प्रज्ञा पुराण भाग-4

।। अथ प्रथमोऽध्याय ।।देवसंस्कृति - जिज्ञासा प्रकरणम्-2

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ज्ञानविज्ञानयोयोंगः पन्थानं प्रगतेः सदा । 
सार्वत्निक्याः प्रशस्तं स विदधाति न संशय: ।।  २८ ।। 
शरीरयात्नासौविध्यसंग्रहः, क्रियते यथा । 
तथैवात्मिकप्राखर्यप्राप्तये यततामपि ।।  २९ ।। 
विना तेन नरस्तिष्ठेतन्नरवानररूपकः । 
नरपामररूपो वा  हेयप्रकृतिकारणात् ।।  ३० ।। 
अविकासस्थितस्तिष्ठेदसन्तुष्टस्तिरस्कृतः । 
स्वास्थ्यशिक्षासाधनानां दृन्यात्नाससहश्च सः ।।  ३१ ।।  

भावार्थ् - ज्ञान और विज्ञान का समन्वय ही सर्वतोमुखी प्रगति का पद प्रशस्त करता है । इसलिए शरीर यात्रा की सुविधाएँ जुटाने की तरह ही आत्मिक प्रखरता के लिए भी प्रयत्न होना चाहिए उसके बिना मनुष्य को नर- वानर या नर- पामर बनकर रहना पड़ता है, हेय आदतों के कारण पिछड़ेपन की स्थिति में पड़ा रहता है और असंतोष- तिरस्कार के अतिरिक्त स्वास्थ्य तथा साधनों की दृष्टि से भी त्रास सहता है ।। २ ८- ३१ ।। 

सार्थकं जन्ममानुष्यं कर्तुमावश्यकं मतम् ।
सुसंस्कारत्वमत्रैतद् व्यर्थं जन्माùन्यथानृणा ।।  ३२ ।।
तस्योपलब्धेरेषैव विद्यापद्धतिरुत्तमा ।
निश्चताऽप्यनुभूता च शिक्षाविद्यासुसंगमः ।। ३३ ।। 
महत्वपूर्णो  मन्तव्यो नंरै: सर्वत्र सर्वदा ।
नोचेन्नùसदाचारं व्यवहर्तुं क्षमो भवेत् ।। ३४ ।।

भावार्थ- मनुष्य जन्म को सार्थक करने के लिए सुसंस्कारिता का संपादप नितांत आवश्यक माना गया है। 

विधा उसी को उपलब्ध कराने की, सुनिश्चितं एवं अनुभूत पद्धति है । अस्तु, शिक्षा के साथ  विद्या के समावेश का महत्त्व सर्वत्र समझा जाना चाहिए, नहीं तो वह दैनिक जीवन में सदाचार का व्यवहार नहीं कर पाएगा ।।३२-३४ ।।  

व्याख्या -मनुष्यों व पशुओं में आकृति भेद होते हुए भी अनेक में प्रकृति एक- सी पाई जाती है । वनमानुष देखे तो नहीं जाते, किन्तु उस मनोभूमि वाले नर- वानरों की कोई कमी नहीं । ऐसे भी अनेक हैं, जो निरुद्देश्य जीवन जीते या मर्यादा को तब तक ही मानते हैं, जब तक कि उन पर अंकुश रहे । मनुष्य को जन्म मिलने के साथ- साथ विधाता ने मानव आकृति भी दी है । किन्तु प्रकृति उसे अपनें पुरुषार्थ: से स्वयं अर्जित करनी होती है । खदान से निकला लोहा मिट्टी मिला होता है । उसे भट्टी में गलाना पड़ता है । जब मिला हुआ अंश जलकर नष्ट हो जाता है, तो वही अनगढ़ लोहा शुद्ध लोहे के रूप में सामने आता है । तपाने पर एवं साँचे में ढलाई करने पर भिन्न- भिन्न पात्रों- उपकरणों के रूप में सामने आता है । लगभग यही तथ्य मनुष्य पर भी लागु होता है । 

जीवन निर्वाह के लिए साधन जुटाना है, पर यही पर्याप्त नहीं है । अंतरंग के विकास के बिना जीवन यात्रा अधूरी है । यदि उसने बहिरंग जीवन में काम आने वाले साधन जुटा भी लिए, तो भी वे आत्मिक प्रगति के अभाव में निरुद्देश्य ही पड़े रहेंगे, साधनों का अंबार होते हुए भी व्यक्ति अनगढ़ ही बना रहेगा, कोई लाभ उसका उठा नहीं पाएगा ।

