प्रज्ञा पुराण भाग-4

॥अथ पञ्चमोऽध्यायः:॥ मरणोत्तर जीवन प्रकरणम्-2

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आस्तिकत्वे चेश्वरस्तु न्यायकर्ता तथैव च ।
समदृष्टियुत: सर्वव्यापकश्च मत: समैः ।।३४।।
क्रियाकृत्यानि प्रेमास्य रोषंश्चाश्रयतस्सत:।
अस्था: पुष्टिर्मान्यताया विश्वासेन भवेदिह ।।३५।।
अनन्तजीवनस्यैव सोऽन्यथा मानवो भवेत् ।
उद्दण्डो नास्तिक: कर्मफलाऽप्राप्तौ निरन्तरम् ।।३६।।
सर्वनाशश्च स्वस्यैव दृष्टिकोणेन सन्ततम् ।
जायतेऽनेन चाऽनीतिजन्यदुःखानि तान्यथ ।।३७।।
दारिद्र्यं च समस्तेऽपि संसारे यान्ति विस्तरम् ।
अमरा: सन्ति देवास्ते देवसुंस्कृतिगा अपि ।।३८।।
नरा आत्मांऽमरत्व च निश्चितं मन्वते सदा ।
मरणस्य भयं दुःखं मन्यन्ते न ततश्च ते ।।३९।।

भावार्थ- आस्तिकता में ईश्वर को न्यायकारी, समदर्शी, सर्वव्यापी माना जाता है । उसका दुलार और रोष क्रिया-कृत्यों पर ही निर्भर रहता है । इस मान्यता की पुष्टि अंनत जीवन के विश्वास से ही होती है । अन्यथा कर्मफल में देर लगने पर मनुष्य निरंतर कृपण उद्दडं एवं नास्तिक होने लगता है इस दृष्टिकोण के अपनाने से अपना सर्वनाश होता है और समस्त संसार में अनीतिजन्य दुःख-दारिद्य का विस्तार होता है।

देवता अमर होते हैं । देवसंस्कृति पर विश्वास करने वाले मनुष्य की आत्मिक अमरता को सुनिन्नित मानते हैं । फलत: मरण का भय और दुःख भी नहीं मानते ।।३४- ३९।।

व्याख्या- वस्तुत: इस विश्व का निर्माणकर्त्ता बहुत ही दूरदर्शी और व्यवहार कुशल है । उसने इतना बढ़ा सृजन किया है । जड़ में हलचल और चेतन में चिंतन की इतनी अद्भुत क्षमता का समावेश किया है कि किसी सूक्ष्मदर्शी को आश्चर्चयचकित रह जाना पड़ता है । निर्माण, व्यवस्था और परिवर्तन की जो रीति-नीति विनिर्मित की है, उसके तारतम्य को देखते हुए मनीषियों ने कला की कल्पना की और विज्ञान की धारणा को मूर्त्त रूप दिया । ऐसे सर्वसंपन्न स्रष्टा से कर्म व्यवस्था के संबंध में चूक होना-यह सोचना अपनी ही बाल बुद्धि का खोखलापन दर्शाना है । जिसकी दुनियाँ में दिन और रात की, ग्रह-नक्षत्रों के उदय-अस्त की, पदार्थ की, प्रकृति और प्राणियों की परंपरा की विधि-व्यवस्था में कहीं राई-रत्ती अंतर नहीं पड़ता, वह कर्मफल को संदेहास्पद बनाकर अराजकता का और आत्मघात का विग्रह खड़ा नहीं कर सकता ।

आत्मिकी के सिद्धांत और व्यक्तिगत जीवन को अधिकाधिक सुसंस्कृत एवं पवित्र बनाने की भूमिका संपादित करते हैं । यही सिद्धांत है, जिनके माध्यम से सामाजिक सुव्यवस्था की आधारशिला रखी है । (१) शरीर की नश्वरता, (२) आत्मा की अमरता, (३) कर्मफल का सुनिश्चित होना तथा (४) परलोक, पुनर्जज्म की संभावना-यह चार सिद्धांत ऐसे हैं, जो किसी न किसी रूप में प्राय: अध्यात्म की सभी शाखाओं में प्रतिपादित किए गए हैं ।

आत्मा की पुकार है, 'मृत्योर्माऽमृतं गमय' 'हे परमेश्वर! मुझे मृत्यु से अमरता की और ले चल ।" मरण कितना अवांछनीय और जीवन कितना अभीष्ट है, इसका आभास इस पुकार में मिलता है । अंतरात्मा की प्रबल कामना है, जिजीविषा । वह जीना चाहता है । शरीर नष्ट हो जाय, तो क्या आत्मा सतत् जीवित बने रहने की आकांक्षा रखती है । जब यह भाव है, तो मृत्यु से डर किस बात का एवं फिर इस जन्म में दुष्कर्म बन भी कैसे पडे़ ?

जिसने जन्म लिया है, उसका मरण सुनिश्रित है । सृष्टि क्रम ही जन्म-मरण की धुरी पर घूम रहा है । जो जन्मा है, सो मरेगा ही । जीवनेच्छा कितनी प्रबल क्यों न हो, मरण से बचा नहीं जा सकता । मृत्यु की चलती चक्की में अन्न के दानों की तरह हमें आज नहीं, तो कल पिसकर ही रहना है । इस तथ्य को न तो झुठलाया जा सकता है और न उसका सामना करने से बचा जा सकता है । मरण को एक ध्रुव सत्य ही मानकर चलना चाहिए । अनिच्छा, भयभीरुता अथवा कृपणता-कातरता कुछ भी मन में क्यों न हो ? प्रकृति का सुनिश्चित क्रम रुकेगा नहीं, हमारा परमप्रिय लगने वाला आज का सुनिश्चित अस्तित्व कल महान शून्य में विलीन होकर रहेगा । आज की यथार्थता कल विस्तृत के गर्त में गिरकर सदा के लिए अविज्ञता के अंतरिक्ष में बिखर जाएगी ।

मरण से भयभीत होकर आतुर लोग ऐसा सोचते हैं कि इन्हीं क्षणों जितना अधिक आनंद उठा लिया जाय, उतना ही उत्तम है । वे इंद्रिय लिप्सा एवं मनोविनोद के लिए अधिकाधिक साधन जुटाते हैं और उनके लिए जो भी उचित-अनुचित करना पड़े, उसे करने में नहीं चूकते । यह उपभोग की आतुरता कई बार तो इतनी बढ़ी-चढ़ी और इतनी अदूरदर्शी होती हैं कि उपभोग का आरंभ होते होते विपत्ति का बज्र सिर पर टूट पड़ता है । अपराधियों और कुकर्मियों की दुर्गति आए दिन देखी जाती है । कइयों को तुरंत ही प्रतिरोध का, प्रतिशोध का सामना नहीं करना पड़ता । सामयिक सफलता भी मिल जाती है, पर ईश्वरीय कानून तो उलटे नहीं जा सकते ।

एक सच्चाई एक तथ्य- मृत्यु वस्तुत: उतनी भयानक है, नहीं, जितनी कि समझी जाती है । आत्मा का अस्तित्व अब नया सुनिश्चित तथ्य मान लिया गया है । वे दिन लद गए, जब नौसिखिए, बुद्धिवादी मनुष्य को जड़ उत्पादन कहा करते थे और शरीर की मृत्यु के साथ ही आत्मा का अस्तित्व न रहने का प्रतिपादन करते थे । पुनर्जन्म के अतिरिक्त सूक्ष्म शरीर धारण किए रहने तक के अब तक इतने प्रमाण मिल चुके हैं कि उनकी यथार्थता से इन्कार करने का कोई साहस नहीं कर सकता । जन्मजात विशेषताओं का बहुत पहले वंश परंपरा के साथ
संबंध जोड़ा जाता था । अब यह मान लिया गया है कि वंश परंपरा से सर्वथा भिन्न प्रकार की जो असाधारण विशेषताएँ मनुष्यों में जन्मजात रूप से पाई जाती हैं, उसका कारण प्राणी के पूर्व जन्म के संस्कार ही हो सकते है । विज्ञान और बुद्धिवाद ने पिछली शताब्दियों में जो प्रगति की है, उसके आधार पर मरणोत्तर जीवन की प्रामाणिकता में संदेह करने का कोई कारण शेष नहीं रहा है । पैरा साइकोलॉजी-मेटाफिजिक्स एवं ऑकल्ट साइंस कें क्षेत्र में एक के बाद एक ऐसे तथ्य प्रस्तुत किए जा रहे है, जो मरणोत्तर जीवन की यथार्थता को एक सुनिक्षित तथ्य के रूप में प्रस्तुत करते है ।

