प्रज्ञा पुराण भाग-4

॥अथ पञ्चमोऽध्यायः:॥ मरणोत्तर जीवन प्रकरणम्-3

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पूर्वजोपार्जित वित्त समर्था सन्तति: स्वतः ।
प्रतिदद्यादलं तेषा वर्द्धितुं पुण्यसम्पदाम् ।।५१।।
इयमेव च शालीना विद्यते च परम्परा ।
शुभा प्रत्युपकारस्य येनात्मा सम्प्रसीदति ।।६०।।
पूर्वजैरनुदानं यद्दत्तं यश्च कृत: स्वयम् ।
सहयोगक्ष देयं तत् पूर्वजेभ्यो द्वयं त्विह ।।६९।।
वार्धक्ये च सुपात्र च सन्तति: सा तु सेवया ।
अभिभावकवृद्धानां सहयोगेन चेच्छति ।।६२।।
आनृण्यमात्मनोऽतश्च स्वर्गस्थानां कृते नरः ।
दानपुण्यादिकायैंश्च प्रतियच्छति सन्ततम् ।।६३।।
आनृण्याऽवसरोऽनेन लभ्यते त्यन्यथा तु तत् ।
भविष्यज्जन्मसु स्याच्च भारवाहितयाऽर्पितुम् ।।६४।।
अनुदानं सन्ततिश्च प्रदत्तमभिभावकैः ।
गृह्णीयादसमर्थस्तु न सामर्थ्ये समागते ।। ६५।।

भावार्थ - पूर्वजों का उपार्जित धन, समर्थ संतान उन्हीं की पुण्य संपदा बढ़ाने के लिए लौटा दे। प्रत्युपकार की यही शालीन परंपरा है ।। इसी से आत्मा प्रसन्नता व तृप्ति प्राप्त करती है। जीवितपूर्वजों को उनके किए हुए सहयोग एवं दिए हुए अनुदान को वापस किया जाना चाहिए। वृद्धावस्था में सुपात्र संतानें अपने अभिभावकों की सेवा- सहायता करके उऋण होने का प्रयास करती हैं ।। स्वर्गवास होने पर उसे उनके निमित्त पुण्यकार्य करके वापस लौटाती हैं । उससे भी उऋण होने का अवसर मिलता है । न लौटाने पर वह ऋण अगले जन्मों में भार ढो ढोकर चुकाना होता है । संतान को अभिभावकों के अनुदान तभी तक लेने चाहिए जब तक 
समर्थ न हो ।। ५९ - ६५ ।। 

व्याख्या- दिवंगत आत्मा ने उत्तराधिकार में जो छोड़ा है ।। उसमें से उतना ही स्वीकार करना चाहिए, जो पीछे वाले बिना कमाऊ बालकों या स्त्रियों के निर्वाह के लिए अनिवार्य हैं ।। कमाऊ संतान को उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए ।। दिवंगत आत्मा के अन्य अहसान ही इतने हैं कि उन्हें अनेक जन्मों तक चुकाना पड़ेगा । फिर यह नया ऋण भारी ब्याज समेत चुकाने के लिए क्यों सिर पर लादा जाय ? असमर्थ स्थिति में अभिभावकों की सेवा स्वीकार करना उचित था, पर जब वयस्क और कमाऊ हो गए, तो फिर उसे लेकर 'हराम खाऊ' मुफ्तखोरों में अपनी गणना क्यों कराई जाय । पूर्वजों के छोड़े हुए धन में कुछ अपनी ओर से श्रद्धांजलि मिलाकर उनकी आत्मा के कल्याण के लिए दान कर देना चाहिए । यही सच्चा श्राद्ध है । पानी का तर्पण और आटे की गोली का पिंडदान पर्याप्त नहीं, वह क्रिया कृत्य तो मात्र प्रतीक है । श्रद्धा की वास्तविक परीक्षा उस श्राद्ध में है, जो पूर्वजों की कमाई को उन्हीं की सद्गति के लिए, सत्कर्मों के लिए दान रूप में समाज को वापस कर दिया जाय । अपनी कमाई का जो सदुपयोग मोह या लोभवश स्वर्गीय आत्मा नहीं कर सकी थी, उस कमी की पूर्ति उसके उत्तराधिकारियों को कर देनी चाहिए । 

जीवित स्थिति में भी युवा संतानों का यह दायित्व है कि उनके ऊपर उनको जन्म देकर बड़ा करने, स्वावलंबी समर्थ बनाने वाले अभिभावक, वृद्ध माता- पिता की परिपूर्ण सेवा की जाय । सेवा इस उद्देश्य से न की जाय कि उनकी छोड़ी संपत्ति हमें उत्तराधिकार में मिलेगी, अपितु पुत्र धर्म के नाते की जाय । आयुष्य की उत्तरार्धावस्था में दिया गया अभिभावकों को कष्ट उनकी आह के रुप में जब सिर पर लदता है, तो इस जन्म में व परलोक में त्रास ही त्रास देता है ।

इयमेव तु श्राद्धस्य विद्यते तु परम्परा । 
व्यक्तानि साधनान्यत्र प्रतिदीयन्त एव तु ।। ६६ ।। 
यत्प्राप्तं दीयते तच्च श्रद्धासद्भावकारणात् । 
अतोऽतिरिक्तमप्यत्र सम्भवं यद् भवेदपि ।। ६७।। 
लोकमङ्गलकृत्यं तत् कर्त्तव्यमित्त्थमेव च । 
श्रमदानं साधनानां दानै: सहनियुज्यताम् ।। ६८ ।। 
तर्पणं श्रमदानं च स्वेदबिन्दुप्रतीकताम् ।
धत्तः शिक्षाभिवृद्धौ सुव्यवस्थायां तथैव च ।। ६९ ।। 
वृक्षारोपणकार्ये च स्वच्छतायामपीदृशम् । 
विविधेषु हि कृत्येषु श्रमो योक्तव्य एव च ।। ७० ।। 
तर्पणं चेदमेवास्ति लोकचित्तपरिष्कृतौ ।
धनार्पणं भवेच्छ्राद्धमिदमेव च सन्तते: ।। ७१ ।। 
पितृनुद्दिश्य कर्तव्यं यदस्ति तत्स्मृति: शुभा । 
श्राद्धतर्पणकार्येण कार्यते लोक उच्यते ।। ७२ ।।

भावार्थ- यही श्राद्ध परंपरा है । इसमें छोड़े हुए साधन लौटाए जाते हैं ।। जो लिया था वह वापस किया जाता है । इसके अतिरिक्त भी अपनी श्रद्धा- सद्भावना की पहल करने के निमित्त जो बन पड़े लोकमंगल के शुभ कृत्य करते रहना चाहिए । इस हेतु न केवल साधनों का दान हो, वरन श्रमदान भी नियोजित रखा जाय, तर्पण- श्रमदान स्वेदबिन्दुओं का प्रतीक । वृक्षारोपण शिक्षा संवर्द्धन स्वच्छता सुव्यवस्था जैसे कृत्यों में श्रम किया जाय, यह तर्पण हुआ । लोक मानस के परिष्कार में धन लगाया जाय, यह श्राद्ध कहलाया ।। संतान का पितरों के  प्रति जो कर्तव्य है, उसका स्मरण श्राद्ध- तर्पण की प्रतीक परिचर्या द्वारा कराया जाता है ।। 
६६- ७२ ।। 

व्याख्या- पितरों के प्रति सच्चा श्राद्ध वही है, जिसमें उनके छोड़े हुए उत्तरदायित्वों को पूरा किया   जाय । श्राद्ध का अर्थ है  'श्रद्धा युक्त आचरण' ।धन को जब सदुद्देश्यों के निमित्त नियोजित किया जाता है, तो वह श्राद्ध कहलाता है ।  

जो भी कुछ व्यक्ति समाज से लेता है, उसके बदले 'उपार्जन कर संपत्ति जुटाता है, उसे समाज हित के कार्यों में जीवन  काल मे ही लगा दे, यह मर्यादा है । यदि संयोगवश वह ऐसा न कर पाए, तो उसके उत्तराधिकारी कुटुम्बी मरणोपरांत उस कार्य को श्रद्धा के साथ पूरा करें यह देव संस्कृति की व्यवस्था है । श्राद्ध द्वारा मृतात्मा को शांति- सद्गति मिलने की मान्यता के पीछे यही तथ्य हैं । तर्पण मात्र जल को, अंजुलि में भरकर छोड़ना भर नहीं है । शरीर का पसीना भी लोकहित हेतु बहे । शुभ कार्य पारिश्रमिक देकर नौकरों से नहीं कराए जा सकते । समाज में सत्प्रवृत्ति फैलाने वाले मंगलकारी कृत्यों हेतु स्वयं के श्रम सीकर बहने चाहिए, तो ही यह कर्मकांड पूरा होता है, नहीं तो बस निमित्त मात्र चिह्न पूजा भर बन कर रह जाता है । 

