सत्रस्यान्त्यभूदद्य दिनं जिज्ञासवः समे ।
सन्तुष्टा मुनयो लब्धैर्विचारैस्ते, मनीषिणः ।। १।।
लब्धुं ततोऽधिकं चाद्य महत्त्वमहिता भृशम् ।।
विचारसम्पदाकाले नियते ते समागताः ।। २ ।।
प्रश्नकर्ता मुनिश्रेष्ठोऽगस्त्यः पप्रच्छ सादरम् ।।
लोकल्याणभावेन करुण: स महामना: ।। ३ ।।
भावार्थ - आज सत्र का अंतिम दिन था । जिज्ञासु मुनि- मनीषियों को अब तक की उपलब्धियों पर बड़ा संतोष था । वे आज और भी अधिक महत्वपूर्ण विचार संपदा उपलब्ध करने की आशा लेकर नियत समय पर उपस्थित हुए । प्रश्नकर्त्ता दयालु उदारात्मा ऋषि श्रेष्ठ अगस्त्य ने लोककल्याण भावना से पूछा ।।
अगस्त्य उवाच-
देव ! विकृतयो यास्तु सामान्याश्च विपन्नताः ।
भवत्येव समाधान तासां साधुजनोद्भवम् ।। ४ ।।
परं विभीषिका अत्र विषमास्ता अनेकशः ।
समायान्ति तथा यासां समाधानं न दृश्यते ।। ५ ।।
जायन्ते निष्फलाः सर्वे यत्नाः साधुजनैः कृताः ।
विनाशो दृश्यते चाग्रे सर्वग्रासकरो महान् ।। ६ ।।
परिस्थितीर्विलोक्याद्य तेन देव प्रतीयते ।
खण्डप्रलयकालः किं समायातो भयंकर: ।। ७ ।।
भावार्थ - अगस्त्य ने कहा- देवं ! सामान्य विकृतियों और विपन्नताओं का निराकरण तो सुधारक महामानवों के प्रयत्न से होते रहते हैं, प्रयत्न कई बार ऐसी विषम विभीषिकाएँ आ उपस्थित होती है, जिनमें कोई समाधान नहीं दीखता । सुधारकों के प्रयत्न विफल होने लगते हैं और सर्वनाशी विनाश सामने खड़ा दीखता है । देव ! इन दिनों की परिस्थितियाँ देखकर लगता है । खंडप्रलय का भयंकर समय आ गया है।।
महामानवों द्वारा सुधार - देवसंस्कृति पर या मानवी आदर्शों पर जब संकट आए हैं, तो महामानवों ने अपनी साधना से, अपने पुरुषार्थ से उन्हें दूर किया है ।
व्यास परंपरा- वेदों का ज्ञान जन सामान्य के लिए भारी लगा था । ज्ञान का प्रवाह जन जन तक पहुँचाने की समस्या आ खड़ी हुई । उस समय व्यास जी ने पुराण शैली कथा माध्यम द्वारा उस ज्ञान को जन ग्राह्य बनाने का क्रम चलाया । ज्ञान का अकाल नहीं पड़ने दिया ।
वैष्णव आचार्य- मनुष्यों में स्वार्थ और हृदयहीनता बढ़ने लगी थी । वैष्णव आचार्यों ने सौम्य संवेदनाओं को उभारा । वैष्णव, वह जो पराई पीड़ा समझे- ''वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाणे रे'' का सूत्र दिया । संवेदनाओं की स्थापना की ।
भक्तिकाल की संत परम्परा - पश्चिमी देशों में धर्म दर्शन को सैन्य शक्ति से थोपने का उन्माद भड़क उठा था । एक भीषण लहर सी उठी, जो सबको रौंदती आगे बढ़ रही थी, उस समय भक्त,संतों ने भगवान की प्रसन्नता प्रेम- सद्भाव में है, की एक शक्तिशाली लहर पैदा की । रामानंद) कबीर, नानक दादू सूर, तुलसी, एकनाथ, नामदेव, तुकाराम, नरसी मेहता आदि ने स्नेह संवेदनाओं को उभारा । इस उभार से टकराकर वह हिंसक प्रवाह निष्क्रिय हो गया । प्रसिद्ध इस्लामी कवि हाली ने अपने पुस्तक ''दीने हलाली'' में लिखा है जी उन्माद समुद्रों को पार करके बढ़ता आया था। वह गंगा की धारा में गोता खाकर शांत हो गया । वीर रस के कवि- विदेशियों का युद्धोन्माद सजनता की भाषा समझ ही नहीं रहा था । सज्जनता को दुर्बलता समझा जाने लगा था । सक्रिय प्रतिरोध आवश्यक था । तब सरस्वती के वरदपुत्र कुछ कवियों ने राष्ट्रवादी राजाओं में उत्साह भरा । चंद्र वरदाई, कंबन, भूषण आदि ने राष्ट्रीय चेतना भरी, पृथ्वीराज, शिवाजी, गुरुगोविंद सिंह, चंद्रगुप्त जैसों ने अपने शौर्य से राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा की।।
सिद्धियोगी पतंजलि - शरीर और मन में सन्नहित अद्भुत शक्तियों की खोज और प्रयोग प्रक्रिया में महर्षि पतंजलि ने अपना पूरा जीवन लगाया ।। वे अपने विषय के पारंगत वैज्ञानिक थे ।। योग की चमत्कारी ऋद्धि, पतंजलि सिद्धियों का उन्होंने निजी जीवन में प्रयोग किया और जो सही पाया, उसे अपने ग्रंथों में लिखा तथा दूसरों को सिखाया । जाने- अनजाने में मनुष्य शरीर तथा मन में उठने वाली अगणित समस्याओं का हल इन योगिराज की खोजों से निकल आया ।
