत्व पैदा हो जाता है या बाहर से पहुँचता है उसे निकालने का भी प्रयत्न करती रहती है ।।
इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि रोग मनुष्य के लिये एक अस्वाभाविक अवस्था है ।। जब वह असावधानी से या गलती से प्रकृति विरुद्ध मार्ग पर चलने लगता है तो उसके शरीर में विजातीय द्रव्य की मात्रा बढ़ने लगती है, जिसके फलस्वरूप देह में तरह- तरह के विष उत्पन्न होने लगते हैं और वातावरण में पाये जाने वाले हानिकारक कीटाणुओं का भी उस पर आक्रमण होने लगता है ।। इससे शरीर का पोषण और सफाई करने वाले यंत्र निर्बल पड़ने लगता हैं, उनके कार्य में त्रुटि होने लगती है और मनुष्य रोगी हो जाता है ।।