प्रज्ञा पुराण भाग-4

।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-2

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आद्यो मत्स्यावतारस्तु प्रास्तौषीद् बीजतस्तरो ।
निर्मितेरिव प्रामाण्यं बोधिताः सकला जना: ।।२६।।
साधनानि लधून्यत्नोद्देश्यैरुच्चगतैर्यदि ।
युज्यन्ते तानि गच्छन्ति स्वयमेवोच्चतामिह ।।२७।।
सत्यव्रतस्य राजर्षेः कमण्डलुगत स्वयम् ।
मत्स्यो वद्धिं गतो जात: समुद्र इव विस्मृत: ।।२८।।

भावार्थ- प्रथम मत्सावतार हुआ जिसने बीज से वृक्ष बनने जैसा उदाहरण प्रस्तुत किया और बताया
कि छोटे साधन भी उच्च उद्देश्यों के साथ जुड़ने पर महान हो जाते हैं राजर्षि सत्यव्रत के कमंडल में रखी
मछली समुद्र जितनी सुविस्तृत हो गई थी ।।२६-२८।।

मत्स्य अवतार- राजा मनु प्रलय के समय सृष्टि को बीज रूप से और सप्त ऋषियों को बचाए रखने के लिए 
तपस्या कर रहे थे । वे स्नान के लिए गए, तो जलाशय में से एक छोटी मछली निकली, उसने मनु
से प्रार्थना की- "मुझे किसी बड़े जलाशय में पहुँचा दें, जहाँ में सुखपूर्वक रह सकूँ । '' मनु ने उसे वहाँ पहुँचा दिया ।

मछली वहाँ बड़ी और इतनी बढ़ी कि स्थान कम पड़ गया, उसने मनु से प्रार्थना की कि मेरी सहायता कीजिए और अन्यत्र कहीं बड़े जलाशय में पहुँचा दीजिए । मनु की करुणा जगी और परोपकारी वृत्ति की प्रेरणा से उसे उठाकर बड़े जलाशय में पहुँचा दिया । वहाँ भी पूर्व घटना की पुनरावृत्ति हुई और मछली की प्रार्थना पर मनु ने क्रमश: बड़े जलाशयों में पहुँचाते-पहुँचाते अंत में समुद्र में पहुँचा दिया । मछली ने जब अपने विस्तार सें पूरा समुद्र घेर लिया, तब मनु ने उसे भगवान का अवतार समझा, उनकी प्रार्थना की और उससे प्रसन्न होकर मत्स्यावतार ने मनु को दर्शन दिए ।

प्रलय के समय मनु ने एक नौका में सृष्टि के बीजों को तथा सप्त ऋषियों को बिठा लिया था । नाव को डूबती
देखकर मत्स्य प्रकट हुए और उन्होंने अपने शरीर से बांध कर बचाया । संसार सागर में मनुष्य को अंधकार में धकेल देने वाली, जीवन लक्ष्य का सत्यानाश कर देने वाली, पाप प्रलोभनों की आधियाँ आती हैं उनके कुचक्र में फँस जाने पर जीवन नौका डूब जाती है और पतन रूपी प्रलय में सर्वनाश का मुँह द्रेखना पडता है, । ऐसे अवसर पर भगवान उसकी नाव को पार लगाते हैं, जो अपनी पात्रता को सहृदयता और परोपकार की कसौटी पर खरा सिद्ध कर चुका है । जिस प्रकार मत्स्य ने मनु की नाव को प्रलय काल में बचाया, उसी प्रकार सद्गुण रूपी ऋषियों में युक्त भक्त की जीवन नौका को भी भगवान अपने शरीर में, सींग बांधकर पार कर देते हैं ।

मत्स्यावतार का उद्देश्य-

महर्षि पुलस्त्य ने अंगिरा से पूछा- ''भगवान मत्स्यावतार के समय एक कीड़े से विशाल मत्स्यावतार बन जाने का क्या रहस्य है?''