दशरथ जी का पिंडदान

पितरों का पिंडदान करने का सबसे बड़ा स्थान ''गया'' माना जाता है और लोगों में ऐसी मान्यता है कि गया में पितरों को पिंडदान कर देने पर, फिर प्रति वर्ष पिंड देने की आवश्यकता नहीं रहती। कहते है कि महाराज रामचंद्र जी ने गया जाकर फल्गू नदी के किनारे अपने मृत पिता महाराज दशरथ का पिंडदान किया था। 

शाहजहाँ ने श्राद्ध परम्परा को सराहा- हिंदुओं की श्राद्ध प्रथा की प्रशंसा अन्य लोगों ने भी की है । हिंदुस्तान के मुगल सम्राट शाहजहाँ ने, जब उसे उसके लड़के औरंगजेब ने जेल में डाल दिया था, तब उसको लिखा था कि ''तुम से तो हिंदू लोग ही बहुत अच्छे हैं, जो मरने के बाद भी अपने पिता को जल और भोजन देते हैं । तू तो अपने जीवित पिता को भी दाना- पानी के बिना  तरसा रहा है ।''   

पितरों की अपेक्षाएँ- जिन पितरों की पिंडदान प्रक्रिया में आस्था होती है, वे उसकी अपेक्षा भी करते हैं और उस अपेक्षा की पूर्ति न होने से उन्हें क्लेश का अनुभव भी होता है ।'  

'रघुवंश' में कालिदास ने राजा दिलीप के पितरों की इसी अनुभूति को व्यक्त किया है ।। दिलीप के संतान नहीं थी, स्वयं राजा दिलीप तो पितरों को श्राद्ध पक्ष एवं श्राद्ध पर्वों पर नियमपूर्वक पिंडदान देते थे किंतु उनके संतान थी नहीं ।। अत: दिलीप की मृत्यु के बाद अपने लिए पिंडदान की परंपरा लुप्त हो जाने की आशंका उनके पितरों को होने लगी थी ।। इसी का वर्णन कालिदास ने किया है। उन्होंने रघुवंश में दिलीप को अपने गुरु वशिष्ठ से कहते हुए बतलाया है- '' हे गुरुवर ।। मेरे बाद पिंड का लोप देखने वाले, स्वधा इकट्ठी करने में लगे हुए मेरे पूर्वज, श्राद्ध में इच्छापूर्वक भोजन के लिए उत्साह नहीं कर रहे हैं । '' 

अर्थात, '' मुझे पुत्र रहित देखकर मेरे बाद उन्हें पिंडदान प्राप्त होना संभव न होगा, ऐसी चिंता में डूबे पितर मेरे द्वारा किए जाने वाले श्राद्ध कर्म के प्रति पर्याप्त उत्साह नहीं रख पा रहे हैं । '' पुत्र प्राप्ति के आकांक्षी दिलीप ने पितरों की अपेक्षा का वर्णन करते हुए आगे कहा- 
मत्परं दुर्लभं मत्वा नूनमावर्जितं मया । पय: पूर्वे स्वनि: श्वासै: कवोष्णामपभुज्यते ।। (१/५७)  
''मैं जो श्राद्ध- तर्पण करता हूँ, उस तर्पण जल से मेरे पितर आंतरिक शीतलता का समुचित अनुभव नहीं कर पाते । यह सोचकर कि मेरे बाद तो यह जल दुर्लभ ही हो जाएगा, वे जो दुःख भरे नि:श्वास छोड़ते है, उसकी दाहकता मानो उस तर्पण- सलिल को कुछ गरम कर देती है ।। ''अध्याय पंचम (२३१) 

इस पर मुनि वशिष्ठ ने कहा- ''हे राजन् ! पितरों को दुःख आपको पुत्र विहीन देखकर नहीं, आपको लोकमंगल की प्रवृत्तियों में अरुचि को देखकर होता है । आप स्वयं श्रम को जीवन में स्थान दें तथा यथासंभव जनसमुदाय में सत्प्रवृत्ति विस्तार हेतु राजय भर में लोकमंगलकारी कार्य आरंभ कराएं। इससे आपको पितरों का आशीष मिलेगा, उन्हें भी शांति मिलेगी । '' 

राजा ने अपनी कार्य पद्धति बदली । कर्मकांड की चिन्ह पूजा को वास्तविक अर्थों में समझकर राज्य को कतिपय चुने हुए व्यक्तियों को सौंपकर स्वयं तप करने वन चले गए । वन की एकाकी तपश्चर्या से उन्हें पुत्र रत्न की भी प्राप्ति हुई व उनके पितरों की अपेक्षाएँ भी पूरी हुईं । 

सेवा प्राथमिक धर्म- एक गिद्ध था । उसके माता- पिता अंधे थे। सारा परिवार पर्वत की एक कोटर में रहता था । गिद्ध रोज सूर्योदय पर निकल जाता, अपना पेट भरता और अपने अंधे बूढ़े माता- पिता के लिए भी व खोज- खोज कर मांस के टुकड़े लाता था । बहुत दिनों तक यह क्रम चलता रहा ।। किंतु '' सब दिन जात न एक समान । '' एक दिन नदी के किनारे बहेलिए ने जाल डाला और गिद्ध आकर उसमें फँस गया । 

वह तड़फड़ाया, मगर उसकी सब कोशिशें बेकार रहीं । गिद्ध को अपने जाल में फंस जाने का संताप इतना नहीं था,जितना उसे अपने माता- पिता के भूखों मर जाने का भय था । वह जोर जोर से विलाप करने लगा । बहेलिए का ध्यान उधर गया । उसने गिद्ध के पास जाकर पूछों कि वह क्यों परेशान है? दूसरे गिद्ध तो रोते नहीं हैं वह अकेला ही क्यों जमीन- आसमान एक कर रहा हैं? गिद्ध ने अपनी व्यथा कही ।। बहेलिए ने ताना मारा- '' रे गिद्ध ! तेरी बात मेरी समझ में नहीं आई है । गिद्धों की दृष्टि तो इतनी तेज होती है कि सौ योजन ऊपर आसमान से भी मुर्दा चीजों को देख लेती हैं, लेकिन तू तो निकट बिछे जाल को ही नहीं देख पाया है, ऐसा गजब कैसे हो गया? इस पर गिद्ध बोला-'' बहेलिए ! बुद्धि की लगाम जब तक अपने हाथ में रहती है, तब तक मनुष्य प्रपंच में नहीं फँसता । किंतु जब बुद्धि पर लोभ का अधिकार हो जाता है, तो थोडा़ रास्ता भूल जाता है और अपने साथ सवार को भी ले डुबाता है । जीवन भर मांस पिंड के पीछे ही भागते भागते मेरी नजर में मांस पिंड ही सर्वस्व बन गए हैं । उनके सिवाय मुझे और कुछ दिखलाई ही नहीं पड़ता है । दृष्टि जब इतनी संकरी हो जाती है, तो सही रास्ता भी लुप्त हो जाता है । तेरे जाल को नहीं देख सकने का कारण यही है । लेकिन अब ज्ञान का उदय होने से क्या होगा? किए का फल भोगना ही पड़ेगा । ''बहेलिए को गिद्ध की बात भायी । उसने प्रसन्न होकर कहा-  '' गिद्धराज ! जाओ । मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ । अपने अंधे माता- पिता की सेवा करो । तुमने आज मेरी भी आँखें खोल दीं ।'' ठीक यही भूल मनुष्य अपने जीवन में करता है । जो पहले ही सँभल जाता है, वह जीते जी अपने दायित्वों से मुक्त हो जाता है।   सेवा ब स्वर्ग अनाम 1णता संत को अपने पुण्यफल के कारण सेवा बनाम स्वर्ग-  किसी संत को अपने पुण्यफल के कारण स्वर्ग में स्थान मिला । उनने पूछा- '' यहाँ दीन- दुखियों की सेवा करके आत्मा को संतोष देने का अवसर है क्या ?" 

