यथा प्राभातिके जाते ऋषयोऽत्नारूणोदये ।
अन्धकारोऽथ संव्याप्तोऽपैति दूरं तथैव तु ।।६३।।
समस्यास्ता विकाराश्च विपदो वा विभीषिका: ।
समाहिताः स्वत: स्युस्ताः प्रज्ञावतरणे भुवि ।।६४।।
चिन्ता नैव विधातव्या निराशा नोचिता मता ।
नाशयिष्यति नो पृथ्वी स्त्रष्टा स्वा कृतिमुत्तमाम् ।।६५।।
विपद्विभीषिकाभिस्तु समस्याभिश्च पूरिते ।
समये भूमिका कां स भगवान् संविधास्यति ।।६६।।
ज्ञात्वेदं मोदमायाता जना: सत्रगताः समे ।
प्रज्ञावतारसम्बन्धे ज्ञातुं जाता: समुत्सुका ।।६७।।
भावार्थ- हे ऋषिगण! जिस प्रकार प्रभात का अरुणोदय होते ही संव्याप्त अंधकार का निराकरण सहज हो जाता है उसी प्रकार प्रस्तुत समस्याओं, विपत्तियों, विकृतियों एवं विभीषिकाओं का समाधान प्रज्ञावतार के अवतरप से सहज ही संभव हो सकेगा । हमें निराश होने की या चिंता करने की आवश्यकता नहीं है । जिस स्रष्टा ने इस भूलोक की अगुपम कलाकृति विनिर्मित की है ? वह उसे नष्ट न होने देगा । समस्याओं विपत्तियों और विभीषिकाओं से भी वर्तमान विषम वेला में भगवान् के अवतार की क्या भूमिका होगी-यह जानकर सत्र में उपस्थित जनों में सभी को बहुत प्रसन्नता हुई । वे प्रज्ञावतार के संबंध में अधिक कुछ जानने को उत्सुक हो उठे ।। ६३-६६।।
व्याख्या- विभीषिकाएँ देखकर लगता है कि न जाने क्या होगा, परंतु यह विभीषिकाएँ भटकते मानव को गलत मार्ग से विरत करने के लिए रचे गए दंड हैं । बच्चे जब बहुत शरारत करते हैं, साधारण समझाने बुझाने से नहीं मानते, तो अध्यापकों को उन्हें दूसरी तरह सबक सिखाना पड़ता है। माता-पिता भी ऐसे अवसरों पर बच्चों के साथ कड़ाई से पेश आते हैं और कई बार वह कड़ाई ऐसी कठोर होती है, जो बहुत समय तक याद रहती है कि वैसी शरारत फिर न करें ।
मुर्गे की बाँग- यात्री रात्रि में मार्ग में रुक गए थे । प्रकाश होने पर चल पडने की बात थी । ब्रह्म मुहूर्त में मुर्गे ने बाँग दी । एक यात्री उठकर शौचादि से निपटकर तैयारी करने लगा । दूसरे ने उसकी हँसी उड़ाई । कहा-"ऐसे घने अँधेरे में तैयारी कर रहा है, सनकी है । आराम से भी गया और उजाला होने के पूर्व चल भी न सकेगा ।''
थोड़ी ही देर में अचानक प्रकाश फूट पड़ा । जो यात्री तैयार था, वह चल पडा, जो उसकी हँसी उड़ा रहा था, वह उठकर तैयार हुआ, तब तक सूर्य ऊँचा चढ़ आया था । गर्मी में ही यात्रा करने के लिए अब वह बाध्य था । युग पुरुष युग परिवर्तन की बात कहते है, वह मुर्गे की बांग होती है । प्रकाश न दीखने से जो झिझक जाते हैं, वे पीछे रह जाते हैं, विश्वास करने वाले बढ़ जाते हैं ।
मौसम का पूर्वभास- वैज्ञानिक मौसम की पूर्व घोषणा कर देते हैं । जहाँ तूफान की संभावना होती है, वह क्षेत्र खाली कर दिए जाते हैं । वर्षा आने की संभावना पर खेती से लेकर घर आदि की पूर्व तैयारियाँ कर ली जाती हैं, जो नहीं करते, वे घाटे में रहते हैं ।
रंग भी बदल जाता है- टिड्डे़ बरसात में अपने चारों ओर हरियाली देखते हैं, सो वे स्वयं भी हरे रहते हैं । गर्मियों में घास सूखकर पीली हो जाती है, सो वे उसी को देखते है और स्वयं भी पीले रंग के बन जाते हैं । गिरगिट भी इसी प्रकार मौसम के अनुरूप रंग बदलते रहते हैं । दर्पण में अपनी ही छबि दिखाई पड़ती है । जब यह चेतना प्रवाह पैदा करती है, तो सब लोग उसकी ढंग से सोचने और करने लग जाते है । जिस प्रकार टिड्डे और तितलियों के रंग बदल जाते है, उसी प्रकार उलटी दिशा में सोचने वाले और अनाचारियों का साथ देने वाली भीड़ रंग बदलकर युग प्रवाह के रंग में रंग जाते हैं ।
परिवर्तन सुनिश्चित है, इस संदर्भ में ऐसे अनेक भविष्य वक्ताओं के कथन देखे जा सकते हैं, जिनके अधिकांश भविष्य कथन एकदम खरे उतरे हैं ।