मृत्यु एक महायात्रा

स्वामी विवेकानंद ने मृत्यु के संबंध में चर्चा करते हुए एक बार कहा था "जब मैं मृत्यु के संबंध में सोचता हूँ, तो मेरी सारी कमजोरियाँ विदा हो जाती हैं । उस कल्पना में न मुझे भय लगता है और न शंका-संदेह भरी बेचैनी अनुभव होती है । तब मेरे मन में उस महायात्रा की तैयारी के लिए योजनाएँ भर बनती रहती है । मरने के बाद एक अवर्णनीय प्रकाश पुंज का साक्षात्कार होगा, इस कल्पना से मेरी अंतरात्मा पुलकन और सिहरन से गदगद हो जाती है ।'' यही देव मानवों का चिंतन होता है । देवता अमर होते है, यह कथन अक्षरश: सही है ।

मरने से क्या डरना ?

सुकरात को जहर दिए जाने की तैयारी चल रही थी । शिष्य, मित्र, सहयोगी, संबंधी सभी के नेत्र सजल हो उठे । प्राणों से प्रिय अपने मार्गदर्शक से बिछुड़ने की वेदना असह्य हो रही थी । पर सुकरात पर इसका कोई प्रभाव नहीं था । उलटे उस दिन अन्य दिनों की अपेक्षा प्रसन्नता, प्रफुल्लता मुखमंडल पर और भी अधिक परिलक्षित हो रही थी, मृत्यु को गले लगाने की आतुरता सुकरात की देखते बनती थी ।

ऐसा लगता था कि किसी प्रियजन से मिलने की उत्सुक्ता हो । मित्रों ने इस आतुरता का कारण रोते हुए पूछा । सुकरात ने कहा- "मैं मृत्यु का साक्षात्कार करना चाहता हूँ तथा यह जानना चाहता हूँ कि मृत्यु के बाद हमारा अस्तित्व रहता है या नहीं । मृत्यु जीवन का अंत है अथवा एक सामान्य परिवर्तन क्रम ।''

सुकरात को निर्धारित समय पर विष दे दिया गया । सभी आत्मीय उन्हें घेरे बैठे थे । नेत्रों से अश्रु की अविरल धारा बह रही थी । सुकरात ने कहा- "मेरे घुटने तक विष चढ़ गया है । पैरों ने काम करना बंद कर दिया । वे मर चुके, किंतु मैं फिर भी जीवित हूँ । मेरे अस्तित्व में थोड़ा भी अंतर नहीं आया, मैं पूर्ण हूँ । देखो । मेरे हाथों ने, कमर ने, नेत्रों ने काम करना बंद कर दिया, निर्जीव हो गए, किंतु मैं ठीक पहले जैसा हूँ । '' उपस्थित स्नेही, सहयोगी फूट-फूटकर रोने लगे । सुकरात ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा-"देखो! तुम्हें जीवन की वास्तविकता को समझने का एक अलभ्य अवसर मिला है । एक व्यक्ति मृत्यु की अवधि से गुजर रहा है तथा तुम सबको संदेश दे रहा है कि मृत्यु जीवन का अंत नहीं, एक अविरल प्रवाह है । जीवन की सत्ता मरणोपरांत भी बनी रहती है।''

विधान बदलने की परिणति- 

सृष्टि क्रम एक अनुशासित व्यवस्था का अंग है, इस तथ्य को भली- भांति समझा जाना चाहिए । एक धर्मात्मा ने शिवजी से वर मांगा कि संसार के सब लोगों को सर्वसुखी बना दो । शिवजी कहा- "धर्मवान बनाने की याचना तो ठीक है, पर धनवान बनाने की ठीक नहीं ।" भक्त अपने आग्रह पर डटा रहा । शंकर जी ने उसकी इच्छा पूरी कर दी । पर इससे परिस्थितियाँ और बिगड़ गई । सब लोग आलसी हो गए । दयालु लोगों के लिए किसी की सेवा करना और ज्ञान देना असंभव हो गया । धन की विपुलता रहने से मनुष्य के सद्गुण घटे और वे दुर्व्यसनों से घिर गए ।

भूल प्रतीत होने पर भक्त ने सबके लिए धर्म और पुण्यात्माओं के लिए सुख मांगा, तब कहीं सृष्टि क्रम सामान्यरीति से चला ।

निर्धारित आयु कभी घटती-बढ़ती नहीं- यहाँ सब कुछ नियम-व्यवस्था में चल रहा है, सुनियोजित है ।
विक्रमादित्य ने चौथेपन में संन्यास ले लिया और वे अवधूत जीवन व्यतीत करने लगे । उनके स्थान पर जो भी राजा बैठता, उसे भयंकर ब्रह्मराक्षस रात्रि के समय मार डालता । इस प्रकार कितने ही राजाओं की मृत्यु हो गई । भेद कुछ खुलता न था । सो कहीं से विक्रमादित्य के खोज निकालने और उनसे मार्ग निकलवाने का निश्चय किया गया । खोजने पर वे एक स्थान पर मिल भी गए । सारी स्थिति समझाई गई और उन्हें गुत्थी सुलझा देने के लिए सहमत कर लिया गया ।

विक्रमादित्य ने अपनी दिव्यदृष्टि से ब्रह्मराक्षस की करतूत समझ ली । उनने शयनकक्ष से बाहर इतने पकवान-मिष्ठान्न रखवा दिए कि उन्हें खाकर उसका पेट भर गया । फिर भी राजा को मारने के लिए शयनकक्ष में आ पहुँचा ।''

विक्रमादित्य बड़े बुद्धिमान थे । उनने ब्रह्मराक्षस को सम्मानपूर्वक बिठाया और वार्तालाप में लगाया । उससे उसकी शक्तियाँ और सिद्धियाँ पूछी । राजा ने उसकी भूख बुझाने का अधिक उपयुक्त प्रबंध करा देने का भी आश्वासन दिया । साथ ही मित्रता की शर्त रूप में यह वर मांगा कि उनकी आयु बता दें । ब्रह्मराक्षस ने १०० वर्ष बताई । राजा ने कहा-"इसमें से आप दस घटा या बढ़ा सकते है क्या ?'' उसने मना कर दिया और कहा- "यह कार्य विधाता का है, मेरा नहीं ।''

विक्रमादित्य तलवार निकालकर खड़े हो गए और कहा जब आयु निर्धारित है, तो तुम मुझे कैसे मार सकते हो ? निर्भय राजा के सामने राक्षस सहम गया और वहाँ से उलटे पैरों भाग खड़ा हुआ । इसके बाद राजगह में प्रवेश करने का साहस उसने कभी भी नहीं किया ।

ईश्वर का न्याय- एक धनी निर्धनों को चूसकर करोडों कमाता था और उसमें से जब तब लाख दो लाख खर्च करके धर्मात्मा होने का यश लूटता था ।

एक निर्धन था । मजूरी करता । अपनी रोटियों में से एक तिहाई भाग वह उनके लिए सुरक्षित रखता, जो अपंग होने के कारण कुछ कमा नहीं सकते थे और प्राय: भूखे सोते थे ।