देवदूत ने मना किया तो वे हठपूर्वक पृथ्वी पर लौट आए और कहा- ''जो सुख सेवा धर्म अपनाने में है, वह स्वर्ग के उपभोगों में कहाँ ?''

खलील जिब्रान का सम्पत्तिदान - लेबनान मे जन्में खलील जिब्रान जन्म से ईसाई थे । इनके परिवार और संबंधी संगीतकार, चित्रकार, साहित्यकार प्रकृति के थे । यह गुण उन्हें अपने परिवार से मिले । पर नंगे सत्य का अनावरण करना उनकी अपनी विशेषता थी । उनकी अधिकांश रचनाएं गद्य काव्य के रूप में हैं, जिनमें ईसाई धर्म को लक्ष्य रखकर वे व्यंग्य किए हैं, जिसमें धर्म का आडंबर तो बहुत है, पर उसकी आत्मा को भुला दिया गया है । यह कटु उक्ति उस देश की सरकार को न भायी, फलतः उन्हें निर्वासित कर दिया गया । वे अमेरिका चले गए । वहाँ उनकी पुस्तक '' दी प्रोफेट '' प्रकाशित हुई । स्वतंत्र विचारकों को बहुत पसंद आई और उसके कितने ही संस्करण बिके । 

मरते समय उनके पास लाखों डालर की संपत्ति थी । उसकी वसीयत उनने उस गांव में शिक्षा प्रसार के लिए कर दी, जिसमें कि उनका जन्म हुआ था ।। 

बलिष्ठ हाथी तुच्छ महावत के वश में- आत्मसत्ता तो पुण्यकार्य हेतु मुक्त होना चाहती है, किंतु अनगढ़ वृत्तियाँ ऐसा नहीं होने देतीं । विंध्याचल के जंगल में एक दीर्घकाय हाथी रहता था । किसी महावत ने उसे पकड़कर काम लेने का निश्चय किया । हाथी एक रात सोया हुआ था कि महावत ने चतुरता से उसकी जंजीरें कस दी और गरदन पर सवार होकर इच्छित दिशा में चलाने लगा । हाथी बड़ा दुःखी हुआ । 

कई दिन के पराक्रम से उसने जंजीरें तोड़ दीं और महावत को पटक कर बंधन मुक्ति का आनंद लेने लगा । महावत ने पीछा नहीं छोड़ा । उसने दूसरी तरकीब सोची । जिस मार्ग से हाथी पानी पीने जाता था , उसमें एक बड़ा गड़ा खोदकर फूँस से ढक दिया ।। हाथी उस खइं  में गिर पड़ा । जब वह भूख- प्यास से त्रस्त होकर अति दुर्बल हो गया, तो महावत ने उसे काबू में कर लिया और फिर कभी उसे हाथ से न निकलने दिया ।। वशिष्ठ ने कहा- हे राम ! आत्मा ही वह बलिष्ठ हाथी है । वह शक्ति में नगण्य, किंतु धूर्तता में प्रवीण महावत के चंगुल में फँस जाता है, तो पराधीन जीवन जीता और दुःख उठाता है ।  

लिप्सा का दंड- जीवन जीते जीते शिक्षा ले ली जाय, कि हित जमा करने में नहीं है, तो ही कल्याण है । संत मेघालय एक स्वर्णकार के घर भिक्षा के लिए गए । उसी समय सोने के छोटे छोटे कुछ दाने कबूतर निगल गए । स्वर्णकार ने भिक्षुक को चोर माना और उसको मारपीट कर कमरे में बंद कर दिया । इतने में कबूतरों ने बीट की । उसमें कुछ सोने के दाने निकले । स्वर्णकार ने उन्हें पकड़वा कर मरवा डाला । कुछ दाने और निकल आए । स्वामी जी को मुक्त किया तो उनने कहा- '' जिस सोने को देखने से हमारा यह हाल हुआ और जिसके कारण कबूतरों के प्राण गए, उसी को आप जमा करते है, तो आपका क्या हाल होगा?' स्वर्णकार ने जमाखोरी छोड़ दी और दानशीलता अपनाई । 

हर्षवर्धन का सर्वमेध- हर्षवर्धन ने अपना समस्त राज्यकोष दान दे दिया, यहाँ तक कि शरीर पर वस्त्र भी न रहे । 

इस दान राशि में से उनने वंश और वेष के नाम पर याचना करने वालों को एक पैसा भी न दिया, वरन तक्षशिला विश्वविद्यालय के लिए वह राशि देकर संसार में सद्ज्ञान के विस्तार का विवेकपूर्ण मार्ग अपनाया ।    

दाई का तलाब- माँ के दूध नहीं उतरता था, सो धाय रखी गई । धाय ने बच्चों को दूध ही नहीं पिलाया, मां की ममता भी दी और मां की सी तत्परता लगन व सूझबूझ से उसका निर्माण भी किया । सगी मां ने धाय मां का यह आत्मभाव देखा, तो उसे वचन दिया- '' बच्चे कीं पहली कमाई पर तुम्हारा अधिकार होगा। '' बच्चा बड़ा होकर संस्कृत का प्रकांड विद्वान बना । शंकर मिश्र नामक इस पंडित की प्रथम काव्य रचना पर दरभंगा नरेन्द्र ने लाखों रुपए कीमत का हार पुरस्कार में दिया । बेटे ने हार मां को और मां ने प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहकर वह धाय मां को दिया । वह इतने मूल्यवान हार का क्या करती? उसे अपना पारिश्रमिक तो मिल ही गया था, सो उस धन से उसने जनहित के लिए, जल कष्ट निवारणार्थ एक तालाब बनवा दिया, जो आज भी दाई के तालाब के नाम से पुकारा जाता है । 

सम्पत्ति संस्था को सौंपी- जम्मू कश्मीर के महाराजा हरिसिंह जी को आर्य विद्वान श्री मेहरचंद्र महाजन महत्वपूर्ण परामर्श देते रहते थे । उन्हीं की सलाह पर महाराज हरिसिंह ने समय पर भारतीय गणतंत्र में सम्मिलित को सौंपी होने का निर्णय लेकर कबायलियों के आक्रमण से राज्य को नष्ट होने से बचा लिया था । महाराज उनके सत्परामर्शों का आभार सदैव मानते रहे।' 

महाराजा की एक करोड़ से अधिक की व्यक्तिगत संपत्ति थी । उसे उन्होंने संतान को सौंपने की अपेक्षा सत्प्रयोजनो में लगाने का निर्णय किया । अपनी वसीयत में संपत्ति का ट्रस्टी उन्होंने महाजन जी को बनाना चाहा । महाजन जी ने सुना, तो कहा- '' महाराज ! आप न रहेंगे, तो मैं ही कौन सा सदा रहने वाला हूँ । अच्छा हो, आप अपनी संपत्ति का ट्रस्टी डी. ए. व्ही. कॉलेज मैनेजिंग कमेटी को बनाएं । जब तक मैं उसका प्रधान हूँ, देखरेख करूँगा । मेरे बाद भी कोई उपयुक्त व्यक्ति उसे सँभाले रहेगा । अपनी व्यक्तिगत संपत्ति अपने बेटे या किसी व्यक्ति को न सौंपकर एक आदर्श संस्था को सौंप गए ।' 

मोह न मुक्ति दिलाएँ-  

राजा चित्रकेतु का इकलौता बेटा मर गया । सारा परिवार रुदन करने लगा । इतने में नारद जी उधर से आ निकले । उनने कहा- '' मरे को जिंदा करना तो मेरे हाथ में नहीं, पर उस आत्मा से  तुम लोगों का वार्तालाप करा सकता हूँ । '' 

पुत्र की आत्मा को बुलाया गया । उसने नारद से पूछा-  '' ये रोने वाले कौन हैं ?'' नारद ने कहा- '' तुम्हारे माता- पिता । '' 

पुत्र की आत्मा हँस पड़ी । उसने कहा- '' मैं आत्मा हूँ । आत्मा का कोई माता- पिता नहीं होता । संबंध शरीर तक सीमित है, सो वह इसके साथ पड़ा हे । इनसे कहो, कि काया को सडाएं नहीं । इसकी अंत्येष्टि करें । विवेक द्वारा शोक से पीछा छुड़ाएं । इसी में इनका भी हित है व मेरा भी ।