अंगिरा ने कहा "मनुष्य का श्रम और उपार्जन स्वल्प है, पर भगवान जिन कार्यों के पीछे होते हैं वह राई से पर्वत और तिल से ताड़ बन जाता है ।'' संक्षेप में, यही है मत्स्यावतार का सत्पयोजनों में संलग्र व्यक्तियों
को दिया गया आश्वासन ।

अवतारो द्वितीयश्च कच्छपोऽभूत् स उत्तम: ।
श्रमसहयोगजं सर्वान बोधयामास स्वं मतम् ।।२९।।
प्रेरयामास देवान् स दैत्यानपि पयोनिधिम् ।
मथितुं तेभ्य एवायं श्रेयोऽयात् सकलं तत: ।।३०।।
स्वयं चाऽप्रकटो भार मन्दरस्यातुलं प्रभु:।
उवाह पृष्ठे श्रेष्ठानां कर्मोक्तं भृतसौहृदम् ।।३१।।

भावार्थ- द्वितीय कच्छप अवतार हुआ । उसने सहयोग और श्रम से संपदा होने का सिद्धांत समझाया । देवता और असुरों को मिलजुल कर समुद्रु मंथन के लिए उकसाया । श्रेय उन्हें दिया स्वयं अप्रकट रहकर मंदराचल का सारा भार अपनी पीठ पर उठाते रहे । प्राणिमात्र के प्रति हितैषी दृष्टि रखना श्रेष्ठों का कर्तव्य है ।।२१-३१।।

कच्छप अवतार- देव और दानव, निर्धन, दीन-हीन, अशक्त और अवनत स्थिति में पडे़ हुए दिन काट रहे थे । ब्रह्माजी ने उन्हें कहा कि इस सर्व सुविधा संपन्न संसार में रहकर ऐसा अवनत जीवन जीना उचित नहीं । समर्थ और संपन्न होकर जीना चाहिए । देव-दानवों को यह उपदेश पसंद आया, उनने पितामह से इसका उपाय पूछा, तो प्रजापति ने कहा- "मिलजुल कर, सहकारितापूर्वक श्रम करना ही सर्वांगीण उन्नति का एकमात्र उपाय है । व्यक्तिगत पुरुषार्थ का प्रतिफल व्यक्ति को मिलता है:, पर यदि तुम सब लोग सुखी रहना चाहते हो और सर्वत्र सुख-समृद्धि देखना चाहते हो, तो उसका मिलजुल कर सामूहिक पुरुषार्थ करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं ।

प्रजापति के परामर्श को कार्यान्वित करने के लिए देव-दानव दोनों ही तैयार हो गए । तब ब्रह्माजी ने उन्हें समुद्र मथ डालने की सलाह दी । उसके लिए मंदराचल पर्वत की रई और शेषजी की रस्सी बनाने का उपाय बताया ।

दोनों पक्ष उस कार्य में उत्साहपूर्वक जुट गए । समुद्र मथते समय मंदराचल पर्वत जब नीचे को धसने लगा, तो भगवान ने कच्छप (कछुए) का रूप धारण कर उस पर्वत का बोझ अपनी पीठ पर ले लिया और मंथन कार्य बड़ी सरलतापूर्वक संपन्न हो गया ।

समुद्र मंथन से ऐरावत, कामधेनु, धन्वन्तरि, लक्ष्मी, अमृत आदि कितनी ही उपयोगी वस्तुएँ निकलीं । इस
उपलब्धि का कारण परस्परिक सहयोग और अनवरत श्रम ही था । जहाँ यह सतवृत्तियाँ चल रही होंगी, वहाँ ईश्वर की सहायता मिलनी ही चाहिए । कच्छप भगवान ने वही किया भी । अपनी पीठ पर समुद्र मंथन की सारी प्रक्रिया का भार उठा लिया ।

अन्यत्र भी ऐसा ही होता है, भगवान किसी न किसी सहायक के रूप में सत्पवृतियों में सहायक होते हैं । इस
प्रकार वे संसार को सुंदर, समुन्नत एवं सुविकसित बनाने में व्यक्तियों, परिस्थितियों, साधनों या प्रेरणाओं के रूप में धर्म स्थापना का उद्देश्य पूरा करते हैं ।

अप्रत्यक्ष भूमिका- देवर्षि नारद ने समुद्र मंथन के उपरांत जल से बाहर निकलकर तप कर विश्राम करते हुए कच्छप भगवान से पूछा-"जिस कार्य से इतनी बड़ी उपलब्धियाँ संसार को उपलब्ध हुई,उसकी भूमिका में रहते हुए भी आपने अपने को अदृश्य क्यों रखा?''
कच्छप भगवान ने कहा-"गरिमा इसी में है कि सफलताओं का श्रेय दूसरों को दिया जाय और स्वयं समग्र नियोजन करते हुए भी पर्दे के पीछे रहा जाय ।''