धर्मराज़ के यहाँ दोनों पहुँचे, तो स्वर्ग द्वार मजूर के लिए खुला और धनी को यह कहकर लौटा दिया गया कि तुमने यश कमाकर अपना पुण्य समाप्त कर लिया ।

गलती मत निकालो- स्रष्टा के विधान पर अविश्वास कर उसमें त्रुटियाँ निकालने की अपेक्षा अनुशासन में चलना हितकर है । एक तरबूज की पतली बेल पर भारी भारी फल लग रहे थे और पास ही खड़े आम वृक्ष पर छोटे छोटे आम । नीचे खड़े व्यक्ति यह देख भगवान की नासमझी का उपहास करने लगे । इतने में आम का एक फल उनके सिर पर गिरा । छोटा होने के कारण थोड़ी चोट लगी । वे सोचने लगे, यदि तरबूज आम पर लगा होता, तो मेरी खोपड़ी का कचूमर ही निकल जाता । उनने गलतियां ढूंढना बंद कर दीं।

तपस्या का दुरुपयोग- विधाता की संरचना में हस्तक्षेप करना, विधि-व्यवस्था में व्यतिरेक लाने का परिणाम अंतत: भुगतना ही होता है ।

वशिष्ठ ने राम को शतरुद्रोपाख्यान सुनाते हुए कहा-प्राचीनकाल में एक विचारशील तपस्वी था । उसके आत्मज्ञान में अपूर्णता रह गई । सो उसने अपनी सामर्थ्य की परीक्षा करने के लिए एक नई सृष्टि की रचना की
इच्छा की । जिस प्रकार ब्रह्मा इस व्यापक ब्रह्मांड की रचना करते है, उसी प्रकार हर मनुष्य अपने निजी संसार की स्वयं रचना कर सकता है । उस तपस्वी ने भी कर डाली ।''

"उसने अपने मनोराज्य को देखा और बहुत प्रसन्न हुआ । उसमें क्रीड़ा कल्लोल करने के लिए अनेक दृश्य तथा अवसर थे । उन सबमें उसे बहुत आनंद आया । उस रचना और भोग में उसकी उपार्जित तप क्षमता क्षीण हो गई, साथ ही विलास की प्रक्रिया आरंभ हुई । उसे अनेक कष्ट उठाने और पश्चात्ताप करने पड़े । शरीर का अंत हुआ तो उसके रचे संसार की भी समाप्ति हो गई और उस अवधि में जो उनने किया था, उसका प्रतिफल जन्म-जन्मांतरों तक पीछा करता रहा ।

सृजन सरल था, पर उसकी उत्पत्ति से जो वितृष्णा उपजती है, वह कठिन हैं । सो वह तपस्वी पछताने लगे और नए सिरे से तप करके महत्वाकांक्षाओं से रहित जीवन जिएं ।

सो, हे राम । आरंभ अपने हाथ में, अंत हाथ से बाहर है। सो, सृजन के लिए कदम बढ़ाते समय दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाने की आवश्यकता है ।

आगत न बताया जाय- कर्मनिष्ठ होने में ही व्यक्ति की शोभा है । यही कारण है कि मनुष्य को पूर्व जन्म की, स्मृति से भाव आगत की, मृत्यु के बाद क्या होगा ? यह जानने से विधाता ने व्यक्ति को वंचित रखा है ।''

विधाता एक के बाद एक मनुष्य बनाते चले गये । जब तैंतीसवां मनुष्य बनकर तैयार हो गया। तो उसने नियंता से प्रार्थना की कि मेरा भाग्य और भविष्य भी बता दिया जाय। आप तो उसे लिखते ही हैं । विधाता रजामंद हो गए । उनने उसका पूरा जीवन भविष्य सुना दिया । उसमें सुख तो थोड़े से थे, पर एक के बाद एक दुःखों की ही शृंखला बंधी हुई थी । मनुष्य खिन्न हो गया, उसके हाथ-पैर फूल गए । जब भविष्य में इतना ही कष्ट सहना निश्चित है; तब पुरुषार्थ का भी क्या प्रयोजन और जीने से भी क्या लाभ ? प्रारब्ध सामने आने से पूर्व ही तँतीसवां मनुष्य भविष्य ज्ञान के कारण अति दुःखी रहने लगा और बुरे दिन आने से पहले ही वह रोता-कलपता मृत्यु के मुख में चला गया ।

चित्रगुप्त ने यह समाचार ब्रह्मा जी को सुनाया, तो उन्होंने भविष्य कथन के दुष्परिणामों को समझा और यह नियम बना दिया कि किसी को भी भविष्य एवं भाग्य की जानकारी न दी जाय, अन्यथा लोग पुरुषार्थपरायण सुखी जीवन से हाथ ही धो बैठेंगे ।

भक्तजनों की भीड़- चापलूसी से न तो इस लोक के स्वामी को न परलोक के अधिष्ठाता को वश में किया जा सकता है, फ्रांस के राजा लुई चौदहवें जिस दिन गिरिजाघर जाता, उस दिन उससे परिचय बढा़ने के लिए सैकडो़ सरदार प्रार्थना सभा में पहुँचते और अपनी भक्ति भावना के किस्से सुनाते। राजा प्रसन्न होता। एक दिन पादरी ने सभी सरदारों के पास सूचना भिजवा दी कि रविवार को राजा गिरजाघर नहीं आवेंगे । लुई जब गिरजा घर पहुँचा, तो पादरी और वे दो ही आदमी थे । पूछने पर सारी बात बताई और जमा होने वालों का खोखलापन जाना ।

जैसा प्रारब्ध वैसा प्रतिफल- हर जगह यही नियम लागू होता है । जैसे कर्म होते है, जैसा प्रारब्ध होता हैं, वैसा ही फल भी मिलता है । 
दो भक्तों ने सन्यास ले लिया । भोजन के लिए भगवान पर निर्भर रहे । एक दिन एक किसान दोनों के लिए कपड़े से ढंककर दो थालियों में भोजन लाया । उन लोगों ने खोली, तो एक में रूखी-सूखी रोटियां थीं, दूसरी में स्वादिष्ट व्यंजन । यह भेदभाव देखकर एक साधु ने किसान से पूछा-! 'इस अंतर का क्या कारण है ?' ''किसान ने कहा-"यह तुम लोगों का प्रारब्ध हैं । एक सूखी रोटी छोड़कर वानप्रस्थी बना है और दूसरा व्यंजन छोड़कर । साधु हो जाने पर भी तुम लोगों का प्रारब्ध साथ चलेगा ।"

आत्मा शाश्वत रुपेण सुंदर- भद्रबाहु श्मशान से होकर निकल रहे थे । एक मृत युवक को चिता पर उसके संबंधी ही रख रहे थे । भद्रबाहु ने आश्चर्य से पूछा- "कुरूप था क्या वह ? सुंदर को तो सभी संभाल कर रखते हैं। उपस्थित जनों में से एक ने कहा- "यह त्वचा ही सुंदर और कुरूप है । भीतर सबके रक्त-मांस जैसी घिनौनी वस्तुएँ ही भरी हैं ।''

"सुंदर तो आत्मा है, सो उसे कोई शत्रु या संबंधी नष्ट नहीं कर सकता ।'' शंका का समाधान हो गया ।

प्रभु की कृपा कैसे भुलाऊँ- आस्तिकतावादी तत्वदर्शन पर विश्वास करने वाला अपने दुख-कष्ट के लिए कभी ईश्वर को दोष कैसे नहीं देता ।

वृद्धावस्था तक लकवे की बीमारी के कारण भी राजनारायण बसु राजगृह में ही रहने लगे । अब उनका बाहर जाना बिलकुल ही बंद हो गया । उनके परम प्रिय शिष्य बाबू अश्विनी कुमार को इस बात का पता चला कि गुरुदेव बीमार हैं, तो वे तुरंत उनके दर्शनों के लिए चल पड़े । अश्विनी बाबू कमरे में प्रवेश करते काफी गंभीर हो गए । दु:ख भरे स्वर में उन्होंने गुरुदेव को प्रणाम किया और आशीर्वाद पाकर समीप ही चारपाई पर बैठ गये ।