हीरालाल जी का श्राद्ध-  मिर्जापुर के लाला मनसुखराम के परिवार में बालक तो ढेरों हुए, पर वे जवानी आने के पूर्व ही मर गए । एक पुत्र पुरुषोत्तम के २४ बच्चे हुए, पर जिए अकेले हीरालाल ही । अंत में एक पोता और पालने वाली दादी रह गई । राममनोहर लोहिया इसी परिवार के थे । हीरालाल पर परिवार के इन मृत्युओं से वैराग्य का आवेश आया । उनने कारोबार बंद कर दिया और संत बाबा होने की अपेक्षा सच्चे मन से कांग्रेस के सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेने लगे । कई बार जेल गए और संचित संपदा को राष्ट्रीय कार्यों में लगाकर सच्चे वैरागी सिद्ध हुए । वस्तुतः उनने व उनके बाद उनके पोते राम मनोहर लोहिया ने स्वयं को लोकमंगल की प्रवृत्तियों में लगाकर सच्चे अर्थों में पितरों के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति की, उन्हें मुक्ति दिलाई । 

खटमलों के लिए सदावर्त- कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जो अपने धन का सदुपयोग हो, इसके स्थान पर अपनी परलोक में दुर्गति करने का सरंजाम खुद खड़ा कर जाते हैं । एक धनी के पास बहुत धन था । पर संतान न थी । दूरदृष्टि की भी कमी थी । मरने का समय निकट आया, तो चारपाई पर खटमल दीखे । उन्हीं को उनने अपना निकटवर्ती स्वजन माना । खटमलों की रक्षा के लिए अपनी संपत्ति का ट्रस्ट बना दिया । घर में बहुत सी चारपाइयां बिछा दी गई, जिसमें ढेरों खटमल थे । पांच रुपया मजूरी देकर चारपाइयों पर सोने के लिए आदमी बुलाए जाते । दान का धन उसी में खर्च होता । आज के दानी निठल्ले खटमलों के लिए सदावर्त लगाते, कुटिया बनाते है । यह नहीं सोचते कि जो इन सुविधाओं का उपयोग करते हैं, उनसे उनका या समाज का क्या हित होता है? उनसे तो आलस्य और दुर्गुण ही फैलते है ।

विभूतियों का सदुपयोग सीखो-  एक शिष्य ने गुरु से पूछा-  '' गुरुवर ! संसार में किस ढंग से रहना चाहिए ?'' गुरु ज्ञानी थे, बोले-  ''अच्छा प्रश्न किया है, एक दो दिन में व्यवहार सिद्ध उत्तर दूँगा । '' 

दुसरे दिन एक श्रद्धालु मेवा- मिठाइयां लाए और संत को भेंट की। संत ने उन्हें लिया और पीठ फेरकर सब खा गए । न किसी को दिया न भेंट करने वाले की ओर कोई ध्यान दिया । जब वह चला गया तो शिष्य से पूछा- ''क्यों, उस पर क्या प्रतिक्रिया हुई ?'' शिष्य ने बतलाया-  '' दु:खी होकर भला- बुरा कहता गया है । कहता था ऐसा भी क्या संत । सब खा गया । न मुझे पूछा, न किसी और को । '' दूसरा व्यक्ति भेंट लाया । संत ने भेंट उठाकर पीछे पूरे पर फेंक दी और लाने वाले से बड़े प्यार से बात करते रहे । कुशल पूछी परामर्श दिए। बाद में पता चला वह व्यक्ति भी कुद्ध दु:खी होकर गया । कहता था- अजीब संत है, मुझ से इतना प्यार जताया, मेरी भेंट का अपमान कर दिया । 

तीसरा व्यक्ति भेंट लाया । संत ने उसे आदर से लिया । कुछ खुद खाया, उसे प्रसाद दिया और अन्यों को भी वितरित करवा दिया । भेंट देने वाले से स्रेहपूर्वक चर्चा भी की । शिष्य ने सूचना दी कि यह व्यक्ति प्रसन्न होकर सराहना करता हुआ गया । गुरु बोले-  ''बस बेटे । तीन तरह के व्यवहार में यही ढंग ठीक लगता है । दाता, भगवान बड़ी भावना से हमें विभूतियाँ देता है । हम उन्हें तो भोगते हैं, दाता की ओर ध्यान नहीं देते, यह पहला व्यवहार हुआ ।। दूसरा व्यवहार यह है कि उसकी दी विभूतियों को त्याज्य कहकर फेंक दिया और उसकी स्तुतियाँ खूब करते रहे । तीसरा व्यवहार यह है  कि दाता का उपकार मानते हुए उसकी दी विभूतियों को सही ढंग से इस्तेमाल करे । उनसे परमार्थ करे और दाता के साथ भी स्नेह संबंध बनाकर रखे ।' जीवन जीने का यही ढंग ठीक है । 

मरतों का अहंकार- सारी संपदा अपनी है, इस पर किसी का हक नहीं, ऐसा तुच्छ चिंतन करने वालों को अंततः पछतावा ही हाथ लगता है ।  

समुन्द्र से जल भर कर वापस लौट रहे मरुत देवों को विंध्याचल शिखर ने बीच में ही रोक दिया । मरुत विंध्याचल के इस कृत्य पर बड़े कुपित हुए और युद्ध ठानने को तैयार हो गए । विंध्याचल ने बड़े सौम्य भाव से कहा-  '' महाभाग ! हम आपसे युद्ध करना नहीं चाहते, हमारी तो एक ही अभिलाषा है कि आप यह जो जल लिए जा रहे हैं, वह आपको जिस उदारता के साथ मिला है, आप इसे प्यासी धरती को भी पिलाते चलें, तो कितना अच्छा हो ।'' 

मरुतों को अपने अपमान की पड़ी थी, तो वे शिखर से भिड़ ही तो गए, पर जितना युद्ध किया उन्होंने, उतना ही उनका बल क्षीण हो गया और धरती का जल धरती को अपने आप मिल गया । 

श्रद्धाभिव्यक्तितृप्तास्ते पितरोऽपि परोक्षतः । 
उच्यते कुर्वते नॄणां कुलस्थानां सहायताम्  ।। ७३ ।। 
निराशा ये समुद्विग्ना: खिन्ना रुष्टास्तथैव च ।
असन्तुष्टा: कुलस्यैवाऽहितं तेन भवत्यलम् ।। ७४ ।। 
दृष्ट्याऽनिवार्यैषा श्राद्धस्यात्नोपयोगिता । 
सत्कर्मनिरता या च सन्ततिस्तस्य कर्मणाम् ।। ७५ ।। 
एकोंऽश प्राप्यते तस्य पूर्वजैरपि निश्चितम् । 
संतुष्टा: सुखिनस्ते च निवसन्ति ददत्यपि ।। ७६ ।। 
अंशदानं पिण्डदानं प्राप्य चाशिषमुत्तमम् । 
कुकर्मणा च  पापेन जायते पितृदुर्राति:  ।। ७७ ।। 
पुण्याणामिव पापानां भागिनस्ते भवन्त्यपि । 
दायित्वं सृजनस्यात्र प्रत्येकं भजते नर: ।। ७८ ।।  

भावार्थ- कहा जाता है कि श्रद्धाभिव्यक्ति से तृप्त हुए पितर अपने वंशधरों की परोक्ष सहायताएं करते रहते हैं और जो निराश- उद्विग्न हैं, वे खिन्न रुष्ट एवं असंतुष्ट रहते हैं । उनका वह असंतोष परिवार का अहित करता है । इस दृष्टि से भी श्राद्ध की उपयोगिता- आवश्यकता मानी गईं है । सत्कर्मरत सन्तति के शुभकर्मो का एक भाग पूर्वजों को मिलता है । इसलिए वे संतुष्ट सुखी रहते हैं और पिंडदान- अंशदान पाकर मनभावन आशीर्वाद देते हैं । इसी प्रकार कुकर्मी संतान के पाप कर्मों से उनके उत्पादनकर्त्ता पूर्वजों की दुर्गति भी होती है । वे पुण्य की तरह पाप के भी भागीदार बनते हैं । सृजन कृत्यों का उत्तरदायित्व हर किसी को ओढ़ना पड़ता है।।  