यहाँ ऋषि ज्ञान व विज्ञान के समन्वय की जीवन में महत्ता प्रतिपादित करते हुए व्यक्ति के सांस्कृतिक विकास के लिए उसे अनिवार्य बताते हैं । ज्ञान वह जो अंत: की समृद्धि बढ़ाए, गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार करे । विज्ञान वह जो बहिर्मुखी व्यावहारिक जानकारी मनुष्य को दे । दोनों एक दूसरे के बिना अपूर्ण हैं । ज्ञान संस्कृति का जन्मदाता है, तो विज्ञान सभ्यता का ।संस्कृति व सभ्यता एक दूसरे के साथ चलने पर ही मनुष्य को सर्वांगपूर्ण विकास के पथ पर बढ़ाते हैं । अत: विद्या एवं शिक्षा दोनों को ऊपर बताई गई दो आवश्यकताओं को दृष्टिगत रख समन्वित रूप में प्रारंभ से ही दिए जाने की व्यवस्था बनाई जानी चाहिए । मनुष्य स्वेच्छाचारिता न बरतकर अनुशासित रहे, सदाचारी बने, इसके लिए यह समन्वय अत्यंत अनिवार्य है । 

आत्मतत्व को जानो 

विद्या व्यक्ति को विनम्र बनाती है, उसके अंतरंग के स्तर को ऊँचा उठाती है । शिक्षा तो कहीं भी मिल' सकती है पर विद्या के सूत्र कहीं- कहीं ही मिलते हैं । किन्तु जब भी ऐसा अवसर आता है, व्यक्ति का कायाकल्प हो जाता है । छान्दोग्य उपनिषद् के छठे प्रपाठक में पिता उद्दालक का उनके पुत्र श्वेतकेतु के साथ हुआ संवाद आता है । शिष्य विद्यालय की परीक्षा उत्तीर्ण करके आता है । पर इससे गर्व भी बढ़ा । उद्दंडता बढी और आत्म परिष्कार का कोई लक्षण दिखाई न दिया । इस पर पिता को क्रोध आया और कहा-'' यदि व्यक्तित्व में शालीनता का समावेश न आया तो फिर पढ़ने में समय नष्ट करने से क्या लाभ ?" श्वेतकेतु ने कहा- '' यदि मेरे गुरु ऐसा रहस्य जानते तो वे शिक्षक क्यों बने रहते ? ऋषि और द्रष्टा क्यों न बन जाते । '' उद्दालक ने 
एक गूलर का फल मँगाया और उसके भीतर नन्हें- नन्हें बीज दिखाए और कहा- '' यही लघु कण होते हैं विशाल वृक्ष की सत्ता के मूल कारण । जो आत्म ज्ञान प्राप्त कर लेता है वही इस वट- वृक्ष की तरह सुविकसित होता है । तू उसी तत्व को जान । आत्मसत्ता को सुविकसित कर और जीवन को विशाल' वटवृक्ष की तरह सुविस्तृत सुदृढ़ बना । '' 

विद्यालय बनाम गुरुकुल

शिक्षा  अर्जित कर लौकिक दृष्टि से संपन्न बनने वालों की तुलना में विद्या को हृदयंगम कर जीवन- जीने- सही  
कला का शिक्षण लेने वाले ज्ञान संपदा के धनी कहीं अधिक लाभ में रहते हैं, हर कहीं सराहे जाते हैं। एक अध्यापक अपने छात्रों को लेकर गुरुकुल की शिक्षा प्रणाली का अवलोकन करने गए । नगर के विद्यार्थी उनका भूमिशयन एवं श्रृंगार रहित सादगी भरा जीवन देखकर हँसने लगे और बोले- '' कदाचित यह सब निर्धन परिवारों के लोग मालूम पड़ते हैं । '' गुरुकुल के छात्रों से उनकी वाद- विवाद, विचार- विनिमय प्रतियोगिता रखी गई । प्रतीत हुआ कि व्यावहारिक ज्ञान में तथा सद्गुणों के अभ्यास में गुरुकुल के छात्र कहीं आगे हैं । स्वास्थ्य भी उनका सात्विक आहार एवं प्रकृति सान्निध्य में श्रम साध्य जीवनयापन करने के कारण कहीं अधिक उत्तम हैं। स्वभाव और अनुशासन की दृष्टि से भी वे अग्रणी थे। अधिष्ठाता ने बताया कि यह निर्धनों के नहीं, दूरदर्शियों के बालक हैं। इनके अभिभावकों ने इनका व्यक्तित्व निखारने के लिए यहाँ भेजा है।
 
नगर के शिक्षार्थियों ने अपनी धारणा बदल दी। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली को श्रेष्ट माना। 