महर्षि अरविंद का कथन- भारतीय महायोगी और आजीवन अध्यात्म की मशाल प्रज्ज्वलित रखने वाले महर्षि अरविंद अतीन्द्रिय द्रष्टा थे । वे लोगों की भविष्यवाणियाँ करने जैसे चमत्कारों को का कथन आत्मकल्याण में बाधक बताते थे । इसलिए उन्होंने अनावश्यक भविष्यवाणियाँ नहीं कीं, पर लोगों को शक्ति और धैर्य दिलाने वाली भविष्यवाणियाँ उन्होंने कीं और वह सच निकलीं । सन् ११३९ में उन्होंने कहा कि ''आठ वर्ष बाद भारत स्वतंत्र हो जाएगा, पर शीघ्र ही वह टुकड़ों में बँट सकता है ।'' दोनों बातें सच निकली । युग परिवर्तन के संबंध में उनकी भविष्यवाणियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं । एक बार उन्होंने श्री यज्ञशिखा मां से बड़ी आह्लादपूर्ण मुद्रा में बताया- ''मेरे अंत करण में दैवी स्कुरणाएँ हिलोरें मार रही हँ और कह रही है, भारत का अभ्युदय बहुत निकट है । कुछ लोग इसे पश्चिमी सभ्यता का अनुयायी बनाने का प्रयत्न करेंगे । पर मेरा विश्वास है कि निकटे भविष्य में ही भारतवर्ष में एक ऐसा अभियान प्रारंभ होगा, जो यहाँ की असुरता को नष्ट करके फिर से धर्म को एक नई दिशा देगा और इस देश की प्रतिष्ठा, वहाँ के गौरव को बढ़ाएगा । यह आंदोलन संसार में फिर से सतयुग की सी सुख-सौभाग्यता लाएगा ।''
समय के चिह्नों को देखकर हम कह सकते हैं कि जन समुदाय की उस चिर अभिलाषित कामना की पूर्ति का समय बिलकुल निकट आ चुका है, जिन लोगों को किंचित दैवी प्रकाश प्राप्त है, वे इस समय भी कल्कि के अश्व की टापों का शब्द अपने कानों से सुन रहे हैं और उसकी कृपाण की चमक सुदूर आकाश में देख रहे हैं । समस्त शास्त्रों, भविश्यवेत्ताओं, संतों, भक्तों ने अपनी अंतरात्मा से जो उद्गार प्रकट किए हैं, उनके पुरा होने में अब विलंब नहीं है।
कात्यायनउवाच-
आद्या ये त्ववतारा: षट् सामान्यासु तथैव च ।
सीमितासु स्थितिष्वेव बभूवुस्ते समेऽपि तु॥६८॥
रामावतारो: यः प्रोक्त: सप्तमो योऽष्टमश्च सः।
कृष्णावतार: कालेऽस्मिन् द्वयोरेव तयोरलम्॥६९॥
लोकशिक्षणलीलाया सन्दोहो भविता भुवि ।
कार्यान्वितो जगत् स्याच्च येन सन्मङ्गलं पुन:॥७०॥
समस्यानां समाधाने प्रसंगेषु बहुष्विह।
नीतीनामुपयोगोऽथ रीतीनां च भविष्यति॥७१॥
बुद्धावतार आख्यातो नवमो य: पुरा मया।
पूर्वार्द्धस्तस्य सम्पन्न: शेषोऽमिति मन्यताम्॥७२॥
अपूर्ण कर्यकस्य द्वितीय: पूरयिष्यति।
द्वयोर्निधारणेष्वत्र समता च क्रियास्वपि॥७३॥
उत्तरार्धोऽयमेवास्य कलेर्दोषान् विधास्यति।
जीर्णाच्छनै: शनैर्येन मर्त्यं: स्याद् देवतोपम:॥७४॥
कालखण्डोऽयमत्रैवं भूमिकां संविधास्यति।
कृतस्यास्य युगस्यालं देवप्रेरणया स्वत:॥७५॥
भावार्थ-महर्षि कात्यावान ने कहा-प्रथम छ: अवतार सामान्य एवं सीमित परिस्थितियों में उत्पन्न हुए थे। सातवां राम का और आठवां कृष्ण का अवतार ऐसा है, जिसका लोक शिक्षण, लीलासंदोह प्रज्ञावतार काल में, बहुत अंश में कार्यान्वित होगा, जिससे एक बार फिर सारा मंगमलय बन जाएगा। समस्याओं के समाधान में उन रीति-नीतियों का अनेक प्रसंगों में उपयोग किया जाएगा। नवम् बुद्धावतार को पूर्वार्ध और दशम प्रज्ञावतार क उत्तरार्ध समझा जा सकता है। एक का अधूरा कार्य दूसरे के द्वारा संपन्न होगा। दोनों के निर्धारणों एवं क्रिया-कलापों में बहुत कुछ समता रहेगी। यह उत्तरार्द्ध ही कलियुग के कारण उतपन्न दोषों को जर्जर करता जाएगा, परिणामस्वरुप मानव मात्र देवोपम बनेगा। इस प्रकार यह कालखंड भगवान की प्रेरणा से स्वयं सतयुगी की भूमिका पुरी करेगा॥६८-७४॥
महाभारत के अवतार प्रकरण के अंत में भगवान कल्कि का परिचय देते हुए महाभारतकार ने कहा है-
कल्कि विष्णुयशसा नाम भूयश्चोत्पस्स्यते हरि:। कलेर्युंगान्ते सम्प्राप्ते धर्में शिथिलतां गते॥
पाखण्डिनां गणानां हि वधार्थ भारतर्षभ:। धर्मस्य विवृद्धयर्थं विप्राणां हितकाम्यया॥
"कलियुग के अंत में जब धर्म में अधिक शिथिलता आने लगेगी तो उस समय भगवान श्री हरि पाखंडियों
को निर्मल करने, धर्म की वृद्धि और सच्चे ब्राह्मणों की हित-कामना से पुन: अवतार लेंगे। उनके उस अवतार को 'कल्कि विष्णु यशा' कहा जाएगा ।"
द्विजाति पूर्वका लोक: क्रमेण प्रभविष्यति। दैव: कालान्तरेऽन्यस्मिमुनर्लोक विवृद्धये॥ (महाभारत)
अर्थात, युग परिवर्तन के इस संधिकाल में द्विजत्व संस्कार संपन्न आदर्शवादी व्यक्तियों का उत्थान होगा और भगवान फिर से संसार को सुख-समुन्नति की ओर अग्रसर करेंगे।
तत्वदर्शी भविष्यवक्ताओं का भी ऐसा ही मत है-
नवयुग यों आवेगा
महान योगी महर्षि अरविंद कहा करते थे कि"श्रेष्ठ युग आने की बात पर अविश्वास मत करो । मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा है ।"