विश्व के हर कोने में तथा समाज के हर स्तर पर ऐसे सुधार-प्रयोग की अभिनव परंपराओं के उदाहरण मिलते है । दास- प्रथा, सती- प्रथा, बलि- प्रथा तथा युद्धोन्माद आदि जैसी कुप्रथाओं के विरुद्ध भी समय समय पर हैरियट स्टो, लिंकन, मार्टिन लूथर, डॉ. किंग, राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, संत सुलेमान, मेरिया- रिमार्क दंपत्ति आदि महामानवों के अभियान सफल हुए हैं । परंतु यहाँ ऋषि की चिंता दूसरी है । जब सुधार प्रयत्न मानवी सामर्थ्य से बाहर हो जाए, तब क्या हो? आजकल की परिस्थितियों को इसी प्रकार विषम माना जा रहा है ।
अनाचारैश्च मर्त्यानां रुष्टायाः प्रकृतेरिह ।।
कोपो वर्षति भिन्नेषु रुपेष्वेव निरन्तरम् ।। ८ ।।
प्रातिकूलस्य चाऽस्यायं क्षुद्रस्तु पुरुष: कथम् ।।
प्रतिकर्तुं समर्थ: स्यादल्पज्ञश्चाल्पशक्तिकः ।। १।।
विज्ञानवरदानं स्वदुष्प्रवृत्तेस्तु कारणात् ।।
अभिशापं व्यधादेव सृष्टिनाशकरं परम् ।। १० ।।
व्यक्तीनां च समाजस्य स्थितिश्वेतासु निश्चितम् ।।
विश्वस्याभूद् भविष्यत्तदन्धकारमयं ध्रुवमू ।। ११ ।।
देवसंकट एषोऽत्र निर्गमिष्यति वा न वा ।।
महाप्रलयकालो वा समायाप्तोऽस्त्यकालिकः ।। १२ ।।
सत्राध्यक्षस्त्रिकालज्ञश्चिन्ता परतयाऽथ सः ।।
कात्यायन उवाचैवं हित वाक्यं महामुनि: ।। १३ ।।
भावार्थ- मानवी अनाचार से रुष्ट प्रकृति के अनेकानेक प्रकोप बरसने लगे हैं । इस प्रतिकूलता का सामना अल्पज्ञ और अल्प शक्ति वाला क्षुद्र मनुष्य किस प्रकार कर सकेगा? उसने तो विज्ञान के वरदान तक को अपनी दुष्प्रवृत्तियों के कारण सृष्टि विनाशक अभिशाप जैसा बनाकर रख दिया है । इन परिस्थितियों में व्यक्तियों का, समाज का, विश्व का भविष्य अंधकारमय ही दीख पड़ता है । हे देव ! बताएँ कि यह संकट टलेगा भी या नहीं ? कहीं महाप्रलय का समय समीप तो नहीं आ गया । त्रिकालदर्शी सत्राध्यक्ष महामुनि कात्यायन भविष्य की चिंता से बोले ।।
प्रकृति पर प्रतिक्रिया - प्रकृति प्रकोप इन दिनों अनायास- अप्रत्याशित नहीं हैं । मनुष्य की प्रकृति एवं वृत्ति इस अनंत आकाश को, सूक्ष्म प्रकृति को प्रभावित करती है । मनुष्य की चेतन प्रकृति का सृष्टि की जड़ प्रकृति के साथ अद्भुत सामंजस्य एवं घनिष्ट संबंध है । सतयुग में सज्जनोचित प्रवृत्तियाँ जब अपनी प्रतिक्रिया आकाश में प्रवाहित करती थीं, तब उसका परिणाम विपुल वर्षा प्रचुर धनधान्य, परिपुष्ट जलवायु, स्वस्थ परिजन्य, अनुकूल उपलब्धियाँ सुखद परिस्थितियाँ आदि धटनाओं के रूप में सामने आती थीं । सतयुग में इस पृथ्वी पर सर्वत्र स्वर्णिम परिस्थितियाँ थीं । प्रकृति, मानवीय सुख- साधन के अनुकूल चलती थी । ऋतुएँ अपना ठीक काम करती थीं और धरती आकाश सभी मंगलमय उपलब्धियाँ उत्पन्न करते थे । यह सब सज्जनोचित प्रवृत्तियों के बाहुल्य का परिणाम था । किंतु आज की परिस्थितियाँ सर्वथा भिन्न हैं । प्रस्तुत समय में अपराध, दुष्टता, दुर्बुद्धि, असहयोग, दुष्कर्म, छल, विश्वासघात, अनास्था, अनाचार का पलड़ा ही भारी होता चारों ओर दिखाई दे रहा है और उसकी प्रतिक्रिया भी स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है ।। इससे अकाल, भूकंप, बाढ़, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ईति- भीति का दौर बार बार होता रहेगा, जिससे मनुष्य विविध विविध त्रास पाते रहेंगे ।