व्याख्या- यहाँ ऋषिवर कहते हैं कि पितरों को सच्ची श्रद्धा दी जाएगी, उन्हें तृप्त जाएगा, तो वे निश्च्य ही शक्ति प्रकाश मार्गदर्शन, प्रेरणा, सहयोग एवं भावात्मक अनुदान देंगे। मरण समय में विक्षुब्ध मनःस्थिति लेकर मरने वाले अक्सर भूत- प्रेत की योनि भुगतते हैं । स्वार्थी अपनी अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के लिए उस प्रकार के घटनाक्रमों के इर्द- गिर्द मँडराते रहते हैं और शरीर न होने पर भी वे इच्छित स्वभाव के अनुरूप जहाँ वातावरण दीखता है, वहाँ पहुँचते हैं। जिनसे अपनी मित्रता या शत्रुता रही है, उन्हें लाभ- हानि पहुँचाने का भी जो कुछ प्रयास बन पड़ता है, उसे करते रहते हैं । इन्हें प्रेत स्तर का कहा जाता है । परमार्थ परायण आत्माएं कष्ट पीड़ितों की सहायता करने जा पहुँचती हैं और 'अदृश्य सहायकों' की भूमिका निभाती हैं । किन्हीं को प्रेरणा देकर उनके शरीरों से वह काम करा लेती हैं, जिसे करने के लिए उनकी परमार्थ भावना उमड़ती है । इन अशरीरी दिव्य योनियों के चार वर्ग हैं- 

(१) पितर, (२) मुक्त, (३) देव और (४) प्रजापति । वे सद्भाव संपन्न दिव्य आत्माएं अपनी सीमा मर्यादा के अनुरूप अपनी सामर्थ्य का उपयुक्त अवसर पर प्रयोग भी करते हैं और सृष्टि संतुलन बनाए रखने में भूमिका का निर्वाह भी करते हैं । ये आत्माएं शांति और सुरक्षा के सदुद्देश्य से लेकर जीवन भर संबंधित व्यक्तियों को सहायता देती, परिस्थितियों को सँभालती तथा प्रिय वस्तुओं की सुरक्षा के लिए अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं । पितृवत् स्रेह, दुलार और सहयोग देना भर उनका कार्य होता है । 
पितर ऐसी उच्च आत्माएं होती हैं, जो मरण और जन्म के बीच की अवधि को प्रेत बनकर गुजारती हैं और अपने उस स्वभाव के संस्कार के कारण दूसरों की यथासंभव सहायता करती रहती हैं । इनमें मनुष्यों की अपेक्षा शक्ति अधिक होती है । सूक्ष्म जगत से संबंध होने के कारण उनकी जानकारियाँ भी अधिक होती हैं । उनका जिनसे संबंध हो जाता है, उन्हें कई प्रकार की सहायता पहुँचाती हैं । भविष्य ज्ञान होने से वे संबद्ध लोगों को सतर्क भी करती हैं तथा कई प्रकार की कठिनाइयों को दूर करने एवं सफलताओं के लिए सहायता करने का भी प्रयत्न करती हैं । ऐसी दिव्य प्रेतात्माएं अर्थात् पितर सदाशयी, सद्भाव संपन्न और सहानुभूति पूर्ण होती हैं । वे कुमार्गगामिता से असंतुष्ट होती तथा सन्मार्ग पर चलने वालों पर प्रसन्न रहती हैं । पितरों के भी अनेक स्तर हैं और उसी के अनुरूप वे सहायता करते हैं ।

शास्त्र मत- योग वाशिष्ठ में बताया गया है कि मृत्यु के उपरांत प्रेत योनि मरे हुए जीव अपने बंधु- बांधवों के पिंडदान योगवाशिष्ठ के अनुसार, मरने के समय प्रत्येक जीव मूर्छा का अनुभव करता है ।वह मूर्छा महाप्रलय की रात्रि के समान होती है ।। उसके उपरांत प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही अपने स्वप्न एवं संकल्प, के अनुसार अपने परलोक की सृष्टि करता है, यही बात इन श्लोकों में कही गई है- 

मरणादिमयी मूर्छा प्रत्येके नानुभूयते । यैका तां विद्धि समते महाप्रलययामिनीम् ।।
तदन्ते तनुते सर्ग सर्वं एव पृथक्- पृथक् । सहज स्वप्नसंकल्पान्संभ्रमाचल नृत्यवत् ।।
इसी संदर्भ में आगे बताया गया है कि- 

स्ववासनानुसारेण प्रेता एतां व्यवस्थितम् । मूर्च्छान्तेऽनुभवन्त्यन्त: क्रमेणैवाक्रमेण  च ।।

अर्थात् प्रेत अपनी अपनी वासना के अनुसार ही भावनात्मक उतार- चढ़ावों का अनुभव करते हैं । मरे हुए व्यक्ति की प्रेतावस्था में जिन लोगों से आसक्ति जुड़ी रहती है, उनकी भाव संवेदनाएँ और उनकी परिस्थितियाँ, मन: स्थितियाँ प्रेतों को तीव्रता से प्रभावित करती हैं । पिंडदान और श्राद्ध कर्म का महत्व यही है कि उन क्रियाओं के साथ साथ जो भावनाएँ जुड़ी होती है वे प्रेतों-पितरों को स्पर्श करती हैं । इसी प्रकार पितरों के संस्कारों के अनुपम अपने प्रियपात्रों की स्थितियाँ उन्हें आंदोलित करती हैं । 

योगवाशिष्ठ में बताया गया है कि मृत्यु के उपरांत प्रेत योनि मरे हुए जीव अपने बंधु- बांधवों के पिंडदान द्वारा ही अपना शरीर बना हुआ अनुभव करते है- 
आदौ मृता वयमिति बुध्यन्ते तदनुक्रमात् । बंधु पिण्डादिदानेन प्रोत्पत्रा इव वेदिन: ।।

अर्थात् प्रेत अपनी स्थिति को इस प्रकार अनुभव करते है कि हम मर गए हैं और अब बंधुओं के पिंडदान से इमाम नया शरीर बना है । स्पष्ट है कि यह अनुभूति भावात्मक ही होती है । अत:  पिंडदान का वास्तविक महत्व उससे जुड़ी भावनाओं के ही कारण होता है । जिसके प्रति आत्मीयता होती है, उसके भावात्मक अनुदान से प्रेत प्रभावित होता है । क्योंकि मरणोत्तर जीवन की अनुभूतियाँ वासना और संस्कारों के प्रभाव की ही प्रतिच्छाया होती हैं । इसलिए जिससे आत्मीयता का संस्कार अंकित हो, उसकी भावनाएं परलोकस्थ जीव को प्रभावित करती हैं । गीता के ८वें अध्याय में कहा गया है-  '' हे अर्जुन ! जो अंत समय में जिन भावों का स्मरण करता हुआ देह छोड़ता है, उन्हीं भावों से अनुप्राणित होकर वैसा ही नया शरीर, नया व्यक्तित्व प्राप्त करता है । '' 

संन्यासी से इसीलिए संन्यास लेते समय उसके श्राद्ध संस्कार भी उसी के द्वारा करा दिए जाते हैं कि उसकी कोई भी आकांक्षा- आसक्ति सूक्ष्म रूप में भी शेष न रहे ।  

दिव्य शक्तियों का सान्निध्य मार्गदर्शन - महर्षि अरविंद के संबंध में यह प्रसिद्ध है कि वे जब अलीपुर जेल में थे, तब दो सप्ताह तक लगातार विवेकानंद की आत्मा ने उनसे संपर्क किया था। स्वयं अरविंद ने लिखा है, '' जेल में मुझे दो सप्ताह तक कई बार विवेकानंद की आत्मा उद्बोधित करती रही और मुझे उनकी उपस्थिति का भान होता रहा । उस उद्बोधन से मुझे आध्यात्मिक  अनुभूति हुई । भावी साधनाक्रम हेतु महत्वपूर्ण निर्देश भी मिले ।'' 

सन् ११०१ में जब अरविंद प्रेतात्माओं के संपर्क का अभ्यास किया करते थे, इस अभ्यास में एक बार रामकृष्ण परमहंस की आत्मा ने भी अरविंद को समष्टि की साधना हेतु कुछ आवश्यक निर्देश दिए थे । अरविंद जिन दिनों बड़ौदा में रह रहे थे, उन दिनों का एक अनुभव बताते हुए उन्होंने लिखा है कि एक बार जब वे कैम्प रोड शहर की ओर जा रहे थे तब एक दुर्घटना से किसी ज्योति पुरुष ने उन्हें बचाया । 

