सम्राट अशोक की राज्य- सहायता पाकर बौद्ध- प्रचारक एशिया यूरोप और अफ्रीका के तीनों महाद्वीपों में पहुँचे और उन्होंने उन क्षेत्रों में धर्म स्थापना आशाजनक सफलता के साथ सम्पन्न की ।। कुशान राजा कनिष्क की सहायता से भी धर्म- विजय अभियान दुरित गति से आगे बढ़ा ।। उसी संदर्भ में चीन में बौद्ध धर्म प्रसार, विस्तार की शृंखला और आगे बढ़ती है ।।
यों इससे पूर्व भी भारतीय धर्म चीन में मौजूद था ।। राजकीय धार्मिक और व्यावसायिक आदान- प्रदान हजारों वर्ष से प्रचलित थे ।। मनस्वी लोग विश्व मंगल की आकांक्षा लेकर समस्त संसार में पहुँचते थे ।। उसी कार्य क्षेत्र में चीन का काफी महत्त्वपूर्ण स्थान था ।। थल यात्रा की व्यवस्था रहने से और उस देशवासियों में सहज धर्म बुद्धि रहने से भारतीयों के लिये यह सुलभ भी था कि वे चीन पहुँचें और उस विशाल भू- खण्ड को समुन्नत बनाने में समुचित योगदान दें ।। भारत की सीमाओं से लगा होने के कारण थल- मार्ग की सुविधा उन दिनों विद्यमान थी और दूरवर्ती एंवम् कष्टसाध्य होने पर भी आवागमन अपने क्रम से चलता रहता था ।।
इतिहासवेत्ता सर डब्ल्यू-जोन्स के अनुसार ईसा से पूर्व की शताब्दियों में चीन में हिन्दू धर्म संव्याप्त था ।। चीनी इतिहासवेत्ता ओकाकुश के अनुसार अकेले लोपांग प्रान्त में दस हजार हिन्दू- प्रचारक रहते थे ।। उनके अनुयायियों की संख्या लाखों में थी ।। चीनी धर्म पुस्तक 'चोकिंग' में काश्मीर से हिन्दुओं से उस देश में पहुँचने और सुव्यवस्थित समाज व्यवस्था बनाने का उल्लेख है ।। चीनी यात्री ह्वेनसांग आसाम से एक ऐसा नक्शा साथ ले गया था, जिसमें तत्कालीन कामरूपेण शासक भास्कर वर्मन के राज्य विस्तार का अंकनहै ।। इसमें नेफा ही नहीं चीन की मूल भूमि का भी बहुत बड़ा भाग उसी राज्य में सम्मिलित दिखाया गया है ।। प्राचीन चीन में वर्ण- व्यवस्था, प्रकृति पूजा, श्राद्ध प्रथा, संयुक्त परिवार, योगासन, मंत्र आदि की परम्परायें हिन्दू धर्म की ही देन हैं ।। ताओं धर्म को हिन्दू धर्म की ही एक शाखा कहा जा सके उसमें इतना साम्य है ।।
मध्य एशिया और चीन के लिये भारत से आवागमन के पाँच भागों का उल्लेख मिलता है-
(१) पूर्व तुर्किस्तान का मार्ग- यह चीन और भारत के मध्यवर्ती क्षेत्र में होकर गुजरता था ।। इसके दो भाग थे ।। एक 'यू- मान' से और दूसरा 'यांग की आन' से । 'टुएन-हुएन' नगर उस मार्ग का चौराहा तथा महत्त्वपूर्ण स्थान था ।। ईसा की दूसरी सदी में बौद्ध प्रचारकों ने इस मार्ग को सुव्यवस्थित बनाया था ।। तीसरी सदी में यह इस योग्य हो गया था कि सामान्य यात्री इस पर आ जा सकते थे ।। जो दूसरा मार्ग 'टुएन- हुएन' से तुरफान आरा शहर, कूचा आदि होता हुआ पेशावर पहुँचता था, उसी से चीनी यात्री ह्वेनसांग आया था ।।
(२) दूसरा मार्ग टुएन- हुएन से पश्चिम की ओर चलकर यारकन्द और पामीर को पार करते हुए बलख और पार्थिव तक जाता था ।। सन् ३९९ में चीनी यात्री फाहियान अपने साथियों सहित उसी मार्ग से भारत आया था ।। अशोक का निर्वासित राजकुमार इसी मार्ग से खोतान गया था ।। काश्मीर विद्वान इसी मार्ग से मध्य एशिया जाते थे ।।
(३) आसाम मार्ग- आसाम से उत्तरी वर्मा होकर यह मार्ग जाता था ।। सन् ६४२ में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इसी मार्ग से आसाम में प्रवेश करके तत्कालीन शासक, भास्कर वर्मन से भेंट की थी ।। भारतीय भिक्षु कश्यप मातंग और धर्मरक्षा इसी मार्ग से चीन गये थे ।। यह मार्ग अधिक दुर्गम था, इसलिये सातवीं सदी के बाद इसे छोड़कर यात्रियों ने समुद्र मार्ग की सरल पाया और अपनाया ।।