लोगों के दुश्चिंतन, कुविचार, मनोविकार, मानसिक रोग आकाश में ऐसा रेडियो विकरण फैलाते है जिससे मंद और तीव्र शारीरिक रोगों एवं आधि- व्याधि की अप्रत्याशित रूप से उत्पत्ति और वृद्धि होती है, जिनके कारण जन साधारण को हर घड़ी असह्य कष्ट सहने पड़ते हैं । कभी कभी तो वे रोग महामारी और सामूहिक विक्षोभ के रूप में व्यापक बनकर फूट पड़ते है और भारी विनाश उत्पन्न करते है ।
विज्ञान के वरदान भी अभिशाप बने - वैज्ञानिक प्रगति भी मनुष्य के लिए चिंता का विषय बन गई है । लंदन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हार्वर्ड डिगले ने इस समस्या की ओर इशारा करते हुए कहा है-"जब हम उस विज्ञान की प्रगति के बारे में विचार करते हैं जो आजकल प्रचलित है तो हम ऐसी परिस्थितियाँ पाते है जिनसे देवदूत रोने लगे । यह ऐसा युग नहीं है कि विज्ञान की शक्ति को आँख मींच कर महत्व दिया जाय ।''अमरीका, इंग्लैंड, कनाडा आदि यूरोपीय देशों के जन- जीवन में विज्ञान तिल- तिल में समा गया है । नि:संदेह इस विज्ञान ने मनुष्य की दैनंदिन आवश्यकताओं को आसानी से पूरा करने में सहायता दी है, परंतु इस कारण मनुष्य दिनों दिन परावलंबी तथा विलासी बनता जा रहा है । यह विलासिता उसे कहाँ ले जाकर छोड़ेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता ।अविवाहित मातृत्व, यौन स्वेच्छाचार जैसी और भी कई समस्याएँ हैं, जो गहराई से विचार करने पर यांत्रिक सभ्यता की देन लगेगी । विज्ञान ने मनुष्य को इतना वैभवशाली बना दिया है कि बोझ के कारण वह स्वयं को ही तोड़ने में लग गया है । इस अनियंत्रित विलासिता पर नियंत्रण पाना जरूरी है अन्यथा मानव सभ्यता का विनाश होकर ही रहेगा । युद्ध विनाश, अणुयुद्ध, रासायनिक युद्ध, ध्वनि युद्ध (साउंड बार) न्यूट्रान बम, लेसर बम, नक्षत्र युद्ध (स्टार बार) आदि की विभीषिकाएँ इन दिनों समस्त विश्व के सिर पर मँडरा रही हैं, । विश्व भर में प्रति मिनट २० लाख डालर की पूँजी केवल युद्ध सामग्री जुटाने में इस समय लग रही है । बस एक तीली जलाने, बटन दबाने भर की कसर है कि महाविनाश, महाप्रलय अपनी भुजाओं के आगोश में सबको समेट लेगा । यह सब जानते हुए भी मनुष्य जाति अभी भी अनीति का मार्ग न छोड़ने के अपने दुराग्रह पर अड़ी हुई है, जिसे देखकर लगता है कि भावी विभीषिका सन्निकट है ।
प्रकृति संतुलन पर आघात - बढ़ती आबादी के कारण पृथ्वी के दोहन का क्रम चल रहा है । यह दोहन इस सीमा तक पहुँच गया है कि प्रकृति संतुलन बिगडकर न जाने क्या क्या कर सकता है । जैसे- अधिक पैदावार के लिए रासायनिक खादी की जबरदस्ती, भूमि की उर्वरता को निचोड़ कर, भूमि को बंजर बना सकती है ।
वन संपदा इस सीमा तक घटती जा रही है कि वर्षा चक्र बिगड़ने, आँधियाँ चलने, भूमि कटने, उपयोगी वन्य जीवों के नष्ट होने तथा वायु प्रदूषण बढ़ने की स्थिति आ गई है।
भूमि के अंदर खनिज भंडार समाप्त हो रहे हैं । भीतर खाली स्थान बढ़ने से भूगर्भ में अधिक हलचलें होने से भूकंप आने, बड़े बड़े भूखंड धंसने, ज्वालामुखी फटने जैसे खतरे भूगर्भ वैज्ञानिकों को प्रत्यक्ष दिख रहे हैं । बढ़ती जनसंख्या तथा यांत्रिकी के कारण वायु प्रदूषण बढ़ रहा है । उससे उत्पन्न खतरों की संभावनाओं को देखते हुए मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने एक मत होकर कहा है कि ''मानवी दुर्बुद्ध जन्य प्रकृति कुपित होकर कब कहर ढा दे, प्रलय प्रस्तुत कर दे, कहा नहीं जा सकता ।''
प्राचीनकाल में सृष्टि निर्माण से लेकर अब तक जितनी बार प्रलय की परिस्थितियाँ बनीं उनका प्रमुख कारण मानवी दुर्बुद्धि ही रही । महाप्रलय, खंड प्रलय की अनेक घटनाओं से विश्व साहित्य भरा पड़ा है ।
जल प्रलय - विश्व की अधिकांश प्राचीन सभ्यताओं के साहित्य में जलप्लावन तथा उसके बाद सृष्टि के नवीन क्रम का वर्णन मिलता है। इसे धार्मिक पुट दिया गया है । लेकिन भूगर्भ शास्त्रियों का भी अनुमान है कि समय समय पर पृथ्वी का वातावरण दूषित हो जाने पर उसके विशेष खंड टूट जाते थे और धरती पर जल ही जल हो
