प्रज्ञा पुराण भाग-4

। अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था-संकट प्रकरणम्-4

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अनौचित्यमिदानीं यद् व्याजाद् धर्मस्य संस्कृतेः । 
जृम्भते कारणं तस्य केवलं यन्मनीषिभिः ।।  ५८ ।। 
संशोधनानि नैवात्र कालजानि कृतानि तु । 
परिवर्तनजो रुद्ध: प्रवाहो यदि जायते ।।  ५१  ।। 
वार्षिकं सलिलं गर्तमध्यस्थमिव विकृतिम् ।। 
धर्मक्षेत्रे प्रयान्त्यन्धविश्वासैश्च दुराग्रहैः ।। ६०  ।। 

भावार्थ- इन दिनों जो धर्म संस्कृति के नाम पर अनौचित्य  का बोलबाला है, उसका कारण एक ही है कि मनीषियों ने सामयिक संशोधन का ध्यान नहीं रखा । सुधार-परिवर्तन का प्रवाह रुक जाने से वर्षा का शुद्ध जल किसी गङ्ढे में अवरुद्ध पड़ा रहने पर सड़ने लगता है । ऐसी ही दुर्गति धर्म क्षेत्र में अंधविश्वास एवं दुराग्रह घुस पड़ने से भी होती है । 

व्याख्या- उपयुक्त संशोधन जब न किए जा से, तभी देवसंस्कृति के नाम को बट्टा लगा, जब उन्हें समय पर कर  लिया गया, तब बिगड़ती परिस्थितियाँ तुरंत सुधर गई । भरत द्वारा सुधार - कैकेयी को नियमानुसार पूरा हक था कि अपनी इच्छा के दो वर माँग ले । तदनुसार राम वन को  चले गए और भरत को राजगद्दी का हक दे दिया गया । पिता द्वारा दिया गया अधिकार, माता की आज्ञा, सामान्य रूप से भरत को राजा बन जाना चाहिए था । किंतु उन्होंने धारा में बहने की अपेक्षा उसका संशोधन किया । अपना हक पुनः  राम को समर्पित कर दिया । 

कैकेयी की गलती से परिवार में और राज्य में कलह और तनाव छा गया था । वह बना रहता, तो रघुकुल की सारी साख को ले डूबता । किंतु भरत के संशोधन ने उस तनाव को समाप्त कर दिया । बिगड़ते हालत सम्हल गए, टूटता सद्भाव स्थापित हो गया । 

परशुराम के निर्णय - आतताइयों को दंडित नियंत्रित करना क्षत्रियों का काम है । पर कोई तेजस्वी क्षत्रिय उसके  लिए उभरता नहीं दिखा तो परशुराम ने क्षात्र धर्म अपनाकर वह कार्य सँभाला । कुछ समय बाद राम जैसा व्यक्तित्व उभर आया, तो वह उत्तरदायित्व उन्हें सौंपकर पुनः  ब्राह्मणोचित तप एवं निर्माण में लग गए। कर्तव्यों में समयानुकूल संशोधन का यह एक ज्वलंतउदाहरण है । 

सूर- तुलसी - समय की आवश्यकता देखते ने बाल गोपाल  कृष्ण को सखा भाव से इष्ट मानकर सद्भावना का प्रसार किया । तुलसी ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम को स्वामी रूप में इष्ट मानकर लोक जागरण का क्रम अपनाया  । दोनों एकनिष्ठ भाव से अपने अपने कार्यों में लगे रहे । एक बार दोनों की भेंट हुई । उन्होंने अनुभव किया कि हम तो अलग अलग नाम रूप में एक ही इष्ट के उपासक हैं । परंतु जन सामान्य इस तथ्य को शायद न समझ पाए । इसलिए उन्होंने निर्णय किया कि अपने काव्य में सूर रामपरक तथा तुलसी कृष्णपरक संबोधनों का प्रयोग करेंगे । यही हुआ बाद के पदों में सूर ने तथा विनय पत्रिका में तुलसी ने दोनों तरह के नामों का प्रयोग किया । इस संशोधन ने जन साधारण को भ्रमित होने से बचा लिया ।  अवांछनीयता का अग्निदाह- पुराने समय की बात है । आर्यावर्त्त के एक कस्बे में एक भयंकर महामारी फैली और उसने दो तिहाई आबादी समाप्त कर दी, फिर भीं वह महामारी नियंत्रण में नहीं आ रही थी । कारण था, घिचपिचकी बसावट और हवा- धूप से रहित मकानों की संरचना । बुद्धिमानों ने उपाय अपनाया कि उस कस्बे में आग लगाई जाय और उसे बुझाया न जाय । कस्बा जलने लगा  । लोगों ने कीमती सामान और जानवर तो निकाल लिए, पर इमारतें  सभी जलकर खाक हो गई । साथ ही बीमारी के कारण भूत कीड़े भी समाप्त हो गए । नगर नए सिरे से नई योजना के अनुसार बसाया गया और  अनेक बीमारियों से सदा के लिए छुटकारा मिल गया । पुरानी अवांछनीय प्रथाओं को भी इसी प्रकार जलाने और उनके स्थान पर नए निर्धारण करने से ही मूढ़ मान्यताओं और कुरीतियों के कारण सहनी पड़ने वाली विपत्तियों से पीछा छूटता है। 

जफर का अपराध - मुगल सम्राट् बहादुरशाह जफर अपने जीवन के अंतिम दिन रंगून की जेल में बिता रहे थे । उन्हें भयंकर दुःखों एवं अभावों से जूझना पड़ रहा था  । यह देखकर किसी ने उनसे पूछा- ''आप इतना  कष्ट कैसे सह लेते है, आपने तो हमेशा शाही महल के सुखों को भोगा है । आप अधिकारियों से इसका विरोध क्यों नहीं करते?'' 