इस समय जीवन के आडंबर के भीतर सत्य वस्तु प्रच्छा: हो गई है। इसलिए ज्ञान का विकास होने पर ही आत्मलाभ होगा। इस मार्ग पर अग्रसर होकर ही हम मानव मात्र को समभाव से देख सकेंगे और जिस प्रकार बहुत से बाजों के स्वरों के मिलने से एक तान की उत्पत्ति होती है, इसी प्रकार बहुत से व्यक्तियों में ऐक्य स्थापना से सुसामंजस्य नवीन युग तैयार होगा। वह युग किसी एक का नहीं वरन् उत्थान आत्मा का ही होगा। उसका उद्देश्य जाति विशेष का हित साधन नहीं होगा, वरन् सभी जातियों की मुक्ति और शुभकामना उसका ध्येय रहेगा। हमें योरोपियनों की तरह यांत्रिक सभ्यता का निर्माण नहीं करना है, वरन् प्रत्येक मनुष्य के जीवन को पूर्ण रीति से सार्थक बनाना ही हमारी साधना का उद्देश्य है। जिस दिन मनुष्य इस तथ्य को अवगत कर लेगा कि देश और काल भेद से मनुष्यों की कोई पृथक जाति धर्म या स्वार्थ नहीं है, उसी एक दिन नए एक्य के ऊपर नवीन युग स्थापित हो जाएगा और वह देव राज्य होगा।
ऋषि का कहना है कि-प्रज्ञावतार के क्रियाकलाप बुद्धावतार से मिलते जुलते होंगे। बुद्धावतार में विवेक को प्रधानता दी गई थी। रूढ़ियाँ तोड़ दी गई थीं। भगवान बुद्ध ने जो युगानुरूप ज्ञान दिया उसका विस्तार करने लाखों की संख्या में तेजस्वी चीवरधारी परिव्राजक निकल पड़े थे। विश्व के सुदूर क्षेत्रों तक ज्ञान का आलोक पहुँचाने के लिए भारी पुरुषार्थ किया गया था । साधन संपन्नों के साधन, प्रतिभावानों की प्रतिभा तथा श्रमशीलों के श्रम के संयोग से लोकमंगल का अभियान धर्मचक्र प्रवर्तन तीव्र गति से चल पड़ा था । वैसा ही कुछ प्रज्ञावतार के क्रम में होना है ।
पूरक पुरुषार्थ
कई कार्य ऐसे होते है जो एक ही व्यक्ति प्रारंभ करता है और वही उसे पूरा कर देता है पर कुछ कार्य ऐसे होते हैं, जिन्हें एक के बाद दूसरे को पूरक बनकर करना पड़ता है। सत्पुरुषों का यही क्रम रहा है। इसी संबंध में दिव्यदर्शी स्वामी आनंदाचार्य ने कहा था- "स्वाधीनता के २४ वर्ष बाद एक शक्तिशाली धार्मिक संस्था प्रकाश में आएगी और सारे संसार का उद्धार करेगी। उद्धारक इस संस्था का स्वामी और संचालक होगा। उसके जीवन भर संग्रहीत विचार सौ पौंड से अधिक वजन के होंगे । उनकी आचार संहिता का पालन सारी दुनियाँ करेगी। भारत विश्व शिरोमणि बनेगा ।"
पूरक क्रांतियाँ
१८५७ में भारत को अंग्रेजी हुकूमत से मुक्त कराने को लिए स्वतंत्रता संग्राम हुआ था । उसके उत्तरार्ध के रूप में सत्याग्रहियों का आंदोलन हुआ तथा भारत स्वतंत्र हुआ ।
दास प्रथा समाप्त करने के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति श्री अब्राहम लिंकन ने अभियान प्रारंभ किया था। सफलता मिलने पर भी कार्य पूरा नहीं हुआ था। उसकी पूर्णाहुति राबर्ट केनेडी के बलिदान से हुई । बुंदेलखंड को यवन शासन से मुक्त कराने का अभियान राजा चंपतराय ने प्रारंभ किया था । वे आशिक सफलता ही पा सके। उनके बाद उनके वीर पुत्र छत्रसाल ने उस अभियान को पूरा किया ।
आचार्य कुमारिल भट्ट ने व्यास शून्यवाद के विरुद्ध विचार संघर्ष प्रारंभ किया था । उस संघर्ष को आगे
बढ़ाकर सफलता तक पहुँचाया आद्य शंकराचार्य ने । आतताई राजाओं को नियंत्रित करने का शौर्य भरा अभियान प्रारंभ किया था परशुराम जी ने, उसको पूर्णता
तक पहुँचाया मर्यादा पुरुषोत्तम राम नें।
इसी प्रकार बुद्धावतार द्वारा प्रारंभ ज्ञान क्रांति का चक्र प्रज्ञावतार पूरा करेगा।
उद्देश्यत्रयमेवाह भगवान् बुद्ध आत्मन:।
बुद्धंशरणमायामि धर्म संघं तथैव च॥७६॥
निर्धारणानि त्रीण्येव कर्ताकर्मान्वितानि तु ।
बौद्धिके नैतिके क्रांतिविधौ सामाजिकेऽपि च॥७७॥
संघारामास्तु बुद्धस्य धर्मचक्रप्रवर्तने।
नालन्दाद्यास्तथा तक्षशिलाद्या: स्थापिता इह॥७८॥
प्रेषिताश्च ततो देशे तथा देशान्तरेष्वपि।
लक्षाधिका: परिव्राज: सुसंस्करा: प्रशिक्षिता:॥७९॥
उपक्रम: स एवात्र प्रज्ञापीठैस्तथैव च।
प्रज्ञापुत्रै: सुसम्पन्न इदानीं संविधास्यते ॥८०॥
यदपूर्णं तदाकार्यं तदेवाद्य विधास्यते।
पूर्णं प्रज्ञावतारेण निष्कलंकेन सत्वरम्॥८१॥