अवतारस्तृतीयोऽभद् वराहो युयुधे स्वयम् ।
हिरण्याक्षस्य दुर्धर्षप्रवृत्या सञ्चयस्य यः ।।३२।।
चकार शमनं पूर्णमाधिपत्यस्य तस्य सः ।
सुलभां सम्पदां चक्रे सर्वेभय: करुणापर: ।।३३।।

भावार्थ- तृतीय था वाराहावतार जिसने हिरण्याक्ष की दुर्धर्ष संयम प्रवृत्ति से सीधा मल्लयुद्ध किया ।
आधिपत्य का शमन किया और धरती की संपदा सर्वसाधारण के लिए दयालु प्रभु ने सुलभ कराई ।।३२-३ ३।। 

वाराहावतार- तीसरा अवतार वाराह अवतार है । हिरण्याक्ष असुर बड़ा बलवान था, उसने अपने आतंक से
पृथ्वी पर आधिपत्य जमा लिया था । बहुमूल्य संपदा हथियाकर समुद्र जैसी तिजोरियों में जमा
कर ली थी । लालची, संग्रही, आतंकवादी हिरण्याक्ष का वैभव सर्व साधारण के लिए अतीव कष्टकारक हो गया ।

महल उठते है, तो उसके लिए मिट्टी खोदकर ही लायी जाती है । अमीरी बढ़ती है, तो उसका आधार असंख्यों को गरीब बना देना होता है । भगवान से यह स्थिति देखी न गई और वे अनीति को निरस्त करने के लिए परिस्थितियों के अनुरूप आकार-प्रकार बनाकर अवतरित हुए । वाराह बनकर समुद्र में छिपे हिरण्याक्ष का भंडाफोड किया और उसे निरस्त किया । पृथ्वी जोतने वालों को लौटा दी । इसमें पूंजीवाद के बेमौत मरने का संकेत है ।

छोटे ने बडे़ को पछाडा़ 

हिरण्याक्ष समस्त संसार की संपदा चुराकर समुद्र में छिपा गया था । भगवान ने उस कुटिलता
से निपटने के तदनुरूप वाराह का रूप बनाया और छिःपे हुए स्थान को खोदकर संपदा को जन साधरण 
के उपयोग के लिए वितरित कर दिया । आतंकवादी, संग्रही भगवान के कोप से बचते नहीं । वाराह ने महाबली हिरण्याक्ष को तिनर्क की तरह चीरकर फेंक दिया । क्रांतियाँ बलिष्ठ अधिकार वादियों की जड़ें उखाड़कर फेंक देती है । वे छोटों द्वारा विकसित होकर बड़ों को भी नीचा दिखाती है ।

नरसिंहावतारश्च चतुर्थोंऽभूत्पुपोष यः ।
सौहार्द्र दुर्बले जाते तस्मिन् कालप्रभावतः ।।३४।।
नीतिमत्ताप्रतीकं च प्रह्राद संररक्ष यः ।
अन्ते महाबलं दैत्यं हिरण्यकशिपुं प्रभु:।।३५।।
हत्वा सत्पालमेनं च प्रह्लादं जनताप्रियम् ।
स्थाने निवेशयामास सत्पात्रं तस्य सन्ततिम् ।।३६।।

भावार्थ- चतुर्थ नृसिंह अवतार थे, जिनने काल के प्रभाव से सदाशयता के दुर्बल पड़ने पर उसका
पृष्टपोषण किया! बार बार नीतिमत्ता के प्रतीक पक्षधर प्रह्नाद को बचाया और अंतत: महाबली हिरण्यकशिपु
का दमन करके उसके स्थान पर सत्पात्र प्रह्लाद को बिठाया ।।३४-३६।।