सम्राट् ने उत्तर दिया-  ''मैंने जो अपराध किया है, उसका दंड मुझे भोगना चाहिए । यह दंड यदि और भी कड़ा होगा, तो मैं उसे भी भोगूँगा ।'' ''क्या अपराध किया है आपने?'' उस व्यक्ति ने पूछा । सुम्राट् ने उत्तर दिया- ''देश का पहरेदार होकर भी मैं गहरी नींद सोया रहा, समय रहते मैंने दुश्मन को ललकारा नहीं । इससे भी बड़ा अपराध कोई हो सकता है?'' यही बात संस्कृति के पहरेदारों पर भी लागू होती है । 
तीसरी चपत का प्रतिरोध -  एक प्रोफेसर को एक गुंडे ने रास्ता चलते चपत मारी । वे बाइबिल पर विश्वास करते थे, उनने दूसरा गाल भी आगे कर दिया । गुंडे ने दूसरे गाल  पर उससे भी जोर की चपत मारी वह तीसरी चपत जडने ही वाला था कि प्रोफेसर ने उसे धर  दबोचा और उसकी हड्डी -पसली तोड़कर रख दी । लोगों के पूछने पर प्रोफेसर ने बताया कि बाइबिल में दो चपत खाने तक की बात लिखी है । तीसरी चपत लगने पर  उसका प्रतिरोध कैसे किया जाय ? यह मनुष्य के अपने विवेक पर छोड़ दिया गया है । एक ही सिद्धांत विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न ढंग से प्रयुक्त होता है ।

सुधारक मार्टिन लूथर- मार्टिन लूथर के पिता उन्हें वकालत पढ़ाना चाहते थे । पर इससे उन्होंने  नम्रतापूर्वक इन्कार कर दिया । झूठे को सच्चा और सच्चे को झूठा बतलाना उन्हें मंजूर न था । उन्होंने धर्मोपदेशक  बननाचाहा और पिता की अनिच्छा के भी वहीं पढ़ने लगे । अपनी प्रतिभा के कारण वे उस क्षेत्र में उच्च पद प्राप्त कर सके । 

पर जिस कारण से उन्होंने वकालत पढ़ने से इन्कार किया  था, वह बीमारी यहाँ भी मौजूद पाई । पैसा लेकर स्वर्ग का टिकट बाँटने का व्यवसाय यहाँ भी चल रहा था  । लूथर की आत्मा ने इसके विरुद्ध भी बगावत खड़ी कर दी । उनने अब तक की जीवन धारा उलट दी  । समर्थक के  स्थान पर विरोधी हो गए । 
पादरी वर्ग ने उन पर मुकदमा चलवाया, धर्मद्रोही ठहरादिया और देश निकाले की सजा दिलवाई । इतने पर भी उनने अपना कार्य जारी रखा । एक ओर समूचा पादरी समुदाय, दूसरी ओर अकेला मार्टिन, पर सचाई उसके साथ थी, फलतः उसका आंदोलन समूचे यूरोप में फैला और ईसाई समाज में सुधारकों का एक पृथक वर्ग ही खड़ाहो गया ।। 

धर्म क्षेत्र में सामयिक सुधार के साहस का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया मार्टिन लूथर ने । 

वैशिष्ट्यमिदमेवाभूत् सर्वदा देवसंस्कृतेः । 
विवेकबुद्धये श्रद्धाभावनायै परिष्कृतम् ।। ६१ ।। 
सुदृढ़ं च ददौ दिव्यमाधारमुभयोः कृते । 
मानवी यत्र श्रद्धेय विवेकेन सहैव च ।। ६२ ।। 
तिष्ठेदाधारमाहुस्तमास्थाविन्दुमथापि च । 
महामानवतां याति देवत्व चास्थया नर: ।। ६३ ।। 
आस्थाया विरहे तस्मिन् पशुता समुदेति हि । 
आकट्यं सत्यमेवैतद् वर्तते च महत्तमम् ।। ६४।।  

भावार्थ - देवसंस्कृति की सदा यह विशेषता रही है कि उसने विवेक बुद्धि तथा श्रद्धा भावना दोनों वृक्षों के लिए परिष्कृत और सुदृढ़ आधार दिए हैं । जिन पर मानवी श्रद्धा  एवं विवेक दोनों टिक सके उन्हें आस्था के बिंदु या आधार कहते हैं । आस्था के सहारे ही मनुष्य मानव महामानव और देवमानव बनता है । 

आस्था के अभाव में उसमें पाशविकता उभरने लगती है, यह एक आकट्य महान सत्य है ।  

व्याख्या- भारतीय संस्कृति विवेक और भावना दोनों के संयोग की अपनी विशेषता से ही विश्वमान्य बनी । सारे विश्व में विभिन्न समयों में हुए विचारक जिज्ञासु मनीषियों ने इसे इसी आधार पर सराहा है । 

दाराशिकोह (औरंगजेब के बड़े भाई) उपनिषदों का अध्ययन करते थे । एक दिन वे मस्ती में झूम रहे थे । उनकी भतीजी ने पूछा- ''चचा जान ! आप नशा तो  करते नहीं, फिर ऐसे मस्त कैसे हो रहे हैं ?'' 

