प्रज्ञा पुराण भाग-4

।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -7

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व्यक्तिं कर्तुंसुसंस्कारयुतां ते षोडशाऽपि च। '' 
दश वा विहिता विज्ञैरुपचारास्तथैव तु ।। ४२ ।। 
भावनां तु समाजस्थां समूहाश्रयिणीमपि। 
शालीनताऽनुकूलां च कर्तुं पर्वादि मन्यताम् ।। ४३ ।। 
प्रशिक्षणस्य चैतेषु मिलनार्चयोरपि। 
ईशस्य विधेरस्ति समावेशो यमाश्रयन् ।। ४४।। 
लोकमानससंस्थास्ताः शक्या कर्तुं परम्परा:। 
बहूनि सन्ति पर्वाणि दशमुख्यानि तेषु तु ।। ४५।। 

भावार्थ-जिस प्रकार व्यक्ति को सुसंस्कारी बनाने के लिए षोडश अथवा दश उपचारों का विधान है,उसी प्रकार समाजगत सामूहिकता को शालीनता का पक्षधर बनाने के लिए पर्व- आयोजनों का महत्व है इनमें मिलन, पूजन, प्रशिक्षण की ऐसी विधि- व्यवस्था का समावेश है, जिनके सहारे सत्परंपराओं को लोकमानस में प्रतिष्ठित कराया जा सके। पर्व बहुत हैं परंतु उनमें दस प्रमुख हैं ।।४२ - ४५।। 

व्याख्या- व्यक्तिगत दृष्टिकोण का परिष्कार करने के लिए जिस प्रकार पूजा- उपासना, पारिवारिक रीति- नीति को उत्कृष्ट बनाए रखने के लिए जिस प्रकार संस्कार प्रक्रिया है, ठीक उसी प्रकार समाज को समुन्नत और सुविकसित बनाने के लिए सामूहिकता, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, नागरिकता, परमार्थ परायणता, देशभक्ति, लोकमंगल जैसी सत्प्रवृत्तियाँ विकसित करनी पड़तीं हैं। उन्हें सुस्थिर रखना होता है। यह भी बार- बार स्मरण दिलाते रहने वाला प्रसंग है। इसी प्रयोजन के लिए देव संस्कृति में पर्व- त्यौहार मनाए जाते हैं। इन्हें सामाजिक संस्कार प्रक्रिया ही समझना चाहिए। साधना से व्यक्तित्व, संस्कारों से परिवार और पर्वों से समाज का स्तर ऊँचा बनानें की पद्धति दूरदर्शितापूर्ण है, इसे हजारों- लाखों वर्षों तक आजमाया जाता रहा है। प्राचीन भारत की महानता का श्रेय इन छोटी दीखने वाली, किंतु प्रवृत्तियों में प्रखरता उत्पन्न करने वाली धर्म के नाम पर प्रचलित विधि- व्यवस्थाओं को ही है। 

पर्वों की रचना इसी दृष्टि से हुई कि प्राचीनकाल की महान् घटनाओं एवं महान् प्रेरणाओं का प्रकाश जनमानस में भावनात्मक एवं सामूहिक वातावरण के साथ उत्पन्न किया जाए। इसके लिए कितने ही पर्व- त्यौहार प्रचलित हैं। उनमें से देश, काल, पात्र के अनुसार जब जहाँ जिसको प्रधानता देने की आवश्यकता समझी जाती है, उन्हें प्रधान और शेष को गौण मान लिया जाता है। एक ही क्षेत्र में, एक ही काल में प्रचलित सैकड़ों पर्वों का मनाया जाना संभव नहीं, उनमें से स्थिति के अनुरूप कुछ को ही चुनना पड़ता है। देव संस्कृति में वस्तुतः प्रत्येक तिथि और वार को पर्व माना गया है और उसे मनाने के लिए विशेष धार्मिक विधान भी बतलाया है। इनके सिवाय देवताओं, अवतारों , महापुरुषों की स्मृति अथवा जयंती के लिए भी त्यौहार नियत किए गए हैं। कुछ अन्य पर्व जैसे संक्रान्ति, ग्रहण, कुंभ आदि आकाश स्थित ग्रहों के योग और उनसे पृथ्वी पर पड़ने वाले शुभाशुभ प्रभाव को दृष्टिगोचर रखकर मनाए जाते हैं। मुख्य रूप से इनमें से दस पर्व प्रमुख रूप से मनाए जाने योग्य हैं, जिनका वर्णन सत्राध्यक्ष ने इसी प्रसंग में आगे किया है। 

ऋषिगणों ने आदिकाल में त्यौहारों की स्थापना मुख्यतः निम्नलिखित उद्देश्यों को लेकर की थी। 

(१) जनता में जागृति, सद्भावना, ऐक्य, संगठन की वृद्धि करना, लोगों को सुसंस्कृत, शिष्ट और सुयोग्य नागरिक बनाना उनमें सच्ची सामाजिकता की भावना उत्पन्न करना। (२) किसी विशेष अवसर पर बड़े यज्ञ के लिए। यद्यपि शास्त्रों के मतानुसार 'यज्ञ' शब्द का अर्थ परोपकार के कार्यों के लिए होता है, तथापि वैदिक कालीन पर्वों और उत्सवों में यज्ञ का अर्थ बड़े हवन से, सामूहिक धर्मानुष्ठान से ही लिया जाता है। (३) किसी विशेष ऋतु के परिवर्तन या फसल के तैयार होने पर सामाजिक समारोह के रूप में। (४) सर्वसाधारण के मनोरंजन और हृदयोल्लास प्रकाश के लिए। (५) किसी युग प्रवर्तक महापुरुष, अद्वितीय कर्मवीर, शूरवीर, प्रणवीर, दानवीर, महान् विद्वान्, आदर्श प्रतापी का अथवा किसी महान् राष्ट्रीय घटना की स्मृति मनाने के निमित्त।

हमारे तत्त्ववेत्ता, पूज्यपाद ऋषि- महर्षियों के ऊपर बतलाए पाँचों उद्देश्यों के अनुकूल अनेक त्यौहार और पर्व के दिवस नियत कर दिए हैं और उन सबमें लौकिक कार्यों के साथ ही धार्मिक तत्वों का ऐसा समावेश कर दिया है, ताकि उनसे हमें अपने जीवन निर्माण में सहायता मिले और समाज भी सुमार्ग पर अग्रसर हो सके। मनुष्य स्वभाव से ही अनुकरणशील प्राणी है। दूसरों को कोई शुभ काम करता देखकर उसके मन में भी वैसा ही काम करने की इच्छा स्वतः उत्पन्न होती है। यही मूल कारण था कि सामूहिक आयोजनों के रूप में पर्वोत्सवों का प्रचलन किया गया। 

यहाँ स्पष्ट शब्दों में पर्वों की उपयोगिता समझाते हुए महर्षि कात्यायन कहते हैं कि लोक मानस के परिष्कार हेतु, सत्प्रवृत्ति विस्तार हेतु, श्रेष्ठ परंपरा स्थापना हेतु ही पर्वों का विधान देवसंस्कृति में रखा गया है। इनसे देव शक्तियों का पूजन, जन साधारण के पारस्परिक सम्मिलन एवं लोक शिक्षण का त्रिविध प्रयोजन पूरा होता है। यह व्यवस्था इतनी सुनियोजित एवं वैज्ञानिक है कि इसकी उपादेयता से इन्कार नहीं किया जा सकता। समाज के ढाँचे को सुव्यवस्थित बनाए रखने में पर्वों ने बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 

व्रत और जयंतियाँ क्यों ?

