समस्त विश्व को भारत के अजस्त्र अनुदान

संस्कृति की केन्द्रिय धुरी नारी शक्ति

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
भारतीय संस्कृति का प्रधान केन्द्रीय तत्व है-भाव-संवेदना । इस गुण की प्रचुरता जिसमें है, वह नारी शक्ति देव संस्कृति के विकासक्रम में एक धुरी की भूमिका निभाती आयी है । ऋषिगण आदि सत्ता महामाया, जिसके आधार पर सृष्टि की संरचना संभव हुई है, को विधाता भी कहते आये हैं व माता भी । प्राणियों का अस्तित्व ही यदि इस धरती पर है तो उसके मूल में मातृशक्ति की प्राणियों पर अनुकम्पा है । सृजन शक्ति के रूप में इस संसार में जो कुछ भी सशक्त सम्पन्न, विज्ञ और सुन्दर है, उसकी उत्पत्ति में नारी तत्व की ही अहम् भूमिका है । देवसंस्कृति में सरस्वती, लक्ष्मी और काली के रूप में विज्ञान प्रधान और गायत्री-सावित्री के रूप में ज्ञानप्रधान चेतना के बहुमुखीय पक्षों का विवेचन अनादि काल से होता आया है ।

परम पूज्य गुरुदेव ने नारी शक्ति के माध्यम से ही इक्कीसवीं सदी के आगमन की बात कही व घोषणा की है कि विश्व मानवता का भावी निर्धारण उन्हीं गुणों के आधार पर होने जा रहा है, जो आदि स्रजेता के रूप में नारीसत्ता के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं । पूज्य गुरुदेव ने लिखा है-देवत्त के प्रतीकों में प्रथम स्थान नारी का और दूसरा नर का है । लक्ष्मी-नारायण, उमा-महेश शची-पुरन्दर, सीता-राम, राधे-श्याम जैसे देव युग्मों में प्रथम नारी का और पश्चात् नर का उल्लेख होता है । वह मानुषी दीख पड़ते हुए भी वस्तुतः देवी है । श्रेष्ठ व वरिष्ठ उसी को मानना चाहिए । भाव संवेदना, धर्मधारणा और सेवा साधना के रूप में उसी की वरिष्ठता को चरितार्थ होते देखा जाता है ।''

वैदिक मान्याताओं के अनुसार नारी बिना, शक्ति के बिना यह सम्पूर्ण विश्व सार-शून्य है । सृष्टि विस्तार की दृष्टि से भी निस्संदेह पुरुष की अपेक्षा नारी की महत्ता अधिक है । वह पुरुषों की जननी है । उसकी सब कामना करें व उसके द्वारा पालित हों, ऐसा र्निदेश वैदिक ऋषि देते आये हैं । 'कन्या' शब्द का अर्थ होता है सबके द्वारा वांछनीय सब उसकी कामना करें । ऐतरेयोपनिषद में स्पष्ट आता है- नारी हमारा पालन करती है, अतः उसकी पालन करना हमारा र्कत्तव्य है! अथर्ववेद में उसे सत्याचरण की अर्थात् धर्म की प्रतीक कहा गया है (सत्येनोत्रभित भूमिः) कोई भी धार्मिक कार्य उसके बिना अधूरा माना जाता रहा है । ऋग्वेद का ऋषि लिखता है-
''शुचिभ्राजा उषसो नवेद, यशस्वतीरपस्युवो नसत्याः ।'' (ऋग् 1/79/1)
अर्थात्-श्रद्धा, प्रेम, भक्ति, सेवा, समानता का प्रतीक नारी पवित्र, निष्कलंक, आचार के प्रकाश से सुशोभित, प्रातःकाल के समान हृदय को पवित्र करने वाली, लौकिक कुटिलताओं से अनभिज्ञ, निष्पाप, उत्तमयश युक्त, नित्य उत्तम कर्म करने की इच्छा करने वाली, सकर्मण्य और सत्य व्यवहार करने वाली देवी है ।