दारा बोले- ''बेटी ! यह मस्ती नशे की नहीं दिव्य ज्ञान की है । उपनिषदों को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि ज्ञान की मस्ती कितनी गहरी होती ।'' 

मैक्समूलर ने वेदों का सांगोपांग अध्ययन किया  । वे कहते थे- ''भारत की सांस्कृतिक विरासत इतनी महान है कि इसके लिए एक क्या दस जन्म भी लगा सकूँ, तो सार्थक समझूँगा ।'' 

पादरी लैडविटर (थियोसाफिकल सोसाइटी के मान्य संत) कहते थे- ''भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने से पूर्वआंतरिक संतोष नहीं मिला था (''ईसाई और इस्लाम मत में श्रद्धा तो दिखी, विवेक की तुष्टि नहीं हुई । पाश्चात्यदर्शन में विवेक मिला पर संवेदनाओं की प्यास न बुझी ।। भारतीय दर्शन में दोनों का योग है, यह वास्तव में योगी है । 

आध्यात्मिक त्रिवेणी -  श्रेष्ठ पुरुषो को रामचरितमानस में तीर्थराज की संज्ञा दी है । उस तीर्थ की तीन धाराएँ कही गई है- 

राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा । सरसई ब्रह्म विचार प्रचारा  ।। 
विधि निषेध मय कलिमय हरिणी । करम कथारविनन्दनि वरनी ।।

गंगा की धारा ईश्वर, भक्ति के रूप में, सरस्वती की धारा ब्रह्म विचार, उच्च चिंतन के रूप में तथा विधि निषेध युक्त सत्कर्म के रूप में यमुना की धारा है  । भारतीय अध्यात्म की, संस्कृति की यह त्रिवेणी साधकों को आदर्शनिष्ठ बनाती रही है और उसी आधार पर महापुरुष बनते रहे हैं । आस्था की समाधि स्थिति - बहुत समय तकप्रयत्न करने पर भी श्री गोपालचंद्र घोष को भाव समाधि न होती थी, जबकि अनेक व्यक्तियों को हो रही थी । एक दिन उन्होंने अपनी यह निराशा श्री रामकृष्ण परमहंस के 
सम्मुख प्रकट की । श्रीरामकृष्ण परमहंस ने कहा-  ''तूबड़ा कम बुद्धि का है । इसमें निराश या दुःख की क्या बात है? क्या तू समझता है कि भाव समाधि  होने से सब कुछ हो जाता है । क्या यही सबसे बड़ी चीज है? सच्चा त्याग भाव और परमात्मा में पूरी आस्था उससे भी बड़ी चीज है । भाव समाधि न सही । उच्च भावों का 
विकास करो, उस नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द) को देखो न, भाव समाधि की चिंता किए बिना ही अपने त्याग, विश्वास, निष्ठा और आस्था के कारण कितना तेजवान और उन्नत मन वाला तरुण है । श्री गोपालचंद्र जी की समझ में यह तथ्य आया कि आस्था में स्थिति होना भी समाधि रूप ही है । वे साधना क्रम में उत्साहपूर्वक बढ़ गए  । 

आदर्श निष्ठा - अबूअली शफीक इबादत तो बहुत करते, पर रोटी मजदूरी करके ही खाते थे । संत को इस तरह मजूरी करते देखकर एक अमीर को दया आई और उनने बहुत- सा धन सामने रखकर कहा- ''लीजिए, इससे गुजारा कीजिए, मजूरी करके अपनी हेठी मत कराइए ।'' 

अबूअली ने कहा-पाँच वजह ऐसी है, जिनके कारण मैं आपका यह धन स्वीकार नहीं कर सकता । (१) आपका लालच उठ कर मेरे ऊपर आ लदेगा, (२) मेहनत न  करने से मेरा शरीर और मन आलसी होकर अनेक बुराइयों से भर जाएगा, (३) चोर मेरे घर पर भी घात लगावेंगे, (४) आपका कर्ज मुझे कभी न कभी चुकाना पड़ेगा, (५) आपके अहसान से सदा सिर नीचा किए रहना पड़ेगा । बाद में अपने सहयोगी को समझाया ऐसे आकर्षण साधक की आस्था- निष्ठा की परीक्षा के लिए आते ही रहते हैं । मैं डिग जाता तो सुविधा तो पा लेता, पर संतत्वखो देता ।'' 

अनाथ नहीं निष्ठा का धनी - तृतीय सिख गुरु अमरदासजी ने बासठ वर्ष की उम्र तक कोई गुरु न किया । उन्हें जब यह ज्ञात हुआ कि गुरु के बिना ज्ञान नहीं होता, तो उन्होंने गुरु अंगद देवजी से दीक्षा ली । वे बड़े  भोर उठ कर तीन कोस दूर व्यास नदी से गुरु केस्न्नानार्थ जल ले आते । एक अँधरी रात  मेजल लेकर लौट रहे थे, तो रास्ते में जुलाहे की खङ्डी से उनका पांव टकरा गया और वे गिर पड़े । जुलाहा जाग उठा  और पत्नी से बोला- ''देख तो, कौन गिर पडा खड्डी में जुलाहिन ने कहा- ''और कौन होगा, वही अनाथ अमरू, आधी रात में गुरु की खिदमत के लिए उठ जाता है ।'' 

प्रात काल गुरु अंगद देवजी ने यह वार्ता सुनी  । उन्होंने सिखों के दरबार में विह्वल कंठ से रात की घटना बताई और अमरदास जी को गले लगाकर बोले-  ''यह अमरू अनाथ नहीं, सिखों का स्वामी है । सेवा धर्म का पालन करने के कारण यह गुरु गद्दी का अधिकारी है ।'' जिस स्थान पर गुरु अमरदासजी ठोकर खाकर गिरे थे, वहाँ आज भी विशाल गुरुद्वारा उनकी निष्ठा का यश सुनाता हुआ खड़ा है । 