महार्षि कणाद के गुरुकुल में प्रश्नोत्तरी अवधि में जिज्ञासु शिष्य उपगुप्त ने पूछा- '' देव ! भारतीय धर्म में व्रतों- जयंतियों की भरमार है। कदाचित् ही कोई दिन ऐसा छूटा हो, जिसमें इसमें से कोई न कोई पड़ता न हो। इसका क्या कारण है ? कृपया समझाकर कहिए। '' 

महर्षि कणाद बोले- '' तात्!  व्रत व्यक्तिगत जीवन को अधिक पवित्र बनाने के लिए हैं, जयंतियाँ महामानवों से प्रेरणा ग्रहण करने के लिए। उस दिन उपवास, ब्रह्मचर्य, एकांत सेवन, मौन, आत्म निरीक्षण आदि की विधा संपन्न की जाती है। दुर्गुण छोड़ने और सद्गुण अपनाने के लिए देव पूजन करते हुए संकल्प किए जाते हैं। अब उतने व्रतों का निर्वाह संभव नहीं। इसलिए पाक्षिक व्रत करना हो, तो दोनों एकादशी, मासिक करना हो, तो पूर्णिमा और साप्ताहिक करना हो, तो रविवार, गुरुवार में से कोई एक रखा जा सकता है। 

गौरी व्रत किसलिए ?  

एक बार पर्व संस्कारों की विविधता पर मुग्ध देव संस्कृति के प्रति आकर्षित एक अंग्रेज ने लोकमान्य तिलक से पूछा-'' भारत की स्त्रियाँ ही अच्छा वर पाने के लिए क्यों गौरी व्रत करती  हैं ? पुरुष अच्छी वधू पाने के लिए क्यों गौरी व्रत नहीं करते ?'' 

तिलक ने कहा-'' भारत की सभी स्त्रियाँ अच्छी हैं, इसलिए पुरुषों के लिए कोई कठिनाई नहीं पड़ती। कमी तो अच्छे पुरुषों की है, इसलिए अच्छे पति पाने के लिए स्त्रीयों को व्रत करना पड़ता है। '' 

सामूहिकता एवं चरित्रनिष्ठा का शिक्षण      

धर्म धारणा एवं आस्तिकता के भावों की वृद्धि के साथ ही धार्मिक और सामाजिक त्यौहारों का एक प्रमुख उद्देश्य सामूहिकता की वृद्धि करना है। मानव जीवन की सफलता के लिए, जहाँ व्यक्तिगत उन्नति और सत्प्रवृत्तियों को ग्रहण करने की आवश्यकता है, वहाँ समाज- संगठन को सुदृढ़ बनाना और पारस्परिक सहयोग के द्वारा सामाजिक हित की बड़ी योजनाओं की पूर्ति करना भी अत्यावश्यक है। इसके लिए लोगों में पारस्परिक एकता- भाईचारे की मनोवृत्ति का उत्पन्न होना आवश्यक है। हमारे यहाँ होली, दीवाली, दशहरा और स्नान आदि के जो त्यौहार और पर्व नियत किए गए हैं, उनका विशेष उद्देश्य यही है कि लोग परस्पर प्रेमपूर्वक मिलें और सामूहिकता की भावना को सुदृढ़ बनावें। 

जो त्यौहार या उत्सव किसी प्राचीन महापुरुष या अवतार की जयंती के रूप में मनाए जाते है, उनका एक बहुत बड़ा लाभ यह होता है कि जनता को उनके द्वारा सच्चरित्रता, नैतिकता, सेवा, सद्भावना आदि की शिक्षा मिलती है। इस प्रकार के उत्सव संसार के सभी देशों में मनाए जाते हैं और इस बात का ध्यान रखा जाता है कि जन साधारण अपने उन महान् पूर्वजों के चरित्रों से उच्च कोटि के सद्गुणों की प्रेरणा प्राप्त करें। वास्तव में जिस समुदाय में ऐसे महापुरुषों का अभाव है, वह उन्नति की आशा नहीं रख सकता, क्योंकि साधारण मनुष्य के लिए बिना किसी मार्गदर्शक अथवा प्रकाशस्तंभ के संसार में सफलतापूर्वक अग्रसर हो सकना संभव नहीं है। यही कारण है कि उन्नति की कामना रखने वाली जातियाँ अपने पूर्व पुरुषों के चरित्रों और महान् कार्यों को बड़े गौरव के साथ याद करती हैं। उदाहरण के लिए यूरोप में फ्रांस और एशिया में जापान का उल्लेख कर सकते हैं। ये दोनों देश अपेक्षाकृत छोटे होने पर भी वीर पूजा के गुण के कारण ही संसार की राष्ट्र मंडली में अग्रगण्य बन गए। 

तिलक की एक के महती सूझ 

भारत के हर क्षेत्र में धार्मिक मेलों की धूम रहती है। पर उनमें पहुँचते पुरातनपंथी तथा उनकी जेब काटने वाले पंडे- पुजारी ही है। उत्सवों का उद्देश्य लोक चेतना को उत्कृष्टता की दिशा देना था और होना भी चाहिए। 

लोकमान्य तिलक ने दो त्यौहारों की नई रूपरेखा की। एक गणेश जयंती, दूसरी शिव जयंती। इन दोनों का कार्यक्रम ऐसा बनाया गया और इस प्रकार चलाया गया कि सम्मिलित होने वाली जनता में शिक्षा, प्रेम, देशभक्ति तथा साहसिकता की उमंगें उमँगीं। 

उस योजना ने महाराष्ट्र के लोकमानस को कितना भावनामय बना दिया, इसे सभी जानते हैं। आवश्यकता अन्य प्रांतों में भी ऐसी ही प्रचलनों की है। जो उत्सव चल रहे हैं, उन्हें भी मात्र मनोरंजन न रहने देकर प्रेरणाप्रद बनाया जा सकता है। 

पर्व- त्यौहार का अर्थ है- उस विशेष आयोजन से प्रेरणा लेना, न कि चिह्न पूजा भर कर लेना। 

विजयादशमी के दिन रामलीला समाप्त हुई। रावण का बड़ा- सा पुतला बना था, उसे खूब धूम- धड़ाके से जलाया गया। 

रावण की प्रेतात्मा 

रावण की प्रेतात्मा उधर आ निकली। उसने अश्रव्य वाणी में लोगों से कहा- '' तुममें से जो तम हो, वह रावण को मारे। त्रेता में मैं अकेला था, सो एक राम ने विजय प्राप्त कर ली। अब तो लाखों रावण उपजे पडे़ हैं। उनके लिए उतने राम तो पैदा करो। 