श्री अरविंद के जीवन चरित्र के श्री मां प्रकरण में इस प्रकार की घटनाओं का विवरण देते हुए लिखा गया है, वे ( श्रीमां) जब छोटी सी बालिका थीं, तब उन्हें बराबर भान होता रहता था कि उनके पीछे कोई अति मानवी शक्ति है, जो उनके शरीर में प्रवेश कर जाती है और तब वे बड़े बड़े अलौकिक कार्य किया करतीं । इस प्रकरण में उस दिव्य शक्ति द्वारा श्रीमां के कई काम संपन्न करने की अनेक घटनाएं वर्णित हैं । पांडिच्चेरी आकर रहने व अरविंद से संपर्क करने का निर्देश भी उन्हें एक अदृश्य ज्योति सत्ता से ही मिला था ।

तुलसीदास जी की सहायता- गोस्वामी तुलसीदास जी को पितर सत्ता ने ही श्री हनुमान और भगवान राम के दिव्य दर्शनों की विधि सुझाई थी और उन्हें एक अनाथ भावनाशील बालक से एक भक्त महाकवि और संत बन जाने में विशेष भूमिका निभाई थी।

रणभूमि में प्रत्यक्ष सहायता मार्गदर्शन

समय समय पर अदृश्य आत्माओं द्वारा सहायता के प्रसंग सुनने को मिलते हैं । घटना जम्मू- कश्मीर की है । सन् ११६५ में जब पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया था । १३ सिपाहियों की एक छोटी सी टुकड़ी पहाड़ियों के उस वियावान युद्धस्थल में घनघोर अंधेरी रात और भयानक शीत लहरी में एक तंबू के अंदर अंगीठी जलाए आंच ले रही थी । तभी वायरलेस पर कमांडर का हुक्म आता है कि अपनी उत्तर वाली चौकी की सहायता के लिए तुरंत प्रस्थान करो । चौकी वहाँ से १५ मील दूर थी । सबेरा होने से पहले ही वहाँ पहुँचना था । सबेरा होने पर दुश्मन देख सकता था, मार सकता था, अतएव कैसी भी कठिनाई में सबेरा होने तक चौकी पर पहुँचना आवश्यक था ।अतएव वहाँ से वे उसी प्रकार तत्परतापूर्वक आगे बढे़, जिस तरह मृत्यु को कभी न भूलने वाले योगी मनुष्य जीवन अस्त- व्यस्त तरीके से नहीं, व्यवस्थित, अनुशासनपूर्वक और तत्परता से जीते हैं । 

रणबाँकुरों की वह छोटी सी टुकड़ी अपने अस्त्र संभाले नक्शे के सहारे आगे बढ़ रही थी । वायरलेस से कमांड पोस्ट का संबंध बना हुआ था । संवादों का आदान- प्रदान भी ठीक ठीक चल रहा था कि एकाएक ऐसा स्थान आ पहुँचा था जहाँ  से आगे बढ़ना नितांत कठिन हो गया । सारा स्थान बर्फ से ढक गया था । युद्ध में सैनिक नक्शो में नदी, नाले, टीले, वृक्ष आदि संकेतों के सहारे बढ़ते है, पर बर्फ ने पृथ्वी के सभी निशान मिटा डाले थे ।। नदी- झरने सब जम चुके थे । पेड- पौधे तक बर्फ से ढके थे, ऐसी स्थिति में आगे बढ़ना मुश्किल हो गया । सभी सैनिक निस्तब्ध खड़े रह गए, सोच नहीं पा रहे थे, क्या किया जाये?

अभी सैनिक इस चिंता में ही थे कि अब किस दिशा में कैसे बढ़ा जाए कि किसी की पदध्वनि सुनाई दी ।

अब तक आकाश में चंद्रमा निकल आया ।। आशंका से भरे सैनिकों ने देखा, सामने एक ऑफिसर खड़ा है । कंधे पर दो स्टार देखने से लगता था, वह लेफ्टीनेंट है । देखते ही सैनिकों ने उन्हें सैल्यूट किया । सैल्यूट का उत्तर सैल्यूट से ही देकर वे बोले-  ''देखो, आगे का रास्ता भयानक है, तुम लोगों को कुछ मालूम नहीं है । चौकी दूर है सबेरा होने में कुल चार घंटे बाकी हैं, इसलिए बिना देर किए तुम मेरे पीछे चले आओ । यह कहकर वे पीछे मुड़े, सैनिकों ने देखा लेफ्टीनेंट साहब की कमीज में पीठ पर गोल निशान हैं, लगता था उतना अंश जल गया था । 

बिना किसी नक्शे के सहारे लेफ्टीनेंट साहब आगे आगे ऐसे बढ़ते जाते थे, मानो वह सारा क्षेत्र उनका अच्छी तरह घूमा हुआ हो । सिपाहियों की आशंका, परेशानी और उदासी को दूर करते कमांडर ने बताया-  '' मेरी पीठ पर यह निशान जो तुम देख रहे हो, वह कल की गोलाबारी का है, हम लोग हमले की तैयारी में थे, तभी पाकिस्तानी सेना ने गोलाबारी शुरू कर दी । सब लोग जमीन पर लेट गए, तभी एक बम वहाँ 'आकर फटा । उसी का एक टुकड़ा मेरी पीठ पर गिरा और कमीज जल गई । 

बातचीत करते करते रास्ता कट गया और रात भी । जिस चौकी पर पहुँचना था, वह कुछ ही फर्लांग पर सामने दिखाई दे रही थी, ऑफिसर रुका, उसके साथ ही सभी सिपाही भी रुक गए, उसने पीछे मुड़कर कहा- '' देखो अब तुम लोग अपने स्थान पर आ गए, अब तुम लोग जाओ, हम यहाँ से आगे नहीं जा सकते । सैनिकों ने सैल्यूट किया और आगे की ओर चल पड़े । ऑफिसर ने सलामी ली पर आगे नहीं बढ़ा । सैनिको ने दस गज आगे जाकर पीछे की ओर उत्सुकतापूर्वक देखा कि साहब किधर जा रहे हैं, किंतु वे चकित थे कि वहाँ न तो कोई साहब था और न ही कोई व्यक्ति । दूर दूर तक दृष्टि दौड़ाई, पर कहीं कोई दिखाई न दिया । 

सिपाही चौकी पर पहुँचे, जहाँ कमांडर उनकी प्रतीक्षा कर रहा था । रात में वायरलेस संपर्क टूट गया था । सैनिक कमांडर ने आते पूछा- '' तुम लोग इस बीहड़ मार्ग में इतनी जल्दी कैसे आ गए। तो उन्होंने बताया कि एक लेफ्टीनेंट उन्हें यहाँ तक लेकर आए, वे एक फर्लांग पहले' कहीं अदृश्य हो गए ।” '' लेफ्टीनेंट !'' -उन्होंने आश्चर्यपूर्वक कहा- '' यहाँ  तो  कोई लेफ्टीनेंट नहीं, तुमको जिस व्यक्ति ने रास्ता दिखाया उसका हुलिया क्या था ?” सिपाहियों ने हुलिया बताया, कमांडर आश्चर्यचकित रह गया, उनका कथन सुनकर, क्योंकि जिस लेफ्टीनेंट के बारे में उन्होंने बताया, उनकी मृत्यु उसी स्थान पर एक ही दिन पहले गोला लगने से हो गई थी ।   

सैन्ट जार्ज की आत्मा ने मोन्स की लड़ाई जीती-

 सच्ची श्रद्धा और भक्ति भावना के साथ पितरों का स्मरण किया जाय, तो वे अशरीरी किंतु -अतिसमर्थ सत्ताएं निश्चय ही सत्प्रयोजनों में मदद के लिए आगे आ जाती हैं। इस संदर्भ में द्वितीय महायुद्ध की एक घटना विलक्षण प्रमाण है। इस युद्ध शृंखला में मोन्स लड़ाई का यह प्रामाणिक और सुरक्षित युद्ध दस्तावेज विद्यमान है - 

इस युद्ध में ब्रिटिश सेना बुरी तरह मारी काटी गई । कुल ५०० सैनिक शेष रहे थे । जर्मन सेनाएं उन्हें भी काट डालने की तैयारी में थीं,। उनकी संख्या उस समय दस हजार थी। ब्रिटिश सैनिक में से एक सिपाही ने कभी सेंट जार्ज की तस्वीर एक होटल में देखी थी । यह तस्वीर एक प्लेट में कढ़ी थी और उसके नीचे लिखा था- '' सेंट जार्ज इंग्लैंड की सहायता करने को उपस्थित हों ।'' वह कभी इंग्लैंड के प्रख्यात सेनापति थे और अपने कई हजार सैनिकों के साथ युद्ध में मारे गए थे । उनकी याद आते ही सैनिकों ने अपनी संपूर्ण भावना और आत्मशक्ति से सेंट जार्ज का 'स्मरण किया और दूसरे क्षण स्थिति कुछ और ही थी । बिजली सी कौंधी और सैनिकों के पीछे कई श्वेत वस्त्रधारी सैनिकों की सी आभा दिखाई देने लगी । दूसरे ही क्षण दस हजार सेना मैदान में मरी पड़ी थी । रहस्य तो यह था कि किसी भी सैनिक के शरीर में किसी भी अस्त्र का कोई चोट या घाव तक नहीं था । इस घटना ने इंग्लैंड में एक बार तहलका मचा दिया कि सचमुच मृत्यु के उपरांत आत्मा का अस्तित्व नष्ट नहीं होता, वरन् रूपांतर होता है और यह आत्माएं अदृश्य होते हुए भी स्थूल सहायताएं पहुँचा सकती हैं । 