कर्ण की दान निष्ठा - इंद्र ने ब्राह्मण वेश धरकर कर्ण से उसके कवच, कुंडल माँगने जा पहुँचे, जिनके रहते हुए वह मारा नहीं जा सकता था । कर्ण ये दोनों महत्वपूर्ण अलंकार उन्हें देने लगा, तो वे बोले- ''तुम्हें यह भली प्रकार समझ लेना  चाहिए कि इन्हें दे देने के बाद काल तुम्हें भी अपना ग्रास बना सकता है ।'' 

'' विप्रवर ! आप निश्चिंत रहिए । 

मैं यह जानते हुए दान दें रहा हूँ । जो दान और परोपकार का महत्व समझता है, उसके लिए प्राणों का मोह कुछ नहीं ।'' यह कहते हुए कर्ण ने अपने कवच- कुंडल उतार कर दे दिए । इसी आदर्श निष्ठा के आधार पर वे युग के दानवीर कहलाए ।

मेरा स्तर-जन स्तर - गांधी जी जब यरवदा जेल में कैद थे, तो जेल सुपरिटेंडेंट ने उन्हें सभी आवश्यक सामान पहुँचाए । सरकार ने उनके खर्च के लिए १५०) रु. मासिक की व्यवस्था की थी । सुपरिंटेंडेंट ने उसे बढ़ाकर ३०0) रु. कर देने की सिफारिश भेजी और कहा- ''इतने बड़े नेता के लिए इतना तो होना ही चाहिए ।''
गांधी जी ने मात्र ३५) रु. मासिक में काम चलाया और कहा- ''मुझे औसत भारतीय के स्तर का भी तो ध्यान रखना है ।'' इसी आस्था ने गांधी जी को राष्ट्र का बापू बना दिया । 

अमोघ पाशुपतास्त्र -  अर्जुन शिवजी से पाशुपतास्त्र माँग रहा था । शिवजी यह देखना चाहते थे कि वह उसकी गरिमा का संरक्षण करने का अधिकारी है या नहीं । इस परीक्षा के लिए उनने एक किरात का रूप बनाया और अर्जुन से भिड़ गया । युद्ध लंबे समय तक चला । उसमें आने वाली उतार- चढ़ाव की परिस्थितियों में जब अर्जुन का कौशल भली प्रकार जाँच लिया, तब शिवजी ने अमोघ पाशुपतास्त्र उसे दिया । महान अनुदान बिना परख के नहीं मिलते ।
 
सनातन ज्योति अपने साथ -  एक बार राजा जनक ने महर्षियाज्ञवल्क्य के समक्ष जिज्ञासा प्रकट की- ''महाराज ! यदि सूर्य लुप्त हो जाए, तो मनुष्य किस ज्योति का आश्रय लेकर जीवित रहसकेगा?'' 

चंद्रमा की ज्योति का आश्रय लेकर- ''याज्ञवल्क्य ने सहज भाव से उत्तर दिया । ''यदि चंद्रमा का भी अस्तित्व लोप हो जाए, तो फिर मनुष्य किस ज्योति का सहारा ले?'' 
''अग्नि ज्योति का'' -महर्षि बोले । 

''यदि अग्नि भी बुझ जाए तो?''- जनक ने प्रश्न किया । 

''यदि अग्नि भी मनुष्य का साथ छोड़ दे, तो वह वाणी के अवलंब से जीवित रहेगा ।। '' 

'' महर्षि यदि मनुष्य की वाक् शक्ति भी नष्ट- हो जाए तब वह क्याकरे?'' जनक ने पुनः प्रश्न किया ।। '' यदि, मनुष्य की वाक् शक्ति भी न रहे, तब वह विवेक का आश्रय ले ।विवेक को कोई नहीं बुझा सकता ।'' याज्ञवल्क्य का कहना था । 

ऐसी दृढ़ आस्थाओं के आधार पर ही ऋषि विश्ववंद्य हुए । 

कुधान्य कल्पना के आँसू -  एक स्थान पर युधिष्ठिर, कृष्ण और ब्राह्मण बैठे आँसू बहा रहे थे । इतने में अर्जुन आ गए और वे भी रोने  लगे । कारण पूछने पर जाना गया कि युधिष्ठिर का आमंत्रण स्वीकार कर लेने पर ब्राह्मण सोचने लगा, मुझे कुधान्य खाना पड़ेगा  । युधिष्ठिर को यह दुःख था कि वे श्रम उपार्जित अन्न -ब्राह्मण को न खिला सके । कृष्ण इसलिए रोए कि अभी ब्राह्मण और यजमान को धान्य- कुधान्य की विवेक बुद्धि है । आगे कलियुग में यह भी न रहेगी । अर्जुन बोले- '' मै इनकी आस्थाएँ देखकर द्रवित हो उठा ।'' 

इन्हीं आस्थाओं के अभाव में जरासन्ध, कंस और कौरव रच दिए थे । 

विज्ञानेन सहैवात्र बुद्धिवादोऽभिवर्द्धते ।। 
जर्जरा विकृताया स्युः सन्ति लोके परम्परा: ।। ६५ ।। 
अस्वीकृता विवेकेन ना न चाऽन्याः समुत्थिताः ।
श्रद्धा तिष्ठन्ति नान्येषु सांस्कृतीं चेतनां विना ।।  ६६  ।। 
आस्थायाञ्च नवान् बिन्दून प्राप्याऽयमभून्नरः । 
आस्थाहीनस्ततो वृद्धिं तदसन्तुलनं गतम् ।।  ६७  ।।  