वसन्तपञ्चमी दिव्या शिवरात्रिश्च होलिका। 
सा रामनवमी पुण्या गायत्नोजयघोषिणी ।। ४६।। 
गुरुपूर्वापौर्णमासी श्रावणी च तथैव सा। 
कृष्णजन्माष्टमी मान्या विजयादशमी तथा ।। ४७।। 
दीपावलीति सर्वेषु दशानामेव मुख्यतः। 
महत्वं वर्तते तेन सोत्साहं पर्व मन्यताम् ।। ४८।। 
भावनापुर्वकं यत्र मानितानि समान्यपि। 
इमानि तत्र  संस्कारभावनोदेति चान्ततः ।। ४२ ।। 
सत्प्रवृत्युदयश्चाऽपि जायते मानवेषु सः। 
प्रतिव्यक्ति समाजं च यस्यापेक्षा मता बुधैः ।। ५० ।। 

भावार्थ - वसंतपंचमी, शिवरात्रि, होली, रामनवमी, गयत्रीजयंती ,गुरूपूर्णिमा, श्रावणी, जन्माष्टमी ,विजयादशमी, दीपावली- इन दस का विशेष महत्त्व है अतः पर्वों को सोत्साह मनाना चाहिए। इन्हें जहाँ भावनापूर्वक मनाया जाता रहता है, वहाँ सुसंस्कारिता की उमंगें उठती रहती हैं और सत्प्रवृत्तियाँ पनपती रहती हैं, जिसकी आवश्यकता प्रत्येक व्यक्ति व समाज के लिए अनिवार्यतः होती है।। ४६- ५०।। 

व्याख्या- धर्म धारणा को हर किसी के गले मात्र उपदेशों से नहीं उतारा जा सकता। व्यक्ति को अध्यात्म का मर्म समझाने, सही शिक्षा देने और सन्मार्ग पर चलाने का ऋषि प्रणीत मार्ग है- धार्मिक कथाओं के कथन- श्रवण द्वारा सत्संग एवं पर्व विशेषों पर सोद्देश्य मनोरंजन। त्यौहार- व्रतोत्सव यही प्रयोजन पूरा करते हैं। पर्व- त्यौहार जन- जन में नैतिकता व सच्चरित्रता के भावों को जन्म देकर सांस्कृतिक पुनरुत्थान में सहायक भूमिका निभाते हैं। 

प्रधान पर्वों का पुण्य प्रयोजन 

देव संस्कृति में पर्व- त्यौहारों की संख्या एवं विविधता भी अगणित- अनेकानेक है। इनका उद्देश्य और स्वरूप समझने का अनुग्रह किए जाने पर एक उद्बोधन में स्वामी विवेकानन्द बोले-'' वर्ष में प्रायः चालीस पर्व पड़ते हैं। युग धर्म के अनुग्रह इनमें से दस का निर्वाह बन पड़े, तो उत्तम है। उन प्रमुख दसों के नाम और उद्देश्य इस प्रकार है। 
(१) दीपावली- लक्ष्मी के उपार्जन और उपयोग की मर्यादाओं का बोध। गो संवर्द्धन की प्रमुखता। सज्जनों के सामूहिक प्रयत्न से अँधेरी रात जगमगाने का उदाहरण, वर्षा के उपरांत समग्र सफाई। इसी दिन भगवान् महावीर, स्वामी रामतीर्थ, स्वामी दयानंद की स्मृतियाँ भी मनाई जाती हैं। '' 

( २) गीता जयंती- मार्गशीर्ष सुदी ११ को। गीता के कर्मयोग का समारोहपूर्वक, प्रचार- प्रसार। जीवन में कर्मनिष्ठा को स्थान देने का संकल्प।
(३) वसंतपंचमी- माघ सुदी पंचमी। वसंतोत्सव। भगवती सरस्वती का जन्मदिन। सदैव उल्लसित हल्की- फुल्की मनः स्थिति बनाए रखना। साहित्य, संगीत एवं कला को सही दिशाधारा देना। 
(४) शिवरात्रि- भगवान् शिव के प्रतीक में जिन सत्प्रवृत्तियों की प्रेरणा का समावेश है, उनका रहस्य समझना- समझाना। नशा- निषेध का, मनःसंस्थान पर छाई दुष्प्रवृत्तियों को मिटा डालने का दृढ़ संकल्प। 
(५) होली -पतझड़ के कूड़े- करकट को जलाना अर्थात् अंतः की मलिनता को धो डालना। नवान्न का वार्षिक यज्ञ। प्रह्लाद कथा का विशेष रूप से स्मरण। उल्लास उत्साह की उमंगभरी अभिव्यक्ति। 
(६) गंगा दशहरा- गायत्री जयंती। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी। भगीरथ के उच्च उद्देश्य एवं तप की सफलता से प्रेरणा। आद्य शक्ति गायत्री की प्रेरणाओं की जानकारी। ऐसे ही दृढ़ संकल्पों के लिए सदैव उद्यत रहना। 
(७) व्यास पूर्णिमा- गुरु पूर्णिमा, अषाढ़ सुदी पूर्णिमा। यह अनुशासन पर्व है, स्वाध्याय और सत्संग की व्यवस्था का भी। गुरु तत्व के माध्यम से श्रद्धा भावना के एक मार्गदर्शक प्रतीक की स्थापना इस पर्व पर की जाती है। 
(८) श्रावणी- रक्षा बंधन- बहिन की पवित्र दृष्टि। एक नारी रक्षा। बन पड़े पापों का प्रायश्चित हेमाद्रि संकल्प। यज्ञोपवीत का नवधारणा। उसके प्रयोजन का पुनः स्मरण। ऋषि कल्प पुरोहितों से व्रतशीलता से बँधना।
(९) पितृ अमावस्या- आश्विन वदी अमावस्या अपने निजी पूर्वजों का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण। अभिव्यक्ति के लिए श्राद्ध- तर्पण। अतीत के महामानवों को श्रद्धांजलि अर्पण। 
(१०)  विजयादशमी- स्वास्थ्य, शस्त्र एवं शक्ति संगठन की आवश्यकता का स्मरण लंका पर राम विजय की प्रसन्नता। 

इनके अतिरिक्त कितने ही क्षेत्रीय पर्व हैं।वहाँ उन्हें परंपरा के अनुरूप मनाया जाय। रामनवमी, कृष्णाष्टमी, हनुमान जयंती, बुद्ध जयंती, गांधी जयंती, गणेश चतुर्थी आदि को भी पर्वों की तरह ही मनाया जाता है। 

आश्विन और चैत्र की नवरात्रियाँ भी साधना पर्व के रूप में प्रख्यात हैं। इनमें आद्यशक्ति गायत्री अनुष्ठान और ज्ञान यज्ञ के सुनियोजित आयोजन होने चाहिए। 