जाता था ।
भूगर्भवेत्ता डॉ० ट्रिकलर के अनुसार, हिमालय के आसपास प्राप्त ध्वंसावशेषों से ज्ञात होता है कि जल प्रलय की घटना सत्य है । यूनानी साहित्य में भी जलप्लावन की चर्चा है । एक कथा के अनुसार 'अटिका' जलमय हो गई थी । दूसरी कथा के अनुसार 'जीयस' ने अपने पिता की इच्छापूर्ति के लिए 'ड्यूकालियन' का विनाश करना चाहा ।
जब ड्यूकालियन अपनी पत्नी पैरहा के साथ जलयात्रा कर रहा था, जीयस ने भीषण जल वृष्टि द्वारा पृथ्वी को डुबा दिया । नौ दिन तक ड्यूकालियन और पैरहा पानी में ही अपनी नाव द्वारा तैरते रहे । जब वे ''पैरामस'' पहुँचे, तो जलप्लावन कुछ कम हुआ । तब दोनों ने अपने अंगरक्षक की बलि दे दी । इससे जीयस प्रसन्न हो गया और उनको संतान का वरदान दिया । ड्यूकालियन और पैरहा ने वरदान पाकर जीयस पर पत्थरों की वर्षा की । जो पत्थर ड्यूकालियन ने फैंके, वे पुरुष हो गए और जो पैरहा ने फैंके, वे नारी हो गए ।
बेबीलोनिया में भी ऐसी ही एक दंत कथा है । तीन सौ ईसवी पूर्व वहाँ वेरासस नामक पुरोहित था । उसने लिखा है- आरडेट्स की मृत्यु के बाद उसके पुत्र ने १८ 'सर' तक राज्य किया । एक सर ३६ सौ वर्षों का होता है । इसी अवधि में एक बार भीषण बाढ़ आई । इसकी सूचना राजा को स्वप्न द्वारा पहले ही मिल चुकी थी । अतः उसने अपने लिए एक नाव बनवा ली थी । नाव में बैठकर वह जल प्लावन देखता घूमता रहा, जब जलप्लावन का वेग कम हो गया, तो उसने नाव में ही बैठे- बैठे तीन बार पक्षी उड़ाए । अंतिम बार देवता प्रसन्न हुए और शांति का वातावरण बना ।
बाइबिल के अनुसार- जल देवता नूह को खबर मिली कि धरती पर जल प्रलय होगी । फिर ऐसा ही हुआ । चराचर इस भीषण जल प्रलय में समाहित हो गए । जल देवता 'नूह' तथा उनके कुछ साथी नौका में बच निकले । नौका द्वारा आराकान पर्वत पहुँचे । वहाँ दसवें महीने के पहले दिन जल कम होना शुरू हुआ । धीरे धीरे पर्वत श्रेणियाँ दीखने लगीं । फिर अन्य हिस्से भी । हजरत 'नूह' ने ही मानवता का विकास किया । सुमेरियन ग्रंथों में भी जलप्लावन का संकेत है । चीनी पुराण साहित्य में भी जलप्लावन की कथाएँ विद्यमान हैं ।
भारत में तो शतपथ ब्राह्मण से लेकर महाभारत और विविध पुराणों तक में जल प्रलय का वर्णन मिलता है । महाभारत के वन पर्व में मस्त्योपाख्यान के अंतर्गत यह कथा है कि विवस्वान मनु ने दस 'हजार वर्ष हिमालय पर तपस्या की । उस समय एक मछली की प्रार्थना पर उन्होंने उसकी जीवन रक्षा की । तब मछली ने उनको आगामी भीषण जल प्लावन की अग्रिम जानकारी दी, साथ ही यह कहा कि तुम सप्त ऋषियों के साथ नौका में मेरी प्रतीक्षा करना । अन्य पर्वों में भी इस जल प्लावन का सुविस्तृत वर्णन है ।संपूर्ण प्राचीन विश्व साहित्य में जल प्रलय की ये कथाएँ निश्चय ही किसी घटित घटना की ही स्मृतियाँ हैं । अभिव्यक्ति की शैली भिन्न भिन्न सभ्यताओं के परिवेश और सांस्कृतिक चेतना के अनुरूप अलग अलग हैं । किंतु उनमें आंतरिक अविच्छिन्नता है । जल प्रलय की बात बड़ी है, पर उसके छोटे छोटे रूप अन्य प्रकार से भी दृष्टिगोचर होते रहते हैं, भूकंप, विस्फोट, बाढ़ आना, वृष्टि, अतिवृष्टि, महामारी आदि कारणों से कम विनाश नहीं होता है । आए दिन जहाँ- तहाँ होते रहने वाले युद्ध और महायुद्ध भी संपत्ति और प्राणियों की कम हानि नहीं करते हैं । इन दिनों जिस द्रुत गति से प्रकृति की रुष्टता- उग्रता बढ़ती जा रही है, उसे देखते हुए प्रलय की आशंका निराधार नहीं लगती ।
कात्यायन उवाच-
चिन्तित तत्वधुनैवान्त पूर्वतो या परिस्थिति: ।
महाभाग ! न सन्देहस्तस्य गम्भीरता विधौ ।। १४ ।।