गोकर्ण और धुंधकारी

गोकर्ण और धुंधकारी नामक दो भाई थे । गोकर्ण जितना सज्जन था, उतना ही धुंधकारी दुष्ट था । वह आए दिन कुछ न कुछ कुकृत्य किया करता था । इसलिए रुग्ण और उद्विग्न होकर भरी जवानी मे मर भी गया। उसे प्रेत योनि मिली । उस अवस्था में भी सूक्ष्म शरीर से वह त्रास पाता और त्रास देता रहता था । 

दूसरे भाई गोकर्ण ने उस प्रेत की शांति एवं सद्गति के निमित्त कथा सत्संग का आयोजन किया । पाठ कीर्तन, हवन आदि धर्मकृत्य कराए । तीर्थयात्रा की । सत्प्रयोजनों के लिए दान- पुण्य किया । इस प्रकार के श्राद्ध का पुण्य उस अशांत आत्मा के लिए समर्पित किया गया । इन उपायों से उनकी प्रेत योनि छूटी और सद्गति को प्राप्त हुआ । उस गोकर्ण के इन प्रयत्नों के लिए कृतज्ञता व्यक्त की और भावी जीवन को श्रेष्ठ सत्कर्मो में लगाने की प्रतिज्ञा से उपस्थित जनों को अवगत कराया । 

प्रत्यक्ष और परोक्ष साधन- राम ने पूछा

'' गुरुदेव क्या कोई ऐसा भी प्राणी है, जो काकभुशुंडि से अधिक जिया हो और जिसे आगे भी जीना और साधनारत रहना पड़ेगा।'' 

वशिष्ठ ने कहा- ''राम ! एक विद्याधर ऐसा है, जो चार कल्प से भी अधिक समय से जीवित है । उसने तप और योगाभ्यास तो बहुत किए है, पर हेय कामनाओं से छुटकारा पाने की उपेक्षा करता रहा । उसने प्रत्यक्ष का महत्त्व समझा और अप्रत्यक्ष को निरर्थक मानता रहा । मन को शुद्ध किए बिना कोई आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान का अधिकारी नहीं बनता । भले ही वह कितने ही कल्पों तक कर्मकांड करता रहे । वह प्रेत योनि में ही भटकता रहेगा ।'' राम का असमंजस दूर हो गया । 

ममता भरा मार्गदर्शन- श्री लेंडवीटर ने अपनी पुस्तक ''इनविजिबुल हेल्पर्स'' में लंदन के पादरी डॉ० जान मेसन नील का एक संस्मरण बताया कि एक महिला अपने दो बच्चे छोड़कर मर गई । कुछ दिनों बाद उसका पति बच्चों के साथ अपने एक मित्र के घर घूमने गया । दोनों दोस्त गपशप में मशगूल हो गए । बच्चे खेलने लगे ।

खेलते खेलते बच्चे उस मकान के एक उपेक्षित कोने की सीढ़ियों पर जा पहुँचे । वे सीढ़ियाँ तहखाने को जाती थीं । बच्चे नीचे उतर रहे थे, तभी उन्हें उनकी मां आती दीखीं । मां ने उनसे कहा कि ''वहाँ नहीं जाओ। चलो, ऊपर चलो ।'' मां की बात सुनकर वे बच्चे लौटकर ऊपर आए, तब तक उन दोनों मित्रों का ध्यान इस बात की ओर जा चुका था । बच्चों के पिता के मित्र घबड़ा उठे कि मित्र के बच्चे कहीं तहखाने की तरफ तो नहीं गए । वे लोग उधर लपके तो बच्चे सीढ़ियों पर मिले । तहखाने में एक पुराना कुँआ था । सीढ़ियाँ उसी तक जाती थीं । बच्चे उसमें उतरते चले जाते, तो कुएँ में गिर सकते थे और तब प्राण गँवा बैठते । इसलिए मित्र घबड़ाते, हुए दौड़ से पड़े । बच्चों ने बताया कि ''अभी अभी मां मिली थीं । उसी ने ऊपर आने को कहा था फिर जाने कहाँ चल दी । '' 

नैपोलियन के पितर- नैपोलियन बोनापार्ट जिन दिनों सेंट हेलेना द्वीप में था, उसे एक पितर सत्ता ने उसकी मृत्यु की सूचना दी थी, जिसे उसके साथियों ने अमान्य कर दिया था । पर अंत में नैपोलियन की मृत्यु ठीक उसी दिन उन्हीं परिस्थितियों में हुई, जो प्रेत ने बताई थी । संभवतः  उस पितर का बोनापार्ट के प्रति विशेष- लगाव था । 

ब्लैवटस्की की पितर मंडली-  थियोसोफिकल सोसाइटी की जन्मदात्री मैडम ब्लैवटस्की को चार वर्ष की आयु से ही पितर आत्माओं का सहयोग- सान्निध्य प्राप्त होने लगा । वे अचानक आवेश में आकर ऐसी तथ्यपूर्ण  बाते कहतीं, जिन्हें कह सकना किन्हीं विशेषज्ञों के लिए ही संभव था । परिवार के लोग पहले तो उन्हें विक्षिप्त समझने लगे, पर जब उनके साथ देवात्माओं के प्रत्यक्ष संपर्क के प्रमाण देखने लगे, तो उनकी विशेषता स्वीकार करनी पड़ी ।एक बार एक प्रेतात्मा ने उसके शरीर के कपड़े ही मजाक में बिस्तर के साथ सी दिए । दूसरे लोगों ने जब वह सिलाई उधेड़ी तभी वे उठ सकीं । एक बार कर्नल हैनरी आल्काट उनसे मिलने आए, तो वे सिलाई की मशीन से तौलिए सी रही थीं और कुर्सी पर पैर पटक रही थीं । आल्काट ने पैर पीटने का कारण पूछा, तो उनने कहा- '' एक छोटा, प्रेतात्मा बार बार मेरे कपड़े खींचता है और कहता है कि मुझे भी कुछ काम दे दो ।'' कर्नल ने उसी मजाक में उत्तर दिया कि उसे कपड़े सीने का काम क्यों नहीं दे देतीं? ब्लैवेटस्की ने कपड़े समेट अलमारी में रख दिए और उनसे बातें करने लगी । बात समाप्त होने पर जब अलमारी खोली गई, तो सभी बिना सिले कपड़े सिले हुए तैयार रखे मैडम ब्लैवटस्की के कथनानुसार उनकी सहकारी मंडली में सात प्रेत थे, जो समय समय पर उन्हें उपयोगी परामर्श और मुक्तहस्त से सहायता करते थे । कर्नल आल्काट अमेरिका में अपने समय के अत्यंत सम्मानित नागरिक और प्रसिद्ध वकील थे, उन्होंने मैडम से प्रभावित होकर उनके अध्यात्म कार्य में सदा भरपूर सहयोग दिया । 

संत सुकरात का डेमन- 

महान् संत सुकरात के बारे में बताया जाता है कि प्रारंभिक जीवन में उन्हें धर्म- कर्म एवं अदृश्य जीवन पर कतई विश्वास नहीं था । एक दिन उन्हें एक प्रेत मिला । उसने अतीन्द्रियदर्शन की क्षमता उनमें विकसित करने हेतु भगवद् भजन का परामर्श दिया । शीघ्र ही सुकरात की यह क्षमता विकसित हो गई । प्रेत उन्हें आजीवन विशिष्ट मामलों में जानकारी व परामर्श देता रहा ।इससे सुकरात सहस्रों व्यक्तियों का कल्याण करते । उन्होंने बताया तो यह तथ्य अपने साथियों को भी, पर साथी- सहयोगी प्रेत को देख नहीं सकते थे, अत: वे सुकरात के भविष्य कथन आदि को उन्हीं की चमत्कारिक शक्ति मानने लगे । 