थोड़ी ही देर में बातचीत का सिलसिला चल पड़ा । राजनारायण बसु ने अपने मार्मिक उपदेश शुरू किए । भगवद्गीता तथा उपनिषदों के श्लोक, वर्ड्सवर्थ, शैली, बायरन तथा हाफिज आदि संत पुरुषों की सम्मतियाँ वे इस प्रकार देने लगे, मानों वे पूर्ण स्वस्थ हों, उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न हो । यह देखकर अश्विनीकुमार ने पूछा- ''भगवन्! आपने तो ईश्वर की बड़ी उपासना की, फिर भी वह आपको कष्ट दे रहा है, मैं देख रहा हूँ कि आप इस पर भी उसी ईश्वर के गुण गाए जा रहे हैं । ''राजनारायण बसु बोले-"अश्विनी! तू उन्हें दोष न दे । थोड़े दिन यह शारीरिक कष्ट मिले, तो भी उससे मेरा क्या बिगड़ जाएगा ? रोग शय्या पर पड़ा और भी निश्चिंत भाव से भजन कर सकूँगा, पर क्या तुम यह भूल रहे हो कि मैं उन्हीं से जीवन में कितने सुंदर दृश्य देखे और अनेक सुख उठाए हैं ।''

गुरुदेव की यह अविचल निष्ठा देखकर अश्विनी बाबू आगे कुछ न बोल सके ।

स्थिर नहीं  गतिशील

 "दिन भर आपको धूप दी, आपके पुत्र-पौत्रों को प्रकाश और गर्मी प्रदान की और आप है कि मुझे थोड़ी देर में विदा कर रहे है, कुछ अधिक देर रहने देते, तो आपका क्या बिगड़ जाता" ढलते हुए सूरज ने मुस्कराते हुए क्षितिज के पास लिखित उलाहना भेजा ।

गंभीर क्षितिज स्याही लेकर उत्तर लिखने बैठा, तो कुछ एक पंक्ति से वह आगे नहीं बढ़ सका, प्रात: के प्रकाश में सूर्य ने पढ़ा । लिखा था-"इसलिए कि तुम हर बार एक नई चमक, नई रोशनी लेकर आओ और पहले से
भी अधिक प्रकाश फैलाओ । '' सूर्य का सिर श्रद्धा से नीचे झुक गया ।

पितृणां सन्ततीनां च मध्ये सम्बन्ध एष तु ।
विद्यते स्वजनैरत्न सम्पर्कोऽपि भवत्यलम् ।।४०।।
सम्बन्धिनो दिवं यातान् प्रति द्वारमपावृतम् ।
विद्यते स्नेहसद्भावसहयोगं प्रदर्शितुतं ।।४१।।
कृतानामुपकाराणा प्रतिकर्तुमवाप्यते ।
समयो मान्यतामेतामाश्रित्यैव नरैरिह ।।४२।।
दिवंगतान् समुद्दिश्य श्रद्धा सद्भावना च या ।
व्यज्यते तच्छुभं कर्म श्राद्धतर्पणमुच्यते ।।४३।।
मन्यते. चैनमाश्रित्य त्वाधारं स्वर्गिणामपि ।
स्वजनानां च साहाय्य श्राद्धिकं कर्तुमिष्यते ।।४४।।
मान्यतेयं कृतज्ञत्वपोषिका वर्तते दृढम् ।
प्रतिकर्तुं ददात्येषा सर्वेभ्योऽवसरं सदा ।।४५।।
आधारमिममाश्रित्य सद्भावो जाग्रतस्तु यः ।
लोकमङ्गलकार्येषु चोपयुक्तं स शक्यते ।।४६।।
श्राद्धे तत्रऽत्रपिण्डं तु तर्पणे चाऽमृं तथा ।
दीयतेऽन्नं साधनानां श्रमदानस्य चाऽमृतम् ।।४७।।
प्रतीकत्वमिहाऽऽयातं श्राद्धे यद्दीयते च तत् ।
तस्यापि माध्यमं नूनं तदेवाऽत्र तु विद्यते ।।४८।।
दानकृत्येभ्य एवात्र निश्चितं यत्तु पूर्वत: ।
यज्ञार्थाय तथा तस्मै विपद्वारणहेतवे ।।४१।।

भावार्थ- पितरों और संतति के बीच संबंध बना रहता है स्वजनों के प्रति संपर्क भी रहता है । अस्तु उन दिवंगत संबंधियों के प्रति स्रेह, सद्भाव, सहयोग प्रदर्शित करने का द्वार खुला रहता है । उनके किए हुए उपकारों का बदला चुकाने का भी इस मान्यता के आधार पर अवसर मिलता रहता है । दिवंगतों के प्रति श्रद्धा सद्भावना व्यक्त करने का उपचार श्राद्ध तर्पण है । माना गया है कि इस आधार पर स्वर्गीय स्वजनों की श्रद्धायुक्त सहायता की जा सकती है यह मान्यता-कृतज्ञता ही दृढ़ पोषक है प्रत्युत्तर के लिए अवसर प्रदान करती है। साथ ही इस आधार पर जागृत हुई सद्भावना का उपयोग लोकमंगल के सत्प्रयोजनों में बन पड़ता है । श्राद्ध में अन्न पिंड और तर्पण में जल श्रमदान का प्रतीक है । श्राद्ध में जो दिया जाता है उसका माध्यम भी वही है? जो प्रत्येक दान कृत्य के लिए निर्धारित है- 'यज्ञार्थाय' और 'बिपद्बारणायं ।।४०-४९।।

व्याख्या- भारतीय संस्कृति ने यह तथ्य घोषित किया है कि मृत्यु के साथ जीवन समाप्त नहीं होता । अनंत जीवन शृंखला की एक कडी़ मृत्यु भी है । इसीलिए सरकारी के क्रम में 'जीव' की उस रिथति को भी बांधा गया है, जब वह एक जन्म पूरा करके अगले जीवन की ओर द्वन्मुख होता है । कामना की जाती है कि संबंधित जीवात्मा का उागुला जीवन पिछले की अपेदग़ .अधिक सुसंरकारवान बने । इस निमित्त जो कर्मकांड किए जाते हैं, उनका लाभ जीवात्मा को करने वालों की श्रद्धा के माध्यम से ही मिलते हैं । इसीलिए मरणोत्तर सरकार को श्राद्धकर्म भी कहा जाता है ।

इस दृश्य संसार में स्थूल शरीर वालों को जिस इंद्रिय भोग, वासना, तृष्णा एवं अहंकार की पूर्ति में सुख मिलता है, उसी प्रकार पितरों का सूक्ष्म शरीर शुभ कर्मों से उत्पन्न सुगंध का रसास्वादन करते हुए तृप्ति अनुभव करता है । उसकी प्रसन्नता तथा आकांक्षा का केंद्र बिंदु श्रद्धा है । श्रद्धा भरे वातावरण के सान्निध्य में पितर अपनी अशान्ति खोकर आनंद का आनुभव करते हैं । श्रद्धा ही उनकी भूख है, इसी से उन्हें तृप्ति होती है । इसलिए पितरों की प्रसन्नता के लिए श्राद्ध एवं तर्पण किए जाते हैं । पितर वे हैं, जो पिछला शरीर त्याग चुके, किंतु अगला शरीर अभी प्राप्त वहीं कर सके । इस मध्यवर्ती स्थिति में रहते हुए वे अपना स्तर मनुष्यों जैसा ही अनुभव करते हैं ।