भावार्थ :- विज्ञान के साथ बुद्धिवाद बढ़ा है ।। जर्जर- विकृत परंपराओं के विवेक ने अस्वीकार कर दिया है? नए आधार बने नहीं कुछ बने तो उनमेंसांस्कृतिक चेतना की झलक न मिलने से श्रद्धा उन पर टिकती नहीं आस्था के नए आयाम न मिल सकने सेमनुष्य आस्थाहीन हो गया । उसी के कारण सारा असंतुलन बढ़ रहा है ।। 

व्याख्या- बढ़ती बौद्धिकता ने उन सब आधारों को मानने से इन्कार कर दिया जिनमें विकार पैदा हो गए थे । यह ठीक भी था, परंतु विकार तो सभी में पैदा हो गए थे, सब कुछ हटा देने पर मान्यता कहाँ टिके, यह समस्या आ गई । 

ईश्वर- मनुष्य को पूजा चढ़ाने के बाद मनचाही वस्तु देने वाला कोई भला आदमी भी नहीं हो सकता, ऐसे व्यक्ति को ईश्वर कैसे मान लें? 
धर्म- धर्म ने वर्ग भेद बढ़ाया,  पक्षपात की आदत डाल दी, द्वेष भड़काया, ऐसे धर्म को अस्वीकार कर देने में किसी को संकोच क्यों हो? 
परलोक- पुनर्जन्म किसी ने देखा नहीं । कर्मफल तत्काल मिलते दीखते नहीं । प्रयोगशाला में तुरंत परिणाम देखने की अभ्यस्त बुद्धि ने इन सबको भी झुठला  दिया । 
इसी प्रकार पुरानी मान्यताएँ टूटती गई । नई मान्यताओंके आधार बने नहीं । मानवी बुद्धि चकरा गई, किस आधार  पर अपने लिए मर्यादाएँ बनाएँ? इस भ्रम ने सभी तरफअसंतुलन बढ़ा दिया है । सभी इससे चिंतित हैं । जब भी कभी ऐसी स्थिति आती है, मनुष्य को हानि उठानी पड़ती है । 

प्रगति या दुर्गति -जीव विज्ञान पर नोबेल पुरस्कारविजेता अलेक्सस ने एक सामाजिक गोष्ठी में विज्ञान की प्रगति को अधूरा कहा । विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक की उक्ति पर आश्चर्य प्रकट करते हुए उपस्थित विद्वानों ने स्पष्टीकरण चाहा, तो बोले- ''विज्ञान ने साधन बढ़ा दिए, परंतु सदुपयोग की विवेकशीलता घट गई  । विकृत बुद्धि अंधी दौड़ दौड़ती है । गहराई से समीक्षा करने पर लगता है कि यह कथित प्रगति कहीं दुर्गति तो नहीं?'' 

गाँधीजी का प्रतिरोध-  गाँधी जी ने अहिंसा को सत्य के समान ही परम धर्म बताया है ।। परंतु उनकी अहिंसा कायर की नहीं, वीर की अहिंसा है । जहाँ किसी तरह जान बचा लेने की भावना है या जहाँ खतरे से मुँह मोड़ने, भाग जाने की संभावना है, वहाँ अहिंसा नहीं है । इससे तो गांधी जी ने हिंसा को श्रेष्ठ माना है, जिनमें भय, संकट, हमले का सीधा सामना किया जाता है । 

११२३ की बात है । गुजरात के एक जिले में हिंदू- मुसलमान दंगा बड़े जोर का हुआ था । वहाँ से कुछ हिंदू भाग कर गांधी जी के पास साबरमती आए । मुसलमानों के अत्याचारों की उन्होंने बड़ी शिकायतें की । सब बड़े दुःख एवं शांति के साथ सुनकर गांधी जी ने उनसे कहा- ''तो तुम लोगों ने, इसके मुकाबले में क्या किया?'' 

'' करते क्या? आपकी अहिंसा ने हमारे हाथ- पाँव बाँध रखे  हैं । इसी से हमारी पिटाई होती है ।'' इस जवाब से बापू का चेहरा तमतमा उठा और कड़े स्वर में  बोले- ''सो ठीक है, पर मेरी अहिंसा ने यह नहीं कहा था कि  तुम लोग वहाँ से भागकर अपनी बुजदिली की सूचना मेरे को देने आते । मेरी अहिंसा तो ऐसे समय मिटने का संदेश देती है । तुममें यदि मर मिटने का साहस नहीं था, तो अपने मत के अनुसार उस स्थिति का मुकाबला करना था । तुमने मेरे मत को समझा नहीं और अपने मत  पर चलने की हिम्मत नहीं की । क्रियात्मक प्रतिरोध छोड़ बैठे, अहिंसात्मक प्रतिरोध की आस्था- क्षमता अर्जित नहीं की । बीच की अनास्था की स्थिति में दुर्गति तो होगी ही ।'' 

केवल बहस या उपयोग भी -  इंग्लैंड के लंकाशायर नगर में एक ऐसा गिरिजाघर बनाने की बात सोची गई, जो विश्व में अद्वितीय हो । नगरपालिका के मेयर ने उसके लिए यथेष्ट धन दिया और गिरिजाघर बनने लगा । 