अजेय अर्जुन

प्राचीन काल में गुरुकुलों में कठिनाइयों से टकराने का अभ्यास कराकर व्यक्तित्व को प्रखर बनाया जाता था। देवताओं पर स्वर्गलोक में असुरों ने आक्रमण किया। हारने लगे तो धरती पर अजुर्न के पास संदेश भेजा और सहायता माँगी। उसने असुरों से मोर्चा लिया और उन्हें भगा दिया। देवताओं ने गुरु बृहस्पति से पूछा-  '' मनुष्य हमसे अधिक प्रतापी निकले इसका क्या कारण है ? '' उनने कहा- '' अर्जुन कठिनाइयों से टकराकर बलिष्ठ बना और तुम विलासी रहकर अपनी सामर्थ्य गँवा बैठे । जीवन के हर क्षेत्र में अवांछनीयताओं से मोर्चा लेने हेतुजिस विद्या के प्रशिक्षण की आवश्यकता रहती है, वह गुरुकुल शिक्षण का एक' प्रधान अंग रहा है। अर्जुन की विजयका प्रधान कारण यही था। 

शिष्य की श्रद्धा

शिष्य की विनम्रता एवं भावसिक्त श्रद्धा ही गुरुकुल शिक्षण- पद्धति का मूल प्राण है । स्वामी रामतीर्थ बचपन में गाँव के मौलवी साहब से पढ़ा करते थे। प्रारंभिक पढ़ाई पूरी होने पर उन्हें पाठशाला भेजा गया। तब मौलवी साहब को क्या दिया जाय यह प्रश्न सामने आया । स्वामी जी के पिताजी उन्हें मासिक वेतन के अतिरिक्त इस समय कुछ और भेंट करना चाहते थे, तभी स्वामी जी बोल उठे- '' पिताजी ! इन्हें अपनी बढ़िया दूध देने वाली गाय दे दीजिए। इन्होंने मुझे सबसे बढ़िया विद्या का दूध पिलाया है। शिष्य की इस ज्ञानमयी श्रद्धा से पिता तथा गुरु दोनों ही पुलकित हो उठे। 

धर्म शिक्षकों की श्रद्धा-परीक्षा

न केवल छात्रों को , अपितु शिक्षकों को भी गुण, कर्म, स्वभाव की कसौटी पर परख कर संस्कार शिक्षण हेतु उपयुक्त पाने पर ही यह अवसर दिया जाना चाहिए। महर्षि आयोद धौम्य धर्म प्रचारकों का पौरोहित्य विद्यालय चलाते थे। पर उसमें प्रवीण वे उन्हीं को करते थे जो चरित्र और अनुशासन की परीक्षा में खरे उतरते। इस प्रयोजन के लिए उनने उपमन्यु, आरुणि, उद्दालक आदि शिष्यों को अनुशासन पालन की कड़ी परीक्षाओं में परखा। खरे सिद्ध होने पर ही उन्हें पारंगत बनाया । धर्म शिक्षा देने वालों को हर दृष्टि से खरा होना चाहिए इस तथ्य को उनने प्रशिक्षण के साथ एक शर्त के रूप में जोड़ रखा था। 

प्रखर बुद्धि संपन्न रमन

किन्हीं - किन्हीं में ज्ञान संपदा की विलक्षण विभूति स्वतः विकसित होती पाई जाती है तो अन्य अनेक को यह पुरुषार्थ से उपलब्ध होती है। 

त्रिचानापल्ली का एक छात्र विद्यालय में प्रवेश लेने गया। नियमानुसार उसकी परीक्षा ली गई। योग्यता देखकर अध्यापक ने सिफारिश की इस विद्यार्थी की बुद्धि और विद्या इतनी प्रखर है कि उसे कालेज में दाखिला मिलना चाहिए। हाईस्कूल के प्राध्यापक ने लड़के को बुलाया और उस सलाह से अवगत कराया। विद्यार्थी ने जवाब दिया- '' मास्टर साहब ! परीक्षा में अधिक अंक पाने का यह अर्थ नहीं कि जो एक क्रम- व्यवस्था बनी है उसे तोड़ा जाय। एक- एक सीढ़ी पर चढ़ते हुए ही उन्नति के अंतिम बिंदु तक पहुँचा जा सकता है तो फिर मैं ही बीच से छलांग क्यों लगाऊँ ?' स्वल्प श्रम से मिलने वाली सफलता को ठुकरा देने वाले इस छात्र को आज सब चंद्रशेखर वेंकटरमन के नाम से जानते हैं। जिन्हें वैज्ञानिक अनुसंधानों परं नोबुल प्राइज मिला। यह विनम्रता-निरहंकारिता ही उच्च स्तरीय उपलब्धियों की पृष्ठभूमि बनाती है।

पुरुषार्थ से अर्जित विद्या 

जिन्होंने विद्या की पूँजी पुरुषार्थ से उपलब्ध की, वे अन्य अनेक के लिए प्रेरणास्रोत बनते हैं। उनकी यह निधि सारे विश्व के धन कोषों में रखी राशि से भी अमूल्य है।
विश्व  विख्यात संगीतकार बिथोवियन के प्रशिक्षक गुरु ने एक बार उनके एक मित्र को, जो कि एक राजकुमार था, कहा-  '' यों तो विश्व में हजारों राजकुमार होंगे किन्तु उन राजकुमारों की भीड़ के बीच में बिथोवियन ने अपनी स्वयं की कला साधना के कारण ख्याति प्राप्त की है ।'' 