तथाप्यस्माभिरेषोऽत्र कार्यो विश्वास उत्तम: ।
स्त्रष्टेमां तु धरित्री स्वां व्यधात् सर्वोत्तमां कृति: ।। १५ ।।
मनुष्यरचना सेयं विनाशं ब्रह्मणेदृशी ।
दृश्यमानं स्वरूपं स स्त्रष्टुरित्येव मन्यताम् ।।१६ ।।
नियन्ता सहते नैव विनाशं कुन्नचित् प्रभु: ।
ईदृश्याः शोभनायाः स सृष्टेः गाड़कर: स्वयम् ।। १७ ।।
भावार्थ- कात्यायन ने कहा- हे महाभाग? अभी परिस्थितियों का जो चित्रण किया गया है उनकी गंभीरता में तनिक भी संदेह नहीं है फिर भी हम सबको यह विश्वास करना चाहिए कि स्रष्टा ने इस धरती को अपनी सर्वोत्तम कलाकृति के रूप में रचा है । मनुष्य की संरचना ही इस प्रकार की गई है? मानों वह स्रष्टा का दृश्यमान स्वरूप ही हो । ऐसे सृजन को सृष्टि का कर्त्ता व नियंता प्रभु नष्ट नहीं होने दे सकते।।
व्याख्या- ऋषि इस तथ्य से सहमत हैं किं स्थिति बहुत खराब है ।। मनुष्य उन्हें नियंत्रित कर सकेगा, ऐसा नहीं लगता । यह दृष्टि निराशा पैदा करती है । परंतु एक दूसरी दृष्टि भी है । वह यह कि यदि सही परिस्थितियाँ रहीं तो मानवी सभ्यता नष्ट हो जाएगी । उसे भगवान नष्ट नहीं होने देंगे, ऐसा उनका आश्वासन है । अस्तु, किसी दिव्य प्रवाह के प्रभाव रो यह विषम परिस्थितियाँ ही समाप्त हो जाएँगी, यह सुनिश्चित है । एक शासन हटता दूसरा आता है तो उस मध्यकाल में कई प्रकार की उलट पुलट होती देखी गई है । गर्भस्थ बालक जब छोटी उदरदरी से बाहर निकल कर सुविस्तृत विश्व में प्रवेश करता है तो माता को प्रसव सहनी पड़ती है और बच्चा जीवन मरण से जूझने वाला पुरुषार्थ करता है । प्रभात काल से पूर्व की घड़ियों में तमिस्रा चरम सीमा तक पहुँचती है । दीपक के बुझते समय बाती का उछलना- फुदकना देखते ही बनता है । मरणासन्न की सांसें इतनी तेजी से चलती हैं । मानो वह निरोग और बलिष्ठ बनने जा रहा है ।
चींटी के जब अंतिम दिन आते हैं तब उसके पर उगते हैं । इन उदारहणों से स्पष्ट है कि परिवर्तन की घड़ियाँ असाधारण उलट- पुलट की होती है । उन दिनों अव्यवस्था फैलती असुविधा होती है और कई बार संकट- विग्रह की घटा भी घुमड़ती है । युग परिवर्तन की इस संधि बेला में भी ऐसा ही हो रहा है ।
मेरी श्रेष्ठ कृति - नारद जी ने भगवान से पूछा- '' प्रभु ! आप अनंत ब्रह्मांड नायक हैं । पृथ्वी की उसमें कोई औकात नहीं । फिर भी आप उसकी रक्षा के लिए बार- बार अवतार लेकर कष्ट उठाते हैं, इसका क्या कारण है ?''
भगवान बोले- '' तात् ! अपनी श्रेष्ठ कृति अनाड़ियों के हाथों नष्ट होते कोई नहीं देखना चाहता । पृथ्वी मेरी विशिष्ट एवं श्रेष्ठ कृति है । असुर तत्व या मनुष्य अपने अनाड़ीपन से जब उस पर गहरे संकट ला देते हैं तो मुझसे रहा नहीं जाता, दौड़ पड़ता हूँ । फिर मुझे कुछ कष्ट भी नहीं होता, बालकों के बीच थोड़ा मनोरंजन ही हो जाता है।''
प्रगतिगामिता निरस्त होकर रहेगी - दक्षकन्या सती भगवान शिव के साथ विवाही गई थीं । दक्ष अर्थात् सुयोग्य, समर्थ, कुशल; उसकी पुत्री अर्थात् प्रतिभा संपदा । उस विभूति के समर्पण का उचित स्थान शिव अर्थात् श्रेय ही हो सकता है । यही हुआ था ।।
पर दक्ष पथभ्रष्ट हुआ । उसने शिव से, श्रेय से वैमनस्य ठाना और तिरस्कार किया । सती से सहन न हुआ । उसने दक्ष के उसके चलते कृत्य में अवरोध उत्पन्न कर दिया, भले ही उसमें उसके प्राण चले गए ।
प्रतिभा यह सहन न कर सकी कि दक्ष अशिव का समर्थन और पोषण करे । सती ध्वंस से शिव के आक्रोश का पारावार न रहा । वीरभद्र भेजे और उसे धूल चटा दी ।। '' मैं '' '' मैं '' करने वाले अहंकारी बकरे जैसा उपहासास्पद बना । सती के मृत शरीर को शिव ने २४ खंडों में बाँटा और टुकड़े आकाश में उड़ा दिए ।। वे जहाँ भी गिरे वहाँ एक एक शक्तिपीठ बन गई ।।