भावार्थ-भगवान बुद्ध के तीन उद्देश्य थे-(१)बुद्धं शरणं गच्छामि, (२) धर्मं शरणं गच्छामि, (३) संघं शरणं गच्छामि। यही तीनों निर्धारण प्रज्ञावतार द्वारा बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रांति के रुप में कार्यान्वित किए जाने हैं। बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन में नालंदा, तक्षशिला जैसे अनेकों संघाराम, विहार स्थापित किए गए और उनसे लाखों सुसंस्कृत परिव्राजक प्रशिक्षित करके देश-देशांतरो में भेजे गए। प्राय: वही उपक्रम प्रज्ञापीठों और प्रज्ञा पुत्रों द्वारा अब संपन्न किया जाएगा। जो कार्य उन दिनों अधूरा रह गया था, व निष्कलंक प्रज्ञावतार द्वारा पूर्ण होगा ॥७६-८१॥
बुद्धं शरणम्
बौद्ध सूत्र-'बुद्धं शरणं गच्छामि' का तात्पर्य होता है बोध-विवेक की, सद्ज्ञान की शरण में जाना ।
बुद्ध के प्रथम शिष्य श्रावस्ती पहुँचे । नगर के श्रेंष्ठियों ने उनसे पूछा कि 'बुद्धं शरणं गच्छामि' का अर्थ महात्मा
बुद्ध की शरण में जाना होता है क्या? यदि ऐसा है तो यह क्या महात्मा बुद्ध के अहंकार का द्योतक नहीं ?
आनंद बोले-"श्रेष्ठि ! क्या आपको पता है कि जब श्रवण समूह चलता है, तो यह सूत्र सभी बोलते है, स्वयं बुद्ध भगवान भी। व्यक्ति की शरण में जाने का भाव इमसें होता, तो वे स्वयं न दुहराते ।"
आनंद ने स्पष्ट किया-"तथागत का नाम तो सिद्धार्थ था । ज्ञान के प्रकाश का बोध होने पर वे बुद्ध कहलाए ।
जिस प्रकाश ने उन्हें बुद्ध बनाया, उसी दिव्य, दूरदर्शी विवेक की शरण में जाने का संकेत इस सूत्र में है ।"
धर्मं शरणम्-पाटिलीपुत्र वासियों ने तथागत से पूछा-"आपने तो परंपरागत धर्म का कड़ा प्रतिरोध किया है,
फिर आप धर्म की शरण में जाने की बात को क्यों इतना महत्व देते हैं?"
भगवान, बोले-"भंते! धर्म और रूढ़ियों में अंतर करना होगा। श्रेष्ठ सिद्धांतों का आचरण ही 'धर्म' कहलाता है। विचार यदि क्रिया में नहीं बदलते, तो उनका लाभ नहीं मिल सकता । इसलिए सद्विचारों को सदाचरण की ओर ले जाने वाली प्रक्रिया के रूप में धर्म को अपनाया जाना है। अस्तु, धर्म की शरण में गए बिना किसी का कल्याण नहीं है॥"
संघं शरणम्
कौशल नरेश बुद्ध धर्म को राजधर्म बनाना चाहते थे । उन्होंने मुख्य श्रमण से पूछा कि 'संघं शरणं गच्छामि' के अनुसार बुद्ध मतानुयायी को बौद्ध विहारों में भिक्षु संघ के साथ रहना होगा क्या?
प्रधान भिक्षु ने कहा-"राजन्! संघ शब्द केवल भिक्षु संघ तक सीमित नहीं । यह तो सामाजिकता का पर्याय
है। व्यक्ति कितना भी विद्वान और कितना भी धर्म परायण हो वह यदि समाजनिष्ठ नहीं हो, तो वह समस्या पैदा करने वाला ही बन जाता है । मनुष्य सामाजिक प्राणी है । उसे समाज को लक्ष्य करके आचरण और मर्यादाओं का निर्धारण करना आना ही चाहिए । सामूहिकता, संगठन, संघबद्धता की अनिवार्यता यह सूत्र बतलाता है ।
प्रज्ञावतार के सूत्र
प्रज्ञावतार अनास्था असुर को समाप्त करेगा । मनुष्य को न सोचने योग्य सोचने का क्रम बंद करना होगा । उचित को महत्व देना सीखना होगा । इसके लिए 'विचार क्रांति' का सूत्र क्रियान्वित किया जाएगा । इसके बिना अन्य कोई चारा नहीं । यह 'बुद्धं शरणं गच्छामि' का पूरक सूत्र है।
अगले चरण में मनुष्य में अनुपयुक्त आचरण-अभ्यास के क्रम को बदलना होगा । इसके लिए हर क्रिया को नैतिकता की मर्यादा में लाया जाना है। यह उद्देश्य पूरा करने के लिए 'नैतिक क्रांति' का सूत्र क्रियान्वित किया जाना आवश्यक है, अन्यथा मात्र सिद्धांत और योजना किसी काम के नहीं । यह बुद्धावतार के 'धर्म शरणं गच्छामि' का पूरक सूत्र है ।
विज्ञान ने सुदूर देशवासियों को पास पास ला दिया है । इस नाते सामाजिकता के सर्वोपयोगी सूत्रों का विकास करना होगा । देशगत, धर्मगत सामाजिक कुप्रचलनों का निराकरण करके, विश्व संस्कृति के अनुरूप नए प्रचलनों की परिपाटी चलानी होगी। इससे कम में सामाजिक सौमनस्य स्थापित नहीं हो सकेगा। इसके लिए महाप्रज्ञा के अनुशासन में 'सामाजिक क्रांति' करनी होगी । यह सूत्र बुद्ध के 'संघ शरणं गच्छामि' का नया संस्करण है ।
त्रिपुरारी का त्रिशूल