नृसिंहावतार- चौथा अवतार नृसिंह है । पेचीदा समस्याओं को निरस्त करने में पेचीदा उपचारों के प्रयुक्त होने के संकेत हैं । मात्र सोने पर ही दृष्टि रखने वाला, उसे ही येन-केन बटोरते रहने वाला हिरण्यकशिपु का उद्धत आचरण चरम सीमा तक जा पहुँचा था । उसने अपने पुत्र प्रह्लाद को भी उसी मार्ग पर चलने के
लिए दबाया-सताया । सामान्यजनों के प्रति उसका व्यवहार कैसा रहा होगा, उसका परिचय तो पुत्र के प्रति किए गए व्यवहार से ही मिल जाता है । उसे पहाड़ से गिराने और आग में जलाने जैसे त्रास दिए । अन्यान्यों को भी वह स्वार्थ सिद्धि के लिए कम कष्ट न देता था । पूरा निष्ठुर दस्यु बना हुआ था । आमने-सामने की सीधी लड़ाई में छली-कुचक्री से -निपटने में भगवान को कांटे से कांटा निकालने, शठ के साथ शठता बरतने, छली के साथ छल करने की नीति अपनानी पड़ी । उसे दिन में, रात में, छाया में, खुले में, जमीन पर आसमान में, अस्त्र से, शस्त्र से न मारे जाने की सिद्धि प्राप्त थी । उसी विडंबना को काटने के लिए भगवान ने मनुष्य और सिंह का मिश्रित रूप बनाया और सभी सिद्धियों को
काटते हुए, देहरी पर बैठकर, अधर में उठाकर नाखून से पेट फाड़ा । जैसे को तैसे से पाला पड़ा और गुत्थी सुलझी, संकट टला ।

नृसिंह अवतार में साम, दाम, दंड का ही नहीं भेद नीति का, कूटनीति का प्रयोग किए जाने का औचित्य भी
बताया गया है । साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि आतंक कितना ही बर्बर क्यों न हो, वह अनीति पर आधारित होने के कारण बालू की दीवार बनकर ढहता है ।

भावात्मक विवेक्षना- हिरण्यकशिपु के नाम से ही प्रकट होता है कि उसें सोना ही सोना दीखता था । अर्थात हर क्षण हर काम में लाभ कमाने की ही दृष्टि रखता था । अपने पुत्र प्रह्लाद को भी वह यही करने की प्रेरणा देता था । पुत्र की धर्म-कर्म नीति से वह चिढ़ता था । पुत्र ने पिता का अपमान तो नहीं किया पर
अनुचित आज्ञा मानने से स्पष्ट इन्कार कर दिया । पहाड से पटकने, आग में जलाने जैसा त्रास देने पर भी प्रह्लाद
विचलित नहीं, हुआ । सत्य की विजय हुई । रिश्तों की आड़ में अनुचित कार्य करने की बात न मानने वाला भगवान का सच्चा भक्त सिद्ध हुआ और दबाब के आगे सिर झुकाने से इन्कार कर दिया ।

भगवान ने नृसिंह बनकर हिरण्यकशिपु का वध किया । दुष्टता को निरस्त करने के लिए मनुष्यों में से ही कोई
सिंह जैसे पराक्रमी निकल आते हैं और दुष्टता का उन्मूलन करना भी धर्म धारणा का एक अंग मानते हैं । यही है नृसिंहावतार का लोक शिक्षण ।

'वामन: पञ्चम: प्रोक्त: सद्भावं जागृतं व्यधात् ।
योऽसुराणां धनं लोकहिते दातुं शशाक च ।।३७।।
केवलं दमन नैव विधि: शासनसम्मत ।
परिवर्तनमप्यस्ति चेतसो विधिरुत्तम ।।३८।।

भावार्थ- पंचम अवतार वामन है । उन्होने असुरों की प्रसुप्त सद्भावना जगाई और वैभव को जनहित में
विसर्जन करने में सफलता पाई । बताया कि दमन ही नहीं हृदय परिवर्तन भी एक महत्वपूर्ण उपाय है ।।३८-३८।।

वामनावतार- पंचम अवतार वामन है । छोटी सी सज्जनता यदि आत्मबल संपन्न हो तो समर्थों को समझा-बुझाकर भी रास्ते पर ला सकता है । बुद्ध और गांधी ने शाम को समझाने कीं नीति अपनाई और उसी के सहारे अनीति अपनाने वालों को नीतिवान बनाने, लालचियों को परमार्थ स्तर का बदलने में सफलता पाई ।