(४) तिब्बती मार्ग- भारतीय बौद्धों ने तिब्बत के यातायात के लिये अवरुद्ध घेरे को तोड़कर यह मार्ग बनाया और उस देश के साथ भारतीय सम्बन्ध संभव हो सका ।। उन दिनों तिब्बत को 'भोट' अर्थात् 'दुर्गम क्षेत्र' में कहते थे ।। सातवीं सदी में यह मार्ग खुल जाने से वह अड़चन दूर हुई और नालन्दा विश्व विद्यालय के उपाध्याय, पद्म संभव, श्रीघोष जिनमित्र, दानशील, गोधिमित्र, दीपशंकर आदि वहाँ पहुँचकर धर्मचक्र प्रवर्तन का प्रयोजन पूरा करे सके ।। चीन और भारत के बीच तिब्बत होकर यह एक नया मार्ग खुला ।। सन् ६२७ में चीनी पर्यटक 'यानचाउ' इसी मार्ग से भारत आया था ।।
(५) समुद्री मार्ग- ईसा की प्रथम शताब्दी से भारतीय जलपोत समुद्र मार्ग से दक्षिण- पूर्व एशिया जाने लगे थे और मध्य एशिया का सरल मार्ग तलाश करने में सफल हो चुके थे ।। अशोक के शिलालेख से स्पष्ट है कि कष्टसाध्य थल मार्ग की अपेक्षा बौद्ध प्रचारकों को जलमार्ग अधिक सुविधाजनक लगा था ।। ये जहाज चीन के बंदरगाह 'टोन किन' और 'कैन्टन' तक पहुँचते थे, पाँचवीं शताब्दी में चीनी यात्री फाहियान, लंका, जावा होते हुए समुद्री मार्ग से ही अपने देश को वापस गया था ।। इसके बाद काश्मीर के राजकुमार गुण वर्मन और उज्जैन के बौद्ध भिक्षु परमार्थ भी इसी रास्ते जावा पहुँचे थे ।। इस मार्ग ने प्रसान, विस्तार एवं यातायात की सुविधायें अन्य मार्गों की अपेक्षा अधिक सुगम बना दीं ।।
भारत से विदेशों में जाकर जिन विद्वानों ने बौद्ध धर्म के प्रचार- विस्तार में अपने को खपा दिया उनकी संख्या हजारों है, पर इतिहास में जिनका नाम विशेष कर्तृत्व के साथ जुड़ा है, उनमें आचार्य दीपंकर, श्रीज्ञासन, कुमारजीव, परमार्थ, बोधि धर्म, बोधिरुचिका, विशेष उल्लेखनीय है ।। इन लोगों ने अपनी शिष्य मण्डली इस प्रयोजन के लिये प्रशिक्षित की थी ।। जिस देश में जिन्हें जाना था, उन्हें वहाँ की भाषा, संस्कृति स्थिति, यात्रा संभावना आदि के सम्बंध में सुविस्तृत ज्ञान कराने का विशेष प्रबंध किया गया था ।। विक्रमशिला विहार में अध्ययन करने के उपरांत उन्होंने तिब्बत, सुवर्णद्वीप (आधुनिक सुमात्रा) ताम्रलिप्ति (आधुनिक तामलुका) की मुहिम संभाली ।। वे १०८ शिक्षा केन्द्रों का संचालन करते थे ।। वे नालन्दा अदन्तपुरी, वजरासन और विक्रमशिला महाविहारों का अनुकरण करते हुए स्थान- स्थान पर धर्मधारणा तथा प्रचार- प्रक्रिया का प्रशिक्षण करने में व्यस्त थे ।। तिब्बत उनका कार्यक्षेत्र विशेष रूप से रहा ।।
कुमारजीव कश्मीरी पण्डित थे ।। उनका काल ३४४ से ४१३ तक का माना जाता है ।। चीन उनका विशेष कार्यक्षेत्र था, यों उन्होंने मध्य एशिया के खोतान, काशगर, यारकनद तथा तुर्किस्तान के अन्य क्षेत्रों को भी बौद्ध- प्रकाश से आलोकित किया था ।। उन्होंने अपने जीवन काला में तीन हजार से अधिक सुयोग्य धर्म- प्रचारक और साहित्य- सृजेता तैयार किये थे ।। उन्होंने वहाँ की भाषायें सीखीं और वहाँ के निवासियों को लेखनी तथा वाणी से धर्मनिष्ठ बनाने के लिये अनवरत् श्रम किया ।। बौद्ध धर्म के विस्तार में ऐसे ही नैष्ठिक धर्म- प्रचारकों का त्याग- बलिदान काम आया है ।।
उज्जैन विश्वविद्यालय के छात्र परमार्थ, जिनका दूसरा नाम गुणरत था, चीन चले गये और उस देश की भाषा को संस्कृत तथा पाली में लिखे बौद्ध- साहित्य से समृद्ध करने में अनवरत् रूप से आजीवन लगे रहे ।। वे सन् ५४५ में नानकिंग (चीन) पहुँचे ।। इक्कीस वर्ष कार्यरत रहकर वे ५६९ में उसी देश की भूमि में अपनी मिट्टी को मिला गये ।। इस अवधि में उन्होंने जितना अनुवाद कार्य किया वह २७५ बड़ी जिल्दों में संग्रहित है ।।
(समस्त विश्व का अजस्र अनुदान पृ.सं.३.२०- २१)