महाकाल शंकर का एक नया नाम त्रिपुरारी भी है। प्राचीनकाल में तीन दुर्दांत दैत्य जन्मे थे । तीनों सगे भाई थे । उनने तीन माया नगरियाँ बसाई । सभी को मोहित करके वशवर्ती बनाया और समूचा विश्व वैभव समेट कर अपने कोठों में भर लिया । तीनो के स्थान स्वरूप तो अलग अलग थे, पर उनमें घनिष्ठता अत्यधिक थी । एक दूसरे के सहयोगी एवं पूरक बनकर रहते थे । तीनों को वरदान मिला हुआ था कि साधारण रीति से नहीं मरेंगे । मरना ही पड़ा, तो एक साथ एक ही शस्त्र से मरेंगे ।
त्रिपुरों के अनाचार से जब धरती पर हाहाकार मच गया, धरती से पाप का बोझ न सहा गया, तो देवता घबराए और दौड़ कर भगवान के पास पहुँचे। आसुतोष ने आश्वासन दिया । तीन शूल वाला त्रिशूल बनाया और तीनों को उस एक से ही पयस्त कर दिखाया ।
पौराणिक कथा के तीन असुर है- (१) लोभ, (२) मोह, (३) अहंकार । तीनों आपस में जुड़े हुए है । तीनों ने सभी की बुद्धि, शक्ति और संपदा पर आधिपत्य कर लिया है । लोग विलास और धन के लिए कुछ भी कुकर्म करने पर उतारू हैं । शरीर और परिवार को सुंदर बनाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तत्पर हैं । प्रदर्शन और बड़प्पन की अहंता पर कुछ भी खर्चा और बरता जा रहा है ।
संक्षेप में यही है आज की स्थिति का तात्विक विवेचन-विश्लेषण । अशिक्षित, असभ्यों से लेकर सुशिक्षितों, कलाकारों, मूर्धन्यों, संपन्नों, धर्माध्यक्षों ने एक ही दिशा पकड़ रखी है । इस त्रिदोष जनित सन्निपात, से हर कोई ग्रसित है । हर कोई बहकी बहकी बातें और उद्धत हरकतें करता दिख पड़ता है ।
त्रिपुरारी महाकाल ने अतीत में भी त्रिविध माया-मरीचिका को त्रिशूल के सहारे निरस्त किया था । अब वे ही शिक्षण, संघर्ष और सृजन की त्रिविध सत्प्रवृत्तियों का प्रयोग करने जा रहे हैं। इन्हें दूसरे शब्दों में बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक क्रांति भी कहा जा सकता है ।
परिव्राजक-अनुयायी
बौद्धमत के अनुयायी भी बने और अनुयायी बनने वाली आस्था जगाने वाले परिव्राजक, भिक्षु भी तैयार किए गए । प्रज्ञावतार के लीला संचार के क्रम में जन जन की आस्थाएँ व्यवस्थित और अकसित की जानी हैं। मानवों को देवसंस्कृति का नैष्ठिक अनुयायी बनाना होगा । यह कार्य नागरिक परस्पर सहयोग से आगे बढ़ाएँगे । परंतु कुछ दीर्घकालिक या पूर्णकालिक लोकसेवियों की आवश्यकता पड़ेगी, उन्हें प्रज्ञापुत्र, परिव्राजक कहा जाएगा । उन्हें चिंतन, आकांक्षा और आचरण से अधिक प्रामाणिक एवं अधिक प्रखर बनना होगा।
अवतार चेतना के प्रभाव से यह क्रम मत्स्यावतार की तरह विस्तार पाते दिखाई देंगे ।
व्यापकत्वान्निराकारो भविष्यत्वेष शोभन: ।
प्रज्ञावतारो, मर्त्यानां बुद्धे: सत्कर्मसु स्पृहा॥८२॥
यज्ञदानतप:स्वत्र: पावनेषु तु कर्मसु ।
बुद्धे: प्रवृत्तिरेवायमवतारो मतोऽतनु ॥८३॥
प्रेरणां प्रातिनिध्यं सं गायत्री यज्ञसंभवा ।
अग्ने: शिखेव तस्येयं शिखारक्ता करिष्यति ॥८४॥
कम्पमानै: सदा वृक्षपल्लवैर्ज्ञायते नरै: ।
झञ्झावातो यथादित्यकिरणा: पर्वतस्य तु ॥८५॥
शिखरेष्वेव पूर्वं तु भाजमाना पतन्ति ते ।
तथा प्रज्ञावतारस्य झञ्झावातोपमस्य च ॥८६॥
प्रवाहस्य तु संज्ञानं वायुपुत्रसमैरलम् ।
गुडाकेशोपमै: प्रज्ञापुत्रै: कार्यैर्विधास्यते ॥८७॥
एतेषां च समेषां तु गतीनामादिमाश्रया:।
प्रज्ञापीठा भविष्यन्ति तुलिता उदयाचलै: ॥८८॥
ज्ञानालोकं ये दिव्यं विधास्यन्ति जगत्यलम् ।
येन भूयो नवा दिव्या चेतना प्रसरिष्यति ॥८९॥
भावार्थ-प्रज्ञावतार व्यापक होने से निराकार होगा । मनुष्यों की बुद्धि सत्कर्म में लगना यज्ञ, दान, तप जैसे पावन कर्मों में बुद्धि की प्रकृति हो जाना ही अशरीर प्रज्ञावतार है । उसकी प्रेरणा, उसका प्रतिनिधित्व गायत्री यज्ञ की अग्नि शिखा का प्रतिरूप लाल मशाल करेगा । तूफान का परिचय हिलते वृक्ष पल्लवों से मिलता है । उदीयमान सूर्य की किरणें सर्वप्रथम पर्वत शिखरों पर चमकती हैं, उसी प्रकार प्रज्ञावतार के तूफानी प्रवाह का प्रमाण परिचय हनुमान, अर्जुन जैसे वरिष्ठ पुत्रों की गतिविधियों से मिलेगा । इनकी हलचल के केंद्र प्रज्ञापीठ होंगे, जो उदयाचल के समान ज्ञानालोक का वितरण समस्त संसार में करेंगे, जिससे नई चेतना जागेगी ॥८२-८९॥