प्लेटो, जेनोफेन, प्लुटार्क आदि विद्वानों ने सुकरात के जीवन की प्रामाणिक घटनाओं पर प्रकाश डाला है । सभी ने स्वीकार किया है कि सुकरात ने अनेक बार यह कहा- ''मेरे भीतर एक रहस्यमय देवता '' डेमन '' निवास करता है और वह समय पर मुझे पूर्व सूचनाएँ दिया करता है । ''तथ्य की यथार्थता के अनेक, प्रमाण उद्धरण भी उपर्युक्त लेखकों ने प्रस्तुत किए है । सुकरात पर जब मुकदमा चला और प्राणदंड दिया जाने लगा, उस समय उसके पास ऐसे प्रमाण थे और साधन थे, जिनसे प्राणदंड से छुटकारा संभव था । ऐथेन्स की जेल से उसके मित्र एवं शिष्य भाग ले जाने हेतु पूर्ण तैयारी कर चुके थे । किंतु सुकरात ने न्यायालय में स्वीकार किया- अभी अभी मेरा देवता '' डेमन '' मेरे कानों में कहकर गया है कि मृत्युदंड मिलेगा, उससे डरने की कोई बात नहीं है, ऐसी मृत्यु मनुष्य के लिए ब्रेयस्कर होती है । 

डगलस होम व सहायक प्रेतात्माएँ- स्काटलैंड के सेंट कुर्री नामक गांव में एक बालक जन्मा डेनियल डगलस होम । पिता दरिद्र और बालक रोगी । बच्चे को चाची ने- पाला । चौदह वर्ष की उम्र तक वह ऐसे ही तरह तरह  की बीमारियों से ग्रसित रहकर ऐसे ही दिन काटता रहा । इसी बीच उसे यह अनुभव होता रहा, कोई प्रेतात्मा उनके साथ संबंध बनाती है और तरह तरह के संदेश पहुँचाती है । डरते डरते उसने वे संकेत अपने घरवालों और पड़ौसियों को बताए । पूर्व सूचनाएँ जब सही निकलीं, तो उनका विश्वास बढ़ता गया और अमुक समस्या का हल प्रेतात्माओं से पूछकर बताने के लिए उसका उपयोग किया जाने लगा । जो परामर्श मिलते उनमें से अधिकांश बहुत ही उपयोगी, महत्वपूर्ण और अप्रत्याशित होते थे ।  

जब भूत- प्रेत की बात अधिक फैली, तो चाची डर गई और उसने झंझट भरे होम को घर से निकाल दिया । वहाँ से वह इंग्लैंड चला गया । अपनी शारीरिक रुग्णता की चिकित्सा कराने के सिलसिले में उसका संपर्क डॉ० काक्स से हुआ । वे अध्यात्मवादी थे, उनने न केवल रुचिपूर्वक इलाज ही किया, वरन् लड़के की आत्मिक शक्ति को बढ़ाने में भी सहायता की, ताकि वह परलोक की आत्माओं से अधिक अच्छा संबंध बना सकने में समर्थ हो सके । इस साधना से उसे आश्चर्यजनक सफलता मिली । उसे प्रेतात्माओं का प्रामाणिक संदेशवाहक माना जाने लगा । इस संदर्भ में इंग्लैंड के उच्चकोटि के व्यक्ति उससे अपना समाधान कराने के लिए मिलने आए और संतुष्ट होकर लौटे । इन ख्यातिनामा लोगों में ''ईबिनिंग पोस्ट'' के संपादक कुलेन ब्रामेट, प्रख्यात उपन्यासकार मिलियम थेकर, प्रसिद्ध रसायन विज्ञानी सर कुक्स जैसे मूर्धन्य लोगों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । उसकी विलक्षण प्रतिभा के संबंध में पत्र-पत्रिकाओं में कितने ही लेख घटनाक्रम के विवरणों सहित प्रकाशित हुए । 

स्वर्गीय सम्राट नैपोलियन का एक संदेश लेकर वह २७ फरवरी १८६० को सम्राट से मिला । साम्राज्ञी युजीन तो उन अद्भुत किंतु यथार्थ संकेतों से इतनी प्रभावित हुई कि पुरस्कार में होम को लाखों रुपए के बहुमूल्य उपहार दे डाले । होम के पूर्वजन्म की पत्नी रूस में जन्मी थी । वह उसी से विवाह करना चाहता था । यह कठिन था, क्योंकि वह रूस के शाही जनरल क्रोल की इकलौती पुत्री थी । इतने प्रतिष्ठित और संपन्न पिता की सुशिक्षित पुत्री एक बीमार और प्रेत व्यवसाय का उपहासास्पद धंधा करने वाले के साथ कैसे ब्याही जा सकती थी, विशेषतया ऐसी दशा में जबकि दोनो एक दूसरे से परिचित भी न थे और सुदूर देशों में रहते थे । यह कठिन कार्य काउण्ट आफ मांट क्रिसी के प्रसिद्ध उपन्यासकार डयूमा ने अपने कंधों पर लिया । उनने संदेशवाहक की सफल भूमिका निबाही और अंततः ८ अगस्त १८६० को दोनों का विवाह हो गया । दोनों ने मिलकर प्रेतात्मा विद्या के शोध कार्य की और भी आगे बढ़ाया । 

होम २१ जून १८८९ को मरा । इससे पूर्व वह अपने प्रेतात्माओं के अनुभव संदर्भ में एक खोजपूर्ण पुस्तक प्रकाशित करा चुका था- 'लाइट्स एण्ड शैडोज आफ स्प्रिचुअलिज्म' । इस पुस्तक की भारी खपत हुई थी और होम को अच्छी कमाई हुई थी । मृत्यु के समय उसकी पत्नी सिरहाने बैठी रो रही थी । होम ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा- '' पगली, मैं मर कहाँ रहा हूँ, शरीर छूट जाने पर मैं तेरे साथ बराबर संपर्क बनाए रहूँगा । आत्मा और कला कहीं 
मरा करती है ?'' 

डरो मत, संबंध नहीं टूटेगा

वस्तुतः  मृत्यु इसी प्रकार है, जैसे पके फल को प्रकृति उस पेड से उतार लेती है । इसलिए कि उसका परिपुष्ट बीज अन्यत्र उगे और नए वृक्ष के रूप में स्वतंत्र भूमिका संपादन करे । वृक्ष से अलग होते समय वियोग की, दुल्हन के पतिगृह में प्रवेश करने की तैयारी नहीं है । क्या बिछुड़न की व्यथा में मिलन की सुखद संवेदना छिपी नहीं होती? इन विदाई के क्षणों को दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य? मृत्यु को अभिशाप कहें या वरदान? इस निर्णय पर पहुँचने के लिए गहरे चिंतन की आवश्यकता पड़ेगी । 

मरण के कंधों पर बैठकर हम पड़ोस की हाट देखने भर जाते है और शाम तक फिर घर आ जाते है । मृत्यु के बाद भी हमें इसी नीले आसमान की चादर के नीचे रहना है । अपनी परिचित धूप और चांदनी से कभी वियोग नहीं हो सकता । जो हवा चिरकाल से गति देती रही है, उसका सान्निध्य पीछे भी मिलता रहेगा । दृश्य पदार्थ और संबंधी अदृश्य बन जाएंगे, इससे क्या हुआ? दृश्य भोजन उदरस्थ होकर अदृश्य ऊर्जा बन जाता है, इसमें घाटा क्या रहा? संबंधियों की सद्भावना और अपनी शुभेच्छा आदान- प्रदान जब बना ही रहने वाला है, तो संबंध टूटा कहां? इस परिवर्तन भरे विश्व में जीवन और मरण के विशाल समुद्र में हम सब प्राणी क्रीड़ा- कल्लोल कर रहे है । इस हास्य को रुदन क्यों माने? किसी संत ने सही कहा है- 

''श्मशान को देखकर कुड़कुडाओ मत । वह नव जीवन का उद्यान है । उसमें सोई आत्माएँ मधुर सपने सँजो रही हैं, ताकि विगत की अपेक्षा आगत को अधिक समुन्नत बना सकें, लोगों ! डरो मत !!यहाँ मरता कोई नहीं, सिर्फ बदलते भर है और परिवर्तन सदा से रुचिर माना जाता रहा । रुचिर के आगमन पर रुदन, क्यों?

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