प्रज्ञा पुराण भाग-4

।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-5

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उपासना च सर्वत्राऽनिवार्या सा श्रमेषु तु। 
आश्रमेषु चतुर्ष्वेव स्थानं तस्याः कृते  ध्रुवम् ।। ५२ ।।
महत्वपूर्णं स्यादेव युगेऽस्मिन् सुलभा तथा। 
उपयुक्ताऽस्ति च प्रज्ञायोगस्यैषा सु साधना  ।। ५३ ।। 
केवलेन न कार्य  तूपासनाविधिना भवेत्। 
स्वाध्यायसाधनासेवासंयमानां चतुर्विधा ।। ५४ ।। 
कार्यपद्धतिरुक्ताया तदा विश्वस्य चात्मनः। 
कल्याणरूपं यल्लक्ष्यं द्विष्ठं तत्पूर्णतां व्रजेत् ।। ५५ ।। 

भावार्थ- उपासना हर क्षेत्र में आवश्यक है। उसे चारों आश्रमों में समान स्थान और महत्त्व मिलना चाहिए। इसके लिए वर्तमान युग में प्रज्ञा योग की साधना सर्वसुलभ और सभी आश्रमों के लिए उपयुक्त है। 

उपासना अकेली से काम नहीं चलता। साधना स्वाध्याय संयम और सेवा की चतुर्विध कार्यपद्धति अपनाने से ही आत्मकल्याण और विश्वकल्याण का उभयपक्षीय जीवन लक्ष्य पूरा होता है ।। ५२ -५५ ।। 

व्याख्या - उपासना अंतःकरण की चिकित्सा है।नित्य प्रतिदिन छाते रहने वाले कुसंस्कार- कषाय- कल्मषों की महाव्याधि से छुटकारा पाने  हेतु यह एक अमोघ औषधि है। हर स्थिति में, चाहे व्यक्ति किसी भी आश्रम में हो उपासना का अवलंबन उसके लिए अनिवार्य है। इससे श्रेष्ठता के प्रति उच्चस्तरीय श्रद्धा का जागरण होता है जो कि हर वरिष्ठ देवमानव के लिए, जो सत्प्रवृत्ति विस्तार का भागीरथी पुरुषार्थ करने को उद्यत है, अनिवार्य है। 

उपासना अकेली ही पर्याप्त नहीं। आत्म पर्यवेक्षण एवं सुधार द्वारा अंतःकरण के परिमार्जन की साधना, चिंतन- चरित्र एवं व्यवहार में श्रेष्ठता के समावेश हेतु महामानवों की चरित्र- गाथाओं का स्वाध्याय, समय- विचार-वाणी  एवं इंद्रिय निग्रह की संयम प्रक्रिया एवं समाज परिकर में फैले विराट् ब्रह्म की आराधना- सेवा के रूप में चार गतिविधियों का समावेश भी साधना में होना चाहिए। यह मात्र व्यक्ति की आत्मिक प्रगति का प्रयोजन ही पूरा नहीं करते, अपितु इससे समष्टिगत परमार्थ का वह हित भी सधता है जिसके लिए मनुष्य ने जन्म लिया है। 