बहुत सुंदर गिरिजाघर बनकर तैयार हो गया । दर्शक वाह वाह कर उठते थे । दूर दूर से भक्तगण दर्शनार्थ आने लगे । एक दिन नगरपालिका की बैठक बुलाई गई ।। यह प्रमाणित करना था कि गिरिजाघर विश्व के सब गिरिजाघरों से भव्य और सुंदर है । सभा प्रारंभ हुई, एक सदस्य ने उसे अनावश्यक लंबा बताया । दूसरे ने चौड़ाई की टीका की । किसी ने कहा- गिरिजाघर पूर्वी शैली पर होता, तो और सुंदर होता । बहस बराबर चलती रही, कोई सर्वसम्मत निष्कर्ष नहीं निकला । एक दिन ईशरवुड वहाँ पहुँचे और बोले- ''आप लोग इतने महीनों से वाद- विवाद में लगे हो, समय बरबाद करते हो । तुमसे अच्छे तो यह भक्त ही हैं, जो जितना है, उतने का ही आनंद लूट रहे है  ।'' श्रद्धाहीन बुद्धि  स्थूल कमाल भले ही दिखा ले, श्रद्धा योग के बिना शांति- संतोष नहीं दे सकती । ''यह कहकर विद्वान ईशरवुड उस विवाद से हट गए । विवाद लंबे समय तक चलता रहा । 

द्रौपदी के  पुत्र मारे गए - महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया । अश्वत्थामा ने सोचा, पांडवों को कपट से जब सो रहे हों तब मार दूँगा । भगवान कृष्ण पांडवों के रक्षक थे ।। उन्होंने उन्हें सोते से जगाया,  कहा मेरे साथ गंगा किनारे  चलो । पांडव प्रभु की बात बिना किसी प्रतिरोध के मान लेते थे । उठकर चल दिए । 

श्रीकृष्ण ने द्रौपदी पुत्रों से भी साथ चलने को कहा, परंतु बाल बुद्धि ने इन्कार कर दिया ।। कहा- ''आप जाओ, हमें तो नींद आ रही है, सोएँगे ।'' 

प्रभु के जगाने पर जो जाग गए, बच गए । जिनने सोने का  जिद किया, लंबी नींद सो गए । प्रभु की अयाचित सहायता  का लाभ केवल निष्ठावान ही उठा पाते हैं । जो अपनी बुद्धि  की सीमा से परे है, वह लाभ आस्था ही दे सकती है। 

स्विच दबाएँ, प्रकाश पाए - एक बार महात्मा आनंद स्वामी  से किसी व्यक्ति ने आत्मदर्शन करा देने के लिए आग्रह किया । स्वामी जी ने उसे जब साधना, उपासना की बात कही, तो वह झल्ला उठा । बोला कि ''आज  के वैज्ञानिक युग में बटन दबाते ही प्रकाश का प्रकट हो जाना संभव हो गया है । अतः इस युग में आपकी बातों की  कोई कीमत नहीं हो सकती।'' 

स्वामी जी ने उत्तर दिया- ''भाई ! बटन दबाते ही प्रकाश हो जाता है, यह तो सच है, परंतु यह तभी संभव होता है, जब बटन उस तार से संयुक्त हो, जो बल्ब तथा पावर हाउस से संबंध बनाता है । इसी तरह आत्मदर्शन के लिए भी अपने मन् रूपी तार को आत्मा रूपी पावर हाउस से जोड़ना पड़ता है और तब बटन दबाते ही आत्मज्योति प्रकट हो सकती है, अन्यथा नहीं । विज्ञान की बात करते हो, तो उसी पर पूरी आस्था रखो । स्वामी जी कहते थे, विज्ञान बुरा नहीं, आवश्यक है, परंतु विज्ञान का अधकचरा ज्ञान पुरानी आस्थाओं को नकार देता है, नई आस्थाओं का निर्माण कर नहीं पाता, इसीलिए वह अनिष्टकारक लगने लगता है । 

आस्थाहीनसमाजस्य सद्गतिर्नैव सम्भवा । 
ईश्वरे परलोके च धर्मे कर्मफलेऽपि वा ।।  ६८  ।। 
आत्मन्यपि न चैवास्था नैतिके कर्मणीह चेत् । 
अस्यां स्थितावकर्तव्यं कर्तव्यं नैव विद्यते ।। ६१  ।। 
स्वार्थे पशुत्व एवाऽपि नियन्ता नास्ति कक्ष्चन ।। 
आत्मीयत्वं सदाचार नीतिं प्रोत्साहयेच्च कः ।।  ७० ।। 
अनास्था वर्द्धते यस्मात्क्रमात्तस्माद्धि निश्चितम् ।। 
आदर्शवादिता पूर्ण भ्रष्टतां याति सर्वतः।। ७१ ।।

भावार्थ - आस्थाहीन समाज की सद्गति संभव नहीं ईश्वर,  धर्म,  कर्मफल,  परलोक आत्मा,  नैतिकता,  किसी पर आस्था नहीं ऐसे में न कुछ कर्तव्य है और नअकर्तव्य ।  स्वार्थ पशुता पर अकुंश लगाने वाला कोई नहीं । आत्मीयता नीति- सदाचार को प्रोत्साहन कहाँ से मिले? जैसे जैसे अनास्था बढ़ती है आदर्शवादिता तहस−नहस होती जाती है । 

व्याख्या- मनुष्य का स्वभाव है कि वह ऐसे कार्य में ही रुचि लेता है जिससे हानि से उसकी रक्षा हो सकें अथवानिश्चित लाभ का विश्वास हो सके । ईश्वर, धर्म, कर्मफल, आत्मा, परमात्मा के प्रति आस्था होने पर मनुष्य को नैतिक- आदर्शनिष्ठ जीवन में लाभ और उच्छ्रंखलता जीवन में हानि दीखने लगती है ।। वे सारे आधार छूट जाने से उसे नैतिक मर्यादा में हानि तथाउच्छ्रंखलता में लाभ दीखने लगता है । यह भारी भ्रम है । किंतु इस भ्रम का निवारण आस्था के सुदृढ़आधार बनाए बिना हो भी तो नहीं सकता ।। इतिहास साक्षी है कि आदर्शवादिता के बिना समाज की गति नहीं तथा आस्था के बिना आदर्शवादिता का निर्वाह संभव नहीं । 