अवतार-एक अदृश्य प्रवाह
अवतार के नाम से यों व्यक्ति विशेष को जाना जाता है पर वस्तुत: होता वह एक अदृश्य प्रवाह भर है जो आँधी-तूफान की तरह आता है और वातावरण की गंदगी बुहार कर रख जाता है । उसके साथ तिनके पत्ते और धूल कण भी उड़ते और आकाश चूमते हैं । जराजीर्ण:वृक्षों को उखाड़ फेंकना उसी के द्वारा संभव होता है । व्यक्ति कितना ही बड़ा या समर्थ क्यों न हो, वह व्यापक परिस्थितियों के बदलने में एकाकी प्रयासों के बलबूते सफल नहीं हो सकता । बड़े प्रलोभनों के लिए एकाकी को सहयोग चाहिए ।
इंजीनियर योजना तो अकेले ही बना सकते हैं पर इमारत या बाँध-पुल खड़ा करने के लिए अनेकों कारीगर- श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है । कारखाना खड़ा तो एक संपन्न व्यक्ति भी कर सकता है पर उसे चलाने के लिए, उत्पादन को खपाने के लिए अनेकों का सहयोग चाहिए । यही बात अवतारी उपक्रम के संबंध में भी चरितार्थ होती है ।
संसार में अनेक सुधारात्मक और सृजनात्मक क्रांतियों हुई है । उनके पीछे छिपी उत्कृष्ट आदर्शवादिता ही अवतारी प्रवाह कही जा सकती है। उनके छोटे छोटे लोगों द्वारा प्रारंभ किए गए ऐसे क्रिया-कलाप उच्चस्तरीय सफलता स्तर पर पहुँचे है तब उन्हें भी दिव्य प्रेरणा प्रवाह कहा गया एवं अवतारी उपक्रम माना गया है।
अवतार सत्ता संत, सुधारक और शहीदों के माध्यम से समय समय पर स्थान स्थान पर अपने प्रयोजन पूरे करती कराती रहती हैं। सूर्य, चंद्र, पवन, बादल, अग्नि आदि की तरह देवोपम सत्प्रवृत्तियाँ अपनाकर जो पवित्रता और प्रखरता का परिचय दें । विकृतियों के निराकरण में सत्प्रवृत्तियों के संस्थापन में योगदान दें, तो समझना चाहिए कि ये अवतारी प्रेरणा से अनुप्राणित महामानव हैं ।
यज्ञ से ही सृष्टि संतुलन
प्रजापति ब्रह्माजी ने मनुष्य को उत्पन्न किया । मनुष्य ने अपना सारा जीवन दु:ख, कष्ट और अभावों से घिरा देखा तो उसने पितामह विधाता से शिकायत की-"भगवन्! इस संसार में असहाय छोड़े गए हम मनुष्यों की रक्षा और पोषण कौन करेगा ।" पितामह बोले-"यज्ञ तात्! यज्ञ द्वारा तुम देवताओं को आहुतियाँ प्रदान करना, संतुष्ट हुए देवता तुम्हें धन, संपत्ति, बल और ऐश्वर्य से भर देंगे ।"
और सच ही जब तक यह देश यज्ञ करता रहा, धन-धान्य की कमी नहीं रही ।
जीवन में यज्ञीय आस्थाएँ और समाज में यज्ञीय परंपरा प्रतिष्ठापना के लिए आवश्यक सभी सूत्र यज्ञ के तत्वज्ञान में बीज रूप में मौजूद हैं । धर्म परंपराओं के आधार पर प्रगतिशीलता का प्रशिक्षण करने की प्रक्रिया कितनी हृदयग्राही और कितनी सफल हो सकती है, इसका अनुभव प्राचीनकाल की तरह ही इन दिनों भी किया जा सकता है। वही किया भी जा रहा है।
यज्ञ कृत्य के अंतर्गत कितने ही छोटे छोटे विधि-विधान आते हैं । इन सबके पीछे वे सभी दृष्टिकोण सन्निहित हैं जिन्हें अपनाने सें व्यक्ति और समाज का, नवयुग का उत्कृष्टता संपन्न ढांचा खड़ा किया जाता है । उन सभी कृत्यों की, प्रयुक्त होने वाले मंत्रों की, विधि-विधानों की साथ-साथ व्याख्या भी होती चले तो यज्ञ आयोजन से बहुमुखी लोक शिक्षण की उच्चस्तरीय आवश्यकता भली प्रकार पूरी होती रह सकती है यज्ञाग्नि के रूप में युग क्रांति को प्राणवान प्रतिमा की स्थापना-अभ्यर्थना का भाव भरा उपक्रम ऐसा है जिसके सहारे जन भावनाको अवांछनीयता के उन्मूलन एवं शालीनता के पुनर्जीवन के लिए उभारा और जुटाया जा सकता है ।
अग्नि द्वारा अध्यापन
गुरुकुल के अन्य छात्रों की शिक्षा पूरी हो गई और उन्हें समावर्तन संस्कार करके विदा कर दिया गया । केवल एक छात्र उप कौशल शेष रह गया । उसकी शिक्षा अपूर्ण मानी गई । कारण यह कि वह आश्रम व्यवस्था और गुरु परिवार की सेवा में अधिक संलग्न रहने से उतना पढ़ नहीं पाता था ।
उप कौशल को दु:खी देखकर उसकी शिक्षा यज्ञाग्नि ने देने का आश्वासन दिया । उनके अंत:करण में से ही
विद्या स्फुरित हुई और ब्रह्मतेज उसके चेहरे पर चमकने लगा ।
गुरु ने पूछा-"अचानक तुम्हें विद्या लाभ कैसे प्राप्त हुआ ।" उप कौशल ने अग्नि के अनुदान का विवरण बता दिया । उप कौशल अन्य सभी साथियों की तुलना में अधिक विद्वान होकर गुरुकुल से विदा हुए ।