आवश्यक नहीं कि हर जगह प्रताड़ना ही आवश्यक हो, सुधार प्रयोजन में समझाने-बुझाने की प्रक्रिया भी, दमन
आतंक से भी बढ़कर प्रभावी होती है । वामन भगवान ने राजा बलि को समझा बुझाकर ही संपत्ति विसर्जित करने और उसे परमार्थ में लगा देने के लिए सहमत कर लिया था । यही कारण है कि भूदान आंदोलन के प्रवर्त्तक विनोबा को दूसरा वामन कहते थे ।

गुरु आज्ञा का उल्लंघन- बलि अपनी संपदा लोकहित के लिए भगवान को सौंपना चाहते थे । शुक्राचार्य ने भरसक स्वार्थ को प्रधानता देने और दान न करने के लिए समझाया । यहाँ तक कि संकल्प का जल छोडने के लिए कमंडलु के छिद्र में उडकर बैठ गए । बलि ने गुरु के भी अनुचित आदेश का उल्लंघन किया और कमंडलु के छिद्र में सींक डालकर अवरोध बने गुरु को निकाल फेंका । इसी प्रसंग में शुक्राचार्य की एक आँख फूट गई सत्कार्य में रोडा अटकाने वालों को ऐसा ही भुगतना पड़ता है ।

षष्ठ: परशुरामश्च विद्यते स्वीचकार यः ।
दुष्टतानाशसंकल्पं यतो नैव कदाचन ।।३१।।
पिशाचतां गता लोका: पशवो नैव शिक्षया ।
क्षमयाऽहि विनेतु च शक्यास्तेन हताः समे ।।४०।।
वधेनैव तदा तादूग युग: संस्कर्तुमिष्यते ।
परशुना प्रचण्डेन चकारेदमनेकश ।।४१।।

भावार्थ- छठा अवतार परशुराम है । उन्होने दुष्टता के दमन का संकल्प लिया था । पशु और पिशाच
वर्ग के लोगों को न विनय से सुधारा जा सकता है न शिक्षा क्षमा से इसी से उनका वध किया । प्रताड़ना व वध ही ऐसे युग को सुधार पाते हैं । यही भगवान परशुराम ने अपने प्रचंड परशु का अनेक बाद प्रयोग करके कर दिखाया ।।३९-४१।।

परशुराम अवतार- छठा अवतार परशुराम है । उनने फरसे से दुर्बुद्धियों का सिर काटने का अभियान समस्त संसार में चलाया था । इस अलंकारिक क्रिया-कलाप में सिर काटने का वर्णन विचार परिवर्तन (ब्रेन वाशिंग) से है । वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अजामिल जैसों का विचार परिवर्तन कायाकल्प बनकर सामने आया । परशुराम के तर्क, प्रमाण ऐसे ओजस्वी, तेजस्वी और प्रतिभा पराक्रम से भरे पूरे थे कि उनने संसार भर में परिभ्रमण करके दुर्बुद्धिग्रस्त कुमार्गगामियो को रास्ते पर ला दिया ।

जब वह क्रांति योजना पूर्ण हो गई तो उन्होंने फरसा फेंक कर फावड़ा उठाया और अपना पराक्रम हरितिमा
बढ़ाने के सृजन प्रयोजन के लिए घुमा दिया । सृजन और संघर्ष दोनों ही आवश्यक समझे गए । धुलाई के बाद रंगाई की, जुताई के बाद बुवाई की परंपरा भी है ।

परशुराम ने २१ बार आताताइयों, अत्याचारियों के सिर काटे, अर्थात् उन्होंने इक्कीस बार ऐसे प्रयत्न किए थे ।
जिससे उस समय की दुर्बुद्धि का पूर्णतया सफाया हो गया । यह अभियान बार बार इसलिए चलाया गया था ताकि विष बलि का कोई अंकुर कहीं छिपा न रहा जाय । भावनात्मक एवं बौद्धिक दुर्बुद्धि मनुष्य में गुप्त रूप से छिपी रहती है तो उसके बरसाती घास की तरह फिर उग आने और फैलने-फूलने लगने की आशंका बनी रहती है । इसलिए २१ बार बार-बार उसका उन्मूलन करना ही उचित है ।