कल्याण पथ पर दुर्गति नहीं - गांधी - जी से एक विदेशी सज्जन ने पूछा-  ''आप बड़ी से बड़ी कठिनाई देखकर भी रुकते नहीं, निर्भय आगे बढ़ जाते है, इसका क्या मर्म है?'' 
गांधी जी बोले- "भगवान के उच वचन पर मेरी पूरी आस्था है कि कल्याण पथिक की दुर्गति नहीं होती ।जनकल्याण का लक्ष्य मेरे सामने है, रास्ता तंग है, तलवार की धार जैसा है, तो भी क्यों डरूँ? उस पर चलने के अभ्यास से मेरा भी तो स्तर बढ़ेगा, आत्मकल्याण भी तो सधेगा । इस आस्था के रहते कठिनाइयाँ पार करने में रस आता है ।'' 

एक मिशनरी ने रामकृष्ण परमहंस से पूछा कि वे माता काली के रोम रोम में अनेक ब्रह्मांड की बातें करते है और उस छोटी सी मूर्ति को काली कहते हैं । यह कैसे? इस पर परमहंस ने पूछा-  ''सूरज दुनियाँ से कितना बड़ाहै?'' उन्होंने उत्तर दिया-  '' नौ लाख गुना ।'' 

परमहंस ने फिर पूछा-  ''तब वह इतना छोटा कैंसे दिखाई देता है?'' मिशनरी ने कहा-  ''नौ लाख गुना होने पर भी सूरज हमसे बहुत दूर है । इसलिए वह इतना छोटा दिखाई देता है ।

 ''परमहंस ने फिर पूछा- ''कितनी दूर ?'' उन्होंने बताया-  ''नौ करोड़ तीस लाख मील ।'' परमहंस ने विनम्रता से जवाब दिया-  ''ठीक इसी प्रकार आप मां काली से इतनी दूर हैं कि आपको वह छोटी दिखाई देती है । मैं उनकी गोद में हूँ । इसलिए मुझे वे बड़ी लगती हैं । आप स्थूल दृष्टि से पत्थर देखते हैं, मैं आस्था की दृष्टि से  शक्ति पुंज देखता हूँ ।'' 

छाया की पकड़  - एक आदमी छाया पकड़ने दौड़ा । सूरज पीछे था । छाया आगे आगे भागती जा रही थी । पकड़ में न आ रही थी । एक ज्ञानी मिले । प्रयोजन समझा और कहा- ''अपना रास्ता उलट दो, सूर्य की ओर मुँह करके चलो । छाया पीछे पीछे- दौड़ने लगेगी ।'' 

माया छाया है । ईश्वर सूर्य । माया के पीछे भागने से वह हाथ नहीं आती, पर जब भगवान की ओर मुँह करके चलते है, तो वह पीछे पीछे दौड़ने लगती है । जिसकी इस सिद्धांत पर आस्था नहीं, मृगतृष्णा में दौड़- दौड़ कर टूट ही जाता है । 

माँ को धोखा  कैसे दें? -  राष्ट्रीय आंदोलन जोरों पर था । भारतमाता की जय बोलते हुए लोग कुर्बानियों के लिए दौड़ पड़ते  थे । उन्हीं दिनों वेदांतियों का एक मंडल विश्व कवि रवीन्द्रनाथ जी से मिलने पहुँचा । एक सज्जन बोले- ''यह भारतमाता का हल्ला करके परेशानी मोल लेना संकीर्णता जनित है । भूमि जड़ है, यहाँ कौन अपना, कौन पराया? इसका मोह कैसा?'' 

गुरुदेव कुछ गंभीर हुए, फिर बोले- ''आपकी माँ है?'' उत्तर मिला- ' '' हाँ !'' वे बोले-  ''रात को माँ चीखे, तो आप दौड़ेंगे या सोएँगे ?'' उत्तर मिला-  ''कौन हृदयहीन दौड़े बिना रहेगा  ?'' गुरुदेव ने अगला प्रश्न किया-  ''यदि कोई व्यक्ति माँ की आबरू उतारता दीखे या सिर काटता दीखे, तो आप नश्वर शरीर 'रहने न रहने से क्या ?' ऐसा 
कहकर वापस आ जाएँगे?'' इस प्रश्न पर वेदांती सज्जन कुद्ध हो पड़े, बोले-  ''आपने हमें समझ क्या रखा है? उस दुष्ट को मार डालूँगा या मर जाऊँगा ।'' गुरुदेव शांत स्वर में बोले-  ''तो भाई ! अब किसी से भारत मां के नाम पर ऐसी छोटी बात मत कहना । जैसे आपको अपनी मां दीखती है, उसके प्रति जो संवेदनाएँ है, हम लोगों के वैसे ही भाव मातृभूमि के प्रति हैं । मैंने तो आपको शांति से समझाने का प्रयास ही किया है, पर कोई आप जैसा उत्तेजित होकर मरने- मारने पर तुल गया, तो कठिनाई में पड़ जाएगें । पंडित जी, आस्थाहीन व्यक्ति  दुष्टता पर अंकुश नहीं कर सकते, पर आस्थावान चुप नहीं रह सकते ।'' 