शिष्य के अंतरंग मित्र को कहे गए ये शब्द बिथोवियन की प्रशस्ति नहीं, वरन् संकल्प, साधना तथा श्रम की  गरिमा बताते हैं। बिथोवियन को अपने जीवन में किसी का सहाय नहीं मिला। शराबी पिता द्वारा प्रताड़ित किया गया। प्रकृति ने उसे अंधा- बहरा बना दिया, पर वाह रे ! धुन के धनी, संकल्पों के कुबेर, हारना तो सीखा ही नहीं। संगीत को बिथोवियन की इस साधना ने अमर बना दिया, साथ ही उसके नाम को भी। 

मोची दार्शनिक इंग्लैण्ड के रैदास 

जोसेफ पेण्ड्रेल अपने जमाने के ऊँचे दार्शनिक थे। उनका सारे इंग्लैण्ड में बड़ा नाम  था।  उनके पिता मोची  का काम करते थे। वही उन्हें भी सुहाया। जितनी देर में पेट भरने की मजूरी पूरी हो जाय, उतना ही समय काम करते थे और शेष समय विद्याध्ययन में लगाते थे। पुस्तकालयों से उनकी ज्ञान- पिपासा पूर्ण होती थी। वे नए जुते  के बनाने की अपेक्षा पुरानों की मरम्मत में अपनी प्रतिभा को विकसित होने और जनता के धन की बर्बादी रुकने का लाभ देखते थे। वे स्थायी दुकान लगाकर नहीं रहे। जब भी अच्छे पुस्तकालय और ऊँचे विद्वानों की चर्चा सुनते वहीं अपना सरंजाम उठा ले जाते और कहीं खाली जगह में बैठकर अपना धंधा आरंभ कर देते। शेष समय में अध्ययन और ज्ञान चर्चा करते रहते। उनने बहुत कुछ लिखा भी है। उनकी तुलना भारत के संत रैदास से की जाती थी। 

नौकर से राष्ट्रपति

ओहियो के जंगल में गारफील्ड की विधवा माता रहती थी। लकड़ी काट कर गाँवों में बेचने जाती, तो लड़के को झोपड़ी में बंद करके ताला लगा जाती, ताकि जंगल के भेड़िये उसे खा न जाँय। रात को माँ उसे दुलार करती और कुछ पढाती। बड़ा होकर माँ- बेटे ने एक खच्चर लें लिया और लकड़ियाँ सिर पर ढोने की अपेक्षा उसी पर लाद कर ले जाने लगे। गारफील्ड को पढ़ने का चस्का लगा। उसे एक पुस्तकालय में सफाई की नौकरी मिल गई। वह स्कूली पढ़ाई भी पढ़ने लगा और ज्ञानवर्द्धन साहित्य भी। युवा होते- होते वह ग्रेजुएट बन गया और दूसरी अच्छी नौकरी भी मिल गई। इसी के साथ बचे हुए समय में वह समाज सेवा के अनेक कार्य करता । उसके स्वभाव और चरित्र से उस क्षेत्र के सभी लोग परिचित हो गए। 

प्रगति पथ की अनेक मंजिलें पार करते हुए गारफील्ड अमेरिका की राज्यसभा का सदस्य चुना गया। इससे अगले चुनाव में वह राष्ट्रपति के पद पर प्रतिष्ठित हुआ। यह सफलता किसी देवता के वरदान से नहीं, उसे अपनी योग्यता और सेवा- साधना के बलबूते पर उपलब्ध हुई थी। 

यह पथ हर व्यक्ति के लिए खुला हुआ है। जो किसी की प्रतीक्षा न कर स्वयं पुरुषार्थ में संलग्न होते हैं , वे अपनी संकल्पशक्ति से लक्ष्य को प्राप्त करके रहते हैं।   
ज्ञान की अनंतता ज्ञान का समुद्र अत्यंत विशाल है । उसकी थाह कोई ले नहीं सकता । यह मान बैठना कि थोड़े ही प्रयासों से ज्ञानार्जन हो सकेगा, एक आत्म प्रवंचना भर है। किन्तु प्रयास सतत् इसी दिशा में होते रहना चाहिए। 

भगवान बुद्ध एक बार आनंद के साथ एक सघन वन में से होकर गुजर रहे थे। रास्ते में ज्ञान चर्चा भी चल रही थी। आनंद ने पूछा- '' देव ! आप तो ज्ञान के भंडार हैं। आपने जो जाना, क्या आपने उसे हमें बता दिया ?'' 