लकड़ी और अग्नि की समीपता का प्रतिफल प्रत्यक्ष है। गीली लकड़ी आग के समीप पहुँचते- पहुँचते अपनी नमी गँवाती और उस ऊर्जा से  अनुप्राणित होती चली जाती है। जब वह अति निकट पहुँचती है ,तो फिर आग और लकड़ी एक स्वरूप जैसे हो जाते हैं।साधक को भी ऐसा ही भाव समर्पण करके ईश्वरीय अनुशासन के साथ अपने आपको एक रूप बनाना पड़ता है। चंदन के समीप वाली झाड़ियों का सुगंधित हो जाना, स्वाति बूँद के संयोग से सीप में मोती पैदा होना, पारस छूकर लोहे का स्वर्ण बनना, नाले का गंगा में मिलकर गंगाजल बनना, पानी का दूध में मिलकर उसी भाव बिकवा, बूँद का समुद्र में मिलकर सुविस्तृत हो जाना जैसे अगणित उदाहरण हैं, जिनके आधार पर यह जाना जा सकता है कि भक्त और भगवान् की एकता- उपासना का स्तर क्या होना चाहिए। सृष्टि के आदि से अद्यावधि सच्चे भक्तों में से प्रत्येक को ईश्वर का शरणागत होना पड़ा है। आत्म-समर्पण का साहस जुटाना पड़ा है। इसका व्यावहारिक स्वरूप है, ईश्वरीय अनुशारण को, उत्कृष्ट- चिंतन एवं आदर्श- कर्तृत्व को अपनी विचारणा एवं कार्यपद्धति से अनुप्राणित करना। जो इस तत्वदर्शन को जानते- मानते और व्यवहार में उतारते रहे हैं, उन सच्चे ईश्वर भक्तों को सुनिश्चित रूप से लाभ मिलते हैं जिन्हें उपासना की फलश्रुतियों के रूप में कहा जाता रहा है। 

'उपासना' का शब्दार्थ है- समीप बैठना। ईश्वर और जीव के बीच रहने वाली दूरी को समाप्त करके जिस प्रक्रिया से निकटता बनती हो, उसे 'उपासना' कहा जा सकता है। समीपता से विशेषताओं का आदान- प्रदान होता है। एक के गुण दूसरे को प्राप्त होते हैं। सत्संग के लाभ और कुसंग के दुष्परिणाम सर्वविदित हैं, अधिक प्रभावशाली तत्व कम सामर्थ्यवानों को अपने प्रभाव से प्रभावित करते हुए, सर्वत्र देखे जाते हैं। आग के निकट आने वाले पदार्थ गर्म होते हैं और जलने लगते हैं। बर्फ के स्पर्श में जो भी ठंडक होती है,स्पर्शकर्त्ता को भी अपनी शीतलता प्रदान करती है। उपासना में भी ऐसा ही होता है। ईश्वर महान् है। उसकी समीपता महानता की वृद्धि करती है। ईश्वर अनेक श्रेष्ठताओं का पुंज है, पास बैठने में वे श्रेष्ठताएँ प्रवेश करती हैं। ईश्वर विभूतिवान् है, साधक में विभूतियों की अभिवृद्धि होती है। राजा के अर्दली का भी मान बढ़ जाता है, उसके पास बैठने वाले दरबारियों का रुतवा बढ़ता है। फिर कोई कारण नहीं कि ईश्वर की समीपता यदि वास्तविक हो, तो उसका प्रभाव उपासनारत व्यक्ति पर न पड़े। ईश्वर से तात्पर्य है- सद्गुणों का, श्रेष्ठता का समुच्चय। श्रेष्ठता से असीम प्यार, उसे आत्मसात् करने की ललक ही सच्ची उपासना है। 

उपासना अपने आप में एक समग्र शब्द है। उसे भाव रूप में समझना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति उसके लिए वांछित कर्मकांड पूरे करता है, पर भावना वैसी नहीं है, तो वह चिह्न- पूजा भर है। यदि भावना उच्चस्तरीय है तो भी कृत्य बन पड़े, वही उपासना है। 

सच्ची साधना कौन सी ? 

एक गाड़ीवान ने यहूदी धर्माचार्य रबी बर्डिक्टेव से आकर पूछा- '' महाराज ! एक गाँव से दूसरे गाँव गाड़ी हाँका करता हूँ, इस कारण प्रार्थना करने नियिमित रूप से सेनेगाग (मंदिर) नहीं आ पाता। क्या मुझे यह पेशा छोड़ देना चाहिए ?'' '' क्या कभी राह चलते गरीब बूढ़े यात्रियों को मुफ्त में गाड़ी में सवारी देते हो ?'' -रबी ने पूछा। '' जी हाँ ! अक्सर ऐसे मौके आते हैं। '' '' तब अपने पेशे में रहते हुए भगवान् की सेवा करते रहो । वही तुम्हारी प्रार्थना, सच्ची साधना है। '' 

