समस्त विश्व को भारत के अजस्त्र अनुदान

साईबेरिया के घोर शीत प्रदेश में

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साइबेरिया के घोर शीत प्रदेश में भारतीय धर्म प्रचारक किन- किन कठिनाइयों के साथ पहुँचे होंगे, वहाँ के कष्टसाध्य जीवन क्रम को अपनाकर, किस निष्ठा के साथ धर्म- प्रचार करते रहे होंगे, यह कल्पना करके आज आश्चर्य लगता है ।। पर उन दिनों जो भावनात्मक उत्साह एवं स्तर था उसे देखते हुए उसमें कुछ अचम्भा भी नहीं करना चाहिए ।। मनुष्य निष्ठाओं का पुतला है ।। भली या बुरी जिस भी दिशा में उसके कदम बढ़ चले उसी में समस्त कठिनाइयों को रौंदता हुआ आश्चर्यजनक और आशातीत सफलता प्राप्त कर सकता है ।।

साइबेरिया को वहाँ के निवासी 'शिविर देश' कहते हैं ।। शिविर का अर्थ है 'तम्बू' ।। वहाँ के निवासियों को अपने रहने के लिये परिस्थितिवश तम्बुओं में ही निर्वाह करना पड़ता है ।।
इर्कुत्स के समीप हिमाच्छादित बैकाल झाल और अंगार नदी भारत के कैलाश तथा मानसरोवर जैसा दृश्य आँखों के सामने प्रस्तुत करती हैं ।। ठण्ड बेहद पड़ती है ।। ''उलान्वातर का गाण्डीव' विहार साइबेरिया का प्रसिद्ध बौद्ध विहार है ।। भवानो पर बने स्वर्ण मन्दिर शिखर जैसे प्रतीत होते हैं । धर्म चक्र के प्रेरक प्रतीक वहाँ सुसज्जित रूप से स्थापित हैं ।। पूजा भवन का नाम है ''तुषितः महायान द्वीप' यह वाक्य भारतीय लिपि में लिखा हुआ है । स्थापित बुद्ध प्रतिमा देखते ही बनती है ।। तथागत के जीवन वृत्तान्त से सम्बन्धित रंगीन भित्ति- चित्र बने हैं ।। स्थानीय भाषा में बौद्ध साहित्य अनुदित हुआ है और वह इस विहार में उपलब्ध है ।। सत्रहवीं शताब्दी में भारत से एक अश्वमांगुलि नामक भिक्षु वहाँ पहुँचे थे, उनका दण्ड अभी भी इस विहार में सुरक्षित है ।। तांत्रिक प्रचलन के समय इस मन्दिर में महाकाल की एक भंयकर प्रतिमा भी स्थापित की गयी ।। कितने ही देवताओं की मूर्तियाँ भी वहीं मौजूद हैं ।। इस विहार के लामा संस्कृत भी जानते हैं ।। भारतीय ज्योतिष का भी यहाँ प्रचलन है ।। विवाह संस्कार में भारत की तरह हवन, ग्रन्थि बंधन, प्रदक्षिणा, मंत्रोच्चार, अक्षत फेंकना, आशीर्वाद आदि विधानों को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सारे प्रचलन वहाँ भारत से ही गये हैं ।।

चाणक्य नीति, अमर कोष, मेघदूत, सुभाषित रत्न निधि जैसी अनेकों पुस्तकें उस देश की भाषा में अनूदित हुई हैं ।। किसी समय उस देश में 71 विहार तथा 2 मन्दिर थे, पर अब तो उनमें से अधिकांश खण्डहरों के रूप में बिखरे पड़े हैं ।।

उलान्वातर का राजकीय पुस्तकालय प्राचीन बौद्ध साहित्य की दृष्टि से बहुत समृद्ध है ।। आधुनिक पुस्तकों की संख्या भी 5 हजार के लगभग है ।। इनमें संस्कृत भाषा के ग्रन्थ भी हैं ।।
यहाँ एक दूसरा विहार है- दोइजिनत्सामिन ।। इसमें भगवान बुद्ध के अतिरिक्त अन्य देवताओं की भी मूर्तियाँ हैं ।। भारत से उस देश में गये 18 आचार्यों के चित्र भी इस विहार में स्थापित हैं ।।
'एदनिब्जू' के समीपवर्ती क्षेत्र में 68 धर्म प्रचारकों की समाधियाँ हैं ।। इस नगर में 1(8 स्तूप बने हैं ।। माला जपे जाने वाले मनकों के आधार पर ही सम्भवतः यह स्तूप बनाये गये हैं ।। अब वे जीर्ण- शीर्ण हो चले हैं ।। तीन विशाल बौद्ध- विहारों के भग्नावशेष भी वहाँ मौजूद हैं, जिनमें पता चलता है कि किसी समय वहाँ बौद्ध धर्म का कैसा वर्चस्व रहा होगा ।। जीवित विहार में विधिवत् पूजा उपासना होती है ।। इसमें कितनी ही स्वर्ण मण्डित मूर्तियाँ स्थापित हैं ।।