जागृत आत्माओं का सहयोग
भगवान को 'सह शीर्षा पुरुष:' -हजारों सिर, भुजाओं वाला विराट् पुरुष कहा गया है । इसका अर्थ हुआ-भगवान श्रेष्ठ जनों का समन्वय-संगठन ।
सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी जिस पर अवस्थित हैं, वह सहस्त्र दल वाला कमल है । विष्णु भगवान जिस शेषनाग पर शयन करते हैं, वह सहस्त्र फन वाला है । शंकर जी के शरीर में सहस्र सर्प लिपटे रहते है और उतने ही वीर भद्रों का भूत-प्रेतों का समुच्चय साथ रहता है । यह सहस्त्र शीर्षा प्रतिपादन का ही अलंकारिक चित्रण है । इसका तात्पर्य अवतार के साथ जुड़े रहने वाले वरिष्ठों का, जागृत आत्माओं का समर्थन-सहयोग ही कहा जा सकता है।
भगवान बुद्ध का धर्म चक्र प्रवर्तन सहस्त्रो जीवट धारी परिव्राजकों के साथ ही संभव हो पाया । गांधी का स्वतंत्रता संग्राम अगणित सत्याग्रहियों की सेना द्वारा लड़ा और जीता गया । इससे पूर्व भगवान राम रीछ-वानरों की विशाल सेना के सहारे समुद्र पुल बांधने, लंका जीतने और राम राज्य की सतयुगी स्थापना में सफल हुए । कृष्ण ने ग्वाल-वालों की सहायता से गोवर्धन उठाया और पांडवों के साथ असंख्य सहयोगी जुटाकर महाभारत को क्रियान्वित कर दिखाया । निराकार भगवान की योजना और प्रेरणा तो काम करती है पर उन्हें क्रियान्वित कराने की जिम्मेदारी शरीरधारियों पर ही आती है। महारास में असंख्यों गोप-गोपियों की थिरकन का समन्वय हुआ था।
अवतार प्रवाह का नेतृत्व सदा से मूर्धन्य स्तर की प्रतिभाएँ, जागृत आत्माएँ करती रहती हैं। उन्हीं ने युग परिवर्तन, युग सृजन की मुहिम सँभाली है और इसके लिए जन समर्थन जुटाया है ।
सूर्योदय का प्राथमिक परिचय ऊँचे पर्वत शिखर देतें है । जलयानों का प्रथम दर्शन उनका मस्तूल कराता है। सेना की अग्रिम पंक्ति में ध्वजाधारी चलते हैं। आदर्शवादिता की लहर उत्पन्न करने में जागृत आत्माओं को अग्रदूतों की भूमिका संपन्न करते देखा जाता है । उन्हीं की साहसिकता असंख्यों में अनुकरण का उत्साह उत्पन्न करती है। सदा से यही परंपरा रही है । आदर्शवादी प्रयाणों में अग्रगमन करने वालों को महामानव, युग पुरुष आदि नामों से सम्मानित किया जाता रहा है । वे ही युग परिवर्तन की इस पुण्य बेला में भी अपना अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करेंगे । यह क्रम जिस तेजी से, जितने विस्तार से पालेगा, समझना चाहिए युग निर्माण अभियान में उतना ही प्राण प्रवाह सम्मिलित हों गया। सफलताओं की संभावना कितनी निकट एवं कितनी दूर है, इसका उत्तर इसी आधार पर दिया जाएगा कि जागृत आत्माओं का समुदाय कितना बड़ा और उसने अपनी गतिविधियों में किस मात्रा में आदर्शो को अपनाने का शौर्य-साहस अपनाया ।
कौरव दल तो मरा रखा है
युग परिवर्तन अगले दिनों की सुनिश्चित सचाई है । ईश्वरीय प्रयोजन पूरे होने हैं । गीता में भगवान अर्जुन को यही समझाते हैं कि यह कौरव दल तो मरा रखा हैं । तेरे पीछे हटने पर भी वह दूसरी प्रकार से मरेगा । सुनिश्चित सफलता के श्रेय को उपलब्ध करना ही बुद्धिमत्ता है।
युग देवता की पुकार सुनने, मांग पूरी करने और प्रेरणा का अनुकरण करने के लिए तो देर-सवेर में सभी को हाथ उठाने और पैर बढाने पड़ेंगे। सराहना उनकी है, जो समय रहते चेतते है । जागृत आत्माओं को ऐसे अवसर पर विशेष भूमिका निभानी पड़ती है । जो युग धर्म को समझते हैं, युग देवता का आह्वान सुनते हैं, वे धन्य बनते है । उन दिनों जो असमंजस में पड़े रहते हैं, उन्हें समय को न पहचान सकने की, सदा पश्चताप की आत्म प्रताड़ना हो सहन करनी पड़ती है ।
अवतारप्रसंगोऽयं ध्यानपूर्वकमेव तै: ।
उपस्थितैर्जनै: सवै: श्रतो जिज्ञासुभिस्तदा ॥९०॥
निरचिन्वन् समे पुण्यवेलायां पूर्णश्रद्धयां।
युगावतारजायां स्वान् विधास्याम: समर्पिततान्॥९१॥
भावार्थ-अवतार प्रसंग की बहुत ध्यानपूर्वक सभी उपस्थित जिज्ञासुओं ने सुना । उनने निश्चय किया कि युग अवतार की इसी पुण्य वेला में वे पूरी श्रद्धा और निष्ठा के साथ अपने को समर्पित करेंगे॥९०-९१॥
समर्पित हो जाएँ