मुक्त आत्माओं और पितरों के प्रति मनुष्य को वैसा ही श्रद्धाभाव दृढ़ रखना चाहिए, जैसा देवों, प्रजापतियों तथा परमात्म सत्ता के प्रति मुक्तों, देवों, प्रजापतियों एवं ब्रह्म को तो मनुष्यों की किसी सहायता की आवश्यकता नहीं होती । किंतु पितरों की ऐसी आवश्यकता होती है । उन्हें ऐसी सहायता दी जा सके, इसीलिए मनीषी पूर्वजों ने पितर-पूजन, श्राद्ध कर्म की परंपराएँ प्रचलित की थीं । उनकी सही विधि और उनमें सन्निहित प्रेरणा को जानकर पितरों को सच्ची भाव-श्रद्धांजलि अर्पित करने पर वे प्रसन्न पितर बदले में प्रकाश, प्रेरणा, शक्ति और सहयोग देते हैं । पितरों को स्थूल सहायता की नहीं, सूक्ष्म भावनात्मक सहायता की ही आवश्यकता होती है । क्योंकि वे सूक्ष्म शरीर में ही अवस्थित होते हैं । इस दृष्टि से मृत्यु के पश्चात पितृपदा में, मृत्यु की तिथि के दिन अथवा पर्व-समारोहों पर श्राद्ध कर्म करने का विधान देवसंस्कृति में है ।

श्राद्ध किस तत्व पर टिका हैं ? शरीर के नष्ट हो जाने पर भी जीव का आस्तित्व नहीं मिटता । वह सूक्ष्म रूप से हमारे चारों और वातावरण में घूमते रहते हैं । जीव का फिर भी अपने परिवार के प्रति कुछ न कुछ महत्व रह जाता है । सूक्ष्म आत्माएं आसानी से सब लोकों से आकर हमारे चारों ओर चक्कर लगाया करती हैं । हमारे विचार और भावनाएँ इस सूक्ष्म वातावरण में फैलते हैं । इन्हें हम जिस तेजी से बाहर के वातावरण में फेंकते हैं, ये उसी गति से दूर दूर फैल जाते हैं । अतः श्राद्ध में किए गए पूर्वजों कें प्रति हमारे आत्मीयता, सद्भावना, कृतज्ञता के भाव उन आत्माओं के पास पहुँच जाते हैं । उसे उनसे सुख, शांति, प्रसन्नता और स्वस्थता मिलती है ।

श्राद्ध में हविष्यान्न पिंडों के द्वारा श्रद्धाभिव्यक्ति की जाती है । ये पिंड साधन दान के प्रतीक होते हैं । स्वर्गस्थ आत्माओं की तृप्ति के लिए तर्पण किया जाता है । जल की एक अंजलि भरकर कृतज्ञता के भाव से भर कर हम स्वर्गीय पितृदेवो के चरणों में उसे अर्पित कर देते हैं । इस प्रकार श्रद्धा, प्रेम, कृतज्ञता, अभिनंदन सभी का मिश्रित रूप श्राद्ध है ।

श्राद्ध-तर्पण एक बार जिज्ञासा व्यक्त करते हुए दक्षिणेश्वर में नरेन्द्र ने पूछा-" क्या दूसरों का दिया दान-पुण्य, श्राद्ध-तर्पणादि पितरों को मिल सकता है ?'' परमहंस ने उत्तर दिया " दिवंगत प्राणी का उपार्जित किया हुआ धन यदि उसके निमित्त सत्कार्यों में लगाया जाय, तो पितर की सद्गति में सहायक होता है, चाहे वह किसी योनि में अन्यत्र ही क्यों न जन्मा हो ? इसी प्रकार जिनके लालन-पालन में उसका श्रम लगा है, उसका श्रम उपार्जन भी मृतात्मा को मरणोपरांत प्राप्त हो सकता है । यही श्राद्ध तर्पण का सिद्धांत है ।

सर्वपितृ अमावस्या- पितृपक्ष का हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति में बड़ा महत्व है । जो पितरों के नाम पर श्राद्ध और पिंड दान नहीं करता, वह सनातन धर्मी हिंदू नहीं माना जा सकता है । हिंदू शास्त्रों के अनुसार मृत्यु होने पर मनुष्य की जीवात्मा चंद्रलोक की तरफ जाती है और ऊँचा उठकर पितृलोक में पहुँचती है । इन मृतात्माओं को अपने नियत स्थान तक पहुचने की शक्ति प्रदान करने के लिए पिंडदान श्राद्ध का विधान किया गया है । श्राद्ध में पितरों के नाम पर ब्राह्मण भोजन भी कराया जाता है । इसके पुण्य फल से भी पितरों का संतुष्ट होना माना गया है । धर्म शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि जो मनुष्य श्राद्ध करता है, वह पितरों के आशीर्वाद से आयु, यश, बल, वैभव, सुख और धन धान्य को प्राप्त होता है । इसीलिए धर्मप्राण हिंदू आश्विन मास के कृष्ण पक्ष भर प्रतिदिन नियमपूर्वक पितरों का तर्पण करते हैं । जो दिन उनके पिता की मृत्यु का होता है, उस दिन अपनी शक्ति के अनुसार दान करके ब्राह्मण भोजन कराते हैं, ब्राह्मण से यहाँ तात्पर्य सत्कार्य में लगे व्यक्तियों की सहायता से है । लोकमंगल के लिए किए जा रहे किसी कार्य में योगदान भी ब्राह्मण भोजन के समान है । श्राद्ध संस्कार में देव पूजन एवं तर्पण के साथ पंच यज्ञ करने का विधान है । यह पंचयज्ञ ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ पितृयज्ञ, भूतयज्ञ एवं मनुष्य यज्ञ हैं । इन्हें प्रतीक रूप में 'बलिवैश्व देव' की प्रक्रिया में भी कराने की परिपाटी है । वैसे पितृयज्ञ के लिए पिंडदान, भूतयज्ञ के निमित्त पंचबलि (दुष्प्रवृत्ति त्याग), मनुष्य यज्ञ के लिए श्राद्ध संकल्प 'दानादि का विधान है । देवयज्ञ के लिए सतवृत्ति संवर्द्धन, देव दक्षिणा के संकल्प तथा ब्रह्मयज्ञ के लिए गायत्री विनियोग किया जाता है।

परमहंस द्वारा सूक्ष्म मार्गदर्शन- सूक्ष्म शरीर में रहते हुए भी आत्मा स्वजनों से जुड़ी रहती व यथासंभव सहायता करती है । अगस्त सन् १८८६ में श्रीरामकृष्ण परमहंस के शरीर त्याग के बाद श्रीमा ने भक्तों के आग्रह पर वृंदावन की यात्रा की । वृंदावन के रास्ते में रेलगाड़ी के अंदर एक दिन आश्चर्यजनकं रूप से श्रीराधाकृष्ण के दर्शन पाकर श्रीमां अत्यंत विस्मित और पुलकित हो उठी थीं । श्रीरामकृष्ण के शरीर छोड़ने के उपरांत उनके दिए हुए सोने के 'रक्षा कवच' को श्रीमा अपने दांए हाथ में धारण करती थी तथा प्रतिदिन उसकी पूजा करतीं । वे गाड़ी में सो रही थीं, नींद में उनका हाथ डिब्बे की खुली हुई खिड़की पर जा पड़ा । श्रीरामकृष्ण ने खिड़की
से सिर अंदर डालकर श्रीमां से कहा- "देखो साथ में कवच है, उसका ध्यान रखना, 'कहीं खो न जाय । ''श्रीमां ने उसी समय उसे खोलकर संदूकची में रख लिया ।

इसी प्रकार कई अन्य प्रसंग हैं, जिनमें श्रीरामकृष्ण परमहंस की सूक्ष्म शरीरधारी आत्मा ने उन्हें मार्गदर्शन दिया ।