 इनमें शाक्य मुनि, कश्यप और मैत्रेयी की प्रतिमायें प्रधान हैं ।।
उपरोक्त मन्दिर में अभी भी विधिवत् पूजा- विधान चलता है ।। बोधि वृक्ष का वंशज एक वट वृक्ष अभी भी यहाँ अपने धर्म- संस्थापक की स्मृति का प्रतीक बनकर श्रद्धा पूजित होता है ।।
साइबेरिया में आंगिस्की नदी के समीप एक विशालकाय बौद्ध विहार था, जिसमें देवालय और विद्यालय दोनों ही थे ।। यह विश्वविद्यालय स्तर का था ।। उनमें दर्शन, तंत्र, आयुर्वेद और ज्योतिष के अध्ययन की उच्चस्तरीय व्यवस्था थी ।। इस विद्यालय का नाम था ।। ''आंगिस्की दत्तान् ।'' इसके पुस्तकालय में पाणिनि व्याकरण, मेघदूत काव्य अष्टांग हृदय, निखट्टू, मन्त्र समुच्चय आदि संस्कृत के सहस्रों ग्रन्थ है ।। यहाँ लकड़ी के ठप्पे बनाकर पुस्तकें छापने वाली पुरानी पद्धति का एक प्रेस भी था, जिसमें कितने ही उपयोगी ग्रन्थ छापे गये ।। इस क्षेत्र में आयुर्वेद पद्धति का बहुत सम्मान था ।। यहाँ के एक आयुर्वेदज्ञ पद्म येफ ने रूस के तत्कालीन मूर्धन्य व्यक्तियों की सफल चिकित्सा भी की थी ।।

पूर्वी साइबेरिया के बुर्यात प्रदेश का चीता क्षेत्र अभी भी बौद्ध धर्मावलम्बी है ।। आगिन्स्फ जिले के इर्कत्स्क क्षेत्र में सबसे अधिक बौद्ध रहते हैं ।। 'तुवा' और 'कास्मिक '' क्षेत्रों में सबसे अधिक बौद्ध धर्म फैला हुआ है ।। यहाँ मंगोलिया और तिब्बत की वास्तुकला के मन्दिर बने हैं ।। 'स्रेदनया इवोल्गा' बस्ती का विहार देखने ही योग्य है ।। यह वुर्यातिया की राजधानी 'उलान उदे' से लगभग चालीस मील दूर हैं ।। यहाँ के प्रमुख पुरोहित को 'बंदिदो खंबोलिया' कहते हैं ।। मन्दिरों के साथ- साथ इस बस्ती में स्तूप भी हैं ।। सामान्य सूत्र पाठ तथा प्रार्थना का क्रम यहाँ रोज ही चलता है ।। नव वर्ष का समारोह विशेष उत्साह से मनाया जाता है और कई दिन तक चलता है ।। तीस भिक्षुओं के निवास के लायक स्थान इस मठ में बना है ।। बौद्ध सोसायटी का केन्द्रीय कार्यालय भी इसी में है ।। संग्रहालय तथा पुस्तकालय में प्राचीन काल की हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित हैं ।।

तिब्बती त्रिपिटक के दो वर्ग हैं- एक 'कंजूर' दूसरा 'तंजूर' ।। यहाँ के पुस्तकालय में कूजूर वर्ग के 18 और तंजूर वर्ग के 215 ग्रन्थ सुरक्षित हैं ।। कुछ दुर्लभ ग्रन्थ लकड़ी के चप्पों की छपाई में छपे हुए भी हैं ।। आचार्य चोङखप के द्वारा संचालित ''पीत टोपी बौद्ध सम्प्रदाय' के 21 ग्रन्थ भी इस पुस्तकालय में हैं ।। संसार में अन्यत्र छपा बौद्ध साहित्य भी इस छोटे से पुस्तकालय में बड़ी सुरुचि के साथ संग्रहित एंवम् सुसज्जित किया गया है ।।

(समस्त विश्व का अजस्र अनुदान पृ.सं.3.44- 45)


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