बुद्ध ने उलटकर पूछा- '' इस जंगल में भूमि पर कितने सूखे पत्ते पड़े होंगे ? फिर हम जिस वृक्ष के नीचे खड़े है, उस पर चिपके सूखे पत्तों की संख्या कितनी होगी ? इसके बाद अपने पैरों तले जो अभी पड़े है , वे कितने हो सकते हैं ?'' आनंद इन प्रश्नों का उत्तर देने की स्थिति में नहीं थे। मौन तोड़ते हुए तथागत ने स्वयं ही कहा- '' ज्ञान का विस्तार इतना है, जितना इन वन- प्रदेश में बिछे हुए सूखे पत्तों का परिवार। मैंने इतना जाना, जितना ऊपर वाले वृक्ष का पतझड़। इसमें भी तुम लोगों को इतना ही बताया जा सका, जितना कि अपने पैरों के नीचे कुछेक पत्तों का समूह पड़ा है । '' ज्ञान की अनंतता को समझाते हुए उसे निरंतर खोजते और जितना मिल सके उतना समेटते रहने में ही बुद्धिमत्ता है। 

किसे सिखाएँ किससे सीखें ?   

जानकारी का महत्त्व समझाते हुए सुकरात ने एक बार अपने शिष्यों से कहा-  '' जो अनजान है और अपने को जानकार मानता है, उससे बचो। जो अनजान है और अपनी अल्पज्ञता से परचित है उसे सिखाओ। जो जानता तो है, पर अपने ज्ञान के बारे में शंकालु है उसे जगाओ और जो जानता है, पर साथ ही अपनी जानकारी के प्रति आस्थावान है, वह बुद्धिमान है। ऐसे ही व्यक्ति के पीछे चलो। '' 

आगतेषु गुरूष्चत्र महर्षि: स ऋतम्भरः। 
उत्थाय कृवान् व्यक्तां जिज्ञासां नम्रभावतः ।। ३५ ।। 
भावार्थ-  आगतुंक अध्यापकों में से महामनीषी महर्षि ऋतंभर ने उठकर विनम्रतापूर्वक जिज्ञासा व्यक्त की ।। ३५।। 
ऋतंभर उवाच- 
संस्कारिणीमिमां विद्यां विधातुए मर्त्यजीवने । 
समाविष्टां विधिर्वाच्यो बोधबोधनयोः प्रभो ।। ३६ ।। 

भावार्थ- ऋतंभर ने कहा- भगवन् ! सुसंस्कारी विद्या को मनुष्य जीवन में समाविष्ट करने की विधि- व्यवस्था समझाएँ । उसे किस प्रकार सीखा और सिखाया जाना चाहिए ।। ३६ ।। 

कात्यायन उवाच- 
भद्र एष शभारम्भः पितृभ्यां मर्त्यजीवने। 
निजे कृत्वा परिष्कारं विधातव्यो यथा च तत् ।।  ३७  ।। 
बीजं भवति चोत्पत्तिः क्षपाणां तादृशां भवेत् । 
दायित्वं पितरौ बुद्धवा सच्चारित्र्यं च चिन्तनम् ।।  ३८  ।। 
उच्चस्तरं तु गृहणीयुर्भूत्वा कामातुरास्तु ते। 
अनीप्सितां न चोत्पन्नां कुर्युः सन्ततिमात्मनः ।।  ३९ ।।    

भावार्थ  कात्यायन बोले- भद्रजनो ! यह शुभारंभ माता−पिता को अपनी जीवनचर्या में सुधार- परिष्कार करके आरंभ करना चाहिए। जैसा बीज होता है, वैसी ही पौध उगती है। इसलिए जनक- जननी अपने महान उत्तरदायित्व को समझें और सुयोग्य संतान के लिए उच्चस्तरीय चिंतन और चरित्र अपनाएँ। कामातुर होकर अवांछनीय संतान उत्पन्न न करें ।।३७ ।।

व्याख्या -  काँटेदार बबूल का बीज बोकर आम के वृक्ष पनपने की आशा नहीं की जाती। खाद, पानी, निराई, गुड़ाई जितनी महत्त्वपूर्ण है, उससे भीअधिक यह कि बीज श्रेष्ठ है या नहीं। किसान इसीलिए अपनी फसल बोने से पहले श्रेष्ठ बीज ढूँढ़ते, तदुपरान्त अन्य व्यवस्थाएँ करते हैं। माता- पिता की, शिशु- निर्माण में किसान जैसी ही भूमिका है। जितना श्रेष्ठ चिंतन व चरित्र का स्तर माता- पिता का होगा, उतनी ही उच्चस्तरीय सुसंतति होगी। एक नया जीवन संसार में प्रवेश ले, उसके पूर्व माता- पिता स्वयं अपनी मनोभूमि बनाएँ, संस्कारों को पोषण दें, तो ही ऐसी श्रेष्ठ संतान की अपेक्षा की जा सकती है, जो विद्यार्जन हेतु सक्षम आत्मबल जुटा सके। 