भगवान को बार- बार याद 

रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे-'' एक हाथी है, उसे नहला- धुलाकर छोड़ दो, तब फिर वह क्या करेगा ? मिट्टी में खेलेगा और शरीर को फिर गंदा कर लेगा। कोई उस पर बैठे, तो उसका शरीर भी गंदा अवश्य होगा। लेकिन यदि हाथी को स्नान कराने के बाद बाड़े में बाँध दिया जाये, तब फिर हाथी अपना शरीर गंदा नहीं कर सकेगा। मनुष्य का मन भी एक हाथी के समान है। एक बार ध्यान, साधना और भगवान् के भजन से वह शुद्ध हो गया, तो उसे स्वतंत्र नहीं कर देना चाहिए। इस संसार में पवित्रता भी है, गंदगी भी है। मन का स्वभाव है, वह गंदगी में जाएगा और मनुष्य देह को दूषित करने से नहीं चूकेगा। इसलिए उसे गंदगी से बचाए रखने के लिए एक बाड़े की जरूरत होती है, जिसमें वह घिरा रहे। गंदगी की संभावनाओं वाले स्थानों में न जा सके। '' 

'' ईश्वर भजन, उसका निरंतर ध्यान एक बाड़ा है, जिसमें मन को बंद रखा जाना चाहिए, तभी सांसारिक संसर्ग से उत्पन्न दोष और मलिनता से बचाव संभव है। भगवान् को बार- बार याद करते रहोगे, तो मन अस्थायी सुखों के आकर्षण और पाप से बचा रहेगा और अपने जीवन के स्थायी लक्ष्य की याद बनी रहेगी।उस समय दूषित वासनाओं में पड़ने से स्वतः भय उत्पन्न होगा और मनुष्य उस पाप कर्म से बच जाएगा, जिसके कारण वह बार- बार अपवित्रता और मलिनता उत्पन्न कर लिया करता है। '' 

प्रज्ञायोग की साधना 

महिर्षि कात्यायन आज की परिस्थितियों के अनुरूप हर व्यक्ति के लिए आत्मबल संवर्द्धन हेतु प्रज्ञायोग के अवलंबन का मार्ग सुझाते हैं। प्रज्ञा अर्थात् विवेक, समझदारी। गायत्री महाशक्ति की उपासना ही प्रज्ञायोग की साधना है। प्रज्ञायोग एक सर्वसुलभ एवं सर्वोत्तम साधना विधि है, जिसे हर वर्ण, जाति, लिंग के  व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के कर सकते हैं। प्रज्ञायोग में ज्ञानयोग के रूप में प्रातःकाल आत्मबोध के साथ- साथ चिंतन एवं रात्रि को सोते समय तत्त्वबोध के साथ मनन के आत्म परिष्कार संबंधी अनुशासन अपनाए जाते हैं। क्रियायोग की पूजा- उपचार प्रक्रिया में आत्मशोधन, देवपूजन, जप, ध्यान एवं विसर्जन ये पाँच पक्ष हैं। 

यह तो शुभारंभ भर है। गायत्री महाशक्ति के रूप में युगशक्ति- आद्यशक्ति का तत्त्वदर्शन जब अंतरंग में अवतरित होता है तो गुण, कर्म, स्वभाव में आमूल- चुल परिवर्तन कर व्यक्तित्व का कायाकल्प कर देता है। इसीलिए युग साधना के रूप में ऋषिगणों ने यह अभिनव निर्धारण किया है। 

भगवत् शक्ति का हस्तांतरण  

भगवान् को अपना सब कुछ सौंप दिया जाय,तो वे भक्त को कभी खाली नहीं रहने देते। सुदामा अपने गुरुकुल की बड़ी योजना लेकर कृष्ण के पास परामर्श के लिए गए। पर भेंट के लिए जो की पोटली ले गए थे, उसे बगल में ही दाबे रहे।'

भगवान् ने वह छीन ली और कहा, '' जब तक अपना निजी वैभव मुझे सौंपेंगे नहीं, ,तब तक लेने के अधिकारी कैसे बनेंगे ?'' 