भगवान की समीपता एवं अनुकंपा उपलब्ध होने का एक ही प्रमाण है-भक्त का भगवान के समतुल्य महान, उदार एवं पवित्र बन जाना। आग के सान्निध्य में ईधन भी वैसा ही इन जाता है। चंदन की निकटता वाली झाड़ियाँ भी सुगंधित हो जाती है । स्वाति के संपर्क से सीप में मोती, केले में कपूर, बाँस में वंशलोचन उत्पन्न होता है। भगवान के सान्निध्य में तुच्छ मनुष्य भी महान बनता है । उसे नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम बनने का सुयोग मिलता है । वादक के होठों से लगकर बांस की बांसुरी मधुर संगीत निनादित करती है । उड़ाने वाले के हाथ में पहुँच करु पतंग आसमान में उड़ती है । दूध में मिलने पर पानी भी उसी भाव बिकता है । गंदा नाला गंगा में मिलकर गंगाजल बनता है । सच्चे भक्त का आदर्शो के समुच्चय भगवान को किया गया समर्पण उसे तत्सम बना देता है । जीवनक्रम में उच्चस्तरीय परिवर्तन होना ही सच्ची भक्ति का लक्षण है ।
अमृत में छलांग लगाओ
श्रीरामकृष्ण परमहंस शिष्यों को उपदेश दे रहे थे । वह समझा रहे थे कि जीवन में आए अवसरों को व्यक्ति साहस तथा ज्ञान की कमी के कारण उस अवसर का महत्व नहीं समझ पाते। समझकर भी उसके पूरे लाभों का ज्ञान न होने से उसमें अपने आपको पूरी शक्ति से लगा नहीं पाते। शिष्यों की समझ में यह बात ठीक ढंग से न आ सकी । तब श्रीरामकृष्ण देव बोले-"नरेन्द्र! कल्पना कर, तू एक मक्खी है । सामने एक कटोरे में अमृत भरा रखा है । तुझे यह पता है कि यह अमृत है, बता उसमें एकदम कूद पड़ेगा या किनारे बैठ कर उसे स्पर्श करने का प्रयास करेगा ।" उत्तर मिला-"किनारे बैठकर स्पर्श का प्रयास करूँगा । बीच में एकदम कूद पड़ने से अपने जीवन अस्तित्व के लिए संकट उपस्थित हो सकता है ।" साथियों ने नरेन्द्र की विचारशीलता को सराहा । किंतु परमहंस जी हँस पड़े, बोले-"मूर्ख । जिसके स्पर्श से तू अमरता की कल्पना करता है, उसके बीच में कूदकर, उसमें स्नान करके सरावोर होकर भी मृत्यु से भयभीत होता है ।" चाहे भौतिक उन्नति हो या आध्यात्मिक, जब तक आत्मशक्ति का पूर्ण समर्पण नहीं होता, सफलता नहीं मिलती। यह रहस्य शिष्यों ने उस दिन समझा ।
अन्त्य: सत्संग एषोऽत्र समाप्तश्च यथाविधि ।
सप्तमस्य दिनस्यैवं सुखं याताश्च येन ते॥९२॥
भविष्यत्समये भूयो निकटे कुत्रचिद् वयम् ।
सुयोगमीदृशं नूनं प्राप्स्याम इति चोत्सुका:॥९३॥
साभिलाषा: समस्तास्ते मनुयोऽथ मनीषिणः ।
प्रतियाता: स्वत: स्वेषु कार्यक्षेत्रेषु हर्षिता:॥९४॥
भावार्थ-सप्तम दिन का अंतिम सत्संग समाप्त हो गया, जिससे सभी सुख का अगुभव कर रहे थे । फिर कभी निकट भविष्य में ऐसा ही सुयोग मिलने की अभिलाषा लेकर सभी मुनि-मनीषी प्रसन्न होकर अपने
अपने कार्यक्षेत्र को वापस चले गऐ ॥९२-९४॥
इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे देवसंस्कृतिखण्डे ब्रह्मविद्याऽऽत्मविद्ययो:, युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयो:,
श्री कात्यायन ऋषि प्रतिपादिते "प्रज्ञावतार",
इति प्रकरणो नाम सप्तमोऽध्याय:॥७॥
वन्दना परिशिष्ट
कथावाचक का आदर्श यह रहा है कि वह अपने आपको शाश्वत ज्ञान का विनम्र सन्देशवाहक मात्र मानकर चले। इसीलिए स्वयं को वक्ता न मानकर आदि वक्ताओं का प्रतिनिधि माने । कथा प्रारम्भ करने से पूर्व अपना यह भाव उद्दीप्त करने के लिए वन्दना एक बड़ा उपयोगी माध्यम रहा है । भावभरी वन्दना से न केवल अपने अनुशासन का निर्वाह होता है, बल्कि अपनी शालीनता कार उभार होने से दिव्य अनुदान के रूप में सूक्ष्म प्रवाह का भी सहज ही लाभ मिलने लगता है । अस्तु, हर कथा के पहले भावभरी वन्दना अवश्य की जाय ।
वन्दना में पहले ईश-वन्दना तथा फिर गुरु-वन्दना के श्लोक बोले जायें । समय एवं परिस्थितियों के अनुरूप २ -३ मंत्र दोनों ही प्रसंगों के बोले जा सकते हैं । यहाँ ईश-वन्दना और गुरु-वन्दना के पर्याप्त श्लोक दिए जा रहे हैं । ईश-वन्दना के श्लोक इस तरह के हैं कि उसमें किसी विशेष नाम रूप का वर्णन न होकर प्रभु
की सामर्थ्य, सार्वभौम सत्ता, उनकी विशेषता एवं गुणों, आदर्शो का ही उल्लेख है । गुरु-वन्दना के श्लोक भी
सार्वभौम हैं।