वसंत पंचमी पर्व 

वसंत पंचमी शिक्षा, साक्षरता, विद्या और विनय का पर्व है। कला, विविध गुण, विद्या की साधना को बढ़ाने, उन्हें प्रोत्साहित करने का पर्व है- वसंत पंचमी। मनुष्यों में सांसारिक, व्यक्त जीवन का सौंदर्य, मधुरता उसकी सुव्यवस्था में सब विद्या, शिक्षा, गुणों के ऊपर ही निर्भर करते हैं। अशिक्षित, गुणहीन, बलहीन व्यक्ति को हमारे यहाँ पशुतुल्य माना गया है। '' संङ्गीतसाहित्यकलाविहीनः साक्षात् पशुपुच्छविषाणहीनः। ' इसलिए हम अपने जीवन को इस पशुता से ऊपर उठाकर विद्या संपन्न, गुणवान जीवन बिताएँ, वसंत पंचमी इसी की प्रेरणा का त्यौहार है।

सरस्वती के अवतरण पर्व पर प्रकृति खिलखिला पड़ती हैं,, हँसी और मुस्कान  के फूल खिल पड़ते हैं। उल्लास, उत्साह और प्रगति के यह अभिनव सृजन के प्रतीक नवीन पल्लव प्रत्येक वृक्ष पर परिलक्षित होते हैं। मनुष्य में भी जब ज्ञान का, शिक्षा का प्रवेश होता है- सरस्वती का अनुग्रह अवतरित होता है, तो स्वभाव में, दृष्टिकोण में, क्रिया- कलाप में वंसत ही बिखरा दीखता है। हलकी- फुलकी चिंता और उद्वेगों से रहित खेल जैसी जिंदगी जीने की आदत पड़ जाती है। हर कार्य की पूरी- पूरी जिम्मेदारी अनुभव करने पर मन पर बोझ किसी भी भली- बुरी घटना का न पड़ने देना- यही है हलकी- फुलकी जिंदगी। पुष्पों की तरह अपने दाँत हर समय खिलते रहें। मुस्कान चेहरे पर अठखेलियाँ करती रहे। चित्त हलका रखना, आशा और उत्साह से भरे रहना, उमंगें उठने देना, उज्ज्वल भविष्य के सपने सँजोना, अपने व्यक्तित्व को फूल जैसा निर्मल, निर्दोष, आकर्षक एवं सुगंधित बनाना- ऐसी ही अनेक प्रेरणाएँ वंसत ऋतु में पेड- पौधों पर नवीन पल्लवों- पुष्पों के आने को देख कर प्राप्त की जा सकती हैं। कोयल की तरह मस्ती में कूकना, भौंरों की तरह गूँजना, गुनगुनाना यही जीवन की कला जानने वाले के चिह्न हैं। हर जड़- चेतन में वंसत ऋतु में एक सृजनात्मक उमंग देखी जाती है। उस उमंग को वासना से ऊँचा उठाकर भावोल्लास में विकसित किया जाना चाहिए। सरस्वती का अभिनंदन प्रकृति वसंत अवतरण के रूप में करती है। हम पूजा वेदी पर पुष्पाञ्जलि भेंट करने के साथ- साथ जीवन में वसंत जैसा उल्लास, कलात्मक प्रवृत्तियों का विकास और ज्ञान संवर्द्धन का प्रयास करके सच्चे अर्थों में भगवती का पूजन करते हैं ' और उसका लाभ अपने को तथा अन्य असंख्यों को पहुँचाते हैं। 

परहित साधन का पुण्य पर्व-महाशिवरात्रि 

जब समुद्र मंथन हो रहा था और अनेक प्रकार की उपयोगी वस्तुओं के निकलने के पश्चात् जब हलाहल विष निकला, तो सब देवता घबरा गए कि यदि यह विष संसार में फैल गया, तो समस्त संसार इसके प्रभाव से संतप्त हो जाएगा, संसार में एक प्रकार की प्रलय आ जाएगी। प्राणियों का जीवित रहना कठिन हो जाएगा। सोचकर देवता भगवान् शंकर के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि वह इस होने वाले महान् अनिष्ट से बचने का उपाय बताएँ और सहायता दें। महादेव कहलाने वाले शंकर ने अपने शरीर की परवाह न करते हुए उस हलाहल विष का पान करनें का निश्चय किया। जिस व्यक्ति के मन में परोपकार की भावनाएँ जागृत हो जाती हैं, भगवान् स्वयं उसकी सहायता कुरते हैं, उसकी आत्मिक शक्तियों का विकास होने लगता है। 

इस प्रकार शिव का चरित्र- महा शिवरात्रि का पर्व हमको लोभ, मोह, लालसा के स्थान पर त्याग, अपरिग्रह और परहित साधना की प्रेरणा देता, उपदेश करता है। यह व्रतं फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को बड़े धूमधाम से शिवजी की पूजा- अर्चना करते हुए मनाया जाता है। इस व्रत संबंधी एक अन्य कथा इस प्रकार कही जाती है।

प्रत्यंत देश में एक बहेलिया रहता था, जो प्रतिदिन जीवों को मारकर अपने परिवार का पालन करता था। उस पर एक साहूकार का कुछ रुपया कर्ज था, जिसे समय पर न चुका सकने के कारण उसे एक शिव मंदिर में बंद कर दिया गया। उस दिन फाल्गुन कृष्ण तेरस थी। वहाँ परं बहेलिया ने अगले दिन शिवरात्रि के व्रत की बात सुनी । दूसरे दिन साहूकार ने ऋण चुकाने का वायदा कराके उसे छोड़ दिया। वह अपने धंधे के लिए जंगल में गया, पर उसे कोई शिकार न मिला। सायंकाल के समय भूख से व्याकुल होकर वह एक बेल के पेड़ के ऊपर चढ़ गया और बेल के पत्ते तोड़कर नीचे गिराने लगा। वहाँ एक शिवजी की मूर्ति स्थापित थी और वे पत्ते अनायास उस पर चढ़ने लगे। पेड़ पर बैठे - बैठे उसने देखा कि एक गर्भवती हिरणी मंदगति से उसी पेड़ के पास वाले तालाब की तरफ आ रही है ।। 

बहेलिया ने उसे मारने के- लिए धनुष पर बाण चढ़ाया। इस पर हिरणी ने कहा कि मैं गर्भवती हूँ और बच्चा होने का समय भी आ चुका है। अतः तुम मुझे इस समय छोड़ दो, मैं बच्चे को उसके पिता को सौंप कर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी। बहेलिया का हृदय शिवजी के व्रत के प्रताप से शुद्ध हो गया था। उसे दया आ गई और उसने हिरणी को छोड़ दिया।

आधी रात बीतने पर एक दूसरी हिरणी दिखलाई दी। जब वह उसे मारने को उद्यत हुआ, तो उसने कहा कि मैं रजस्वला हूँ और पति की कामना कर रही हूँ। अगर तुमने मुझे अभी मार डाला, तो मेरी कामना अतृप्त रह जाएगी। इसलिए तुम इस समय मुझे छोड़ दो, मैं अपनी कामना की पूर्ति करके सुबह तुम्हारे पास अवश्य आ जाऊँगी। व्याध ने उसे भी छोड़ दिया।