संत और उनके पूज्य पितर- संत एकनाथ सच्चे अर्थो में संत थे । उन्हें मनुष्य मनुष्य के बीच जाति-पाति के कारण भेदभाव करना आता ही न था । एक बार उनके घर पितरों का श्राद्ध था । कुछ अछूत बालक पकवानों की सुगंधि से लालायित होकर घर के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रहे थे । संत ने उन्हें आसन पर बिठाकर भोजन करा दिया ।

ब्राह्मणों ने सुना कि अछूतों को भोजन कराया गया, तो वे कुद्ध हो गए और जाने से इन्कार कर दिया । कहते हैं कि संत के आह्वान पर पितर सशरीर पधारे थे और उनका भोजन ग्रहण किया था । इस प्रकार दुहरे ब्राह्मणों ने उनके यहाँ भोजन किया । 

भजन ही नहीं त्याग भी- जो जैसा इस पृथ्वी पर करता है, मरणोत्तर योनि में वैसा ही फल भी पाता है । दो भजनानंद मरकर स्वर्ग पहुँचे । एक ने अपना धन परमार्थ में लगा दिया था और दूसरे ने दौलत परिवार के लिए छोड़ी थी।

स्वर्ग में देवदूत एक को षटरस व्यंजन के थाल भर कर लाते और दूसरे को सूखी रोटी के टुकड़े फेंक जाते । इस भेदभाव का कारण पूछने पर देवदूतों ने कहा- "यहाँ भी बोने-काटने का नियम चलता है । इसने अपनी संपदा पुण्य-परमार्थ में लगा दी, जबकि तुम लोभ-मोह यथावत् बनाए रहे । जिन आत्मीयजनों को तुम संपत्ति देकर आए हो, उन्हें तुमने परावलंबी बनाकर अपयश ओढ़ा है, उसका फल भोगो ।'' कृपण को सूखे टुकडे़ ही मिलते रहे ।

ऐसा दान किस कम का- सन्मार्ग हेतु साधन दान दिया भी जाय, पर मनोवृत्ति वैसी न हो, तो ऐसा दान भी निरर्थक है । एक राजा को दुर्भिक्ष की राहत के लिए राज्य में कुछ नए काम आरंभ कराने थे । सो नगर के धनवानों को बुलावा भेजा । साधारण स्तर के धनिकों ने मुक्तहस्त से धन दिया । सबसे अंत में नगर सेठ की बारी आई । उनने पांच बार गिनकर पांच रुपए दिए ।

राजा ने उन्हें लौटा दिया और कहा-"इतनी कृपणता से जोड़ा हुआ धन जिस काम में लगेगा, उसके कार्यकर्त्ता ही बीच में उस राशि को दबा लेंगे ।

इसी प्रकार पितरों की मुक्ति के निमित्त दिया गया दान श्रेष्ठ चिंतन से युक्त न होने के कारण निरर्थक ही सिद्ध होता है व पितरों को अशांति पहुँचाता है ।

कृपण की दुर्गति- प्रस्तुत जीवन में यदि साधन, दान, अंशदान रूपी सत्कार्य न बन पड़े, तो मरणोपरांत योनि में दुर्गति ही प्राप्त होती है ।

भगवान राम पुष्पक विमान में लंका विजय से वापस लौटते हुए अगस्त्य मुनि के आश्रम में रुके ।
स्वागत-सत्कार के उपरांत उनने समीपवर्ती तालाब में एक प्रेत की दुर्गति का अवलोकन किया और उसके उद्धार का उपाय पूछा ।

तालाब में एक फूली हुई लाश पड़ी थी । प्रेत रात्रि के समय आता और उसी लाश का एक भाग खाकर अपनी तृप्ति करता । लाश दिन में सड़कर फूलती और फिर उतनी ही हो जाती । इस प्रकार प्रेत नित्य उसी को खाता । लाश भी ऐसी विलक्षण थी कि न घटती, न समाप्त होती ।

आश्चर्य राम को भी बहुत हुआ और उसका कारण और इतिहास पूछा । मुनि ने बताया-"माद्रि देश का राजा बड़ा कृपण था । वह पूजा-पाठ तो बहुत करता, पर दान के नाम पर किसी को एक पैसा भी न देता । जब दिया ही नहीं, तो कुछ मिलता कहाँ से ? यह लाश उसी राजा की है और प्रेत भी वही है । '' भगवान राम ने अपने अनुग्रह से प्रेत का उद्धार किया और दान की आवश्यकता को जीवन भर स्मरण रखा ।


सदुद्देश्यसुपूर्त्यर्थ दानमेत्तु दीयते ।
सार्थक्यं सत्प्रवृत्तेस्तु वर्द्धन तस्य चाऽऽमृतम् ।।५०।।
याति सम्पन्नतां श्राद्धं नैव सामर्थ्यसंयुतान् ।
भोजयित्वा नरान् वंशवेषयोरेव निश्चितान् ।।५१।।
दत्वा तेभ्यो धनंवाऽपि सन्ति ते त्वधिकारिणः ।
वस्तुत: सच्चरित्रा ये विशालहृदया अपि ।।५२।।
विपदग्रस्ताश्च ये सन्ति तथाऽशक्ता स्वतन्त्र ये ।
प्रतिग्रहं समादातुं नरा तेऽधिकृता उत ।।५३।।
समर्पित: समाजस्य सेवार्थं ये सदैव च ।
सम्पदाऽऽजीविका चाऽपि येषां नैवात्मन क्वचित् ।।५४।।
नरा एतादृशा एवं उच्चन्ते साधुब्राह्मणाः ।
प्राप्तुं दानमिमे मर्त्या अधिकारिण आमताः ।।५५।।
वस्तुतो दानमेतत्तु सत्प्रयोजनहेतवे ।
प्रामाणिकाय तन्त्राय दातुमेवात्र युज्यते ।।५६।।
अन्यथा हानिदं श्राद्धं वैपरीत्येन जायते ।
तन्निमित्तं कृत यत्तु शभकर्म तदेव चेत् ।।५७।।
कुपात्रकरयातं स्यादवाञ्छितविधौ गतम् ।
पितृणां दुःखदं तेषां भवेद येषां कृते कृतम् ।।५८।।

भाबार्थ-दान सदुद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है । उसकी यथार्थता सत्प्रवृत्ति संवर्धन में बताई गई है । अस्तु श्राद्ध प्रक्रिया किसी वंश या वेष के समर्थ मनुष्यों को व्यर्थ ही भोजन कराने पैसा देने से संपन्न नहीं हो सकता । वे ही व्यक्ति दान के अधिकारी हैं जो सच्चरित्र विशाल हृदय हो, विपत्ति में फँसे हों और अपने पैरों पर खड़े हो सकने में असमर्थ हों अथवा उनको निर्वाह लेने का अधिकार है ? जो सर्वतोभावेन समाज सेवा के लिए समर्पित हैं । जिनके पास अपनी कोई संपदा या आजीविका नहीं है ऐसे ही साधु ब्राह्मण कहलाते हैं । मात्र ऐसों को ही व्यक्तिगत रूप से दान लेने का अधिकार है । वस्तुतः दान तो सत्प्रयोजनों के लिए प्रामाणिक तंत्र के हाथों ही सौंपा जाना चाहिए अन्यथा श्राद्ध पितरों के लिए उलटा हानिकारक होता है । उनके निमित्त किया हुआ शुभकर्म यदि कुपात्र हाथों या अवांछनीय कृत्यों में नियोजित हो; तो उन पितरों को दुःख होना स्वाभाविक है । जिनके लिए वह किया गया है ।।५०-५८।।