कृष्ण ने सुदामा के चरण धोए और द्वारिकापुरी को सुदामा नगरी में गुरुकुल की विशाल योजना के निमित्त हस्तांतरण कर दिया। 

भगवान् जिस किसी को भी दर्शन देते हैं, उसके सामने माँगने वाले के रूप में आ हैं। शबरी से उनने बेर माँगे। गोपियों का दही- मक्खन खा गए। बलि के यहाँ पहुँचे, तो जमीन माँग ली। घायल कर्ण से सोने के लगे दाँत उखड़वा लिए  ।

संत एकनाथ की थाली से कुत्ता एक रोटी लेकर भागा। संत दूसरी रोटी घी से चुपड़कर उसे खिलाने पहुँचे। संत को विश्वास था कि भगवान् जब भी आते है, माँगने, लेने आते हैं। '' उन्हें जो देना था, वह तो मनुष्य जन्म के रूप में पहले ही दे दिया है। 

सर्वश्रेष्ठ उपासना 

भगवान् को ध्यानमग्न देखकर नारद जी ने लक्ष्मी जी से जब कारण पूँछा, तो उन्हें बताया गया कि वे अपने सबसे बड़े भक्त पृथ्वीवासी एक व्यक्ति की उपासना कर रहे हैं। अपने से भी बड़े भक्त को देखने को व्यग्र नारद वापस लौट पड़े। कितने ही दिन वे खोए खोए घूमते रहे। 

एक दिन वह गाँव के बाहरी रास्ते से निकल रहे थे। चमड़े की दुर्गंध उनके चरणों की गति को और तीव्र कर रही थी। उन्होंने जैसे ही दृष्टि उठाई, पशु- चर्मों से घिरा एक मैला- कुचैला चमार दिखाई दिया। वह पसीने में लथपथ चमड़े की सफाई में व्यग्र था। नारद जी समझ गए, हो न हो यही विष्णु का परम भक्त है, जिसका चित्र उस दिन बड़ी निमग्नता के साथ बनाया जा रहा था। अनिच्छित उनके चरण वहीं रुक गए। तीव्र दुर्गंध के कारण वे चमार के पास तो न जा सके। उनके मन में जिज्ञासा जागृत हुई कि इसकी दिनचर्या का निरीक्षण तो करना ही चाहिए। वे दूर खड़े नाक पर हाथ लगाए उसके कार्यों को ध्यानपूर्वक देखने लगे। 

चमड़े के ढेर को साफ करते- करते शाम हो गई। नारद ने सोचा, शायद अब किसी मंदिर में जाएगा या अपने निवास पर ही भगवान् का नाम स्मरण करेगा, पर उसके द्वारा ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अब तो उनके क्रोध की सीमा न रही। वह सोचने लगे कि एक अधम चमार को मुझसे श्रेष्ठ बताकर मेरा अपमान किया है। कहीं भक्त ऐसे होते है ? अंत: से आवाज आई ,थोड़ी देर और इसकी गतिविधि देखनी चाहिए। अत: वे रुक गए। 

चमार तो अपने कार्य में लगा ही था। जब रात होने लगी, तो उसने चमड़े के सारे ढेर को समेटा। जितना चमड़ा दिन भर में साफ कर लिया था, उसे एक गठरी में बाँधा और जो चमड़ा साफ न हो पाया था, उसे एक ओर समेट कर रखा। फिर एक मैला कपड़ा लेकर सिर से पैर तक अपने पसीने को पोंछकर घुटनों के बल बैठ गया और हाथ जोड़कर भाव- विभोर हो कहने लगा-  '' प्रभो! मुझे क्षमा करना, मैं बिना पढ़ा चमार आपकी पूजा करने के ढंग को भी नहीं जानता। मेरी आपसे यही विनय है कि मुझे कल भी ऐसी सुमति देना कि आज की तरह ही आपके द्वारा दी गई चाकरी को ईमानदारी के साथ पूर्ण कर सकूँ। '' 

नारद जी ने तभी पाया कि भगवान् विष्णु उसके समीप खड़े मुस्करा रहे हैं। मंदस्मित के साथ वे बोल उठे-'' मुनिराज। समझ में आया, इस भक्त की उपासना की श्रेष्ठता का रहस्य ?'' 