रात्रि का तीसरा पहर बीत जाने पर उसने देखा कि एक हिरणी बच्चे के साथ घूमती-फिरती पानी पीने आ रही हैं। उसने इसको मारना चाहा, तो हिरणी ने कहा कि आप मुझे इतना अवकाश दें कि इस बच्चे को इसके पिता के पास पहुँचा आऊँ,तब आप मुझे खुशी से मार डालना। व्याध ने उसकी बात भी मान ली।

जब प्रातः काल होने में थोडा़ ही समय रह गया तो, एक मोटा- ताजा हिरण तालाब के पास पहुँचा। व्याध नेउसे मारने का उपक्रम किया, तो वह कहने लगा-'' हे व्याध! मेरी हिरणियाँ मुझे ढूँढ रही होंगी। इसके सिवाय वे तुमसे जिस- जिस बात की शपथ खाकर गई हैं, मेरे न जाने से उसे भी पूरा न कर सकेंगी। इसलिए मुझे इस समय जाने दो, जिससे में इस संबंध में उचित व्यवस्था कर सकूँ। आज की घटना से तथा शिवरात्रि के प्रभाव से व्याध कुछ आश्चर्यं में पड़ गया था और उसने हिरण को जाने दिया। थोड़ी ही देर बाद वे तीनों हिरणी और हिरण उसके सामने उपस्थित हो गए। परंतु अब उसके विचार बदल गए थे और उसने सभी को वापस लौटा दिया। जब शिवजी ने व्याध की ऐसी पवित्र मनोवृत्ति देखी, तो उन्होंने प्रकट होकर उसे अपने लोक में स्थान दिया। 

मिलन का प्रतीक होलिका पर्व     

होलिका पर्व सारे भारत में हर्षोल्लास के पर्व के रूप में मनाया जाता है। जिसमें छोटे- बड़े का भेद भुलाकर जनमानस एकाकार होकर तरंगित होने लगता है। फाल्गुन की पूर्णिमा को  मनाया जाता है। इसी दिन महर्षि वशिष्ठ ने महाकाल से सब मनुष्यों के लिएअभय दान माँगा था, ताकि सभी हँसे-खेले। 

यह यज्ञीय पर्व है। नई फसल पकने लगती है।उसके उल्लास में सामूहिक यज्ञ के रूप में होली जलाकर नवीन अन्न का यज्ञ करके उसके बाद उपयोग में लाने का क्रम बनाया गया है। कृषि प्रधान देश की यज्ञीय संस्कृति के सर्वथा अनुकूल यह परिपाटी बनाई गई है। 

पुराणकालीन आदर्श सत्याग्रही भक्त प्रह्लाद के दमन के लिए हिरण्यकश्यप के छल- प्रपंच सफल न हो सके। उसे भस्म करने के प्रयास में होलिका जल मरी और प्रह्लाद तपे कंचन बन गए। खीझ- क्रोध से उन्मत्त हिरण्यकश्यप जब स्वयं उसे मारने दौड़ा, तो नृसिंह भगवान् ने प्रकट होकर उसे समाप्त कर दिया। इस कथा की महान् प्रेरणाओं को होली के यज्ञीय वातावरण में उभार जाना उपयुक्त है।

यह राष्ट्रीय चेतना के जागरण का पर्व है। जहाँ वर्ग भेद है, वहाँ समस्त साधन होते हुए भी क्लेश और अशक्तता ही रहेगी। जिनमें भ्रातृत्व- सहकार है, वे अन्य साधनों में भी प्रसन्न और अजेय रहेंगे। इसलिए इसे समता का पर्व भी मानते हैं। कार्य विभाजन के लिए किए गए चार वर्णों में कोई दूसरे को हीन न माने, इसलिए चार प्रमुख पर्वों पर चारों वर्णों को प्रमुख महत्त्व देने की परंपरा रखी गई है। होली पर्व मे कर्म से निर्धारित शूद्र वर्ग का प्रधान महत्त्व देकर समता सिद्धांत को चरितार्थ किया जाता रहा है। 

गायत्री जायंती- गंगा दशहरा 

सृष्टि के आदि में ब्रह्माजी जिस शक्ति की साधना करके विश्व संचालन के उपयुक्त ज्ञान एवं विज्ञान, अनुभव एवं पदार्थ प्राप्त कर सकने में समर्थ हुए, पौराणिक प्रतिपादन के अनुसार उसका नाम गायत्री है। सृजन और अभिवर्द्धन का उद्देश्य लेकर चल रही जीवन प्रक्रिया को भी इसी संबल की आवश्यक है, जो ब्रह्माजी की तरह उसे मानसिक क्षमता एवं भौतिक संपन्नता प्रदान कर सके। गायत्री मंत्र में वे तत्व बीज मौजूद हैं। उपासना और तपश्चर्या के विधान को अपनाकरइन तत्वों को वैज्ञानिक रूप से अपने भीतर- बाहर बढ़ाया भी जा सकता है। 

गायत्री को वेदमाता ज्ञान गंगोत्री- संस्कृति की जननी एवं आत्मबल की अधिष्ठात्री कहा जाता है। इसे गुरुमंत्र कहते हैं। यह समस्त भारतीय धर्मानुयायियों की उपास्य है। इसमें वे सभी विशेषताएँ विद्यमान हैं, जिसके आधार पर सार्वभौम  सार्वजनीन उपासना का पद पुनः ग्रहण कर सके। इसी ज्ञान- विज्ञान की देवी गायत्री का जन्मदिन है- गायत्री जयंती। इसी दिन भगवती गंगा स्वर्ग से धरती पर अवतरित हुई। जिस प्रकार स्थूल गंगा भूमि को सींचती, प्राणियों की तृष्णा मिटाती, मलिनता हरती और शांति देती है, वही सब विशेषताएँ अध्यात्म क्षेत्र में गायत्री रूपी ज्ञान गंगा की है। गायत्री महाशक्ति के अवतरण की गंगावतरण से संगति भली प्रकार मिल जाती है। गंगावतरण संबंधी कथा इस प्रकार है। 

सगर राजा के साठ हजार पुत्र अपने कुकर्मों के फलस्वरूप अग्नि में जल रहे थे। उनकी कष्ट निवृत्ति गंगाजल से ही हो सकती थी। सगर के एक वंशज भगीरथ ने निश्चय किया कि वे स्वर्ग से गंगा को धरती पर लाएँगे। वे इसके लिए कठोर तप साधना में लग गए। इस निःस्वार्थी का प्रबल पुरुषार्थ देखकर गंगा धरती पर आईं। पर उन्हें  धारण कौन करे, इसके लिए पात्रता चाहिए। इस कठिनाई को शिव ने अपनी जटाओं में गंगा को धारण करके हल कर दिया। गंगा का अवतरण हुआ। सगर पुत्र उनके प्रताप से स्वर्ग को गए और असंख्यों को उसका लाभ मिला। आत्मशक्ति का, ऋतम्भरा प्रज्ञा का अवतरण ठीक गंगावतरण स्तर का है। उसकी पुनरावृत्ति की आज अत्यधिक आवश्यकता है। 