व्याख्या-श्राद्ध व्यवस्था में पितर मुक्ति हेतु दान का संकल्प लिया जाता है । इसको सही परिपेक्ष में समझा जाना चाहिए । जिस कार्य से असमर्थ, अशक्तों को सहायता मिले, समाज में सतवृत्तियों का विस्तार हो वह सच्चे अर्थो में दान है । वंश ब्राह्मण का हो वंश साधु का हो, इन शर्त्तों को उनके भावार्थ में समझा जाना चाहिए । हट्टे-कट्टें मात्र भिक्षा पर जीवित रहने वाले परावलंबी भगवा वेषधारियों को भोजन कराकर, दान देकर पितर मुक्ति का लक्ष्य तो पूरा होता नहीं ? उलटे दो अपयश हाथ लगते हैं । इस लोक में परावलंबन को बढ़ावा देकर पाप अपने ऊपर ओढ़ना, दूसरे परलोक में बैठी पितर आत्माओं का शाप अपने ऊपर लगना । इस दुर्गति से बचने का श्रेष्ठ तरीका यही है कि लोकमंगल के कार्य में लगे सुपात्र व्यक्तियों या संस्थाओं को श्रेष्ठता अभिवर्द्धन हेतु साधन दान दिया जाय एवं संभव हो, तो समय के रूप में श्रम सीकर बहाने का संकल्प लिया जाय । दूसरे स्थान पर वे व्यक्ति आते हैं, जो आपदाओं में फँसने या अशक्ति के कारण स्वयं निर्वाह करने में असमर्थ हैं। इन्हें स्वावलंबी बनाने के प्रयास करने से भी पितर मुक्ति होती है ।

श्रेष्ठ मित्र कौन ? यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा-"मृत्यु के समय सब यहीं छूट जाता है, बंधु-मित्र कोई साथ नहीं दे पाते । तब कौन उसका मित्र होता है ? कौन साथ देता है ?''
युधिष्ठिर ने कहा-"दानं मित्र मरिष्यत:" - मरने वाले का मित्र दान है, वही उसका साथ दे पाता है ।''

यक्ष का अगला प्रश्न था- "श्रेष्ठ दान क्या है?" "जो श्रेष्ठ मित्र की भूमिका निभा सके ।"

प्रश्न था-"दानं परं किंच ?" उत्तर था-"सुपात्र दत्तम्" जो सत्पात्र को दिया जाय । जो प्राप्त दानं को श्रेष्ठ कार्य में लगा सके, उसी सत्पात्र को दिया दान श्रेष्ठ होता है । वही पुण्य फल देने में समर्थ होता है ।
दान की सर्थकता- उद्देश्य सही एवं पवित्र हो एवं उसे समझाने का प्रयास किया जाय, तो इस तरह मिलने वाला दान सार्थक होता है ।

रक्षाबंधन का पुनीत पर्व। बीकानेर नरेश का दरबार लगा हुआ था । राजद्वार पर ब्राह्मणों की लंबी कतार थी । उन्हीं ब्राह्मणों के मध्य मालवीय जी एक नारियल लिए खड़े थे । शनै: शनै: कतार छोटी होती जा रही थी । प्रत्येक ब्राह्मण नरेश के पासे जाकर राखी: बांधता और दक्षिणा के रूप में एक रुपया प्राप्त कर खुशी खुशी घर लौटता जा रहा था ।

मालवीय जी का नंबर आया, तो वे नरेश के समक्ष पहुँचे । राखी बांधी, नारियल भेंट किया और संस्कृत में स्वरचित आशीर्वाद दिया । नरेश के मन में इस विद्वान ब्राह्मण का परिचय जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई । जब उन्हें मालूम हुआ कि यह तो मालवीय जी हैं, तो वह बहुत प्रसन्न हुए और अपने भाग्य की मन ही मन सराहना करने लगे ।

मालवीय जी ने विश्वविद्यालय की रसीद उनके सामने रख दी । उन्होंने भी तत्काल एक सहस्र मुद्रा लिख कर हस्ताक्षर कर दिए । नरेश अच्छी तरह जानते थे कि मालवीय जी द्वारा संचित किया हुआ ''सारा द्रव्य विश्वविद्यालय के निर्माण कार्यो में ही व्यय होने वाला है ।" मालवीय जी ने विश्वविद्यालय की समूची रूपरेखा नरेश के सम्मुख रखी । उस पर संभावित व्यय तथा समाज को होने वाला लाभ भी बताया, तो नरेश मुग्ध हो गए और सोचने लगे, इतने बड़े कार्य में एक सहस्र मुद्राओं से क्या होने वाला है ? उन्होंने पूर्व लिखित राशि पर दो शून्य और बढा दिए, साथ ही अपने कोषाध्यक्ष को एक लाख मुद्राएँ देने का आदेश प्रदान किया ।

दान विचार पूर्वक दें- एक राजा के पास एक प्रचारक पंडित और दूसरे योगी-तपस्वी पहुँचे । दान का प्रश्न आया, तो मंत्री ने राजा को सलाह दी कि प्रचारक को दान दें ताकि वह अनेक की आँख खोल सके । तपस्वी को न दें, अन्यथा यह माया में लिप्त होकर अपनी साधना भी छोड़ बैठेगा । इससे उसका ही नहीं आपका भी अहित होगा । पतन का आगाह देने के कारण राजा ने वैसा ही फिया ।

महादानी रंतिदेव- अपने को महादानी प्रख्यात करने के आवेश में जो कोई दरवाजे पर आता, उसी का मनोरथ पूरा करते । पात्र-कुपात्र का विचार न करते । फलत: कुपात्र द्वारा दान का दुरुपयोग करके अनाचार पर उतारू होने लगे । लक्ष्मी जी रुष्ट हुई और कोष में एक भी पैसा न रहा । यहाँ तक कि राज्य परिवार, कर्मचारी भी भूखों मरने लगे । सेना भी कब तक टिकी रहती । शत्रु उनके अव्यवस्थित राज्य पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगे ।

रंतिदेव ने लक्ष्मी जी को मनाने के लिए कठोर तप किया । उससे प्रसन्न होकर लक्ष्मी जी प्रकट हुईं और बोलीं-"बिना पात्र-कुपात्र का विचार किए हर किसी को दान देना धर्म की हत्या करने के बराबर है । मैं केवल दूरदर्शी और विवेक़ वालों के यहाँ ही रहती हूँ ।''

रंतिदेव ने अपनी भूल का पक्षात्ताप किया और पिछली संपन्नता फिर वापस लौट आई ।

पितरों का सच्चा श्राद्ध- पिता के श्राद्ध हेतु पंडितों ने यजमान से बहुत सा धन खर्च कराने की योजना बनाई । पिता को जो प्रिय वस्त्र-आभूषण, शस्त्र, वाहन आदि थे उन्हें दान करके पितृलोक में पहुँचा देने की बात ठहराई । परिवार के लोगों ने सहमति दे दी और सामान जुटाने की तैयारियाँ होने लगीं ।

ज्येष्ठ पुत्र चतुर था । उसका एक बैल मर गया । उसके सम्मुख चारा, दाना, घास, पानी का ढेर लगा दिया और नई झूल लाकर उसे उड़ाई । इन वस्तुओं को स्वीकार करने के लिए वह मृत बैल से प्रार्थना करने लगा । पर वह निर्जीव होने के कारण यथावत पैर पसारे पड़ा रहा ।

लोगों ने इस आग्रह को देख ज्येष्ठ पुत्र से कहा-"मूर्ख हो गए हो, मरे हुए भी कहीं खाया करते है । उसने न जाने किस योनि में जन्म ले लिया हो । यह साधन उस तक किस प्रकार पहुँचेंगे ।'' इस कथन को सुनकर उसने परामर्शदाताओं से पूछा-"तब हुमारे मृत पिताजी के पास वह सामान कैसे पहुँचेगा ? जो श्राद्ध के नाम पर उनके पास तक पहुँचाने का प्रयत्न किया जा रहा है ।''

परिवार ने अपने विचार बदल दिए और जितने मूल्य का सामान पंडितों को दिया जाना था, उतने मूल्य की सामग्री दीन-दुखियों को देने का निश्चय किया गया ।