कृत्य एक - परिणाम दो 

व्यक्ति- व्यक्ति की भावनाओं में अंतर से परिणति भी भिन्न- भिन्न होती है। एक पुरोहित को देवालय के समीप यज्ञ करते देखकर, उधर से गुजरते हुए राजकुमार ने यज्ञ का कारण पूछा। 

पुरोहित ने कहा कि वह विल्व पत्रों से हवन कर रहे हैं। तीन वर्ष हो गए, पर पाँच सोने के विल्व फल पाने का और दरिद्रता मिटाने का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ। 
राजकुमार ने पुरोहित से उनका आसन माँग लिया और उसी विधि से यज्ञ में आहुतियाँ डालने लगे, पर उनकी भावना में अंतर था। उनने क्रिया - कृत्य में समूची श्रद्धा का समावेश किया और संकल्प किया कि जो भी प्रतिफल मिलेगा, उसे लोककल्याण में लगा देंगे। दूसरे दिन यज्ञ कुंड में से सोने के पाँच विल्व फल निकले और राजा की झोली में जा बैठे। 

पुरोहित के आश्चर्य का समाधान करते हुए, राजकुमार ने कहा- '' देवता मात्र कृत्य को ही महत्त्व नहीं देते। कर्त्ता की भावना भी परखते हैं । '' 

नाम की नहीं ,श्रद्धा की महत्ता 

एक हिंदू और मुसलमान साथ- साथ जा रहे थे। रास्ते में नदी पड़ी। हिंदू को राम और मुसलमान को खुदा पर विश्वास था। सो वे दोनों विश्वासपूर्वक अपने- अपने नाम लेते हुए पार हो गए। 

एक तार्किक यह दृश्य देख रहा था। उसने सोचा '' राम- खुदा '' का मिश्रण करते हुए तैरा जाय, तो आधे समय में ही पार हुआ जा सकता है। श्रद्धा के अभाव में उसका नाम जप व्यर्थ गया और वह पानी में डूब गया। नाम की नहीं श्रद्धा की महत्ता है। 

दिशा पूजन की सार्थकता 

निरर्थक उपासना होने पर भी व्यर्थ ही है। एक कर्मकाण्डी ब्राह्मण खड़े होकर छहों दिशाओं का पूजन करने में बहुत समय लगाता, पर उसका अभिप्राय न जानता था। एक दिन उसकी इच्छा उपजी और अपनी कृत्य- परंपरा का फल और कारण पूछने तथागत के पास गया। 

बुद्ध ने कहा-'' कर्मकाण्ड का फल तभी है, जब उनका उद्देश्य समझा और प्रयोजन को अपनाते हुए किया जाय। माता- पिता पूर्व दिशा हैं। आचार्य दक्षिण दिशा हैं। स्त्री, पुत्र, कुटुंबी पश्चिम दिशा हैं। मित्र, संबंधी उत्तर दिशा हैं। अनुशासित शिष्य, सेवक, पाताल दिशा हैं और ब्रह्म वक्ता ऊर्ध्व दिशा हैं, तुम इन सबके साथ उचित कर्तव्यों का पालन करो। तभी दिशा पूजन की सार्थकता है। '' 

ध्यान अर्थात् विचारों की तन्मयता

उपासना ध्यान के समय विचार जैसे होंगे, वैसा ही चिंतन व वैसी ही परिणति होगी। स्वाध्याय एवं श्रेष्ठ व्यक्तियों की संगति का माहात्म्य इसीलिए अधिक बताया गया है। एक साधक जब भी पूजा में बैठता,तभी बुरे विचार मन में उठते। वह गुरु से इसका हल पूछने गया। 

गुरु ने उसे एक कुत्ते की सेवा करने का आदेश दिया और दस, दिन तक आश्रम में ही ठहरा लिया। शिष्य कारण तो समझ न सका, पर गुरु की आज्ञा मानकर वैसा ही करने लगा। १० दिन कुत्ते को साथ रखने से वह पूरी तरह हिल मिल गया । 