ज्ञान और कर्म के समन्वय का प्रतीक श्रावणी पर्व 

ज्ञान अकेला अपूर्ण और अधूरा है। कर्म कुशलता के अभाव में कथनी और करनी में अंतर आने लगता है। श्रावणी पर्व अपने ज्ञान को, कर्म की शक्ति को सृजन की प्रेरणा देने वाला पर्व है। हमार ज्ञान वाणी से नहीं आचरण से व्यक्त हो। हमारी शक्ति किसी  को दबाने, झुकाने या निरर्थक कार्यों में नहीं, सृजन में लगे। श्रावणी पर्व की पृष्ठभूमि में जो पौराणिक कथा है, विष्णु की नाभि से कमल बेल का निकलना और उसमें से ब्रह्मा का अवतरण होना तथा सृष्टि का निर्माण करना, वही अर्थ है और उसमें हमें सृजन की, निर्माण की ही प्रेरणा लेनी चाहिए। 

शिखा और यज्ञोपवीत श्रावणी पर्व में प्रधान रूप से ध्यान देने योग्य दो तथ्य हैं। शिखा परिष्कृत विचारणा, आदर्शवादी आस्था, उत्कृष्ट जीवन नीति का प्रतीक है। जिस सिर पर यह लहराए, उस मस्तिष्क के संबंध में यह जानना चाहिए कि इस मस्तिष्क में आदर्शवादी आस्थाओं का निवास है। राष्ट्र ध्वज को सर्वोपरि सम्मान दिया जाता है और उसी से यह जाना भी जा सकता है कि यह आदर्शों का अनुयायी है। मानवी मस्तिष्क पर लहराने वाली शिखा- ध्वजा उसके लिए सर्वोपरि आदर की वस्तु है, क्योंकि वह इस बात का द्योतक है कि यह मस्तिष्क आदर्शवादी उत्कृष्ट चिंतन और श्रेष्ठ आस्थाओं का ही पोषक है और यज्ञोपवीत उन आदर्शों को बहिरंग जीवन में भी क्रियान्वित करने का व्रत बंध है। इसके एक- एक धागे में अगणित प्रेरणाएँ सन्निहित हैं। श्रावणी पर्व पर शिखा सिंचन और उपवीत नवीनीकरण के जो कार्य संपन्न किए जाते हैं, उनका यही अर्थ है कि हम अपने आदर्शों को भूले नहीं हैं। शिखा सिंचन और उपवीत नवीनीकरण ज्ञान और कर्म दोनों को परिष्कृत बनाए रखने का संकल्प पुनः पुनः न दुहराया जाता है। 

प्रायश्चित प्रक्रिया के पीछे यही भावना है कि पिछले दिनों हमसे जो अवांछनीयताएँ होती रहीं, उन्हें अब दूर करने का संकल्प किया जा रहा है। अवांछनीयताएँ दूर करने के रूप में पिछले दिनों हुए त्रुटियों कार छूटना भी आवश्यक है। अतः श्रावणी पर्व पिछले वर्ष के पुनरावलोकन, आत्म निरीक्षण का पर्व भी है। यह पर्व विभिन्न कर्मकाण्डों के माध्यम से हमें अपने आदर्शों को, ज्ञान या विचार को जीवन में उतारने की व्यावहारिक प्रेरणा देता है। 

आज यद्यपि रक्षाबंधन का रूप हाथ में एक लाल- पीला डोरा अथवा रेशम और कलाबत्तू आदि की बनी बढ़िया राखी बाँधी देना ही रह गया, पर भारतीय इतिहास के मध्यकाल में इसका- महत्त्व अधिक था जो स्त्री जिस पुरुष के राखी बाँध देती थी, वह उसकी प्राणपण से रक्षा करता था। इस संबंध में सबसे प्रसिद्ध घटना चित्तौड़ की रानी कर्मवती की है। जब उसके मध्य पर गुजरात के बादशाह बहादुरशाह ने चढ़ाई की, तो रानी ने देहली के मुगल सम्राट हुमायूँ के पास राखी भेजी और अपनी रक्षा की प्रार्थना की। हुमायूँ उसी समय सेना लेकर रवाना हो गया, पर उसके पहुँचने के पहले ही चित्तौड़ का पतन हो गया था और रानी कर्मवती अपनी सहेलियों के साथ जौहर व्रत करके जल मरी थीं। तो भी हुमायूँ ने बहादुरशाह पर आक्रमण करके उसको मार भगाया और रानी के पुत्र को चित्तौड़ की गद्दी पर बैठा कर 'राखी बंद भाई ' के नाम को चरितार्थ किया। 

वस्तुतः यह पर्व आज की परिस्थितियों में नारी शक्ति के प्रति सम्मान की। अभिव्यक्ति जताने, उसकी रक्षा के लिए आगे बढ़ सकने का साहस दिखा सकने के प्रतीक रूप में मनाया जाता है। नारी का दमन, यौन अत्याचार कहीं कोई कर न पाए, इसके लिए पवित्र हृदय वाले नरपुंगवों का, वीरों का आह्वान इस दिन नारी करती है। वह कहती है- '' जिसकी साँसें और पसीना परहित में बह जाए, वही वीर मेरा राखी बँधवाने हाथ बढ़ाए। '' 

राष्ट्रीय भावना का प्रतीक-विजयादशमी पर्व 

वजयादशमी पर्व के संबंध में पुराणों में कहा है- आश्विन शुक्ल दशमी को नक्षत्रों के उदय होने पर जो ' विजय ' नामक काल होता है, वह सब कामनाओं को सिद्ध करने वाला होता है। आज के दिन शमी के वृक्ष की पूजा करने का विधान है। जब दुर्योधन ने पाण्डवों को बारह वर्ष तक वनवास और एक वर्ष तक अज्ञातवास दिया था, तो अज्ञातवास के समय अर्जुन अपना धनुष- बाण शमी के वृक्ष में छिपा कर विराट् राजा के यहाँ नौकरी करने लगे थे। एक दिन विराट् राजा का पुत्र उत्तर कुमार गायों की रक्षा के लिए कौरवों से लड़ने गया। उस समय अर्जुन भी उसके साथ थे। शत्रुओं की प्रबल सेना देखकर उत्तर कुमार ने तो रणभूमि से भागने का उपक्रम किया, पर अर्जुन ने उसे रोककर अपने धनुष- बाण शमी के पेड़ में से निकाले और शत्रुओं पर विजय प्राप्त की। देवराज इंद्र ने भी इसी दिन प्रयाण करके दानवराज वृत्रासुर पर विजय प्राप्त की थी। इस प्रकार विजयादशमी प्राचीनकाल से अधर्म पर धर्म की, पशुता पर मानवता की, राक्षसत्व पर देवत्व की विजय का दिन है और इसको सच्चे स्वरूप में मनाना हमारा कर्तव्य है।