तपस्वी की सुसंतति 

स्वयंभू मनु और शतरूपा रानी का मन भगवद् गुणों से युक्त संतान को गोदी में खिलाने का था। इसके लिए वे उपाय ढूँढ रहे थे। वशिष्ठ जी ने कहा- '' तपस्वी आत्माओं की गोदी में ही भगवान खेलते हैं। तुम दोनों अपने को तपाकर इस योग्य बनाओ कि परब्रह्म की इच्छा तुम्हारे आँचल में बैठने की होने लगे। '' दोनों ने तप- साधना द्वारा अपने को पवित्र बनाया। 

अगले जन्म में वे दोनों दशरथ- कौशल्या हुए और उनकी गोदी में भगवान् राम खेले थे। रुक्मिणी और कृष्ण को भी प्रद्युम्न जैसी उच्च आत्मा पाने के लिए बद्रीनाथ जाकर तप करना पड़ा था। 

श्रेष्ठ वातावरण- श्रेष्ठ संतति   

देश के महामानवों के निर्माण में उनकी निजी क्षमता तथा आदर्शवादिता कारण रही है। उतना ही परोक्ष रूप से उनके अभिभावकों का प्रयास तथा परिवार का वातावरण भी रहा है।

महामना मालवीय जी, लोकमान्य तिलक, गोखले रानाडे़, लाजपतराय, गाँधी जी, सुभाष आदि के बचपन का अध्ययन किया जाय, तो प्रतीत होता है कि वे घर के आदर्शवादी प्रगतिशील परिवार में पले थे और उनके अभिभावकों ने उनको उत्कृष्ट बनाने में भरसक प्रयत्न किया था। बचपन के वे सुसंस्कार ही बड़े होने पर उन्हें महामानव स्तर का बना सके। 

नंद और यशादा

गोकुल के महानंद धनवान् और विद्वान् थे। उनकी धर्मपत्नी यशोदा ने अपने दोनों पुत्र बलराम और श्रीकृष्ण समान रूप से विकसित किए। उन्हें परिश्रमी बनाया जो गौएँ चराते थे। संदीपन ऋषि के गुरूकुल में पढ़ने भेजा। अनीति के विरुद्ध लड़ने का जोखिम उठाने के लिए वे उन्हें प्रोत्साहित करतीं और साहस भरती रहीं, फलतः  वे कंस और जरासन्ध जैसे दुष्टों का हनन करने में समर्थ हुए। माता- पिता बालकों मे स्वतंत्र प्रतिभा विकसित करने में सदा सहायक रहे, किन्तु दुर्गुणी किसी को भी न बनने दिया। 

दिलीप का उत्तरदायित्व निर्वाह

राजा दिलीप के कोई संतान न थी। वे उपाय पूछने गुरु वशिष्ठ के आश्रम में पहुँचे। ऋषि ने कहा- '' आप यहाँ प्राकृतिक वातावरण में रहिए, दुग्ध कल्प कीजिए और गौ चराने के निमित्त आप दोनों उसके पीछे -पीछे  दिन भर भ्रमण कीजिए। ''  राजा- रानी इसी उपचार को करने लगे । 

एक दिन मायावी सिंह ने राजा की गुरु भक्ति को परखना चाहा और गाय के ऊपर आक्रमण कर दिया। राजा का धनुष बाँण काम न दे रहा था। उनने सिंह से कहा- '' भले ही आप मुझे खा लें। पर गौ को छोड़ दें उनकी गाय को गँवाकर मै गुरु को क्या मुँह दिखाऊँगा।'' 

राजा की भक्ति भावना और उत्तरदायित्व दृढ़ता की परीक्षा करके सिंह ने गाय को छोड़ दिया और उन्हें भी नहीं खाया। समयानुसार दिलीप को तप- साधना एवं कर्तव्यनिष्ठा के फलस्वरूप श्रेष्ठ संतान उपलब्ध हुई, जिसने रघुकुल परंपरा को चलाया। 

कर्कटी की पराक्रमी सन्तान 

पांडव जब अज्ञातवास में थे तब भीम ने गंधर्व विवाह करके कर्कटी नामक वनवासी युवती को उपपत्नी बनाया। उसे सुयोग्य और संस्कारवान् बनाया। फलतः  वह अपने पुत्र घटोत्कच को पिता के समान ही पराक्रमी योद्धा बना सकी। इतना ही नहीं, कर्कटी का पौत्र बर्वरीक भी असाधारण पराक्रमी बना। इस उत्पादन में पिता और माता का अधिक योगदान था। वह पति के वापस लौट आने पर भी अपने परिवार को महामानव स्तर का बनाती रही। जबकि उसके क्षेत्र में अन्य वनवासियों की संतान अनगढ़ ही बनी रही। 