नहले पर दहला- एक कृपण को श्राद्ध कराना था । वह ऐसे ब्राह्मण की तलाश में था; जो कम खाता हो । भोजन भट्टों में से घर घर जाकर पूछता फिरा । आप लोगों में से कम खाने वाला कौन है ? एक गुरुघंटाल ने कहा-"हम सबसे कम खाते हैं ।'' उन्हीं को निमंत्रण दिया गया ।

नियत तिथि पर पंडित जी कुछ विलंब से पहुँचे । कृपण को दुकान जाने की जल्दी थी, सो जल्दी पत्नि को इच्छा भोजन कराने की बात कह कर वे चले गए ।
भट्ट जी ने ढेरों मिठाई, मलाई खाई और एक गिन्नी दक्षिणा में झपटी और घर चले गए । दुकान से लौटने पर जब यह वृत्तांत सुना, तो लाला जी बहुत दुःखी हुए और पंडित से गिन्नी वापस लाने तथा इतना खाने का उलाहना देने उनके घर पहुँचे ।

भट्ट जी को पहले से ही जो अनुमान था, वह सच निकला । भट्ट जी चारपाई पर सफेद चादर ओढ़ कर सो गए । घर वाले सब रोने लगे । आज के यजमान ने जहर खिला दिया, सो भट्ट जी घर आते आते मर गए । कृपण सकपकाया तो घर वालों ने उसे पकड़ लिया । मारपीट की और जेल भिजवाने के लिए धमकायाभी । सेठ जी के शरीर पर जो आभूषण थे, वे उतार कर भट्ट जी की स्त्री को दिए और राजीनामा करक वे उलटे पैरों लौट आए ।

ऐसे अधिक चतुर बनने वाले अपनी संकीर्णता के कारण अधिक घाटा उठाते हैं । ऐसे व्यक्ति श्राद्ध नहीं करें तो अच्छा ।

संकट के समय की मनौती- आज का आदमी धूर्त भी है एवं संकीर्ण बुद्धि का भी । मनोकामना हेतु मनौती तो कई मान लेते हैं, पर समय बीत जाने पर वे उसे भुला देते है । दान की भी मनौती ऐसे कई लोग लेते देखे जा सकते हैं ।

एक जगह नारियल बिक रहे थे । एक मछुआरे ने दाम पूछा, तो उसनें आठ आने बताए । वह सस्ते में देने की जिद करने लगा । दुकानदार ने कहा-"एक मील आगे चले जाओ वहाँ नारियल का बगीचा है । सस्ते वहाँ मिलेंगे ।'' वहाँ पहुँचा तो भाव चार आने का था ।" वह और सस्ता मांगने लगा, तो दुकानदार ने कहा-"पेड़ पर चढ़ जाओ और मुफ्त में तोड़ लाओ ।'' वह चढ़ गया । कई नारियल लिए । पर नीचे झांक कर देखा, तो ऊँचाई से गिरने का भय लगने लगा । उसने भगवान से प्रार्थना की यदि सही सलामत नीचे पहुँचूँ तो पांच ब्राह्मण को भोजन कराऊँगा एवं खूब दान दूँगा । धीरे धीरे सँभल सँभल कर उतरा । आधी दूरी पर आ गया, तो बोला-"दो ब्राह्मण को भोजन कराऊँगा ।'' और नीचे उतरा तो एक की बात करने लगा । जब जमीन पर आ गया, तो बोला-"ब्रह्म सबके भीतर है । मेरे और परिवार के भीतर भी तो ब्रह्म होने के कारण सभी ब्राह्मण हैं । हम सब लोग नित्य की तरह साथ भोजन करेंगे तो, ब्रह्मभोज' का संकल्प सहज ही पूरा हो जाएगा ।'' आपत्ति के समय परोपकार करने की मनौती प्राय: इसी प्रकार अपूर्ण रह जाती है ।

बात के बदले बात- एक चारण किसी साहूकार के पास उसकी प्रशंसा में कविता बनाकर ले गया । साहूकार कवि का अभिप्राय समझ गया ।

उसने कहा- "आज तो मेरे पास पैसा नहीं है । कल आना । गोदाम खुलेगा, तब उसमें से अनाज तुम्हें दे दूँगा ।''
चारण दूसरे दिन फिर पहुँचा और अनाज देने की बात का स्मरण दिलाया । साहूकार ने कहा-"कल तुमने मुझे बातों में खुश किया था । मैने भी तुम्हें उसी प्रकार बातों से खुश कर दिया ।''

किसी दिन माल बेचने आना और बदले में पैसा या अनाज ले जाना ।

वस्तुत: किसी को भी देते समय यही रीति-नीति होनी चाहिए । चाटुकारों, कुपात्रों को धन श्रम के बदले में ही दिया जाना चाहिए ।

आत्मश्लाघा की हानि- एक भक्त थे । उनने दस बार चारों धाम की यात्रा की । अनेक व्रत-उपवास किए और जो बन पडा़ साधु-ब्राह्मणों को दान भी दिया ।

पर उनकी दुर्बलता यह थी कि ख्याति प्राप्त करने के लिए अपने धर्म कृत्यों का बखान जो भी मिले, उसी से करते रहते। मरण काल में देवदूतों ने उन्हें स्वर्ग ले जाने से इन्कार कर दिया और कहा-"जो आपका पुण्य था, वह विज्ञापनबाजी में समाप्त हो गया । अब जो करना हो नए सिरे से करें ।''

सर्व ब्रह्म नहीं शुद्ध ब्रह्म- वाजिस्रवा ने सर्वमेध यज्ञ किया और उसमें अच्छी गौओं के साथ जो बूढ़ी और बीमार थीं, वह भी दान कर दीं । इस पर उसका पुत्र अप्रसन्न हुआ और बोला-"पिताजी सर्व ब्रह्म नहीं भूलिए और शुद्ध ब्रह्म को देखिए ।"

जो श्रेष्ठ है, वही देने और अपनाने योग्य है । सब कुछ में तो अनुपयुक्त भी सम्मिलित हो जाता है । नचिकेता की सूक्ष्म बुद्धि देखकर उसके पिता ने यमाचार्य के पास प्रतिभा निखारने के लिए भेजा ।

सबसे वजनदार दान- दीपावली के महापर्व पर भगवान बुद्ध के शिष्यों-समर्थकों में से सभी कुछ न कुछ भेंट प्रस्तुत करने के लिए लाए थे । सभी ने अपनी सामर्थ्य और उदारता के अनुरूप जो बन पड़ा, सो दान अधिकाधिक मात्रा में प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहे थे ।

एक वृद्धा दूसरों के आश्रय पर अपना निर्वाह करती थी, उसने संचित कोष की तरह एक पैसा जमीन में गाड़ रखा था । उसने उसे उखाडा और जंग लगा पैसा भगवान के चरणों पर रख दिया । किसका अनुदान भारी निकला इसकी घोषणा करने वाले तथागत का निर्णय सुनाया और कहा कि उस वृद्धा का एक पैसा सबसे भारी ठहराया गया, क्योंकि वह वृद्धा का सर्व समर्पण था । दूसरों ने तो अपने वैभव का एक छोटा अंश ही प्रस्तुत किया ।

श्रम सीकरों की महत्ता- जहाँ स्वावलंबी व्यक्ति रहते हँ, वहाँ कोई अभाव नहीं रहता । पाटलिपुत्र में दुर्भिक्ष पड़ा । ज्ञानियों से कारण पूछा, ज़ो उनने बताया कि जहाँ के विज्ञजन श्रमबिंदु नहीं बहाते, वहाँ दुर्भिक्ष पड़ता है । राजा समेत सभी विज्ञजन हल चलाने और सिंचाई करनें लगे । बादलों ने देखा कि यहां के लोग हमारे आश्रित नहीं हैं, सो वे अहंकार छोड़कर उस प्रदेश की ओर
चल पड़े । घटाएँ बरसीं और अकाल दूर हुआ । यही अपेक्षा सूक्ष्म लोक की आत्माएँ धरित्रीवासियों से भी रखती हैं ।
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