कथा का सारांश है- दक्ष की पुत्री प्रतिभा यह सहन नहीं कर सकती कि समर्थों द्वारा अनाचार अपनाया जाय । वह उलटी हो गई । दक्षता धूल में मिला दी और उसको छद्म के बकरे कीं तरह उजागर भी कर दिया ।।
वीरभद्रों द्वारा दुर्गति बनी सो अलग ।। सती का, प्रतिभा का आत्मदाह क्षणिक रहा, वे चौबीस गुनी शक्ति के साथ उभरीं और एक केन्द्र की अपेक्षा अनेक स्थानों पर विकसित होकर अपेक्षाकृत अधिक पराक्रम कर सकीं ।
यह प्रसंग आज के दक्षों पर पूरी तरह लागू होता है । विद्वान, कलाकार, श्रीमंत, मूर्धन्य, राजनेता, धर्मोपदेशक इसी वर्ग में आते है ।उनकी गतिविधियाँ, विभूतियाँ यदि शिव द्रोही बन चली हैं तो फिर उन्हें वीर भद्रों द्वारा दुर्गतिग्रस्त होना पड़ेगा और जिस अहमन्यता में फूले नहीं समाते उसका व्यापक तिरस्कार इस प्रकार होगा जिससे उनका बड़प्पन बकरे जैसा उपहासास्पद बन सके । इस नियोजन में शिव की परोक्ष भूमिका काम करेगी ।
अवतार और मनुष्य - गरुड़ जी ने काकभुशुंडि जी से अवतार की लीलाओं का मर्म समझा । उसी कम में पूछा- ''प्रभु सर्व समर्थ हैं । अपना कार्य करने के लिए अनेक ढंग अपना सकते है । अधिकतर वे मनुष्य बनकर ही लीला क्यों करते है ?" भुशुंडि जी न समझाया- 'हे खगराज ! प्रभु विशेष कार्य करने आते हैं । मनुष्य की रचना उन्होंने अपने अनुरूप की है । उनके कार्यों को पूरा करने की जितनी सुविधा मनुष्य शरीर में है उतनी अन्यत्र नहीं । इसीलिए वे मनुष्य शरीरों के माध्यम से ही अधिकांश लीला प्रयोग किया करते ।
अवशाश्च मनुष्यस्य जायन्ते स्थितया यदा ।
व्यवस्था सूत्रधारत्वं स्त्रष्टा गृहणाति तु स्वयम् ।। १८ ।।
व्यवस्थापयतीत्थं स येनालोकोदयो भवेत् ।
अन्धकारेऽवतारस्य प्रक्रियेयं तु विद्यते ।। १९ ।।
जना आश्वासिताः सर्वे दृढं भगवता स्वयम् ।।
धर्मग्लानावधर्मस्याभ्युत्थानेऽत्रावतराम्यहम् ।। २० ।।
अनौचित्यमधर्मं च निराकर्तुं स्वयं ।। प्रभु: ।।
देवोऽत्रावतरत्येव काले विषमतां गते ।। २९ ।।
कार्यं यत्र भवेत् पूर्ण सामान्यैस्तु जनैरिह ।।
समापयति तत्सर्वं स्वयं निर्धारणैः स्वकैः ।। २२ ।।
पुरातने च काले स भगवान विश्वभावनः ।।
अवातरत् स्थितावल विषमायामनेकशः ।। २३ ।।
भावार्थ - मनुष्य के हाथ से जब परिस्थितियाँ बाहर चली जाती है, तो प्रवाह की बागडोर स्त्रष्टा स्वयं सँभालते हैं और ऐसी व्यवस्था बनाते हैं जिससे अंधकार में प्रकाश उत्पन्न हो सके । यह अवतार की प्रक्रिया है । भगवान ने इन लोकसेवियों को आश्वासन दिया है कि धर्म की ग्लानि व अधर्म का उत्थान होने पर मैं पृथ्वी पर अवतार लेता हूँ । अधर्म का अनौचित्य का निराकरण करने के लिए विषम वेला में वे स्वयं प्रकट होते हैं और जो काम सामान्यजनों से संपन्न नहीं हो पाता उसे अपने निर्धारणों द्वारा स्वयं पूर्ण करते हैं । पुरातन काल में ऐसी ही विषम परिस्थितियों में भगवान ने अनेक बार अवतार लिए हैं ।।
व्याख्या- व्यक्ति कितना ही समर्थ क्यों न हो वह शरीर तक सीमित रहने के कारण समीपवर्ती क्षेत्र में ही यथा शक्ति पुरुषार्थ कर सकता है । वातावरण बदलने, व्यापक परिस्थितियाँ सुधारने जैसे बड़े कामों के लिए स्त्रष्टा को स्वयं लगाम सँभालनी पड़ती है । असंतुलन को संतुलन में बदलने की उसने प्रतिज्ञा भी की हुई है । जब धर्म से अधर्म का अनुपात बढ़ जाता है और सँभालना मानवी क्षमता से बाहर चला जाता है तो उसे सँभालने की जिम्मेदारी स्रष्टा को ही सँभालनी पड़ती है ।
स्रष्टा का आश्वासन - भगवान ने समय समय पर अवतार लिए हैं । उनमें से प्रधान दस हैं और कुल मिलाकर उनकी संख्या चौबीस है । इन सब अवतारों का उद्देश्य अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना है । गीता में भगवान कृष्ण ने अपने अवतार का यही उद्देश्य बताया है और रामायण आदि अन्य ग्रंथों में भी विभिन्न अवतारों ने अपने अवतरणों का यही उद्देश्य बताया है। यथा-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