वास्तव में विजयादशमी जनता में राष्ट्रीय भावना के प्रसार का त्यौहार है और वर्तमान समय में इसका महत्त्व अतीतकाल की अपेक्षा कहीं अधिक है। पहले जमाने में तो राज्य की रक्षा का भार केवल राजा और क्षत्रिय जाति वालों पर ही रहता था, पर अब न तो राजा हैं और न पहले समय का क्षत्रिय जैसा कोई विशेष वर्ण ही है, जो एकमात्र युद्ध का ही पेशा करता हो। अब तो देश रक्षा के लिए सेना में प्रत्येक जाति और वर्ण के व्यक्ति को शामिल किया जाता है और राष्ट्र पर आक्रमण होने की अवस्था में सभी व्यक्तियों को, उसके प्रतिकार में किसी न किसी रूप में भाग लेना ही पड़ता है।इसलिए इस समय विजयादशमी का उद्देश्य यही होना चाहिए कि देश निवासियों में राष्ट्ररक्षा की भावना भली प्रकार जड़ जमा ले और वे राष्ट्रहित के विरोधी कार्यों से सदैव दूर रहें तथा राष्ट्र विरोधी तत्वों का डटकर मुकाबला करें उनके पैर टिकने न दें। राष्ट्र की एकता, अखण्डता और स्वतंत्रता की प्राणपण से रक्षा का व्रत लें। 

दशहरे पर भगवान् राम द्वारा राक्षसराज रावण पर विजय कथा भी सर्वविदित है। व्यक्ति के अंदर, परिवार एवं समाज में असुर प्रवृत्तियों की वृद्धि ही अनर्थ पैदा करती है। जिन कमजोरियों के कारण उन पर काबू पाने में असफलता मिलती है, उन्हें शक्ति साधना द्वारा समाप्त करने के लिए योजना बनाने, संकल्प प्रखर करने तथा तदनुसार क्रम अपनाने की प्रेरणा लेकर यह पर्व आता है। इसका उपयोग पूरी तत्परता एवं समझदारी से किया जाना चाहिए। 

प्रकाश और संतुलन का प्रेरणा पर्व-दीपावली 

दीपावली लक्ष्मी का पर्व माना गया है। लक्ष्मी से तात्पर्य है- अर्थ, धन। यह अर्थ का पर्व है। दीपावली पर हम अपनी आर्थिक स्थिति का लेखा- जोखा लेते हैं, उसका चिट्ठा बनाते हैं, लाभ- हानि पर विचार करते हैं। लेकिन केवल हिसाब- किताब तक ही यह पर्व सीमित नहीं है। वरन् इस अवसर पर आर्थिक क्षेत्र में अपनी बुराइयों को छोड़कर अच्छाइयाँ ग्रहण करने का पर्व है। अर्थ अर्थात् लक्ष्मी, जीवन- साधना का, विकास की ओर बढ़ने का सहारा है। लेकिन ठीक उसी तरह जैसे माँ का दूध। हम लक्ष्मी को माँ समझकर उसे अपने जीवन को विकसित, सामर्थ्यवान बनाने के लिए उपयोग करें, न कि भोग- विलास तथा ऐश- आराम के लिए। इसलिए माँ लक्ष्मी के रूप में अर्थ की पूजा करना दीपावली का एक विशेष कार्यक्रम है। आवश्यकतानुसार खर्च करना, उपयोगी कार्यों में लगाना, नीति और श्रम तथा न्याय से धनोपार्जन करना, बजट बनाकर उसकी क्षमता के अनुसार खर्च करना आर्थिक क्षेत्र में संतुलन तथा व्यवस्था कायम रखना, ये सब दीपावली पर्व के संदेश हैं। 

गणेश और दीप पूजन, गौ द्रव्य पूजन इस पर्व की विशेषताएँ हैं। इनसे तात्पर्य यह है कि धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी का अर्थात् अर्थ का सद्बुद्धि, ज्ञान, प्रकाश और पारमार्थिक कार्यों से विरोध नहीं होना चाहिए, वरन् अर्थ का उपयोग इनके लिए हो और अर्थोपार्जन भी इन्हीं से प्रेरित हो। 

सहकारी आदर्शवादिता 

एक बार कार्तिकी अमावस्या के घनघोर अंधकार में प्रकाश की आवश्यकता पड़ी। सूर्य से प्रार्थना की गई, उनने इस आपत्तिकालीन को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। चंद्रमा ने भी असमर्थता प्रकट की। कोई उपाय न देखकर एक दीपक ने जलना आरंभ किया। दूसरे बुझे दीपों ने सोचा, जो एक कर सकता है, वह दूसरा क्यों न करे ? जब बुराई छूत की तरह फैल सकती है, तो अच्छाई की लहरें भी एक दूसरे को सहारा देते हुए आगे क्यों नहीं बढ़ सकतीं ? दीपक एक दूसरे के निकट आते गए। जलों ने बुझों को जलाया और छदाम कीमत वाले दीपकों की पंक्ति देखते- देखते सर्वत्र जलने लगी। कार्तिक अमावस्या इन जुगुनुओं की चादर ओढ़ कर सूर्य पत्नी जैसी गौरवान्वित होकर इठलाने लगी। सभी ने दीपमालिका की जय बोली और उस दिन से वह सहकारी आदर्शवादिता महालक्ष्मी की तरह पूजी जाने लगी। 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 

दीपोत्सव के संबंध में कई कथाएँ प्रचलित हैं। कुछ लोगों का कहना है कि राजा बलि ने अन्य देवताओं के साथ लक्ष्मी जी को भी बंदी बना लिया था और विष्णु भगवान ने वामन रूप में इसी दिन अन्य देवताओं सहित लक्ष्मी को छुड़ाया था। नरकासुर भी इसी दिन विष्णु भगवान द्वारा मारा गया था। कुछ विद्वानों का कथन है कि भगवान राम रावण को मारकर और वनवास की १४ वर्ष की अवधि समाप्त करके  जब लक्ष्मण और सीता सहित अयोध्यापुरी लौटे, तो संपूर्ण भारत में उत्सव मनाया गया था। उसी स्मृति में दीपोत्सव मनाया जाता है। दीवाली के अवसर पर कोई भी हिंदू घर ऐसा न होगा, जहाँ पर दीपक न जलते हों। इस त्यौहार को इसलिए भी अधिक प्रोत्साहन मिला है कि इस दिन भारत की तीन महान विभूतियाँ महावीर, स्वामी दयानंद और स्वामी रामतीर्थ अपने पवित्र शरीरों को त्याग कर स्वर्गवास को सिधारे। इन महान आत्माओं ने तिल- तिल जलकर सहस्रों मनुष्यों को जो प्रकाश दिया है, वह कभी बुझने न पाए इसलिए उनकी स्मृति में घर- घर दीपक जला कर हम इसका आश्वासन देते हैं। 