पाप का प्रतिरोध मानवता की पुकार है, वह पुकार किसी न किसी परशुराम के सिर पर चढ़कर बोलती और अपना काम कराती है । भगवान शिव का आशीर्वाद, सहयोग और साधन 'परशु', प्रबल प्रचार, समर्थ ज्ञान उसे मिलता है । फलत: ऐसे तेजस्वी ईश्वरीय प्रतिनिधि वह काम कर सकने में समर्थ होते हैं जो दीखने में कठिन ही नहीं असंभव जैसा प्रतीत होता है ।

सहस्त्रबाहु बध- परशुराम जी ने आततायी सहस्रबाहु की भुजाओं को काट फेंका । स्वार्थी आतताई कुछ लोगों को स्वार्थ के लालच से तथा कुछ को अपने आतंक से अपना समर्थक बना लेते हैं । उनकी हजार भुजाएँ
होती हैं । उन हाथों-समर्थकों के कारण वे अजेय दिखते है । परशुराम का परशु उनके स्वार्थ और भय
के भाव काटता है । प्रखर भावना से उन्हें स्वार्थ तथा भय से मुक्त कराते ही वे दुष्टता से दूर छिटक जाते हैं । एक एक करके हाथ कट जाने पर भीषण असुरता निरीह की तरह परास्त हो जाती है ।

''युद्धं देहि'' - परशुराम जी को जब किसी अनाचारी राजा के बारे में सूचना मिलती तो वे उसके दरबार
में जा पहुँचते । राजा शिष्टाचार बरतते, सम्मान करते किंतु वे उसे ऋषि के नाते अनीति छोड़ने के लिए कहते।

अपने अहंकार में मस्त राजा उनकी बात न मानते । शासन अवस्था पर ऋषि अनुशासन को अस्वीकार कर देते । कहते, आपको कुछ चाहिए तो मांग लीजिए, अपना पूजा-पाठ करिए, हमारे क्रम में हस्तक्षेप मत करिए, ।

ऐसी स्थिति में सीधी उँगली से घी न निकलते देखकर परशुराम कहते- "यदि कुछ माँगने को कहते हो तो मैं युद्ध मांगता हूँ-'युद्ध देहि ।' तुम्हें अनीति के लिए इजाजत नहीं दी जाएगी, अगर तुम्हें लगता है कि अपनी शक्ति के कारण तुम निरंकुश रह लोगे तो उसे ही आजमा कर देख लो ।''

तप, सिद्ध काया, शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु और अनीति उन्मूलन के प्रचंड संकल्प के आगे राजाओं की
पाशविक शक्ति को घुटने टेकने पड़ते । उन्हें परास्त करके सही तंत्र स्थापित करके परशुराम आगे बढ़ जाते । उन्होंने इसी निमित्त पृथ्वी की २१ परिक्रमाएँ कीं । यह क्रम तब तक चला जब तक क्षत्रिय कुल भूषण भगवान राम ने वह उत्तरदायित्व न सँभाल लिया । 

परशुराम परंपरा के गुरु - भगवान परशुराम का अवतार कहे जाने वाले  गुरु गोविंदसिंह ने अपने समय की दुर्दशा का कारण जन समाज की आतंरिक भीरुता को देखा । उनका निष्कर्ष था कि जब तक जन आक्रोश न जगेगा, शौर्य और साहस की पुन: प्राण प्रतिष्ठा न होगी, तब तक पददलित स्थिति से उबरने का अवसर न मिलेगा । उन्होंने संघर्ष के लिए जनमानस को ललकारा । भगवान को 'असिध्वज' और महा लौह नाम दिए । असिध्वज वे भगवान है, जिनके झंडे पर तलवार का निशान है । महा लौह वे भगवान है जिनकी
प्रतिभा तलवार या भाले के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त करती है । उन्होंने सृष्टि के आरंभ की चर्चा करते हुए लिखा है, सबसे पहले भगवान ने तलवार बनाई, इसके बाद और कुछ सृजा । प्रार्थना करते हुए वे इन दो नामों वाले भगवान का विशेष रूप से उल्लेख करते हैं-
जो हो सदा हमारे पच्छा । 
श्री 'असिधुज' जी करिहहु रच्छा ।।
महाकाल रख बार हमारे । '
महा लौह' में किंकर धारे ।।
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