''हे भारत ! जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात् प्रकट करता हूँ ।''
महाशक्ति का अवतरण - ब्रह्मा का सृष्टि सृजन कार्य पूरा हो गया तो शेषशायी विष्णु के महा सर्प द्वारा दो दैत्य उत्पन्न हुए, एक मधु दूसरा कैटभ । दोनों बड़े प्रतापी थे और उन्होंने महाकाली से अमर होने का वरदान माँगा । वह इस शर्त पर मिला कि मेरे अतिरिक्त और कोई तुम्हारा वध न कर सकेगा ।
सामर्थ्य के अहंकार से उन्मत्त उन महाबली दैत्यों ने अनाचार करके आतंक जगाने की और संपदा को सर्वत्र से बटोर कर अपना भंडार भरना आरंभ कर दिया । उत्पीड़न और अपहरण से सर्वत्र त्राहि- त्राहि मच गई ।। महाकाली ने अवतार लिया और मधु- कैटभ से कहा कि दैवी शक्तियाँ उद्धत कर्म के लिए नहीं मिलतीं । जो तप से पाया था, वह अनीति अपनाने से समाप्त हो गया, अब तुम युद्ध से जीतने का प्रयत्न करो । देवी को वशवर्ती करने के लिए पूरी शक्ति के साथ पाप के बोझ से लदे हुए वे दोनों दैत्य महाकाली के हाथों धराशायी हुए ।
कार्तिकेय का जन्म - शिव पार्वती को संतान की कोई इच्छा न थी । पर तारकासुर का आतंक उन्हीं के तेज से दूर हो सकता था सो उन्होंने कार्तिकेय को जन्म दिया । अग्नियों ने उन्हें धातृरूप में शिक्षण दी । बड़े होने पर कार्तिकेय ने तारकासुर से युद्ध किया और उसे पछाड़ा । बहुधा ऋषि भी अपने मानस पुत्र शिष्य उत्पन्न करके ऐसे ही प्रयोजन पूरे करते हैं । स्वयं तप संलग्न रहते हैं और शिष्यों को शक्ति देकर महान प्रयोजन पूरे करते है ।
अमृत के रक्षार्थ - समुद्र मंथन में अमृत निकला । देवता और असुर दोनों ही उसे लेना चाहते थे । विष्णु नहीं चाहते थे कि वह असुरो को मिले, उनने अत्यंत सुंदर मोहिनी का रूप बनाया और बटवारे के लिए असुरों की सहमति से बातें बन गई । असुर आशा लगाए ही बैठे रहे किंतु देवताओं को मोहिनी ने सारा अमृत पिला दिया ।
अविरल क्रम - धर्म के संरक्षण और अधर्म, अनीति, अत्याचार के निवारण की ईश्वरीय प्रक्रिया ब्रह्मांड व्यापी है । वह हर एक देश, काल में चलती रहती है । कभी भी रुकती नहीं ।
अन्यायी कौरव भरी सभा में द्रौपदी का चीरहरण करने पर तुले थे । उस अनीति का प्रतिकार कोई नहीं कर रहा था । भीष्म, द्रोण जैसे विद्वान नीतिवेत्ता सिर झुकाए बैठे थे । वह असहाय अबला लुटी जा रही थी । परम सत्ता से यह अन्याय देखा नहीं गया और उसने सहायता कर उसकी लाज बचाई ।
दमयंती बीहड़ वन में अकेली थी व्याध उसका सतीत्व नष्ट करने पर तुला था । सहायक कोई नहीं । उसकी नेत्र ज्योति में से भगवान प्रकट हुए और व्याध जलकर भस्म हो गया । दमयंती पर कोई आँच नहीं आई । प्रह्लाद के लिए उसका पिता ही जान का ग्राहक बन बैठा था, बच कर कहाँ जाय? खम्भे में से नृसिंह भगवान प्रकट
हुए और प्रह्लाद की रक्षा हुई । घर से निकाले हुए पांडवों की सहायता करने, उनके घोड़े जोतने भगवान स्वयं आए ।
नरसी मेहता के सम्मान को अपने सम्मान रक्षा की तरह ही माना । ग्राह के मुख से गज के बंधन छुड़ाने के लिए प्रभु नंगे पैरों दौड़े आए थे ।
मीरा को विष का प्याला भेजा गया और सांपों का पिटारा, पर वह मरी नहीं । न जाने कौन उनके हलाहल को चूस गया और मीरा जीवित बची रही ।
भगीरथ की तपस्या से गंगा द्रवित हुई और धरती पर बहने के लिए तैयार हो गई । शिवजी सहयोग देने के लिए आए और गंगा को जटाओं में धारण किया, भागीरथ की साध पूरी हुई ।