बात का बतंगड़ - एक खरगोश बेल के नीचे सोया था । ऊपर से बेल का पका फल गिरा, सो खरगोश के सिर पर गिरा । उनींदे में उसे लगा कि जमीन फट गई और आसमान ऊपर से गिरा । यही बात कहता हुआ  वह बेतहासा भागा । उसकी अवाज सुनकर जंगल के दूसरे जानवर भी उसी दिशा में भागने लगे । जंगल भर में भयंकर भगदड़ मच गई । 

सामने से सिंह आ रहा था । भगदड़ का कारण सुनकर बहुत हँसा और सामने वालों को रोककर कहा- ''चलो, वास्तविकता का पता  तो लगाएँ । ''पूछते पूछते अंत में पता चला कि खरगोश ने यह बात फैलायीं । उसे वहाँ ले जाया गया, जहाँ वह घटना हुई थी । पता चला कि उनींदे में सिर पर बेल का फल गिरा था और उतनी बात का बतंगड़ बन गया । जब चिंतन का कोई सही आधार न हो, तो ऐसे भ्रम- भटकावों का क्रम चलता ही रहता है । 

भगवत्  विश्वास संकट मे भी - दुर्योधन ने भीष्म पितामह पर आक्षेप किया कि वे अर्जुन के प्रति मोह रखते हैं, इसलिए पूरा शौर्य प्रकट नहीं करते । भीष्म ने प्रतिज्ञा की-  ''फल के युद्ध में मैं या अर्जुन में से एक की मृत्यु होगी ।'' भीष्म की प्रतिज्ञा से पांडवों में खलबली मच गई । स्वयं कृष्ण चिंतित हो उठे । नींद नहीं आई । अर्जुन की क्या स्थिति है, यह देखने उनके डेरे में जा पहुँचे । देखा अर्जुन निश्चित स्वाभाविक स्थिति में सो रहे हैं । 

श्रीकृष्ण ने उन्हें जगाया, पूछा-  ''भीष्म की प्रतिज्ञा सुनी?'' उत्तर मिला- ''हाँ सुनी ।'' कृष्ण बोले- ''फिर भी निश्चित  कैसे सो रहे हो?'' अर्जुन बोले- ''जो मेरे करने का है, सो तो मैं करूँगा ही, उसके लिए ठीक- ठीक विश्राम भी जरूरी हे । उसके अतिरिक्त क्या करना है, यह मेरा रक्षक सोचता है  । उसकी जागरूकता पर भरोसा हैं, इसीलिए निश्चित सोता हूँ ।'' 

सच्ची सम्पत्ति - नीशापुर के संत  अहमद से कुछ शिष्य बोले-  "महाराज ! हमें ईश्वर के किसी सच्चे भक्त के बारे में बताइए । 

संत ने कहा-  ''तो सुनो, बहराम मेरा पड़ोसी था । मुझसे उसकी मित्रता हो गई । वह मालदार व्यापारी था । एक दिन राह में डाकुओं ने उसके कारवाँ लूट लिए । सुनकर मैं उसे ढाढस बँधाने गया ।'' जब मैं उसके घर पहुँचा, बहराम ने सोचा, शायद दूसरी की तरह मैं भी भोजन में आया हूँ । मैंने उससे कहा- ''भाई ! कष्ट मत करो । मैं भोजन की आशा से नहीं, बल्कि तुम्हारे इस भारी नुकसान में तुम्हें ढाढस बँधाने आया हूँ ।'' 

संत बोले-  ''सत्पुरुषों की श्रेष्ठता उनकी आस्था के स्तर के आधार पर ही पनपती है । अनास्थावान न भक्त हो सकता है, नसज्जन । शरीर नहीं निष्ठा देखें - सृष्टिकर्ता ने एक दिन सोचा कि धरती पर जाकर कम से कम अपनी सृष्टि को तो देखा जाए । धरती पर पहुँचते ही सबसे पहले उनकी दृष्टि एक किसान की ओर गई। वह कुदाली लिए पहाड़ खोदने में लगा था । सृष्टिकर्ता प्रयत्न करने पर भी अपनी हंसी न रोक पाए । उस इतने बड़े कार्य में केवल एक व्यक्ति को लगा देख और भी  आश्चर्य हुआ । 
वह किसान के पास गए, उन्होंने कारण जानना चाहा, तो सीधा उत्तर था-  ''महाराज ! मेरे साथ कैसा अन्याय है? इस पर्वत को अन्यत्र स्थान ही नहीं मिला । बादल आते हैं, इससे टकराकर उस  ओर वर्षा कर देते है और पर्वत के इस ओर जो मेरे खेत हैं, वह सूखे ही रहते है ।'' ''क्या तुम इस विशाल पर्वत को हटा सकोगे?' स्रष्टा ने पूछा । 
''क्यों नहीं, मैं इसे हटाकर ही मानूँगा, यह मेरा दृढ़ संकल्प है ।'' 

सृष्टिकर्ता आगे बढ़ गए, तो उन्होंने अपने सामने पर्वतराज को याचना करते देखा । वह हाथ जोड़े गिड़गिड़ा रहा था-  ''विधाता । इस संसार में सिवाय आपके मेरी रक्षा कोई नहीं कर सकता ।'' स्रष्टा ने पूछा-  ''छोटे से किसान के कथन से इतने क्यों घबड़ा रहें हो?'' तो पर्वत ने कहा-  ''आपने उसकी आस्था नहीं देखी? मेरा अनुभव है, निष्ठावान के संकल्प कभी अधूरे नहीं रहे । इतनी सबल आस्था पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है  । संकल्प पूरा  होने तक विराम नहीं लेती ।'' 

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