नवरात्रि पर्व  

नवरात्रि पर्व वर्ष भर में दो बार आता है। ( १) चैत्र शुक्ल १ से ९ तक। चैत्र नवरात्रि जिस दिन जिस दिन प्रारंभ होती उसी दिन विक्रमी संवत का नया वर्ष प्रारंभ होता है। विक्रमादित्य राजा होने के साथ ही जनहित, लोकमंगल के लिए समर्पित साधक भी थे । वे प्रजा की छोटी से छोटी इकाई के अधिकारों के लिए भी पूर्ण जागरूक रहते थे और अपने इस कर्तव्य की पूर्ति के लिए बड़े से बड़ा खतरा उठाने और त्याग करने के लिए तैयार रहते थे। उनकी आदर्श निष्ठा की झलक सिंहासन बत्तीसी की कथाओं में भी मिलती है। लोकमानस और शासन तंत्र के आदर्श समन्वय के प्रतीक के रूप में उन्हें मान्यता दी गई और उनके राज्याभिषेक को नवीन संस्कार से जोड़कर उनकी कीर्ति को अमर बना दिया गया। चैत्र नवरात्रि का प्रथम दिन नवीन संवत्सर तथा समापन दिवस भगवान राम का जन्मदिन नवमी होता है। 

(२) दूसरी नवरात्रि आश्विन शुक्ल १ से ९ तक पड़ती है। इससे लगा हुआ विजयादशमी पर्व आता है। ज्योतिष शास्त्र  के अनुसार नक्षत्रों की गणना अश्विनी नक्षत्र से प्रारंभ होती है। इस आधार पर आश्विन मास ज्योतिष वर्ष का प्रथम मास माना जाता है। 

इस प्रकार दोनों नवरात्रि पर्वों के साथ नए शुभारंभ की भावना, मान्यता जुडी़ हुई है। दोनों में छः मास का अंतर है। यह पर्व वर्ष को दो भागों में बाँटते हैं। ऋतुओं के संधि काल इन्हीं पर्वों पर पड़ते हैं। संधि काल को उपासना की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। प्रातः और सायं, ब्राह्म मुहूर्त एवं गोधूलि बेला दिन और रात्रि के संधि काल हैं। इन्हें उपासना के लिए उपयुक्त माना गया है। इसी प्रकार ऋतु संधि काल के नौ- नौ दिन दोनों नवरात्रियों में विशिष्ट रूप से साधना- अनुष्ठानों के लिए महत्त्वपूर्ण माने गए हैं। 

नवरात्रि के संबंध में पुराणों में एक उपाख्यान है कि महिषासुर नाम का दैत्य महा अभिमानी था। अपनी सत्ता जमाने के लिए उसने सूर्य, अग्नि, इंद्र, वायु, यम, वरुण आदि सब देवताओं को अधिकार च्युत कर दिया। तब सब देवता ब्रह्मा जी के पास गए, जहाँ भगवान विष्णु और शिवजी भी विराजमान थे। महिषासुर के अत्याचारों को सुनकर विष्णु और शिव को बड़ा क्रोध आया और उस क्रोध ने एक महातेज का रूप धारण कर लिया। सब देवताओं का तेज भी उसमें मिल गया और उसने एक महाशक्ति उत्पन्न हुई, जिसके तीन नेत्र और आठ भुजाएँ थीं। यही भगवती दुर्गा थी। सब देवताओं ने अपने- अपने आयुध उसे दिए। इस प्रकार के संगठन से शक्तिशाली बनकर देवी ने महिषासुर को ललकारा। इस महासंग्राम में प्रलयकाल का सा दृश्य दिखलाई पड़ने लगा। महिषासुर के साथी भी एक साथ दुर्गा पर झपटे, पर उसने अपूर्व शक्ति द्वारा सबका एक साथ संहार कर डाला। अंत में महिषासुर भी मारा गया और देवताओं तथा मुनियों ने देवी का जय- जयकार किया। देवी ने प्रसन्न होकर कहा कि आप जैसे शांतिप्रिय और सत्वगुण संपन्न महात्माओं और देवताओं के कल्याण का मैं सदैव ध्यान रखूँगी और उनकी सहायता के लिए सदैव तैयार रहूँगी। 

इसी उपलक्ष्य में दैवी सत्ता के, शक्ति के पूजन के निमित्त इस पर्व को सामूहिक धर्मानुष्ठान के रूप में मनाया जाता है। 

पर्व-धर्म प्रेरणाओं की अक्षय निधि 

ज्ञान की गरिमा, धर्म के लिए बलिदान और अपने आदर्शों का पुण्य स्मरण कराने वाले तीन पर्व गीता जयंती, बकरीद (ईदुल- जुहा) और क्रिसमस ऐसे पर्व हैं , जिनके माध्यम से विश्व की तीन चौथाई जनता प्रेरणा और प्रकाश पाती है। 

इस अवसर पर विचारशील धर्म प्राण व्यक्तियों को विभिन्न धर्मों के अंतर्सेतु एक ही गंतव्य के संदर्भ में सोचने का अनायास ही अवसर मिलता है। मूलतः धर्मों में कोई अन्तर्विरोध नहीं हैं। वे एक ही गंतव्य तक पहुँचने के भिन्न- भिन्न मार्ग अवश्य हैं। पर्वों के माध्यम से धर्म के लिए, मानवता के लिए, सांस्कृतिक गौरव- गरिमा के लिए लोगों के आचरण में आदर्शवादी उत्कृष्टता की, उत्सर्ग की, त्याग- बलिदान की भावना जागृत होती है। 

पर्व कैसे मनाएँ ?

इन  पर्वों को शास्त्र विधि के अनुसार कैसे मनाया जाना चाहिए एवं इनका प्रचलन किस प्रयोजन के लिए हुआ ? यह जिज्ञासा सहज ही मन में उठती है। 
वस्तुतः सभी पर्व- त्यौहार सामूहिक लोक शिक्षण और उत्साह- उल्लास के अभिवर्द्धन हेतु विकसित हुए हैं। इन सभी को सामूहिक समारोहों के रूप में मनाया जाना चाहिए। कर्मकाण्डों की पूर्ति अकेले सामूहिक गायत्री यज्ञ अथवा वातावरण परिशोधन हेतु किए गए अपने- अपने मतों के अनुसार संकल्पित धर्मानुष्ठानों से हो सकती है। 

उन्हें सार्वजनिक धर्म सम्मेलनों के रूप में मनाया जाय। अधिकाधिक जन समुदाय एकत्रित किया जाय। सामूहिक गायत्री यज्ञ से कर्मकाण्डों की पुर्ति होती है। संगीत और प्रवचन की व्यवस्था रखी जाय। प्रवचनों में पर्व के निर्धारित उद्देश्यों पर प्रकाश डाला जाय और उन्हें कार्यान्वित करने का सामयिक सुझाव दिया जाय। जहाँ संभव हो प्रसाद वितरण एवं अमृताशन के प्रीतिभोज का प्रबंध किया जाय। समाज गठन को सुव्यवस्थित करने के लिए पर्व समारोहों की बडी़ उपयोगिता है। 

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