गुरु ने आज्ञा दी कि इसे भगाकर आओ। साधक भगाने जाता, पर वह पीछे- पीछे ही फिर लौट आता।

गुरु ने समझाया कि जिन बुरे विचारों में तुम दिन भर डूबे रहते हो, भला पूजा के समय वे साथ क्यों छोड़ने लगे ? 
शिष्य की समझ में वस्तुस्थिति आ गई और उसने दिन भर अच्छे विचार करते रहने की साधना शुरू कर दी। ध्यान का अर्थ मात्र एकाग्रता नहीं, श्रेष्ठ विचारों की तन्मयता भी है। 

स्वावलंबन भी जरूरी 

भूखे -प्यासे साधु के मन ने कहा-'' काया को कष्ट क्यों देते हो ? किसी घर से भीख माँग लो। '' 

साधु अभी एक ओर मुड़ने वाले थे, कि आत्मा बोली-'' जिससे माँगोगे वह भी तो तुम्हारे जैसा ही होगा। तुम स्वयं क्यों नहीं कमा लेते ।'' 

मन ने कहा-'' तुम तपस्वी हो, अपरिग्रही हो, तुम्हें कमाना नहीं चाहिए। ''

आत्मा ने तत्काल कहा-'' जो अपरिग्रह, परिग्रह का दास हो, उससे अच्छा  परिग्रह ही है, जो कम से कम हाथ तो नहीं फैलाता। '' 
साधु ने आत्मा की बात सुनी और उस दिन से साधना, उपासना के साथ स्वावलंबी जीवन का अभ्यास भी आरंभ कर दिया। 

गरीबदास का कुआँ सच्ची उपासना करने वाले समाज देवता के आराधक होते हैं। भांडेर (ग्वालियर) में एक साधु रहते थे। नाम था उनका गरीबदास। वे रात्रि के समय भजन कर लेते। दिन में जनता की हित साधना के काम करते। 

पानी की कमी देखकर कुआँ खोदने जुट पड़े। देखा- देखी अनेक सहयोग में जुट पड़े। अब उसे पक्का करने के लिए ईंट थापना शुरू किया। दूसरों का सहयोग मिला और वह आवश्यकता पूरी हो गई। पक्का कुआँ बनकर तैयार था। स्वामी जी जहाँ कहीं जाते, वहाँ की आवश्यकता देखते हुए, श्रमदान का कार्य प्रारंभ कर देते। उनके द्वारा ऐसे अनेक पारमार्थिक कार्य संपन्न हुए। 
कीर्तनप्रेमी अध्यापक  

एटा जिले में एक प्राइमरी अध्यापक थे दीनदयाल। उत्साह भी भरा- पूरा। जहाँ भी उनकी बदलीहोती, वहीं कीर्तन- मंडली खड़ी कर देते और सम्मिलित होने वालों से दोष- दुर्गुण छोड़ने की प्रतिज्ञा कराते। उनकी लोकप्रियता सर्वत्र असाधारण रूप से बढ़ी। 

वे अधिकारियों से प्रार्थना करके अपनी बदली जल्दी- जल्दी कराते रहते, ताकि अधिक स्थानों में अपना अध्यापन और प्रचार कार्य कर सकें। उन छात्रों में से अधिकांश चरित्रवान् बनते थे। रिटायर होने के उपरांत वे समीपवर्ती जिले में घूम- घूमकर यही कार्य करते रहे। गृहस्थ होते हुए भी वे संत कहलाए। 

दयालु फ्रांसिस 

सेंट फ्रांसिस जब धर्म प्रचारक नहीं बने थे, तब भी वे बड़े उदार थे। उनकी दुकान के सामने एक भूखा भिखारी आशा लगाए खड़ा था। इतने में एक धनी व्यक्ति उनकी दुकान में रेशम खरीदने आ गया। बेचने पर उन्हें भिखारी की याद आई, तब तक वह चला गया था। फ्रांसिस ने दुकान बंद करके उसे ढूँढना शुरू कर दिया। दिन छिपने पर वह मिला। उसे खिलाने के बाद उनने अपना भोजन किया। 
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