श्रृङ्गी ऋषि का सुसंस्कारी शिक्षण 

लोमश ऋषि ने अपने पुत्र श्रृंगी को अपने से भी उच्चकोटि का ऋषि बनाने के लिए उनकी शिक्षा- साधना के अतिरिक्त आहार- बिहार का विशेष रूप से संरक्षण किया। उन्हें आश्रम में उत्पादित अन्य-फल  ही खिलाए जाते थे। नारी का संपर्क तो दूर, उनके संबंध में उन्हें जानकारी तक नहीं होने दी। दशरथ और वशिष्ठ इस प्रबल अनुशासन की परीक्षा लेने गए। 

अप्सराओं के हाथों मिष्ठान्न भेजा। उनने नारियाँ कभी देखी न थीं, सो उनका परिचय पूछा। उत्तर मिला- '' हम भी ब्रह्मचारी विद्यार्थी हैं। हमारा गुरुकुल शीत प्रधान क्षेत्र में है। सो बड़ी आयु तक दाढ़ी मूँछ नहीं आती। प्राणायाम अधिक करने से हमारे सीने चौड़े हो जाते हैं। '' मिष्ठान दिए और कहा-'' यह हमारे आश्रम के फल हैं।'' श्रृंगी ऋषि ने उनकी बात अक्षरशः सही मानी और पिता को सारा विवरण बताया। वे देखने बाहर आए तो अप्सराओं के साथ दशरथ और वशिष्ठ खड़े दीखे। हेतु बताया गया कि दशरथ का पुत्रेष्ठी यज्ञ कराने योग्य शक्तिवान वाणी इन दिनों श्रृंगी ऋषि की है। यंत्रवत् श्लोक पढ़ने वाले तो असंख्यों हैं। 

श्रृंगी ऋषि के द्वारा जो यज्ञ हुआ उससे चार राजकुमार राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के रूप में ऐसे जन्मे जिनने इतिहास को धन्य कर दिया। ब्रह्मतेज अर्जित करने के लिए साधना ही नहीं, इंद्रिय निग्रह भी आवश्यक है। श्रृंगी ऋषि ने यह सब अपने पिता द्वारा प्रदत्त उच्चस्तरीय शिक्षण से ही सीखा एवं श्रेष्ठ तपस्वी का पद पाया। 

अबोधाःशिशवो मतुरुदारावाधित:  स्वयम् ।
अभ्यास्ते कुटुम्बस्य ज्ञेयं  वातावृतौ  बहु ।।४० ।। 
शिशूनां सप्तवर्षाणां प्रायो व्यक्तित्त्व्निर्मित: ।
पुर्नैवं जायते चास्यामवधौ  पारिवारिकी।। ४१ ।। 
वातावृतिः शिशून्   कृत्वा पूर्णतस्तु प्रभावितान् ।
सुनिश्चिते क्रमे चैतान् परिवर्तयति  स्वयम् ।। ४२ ।। 

भावार्थ- अबोध शिशु माता के उदर से लेकर परिवार के वातावरण में  कुछ सीख लेते हैं । सात 
वर्ष की आयु तक बच्चों का व्यक्तित्व बड़ी  मात्रा में विनिर्मित हो चुका  होता है ।इस  अवधि में पारिवारिक वातावरण का ही भला- बुरा प्रभाव बालकों को सुनिश्चित ढाँचे में ढालता है ।।४०- ४२ ।। 

व्याख्या- विद्या वह उच्चस्तरीय संस्कारयुक्त मार्गदर्शन है, जिसका शुभारंभ गर्भावस्था से ही हो जाता है।माता की गर्भकाल की अवधि में जैसी मनःस्थिति होती है, जैसा चिंतन प्रवाह चलता है ,बालक वैसा ही ढलता है । जन्म के तुरंत बाद से ही वह शिक्षण प्रत्यक्ष रूप से चल पड़ता है। आनुवांशिकता से गुण- संपदा के संतान में समाविष्ट होने की बात जितनी सही है, उतनी ही यह भी कि वातावरण में, स्वयं के जीवन कम में उन संस्कारों का समावेश किया गया अथवा नहीं, जो माता- पिता अपनी संतानों में चाहते हैं। एक दार्शनिक का वह कथन शत प्रतिशत सही है, जिसमें उन्होंने ५ वर्ष की अवधि के बाद शिक्षण हेतु अपने बच्चे को लेकर आने वाली एक माता को कहा था कि बच्चे  को विद्या देने की बहुमूल्य अवधि ५ वर्ष तो वह गँवा चुकी। वस्तुतः सुसंतति के निर्धारण हेतु माता- पिता का स्थान भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कि जन्मोपरांत निर्धारित अवधि में गुरुकुल पहुँचने पर शिक्षक का । 