दुर्वासा के शाप से संत्रस्त राजा अम्बरीष की सहायता करने भगवान का चक्र सुदर्शन स्वयं दौड़ा आया, तो समुद्र से टिटहरी के अंडे वापस दिलाने में सहायता करने के लिए भगवान अगस्त्य मुनि बनकर आए थे । निर्वासितपांडवों की रक्षा स्वयं भगवान ने की । अपने प्रिय सखा अर्जुन का रथ जोता एवं गीता का उपदेश देकर धर्म दर्शन का निचोड़ मार्गदर्शन हेतु प्रस्तुत किया, साथ ही महाभारत की भूमिका बनाकर सतयुग की स्थापना हेतु स्वयं भूमिका निभाई ।
बाल भगवान-
महाप्रलय के समय सर्वत्र जल ही जल भरा था, केवल मारकंडेय मुनि बच रहे थे । उनने सर्वत्र दृष्टि पसार कर देखा तो कमल पत्र पर बाल रूप में भगवान अपने ही पैर का अंगूठा चूसते दिखे ।
महामुनि ने बाल भगवान की स्तुति की और पूछा-"आपके इस स्वरूप का क्या रहस्य है?'' उनने उत्तर देते हुए कहा-"संसार का व्यवहार चलाते हुए कमल पत्रवत निर्लिप्त रहना । बालक जैसें काम, क्रोध, लोभ, मोह से विरत एवं सौम्य रहता है उस प्रकार अपनी वृत्ति रखना । अपने भीतर भरे हुए शक्ति भंडार से अंगूठा चूसकर तृप्त रहना-यही मेरे वर्तमान स्वरूप का रहस्य है ।'' जिनमें यह विशेषताएँ पाई जाँय उन्हें भगवान का अवतार मानना चाहिए।
अगस्त्य उवाच-
आदितो देव । सृष्टेर्ये जाता अद्यावधि प्रभो ।
अवतारा: समे वर्ण्या जिज्ञासा श्रोतुमस्ति न: ।।२४।।
सत्राध्यक्ष उवाच-
अवतारा: प्रभोर्दिव्यदर्शिर्भि दशा वर्णिताः ।
लीलोद्देश्य स्वरूपाणि पुराणदिषु दृश्यताम् ।।२५।।
भावार्थ- अगस्त्य ने कहा-हे देव ! सृष्टि के आदि से लेकर अब तक हुए भगवान के अवतारों का
वर्णण कर सुनने की जिज्ञासा हो रही है । सत्राध्यक्ष बोले- भगवान के दस अवतारों का दिव्यदर्शियों ने वर्णन
किया है । शास्त्रो पुराणों में उनके स्वरूप उद्देश्य और लीला संदोहों का वर्णन है ।।२४-२५।।
व्याख्या- पुराणों में कहीं दस अवतार का वर्णन हूँ कहीं चौबीस का । जहाँ चौबीस का उल्लेख है, वहाँ उसे गायत्री के चौबीस अक्षरों की ओर, चौबीस शक्तियों की ओर किया गया संकेत समझा जाना चाहिए । दत्तात्रेय के चौबीस गुरु दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में यही हैं । चौबीस ऋषि, चौबीस देवता, चौबीस ज्योतिर्लिंग, चौबीस शक्तिपीठें इसी चौबीस अवतार प्रकरण के साथ जुड़ती हैं । उद्देश्य सबका एक ही है । अधर्म का नाश और धर्म का संस्थापन । प्रकारांतर से यही कार्य सभी अवतारों ने अपनी अपनी परिस्थितियों के अनुरूप अपने अपने ढंग से किया है ।
अवतारों को व्यक्ति नहीं, प्रवाह समझा जाना चाहिए । जो अदृश्य प्रेरणाओं और योजनाओं को लेकर धरती पर आते हैं और तत्कालीन आत्माओं को अपनी सहयोगी-सहचर बनाने में समर्थ होते हैं ।
पुराणों में दस अवतारों को प्रधान माना गया है । मनुष्य बिगाड़ तो कर लेता है, पर परिस्थिति काबू से बाहर हो जानें पर सँभालना उसके वश की बात नहीं रहती । अग्निकांड तो माचिस की एक तीली भी खड़ा कर देती है? पर उसे बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड बुलाने पड़ते हैं । किसी किले को विस्मार करने के लिए डायनामाइट का एक कारतूस भी पर्याप्त है, पर उसे नए सिरे से बनाने के लिए कुशल इंजीनियर अगणित श्रमिकों और प्रचुर साधन जुटाने में कोई वरिष्ठ ही समर्थ होते हैं । वनों की रगड़ से दावानल उत्पन्न ठो जाता है पर बुझाने के लिए वर्षा के बादल ठी काम आते हैं । शासन की छोटी इकाइयाँ जब अपने काम ठीक तरह नहीं कर पाती, तो उन्हें बरखास्त करके राष्ट्रपति शासन लगता है और सत्ता अपने डाथ में लकर असंतुलन को संतुलन में बदला जाता है । विषम परिस्थितियों पर काबू पाने में जब मनुष्य की सामर्थ्य काम नहीं आती है, तो फिर उसे भगवान के प्रेरित प्रवाह, अवतार ही काबू में लाते हैं । पागल हाथी की जैसी परिस्थितियों को काबू में लाने के लिए प्रेक्षित हंटर मारकर ही उसे वशवर्ती करते हैं । अवतार को ऐसा ही कुछ समझा जा सकता है ।