एक भ्रान्तिपूर्ण मान्यता, कि कन्या का जन्म अमंगलकारी है, हमारी देश में मध्यकाल में पनपी व इसी कारण आधीजन शक्ति दोयमर्दजे की मानी जाने लगी । नारीशक्ति की अवमानना, तिरस्कार, होने लगा, जबकि संस्कृति के स्वर आदि काल से कुछ और ही कहते आए हैं । ऋग्वेद (6/75/5) में कहा गया है कि ''वह पुरुष धन्य है, जिसके कई पुत्रियाँ हों तथा पुत्र से पिता को आनंद मिलता है, वहीं पुत्री से माता को बल्कि उससे भी अधिक (3/31-1-2) । उपनिषदों में भी यही बात स्पष्टतः सामने आई है । बृहदारण्यकेपनिषद् में विदुषी और आयुष्मती पुत्री पाने के लिए घी और तेल में चावल पकाकर खाने की विधि कही गयी है (6/4.17) । मनुस्मृति (9/13)में कहा गया है कि पुत्री को पुत्र के समान समझना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार आत्मा पुत्र रूप से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार वह पुत्री के रूप में भी जन्म लेती है । महाभारत में सन्यास लेने की पात्रता उसी गृहस्थ को प्राप्त है, जिसने गृहस्थधर्म का पालन करते हुए सभी र्कत्तव्यों को पूरा कर लिया है । इन र्कत्तव्यों में अपनी पुत्रियों का विवाह कर देना प्रमुख है (महाभारत उद्योगपर्व 36-39) । मनुस्मृति में पिता के उत्तराधिकार को जो भाग पुत्री को देने का विधान है, उसका हेतु ध्यान देने योग्य है ।''

विवाह की चिन्ता और सार्मथ्य से बाहर दहेज के कारण लोकगीत मध्य काल में ऐसे रचे जाने लगे कि पुत्री जन्म ही अशुभ माना जाने लगा पंचतंत्र के कुछ आख्यानों में भी यह बात आयी । कालान्तर में मध्यकाल में यह यह धारणा खूब फली-फूली व स्त्रीधन की उपेक्षा शास्त्र वचनों की दुहाई देकर अधिक से अधिक की जाने लग । वस्तुतः यह कालक्रम के अनुसार पैदा हुई विकृति है । नहीं तो पिता के वात्सल्य का आदर्श तो हर युग की एक मान्य आस्था रही है । इसी आस्था के कारण रामायण में जनक कहते हें । ''जिस सीता को मैं प्राणों से बढ़कर चाहता हूँ, उसे राम को सौंपकर मेरी वीर्यशुल्क की प्रतिज्ञा पूरी हो जाएगी'' (वा.रा.बालकाण्ड 67/23) । यह भारतीय संस्कृति की ही चिर पुरातन मान्यता है कि जैसे पुत्र अपने पिता, पितामह इत्यादि पितरों को नरकों से तारता है, इसी प्रकार दौहित्र अपने नाना को । महाभारतकाल में एक चक्रनगर का निर्धन, विचारशील ब्राह्मण बकासुर की भेंट चढ़ाए जाने से अपनी कन्या को रोकता है व स्वयं जाने को तत्पर हो जाता है, तब भीम उसके स्थान पर जाते हैं । कुन्ती को पुत्री रूप में शूरसेन तथा किन्तुभोज ने पुत्र से अधिक प्यार देकर स्नेहपूर्वक पाला था । महर्षि कण्व शकुन्तला को दुष्यन्त के पास विदाई हेतु भेजते समय भावार्द्र हो उठते हैं वे कहते हैं, तो फिर कन्या बिछोह सामान्य गृहस्थों के लिए कितना असह्य होगा? (शाकुन्तल 2/6) इसेस समाज की सही अवस्था का परिचय मिलता है ।

(समस्त विश्व का अजस्र अनुदान पृ.सं.1.121-22)

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118