बहुमूल्य रत्नों की  खदान

प्रसिद्धि साहित्यकार पर्लबक ने लिखा है-'' यों नई पढाई  का स्तर उभारने में समूचे समाज का सहयोग अपेक्षित है, पर चूँकि  बच्चे नारी के शरीर और मन का बहुत बड़ा हिस्सा लेकर जन्मते हैं , इसलिए उस खदान को विशेष रूप से समुन्नत होना चाहिए, ताकि अगले दिनों संसार को बहुमूल्य रत्न मिल सकें। 

श्रद्धा की पौध

बचपन में  रोपे गए संस्कार रूपी बीज ही कालांतर में फलित होते एवं चमत्कार दिखाते हैं। माँ ने कहा '' बच्चे, अब तुम समझदार हो गए। स्नान  कर लिया करो और प्रतिदिन तुलसी के वृक्ष में जल भो चढ़ाया करो । तुलसी की उपासना की हमारी परंपरा पुरखों से चली आ रही है । '' बच्चे ने तर्क किया- '' माँ ! तुम कितनी भोली हो इतना भी नहीं जानती कि यह तो पेड़  है ? पेड़ों की भी कहीं पूजा की जाती है । इसमें समय व्यर्थ खोने से क्या लाभ है ? '' लाभ है मुन्ने ! श्रद्धा कभी निरर्थक नहीं जाती। हमारे जीवन में जो विकास और बौद्धिकता है, उसका आधार श्रद्धा ही है । श्रद्धा छोटी उपासना से विकसित होती है और यही अंत में जीवन को महान् बना देती है। '' 

तब से विनोबा भावे ने प्रतिदिन तुलसी को जल देना शुरू कर दिया । माँ की शिक्षा कितनी सत्य निकली उसका प्रमाण सबके सामने है। 

प्रेम से बदलो 

आचार्य हरिद्रुमत यज्ञ संचालन के लिए गांधार जा रहे थे। मार्ग में एक ऐसा गाँव मिला, जहाँ के बारे में यह प्रचलित था कि उस गाँव का एक व्यक्ति भी नास्तिक नहीं है । किन्तु यह क्या, जिस समय वे एक गली से गुजर रहे थे, एक गृहस्थ अपने बच्चे को बुरी तरह प्रताड़ना दे रहा था । गृहस्थ उस समय, गुस्से से लाल हो रहा था।हरिद्रुमत के पूछने पर उसने बताया- '' महाराज ! नाराज न होऊँ, तो क्या करूँ ? सारे गाँव में यही ऐसा है, जो नास्तिक है, इससे मुझे अपयश मिलता है। आप ही बताइए, क्या किया जाए ?'' '' आप इस बालक के साथ और अपेक्षाकृत घनिष्ठ प्रेम कीजिए । '' प्रताड़ना देकर नास्तिकता मिटाने का हरिद्रुमत  ने उत्तर दिया और आगे बढ़ गए। पिता और परिवार ने बच्चे को प्रेम दिया- प्रगाढ़ प्रेम, उसी का परिणाम था कि यही बालक आगे चलकर महान् धार्मिक संत उद्दालक ने नाम से विश्व विख्यात हुआ। सही शिक्षण ही श्रेष्ठ व्यक्तित्व का निर्माण करता है। 

एक सात वर्षीय बालक को माँ पीटे ही जा रही थी। पड़ोस की एक महिला ने जाकर बचाया उसे । पूछने पर उसकी माँ ने बताया कि वह मंदिर में से चढौती के आम तथा पैसे चुराकर लाया है, इसी से पीट रही हूँ इसे। उक्त महिला ने बड़े प्यार से उस बच्चे से पूछा- '' क्यों बेटा! तुम तो बड़े प्यारे बालक हो।चोरी तो गंदे बालक करते हैं। तुमने ऐसा क्यों किया ?'' बार- बार पूछने पर सिसकियों के बीच से वह बोला- '' माँ भी तो रोज ऊपर वाले चाचाजी के दूध में से आधा निकाल लेती हैं और हमसे कहती है कि बताना मत। मैंने तो आज पहली बार ही चोरी की है ।'' महिला का मुख देखते ही बनता था उस समय । वास्तव में बच्चों के निर्माण में घर का वातावरण बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यदि चरित्रवान संतान अपेक्षित है, तो सबसे पहले अपने ही गिरेबान में मुँह झाँकना होगा। माता- पिता की कथनी- करनी एक ही हो, यह जरूरी है, क्योंकि कच्चे मन पर वही संस्कार पड़ते हैं, जो उन्हें प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। 
माता- पिता की मनःस्थिति एवं संतति 

माता- पिता का चिंतन किस तरह संतति के सृजन को प्रभावित कर सकता है, इसकी साक्षी हेतु कई घटनाएँ उद्धृत की जा सकती हैं। 

स्पेन के किसी अंग्रेज परिवार में एक बार एक स्त्री  गर्भवती हुई। गर्भवती जिस कमरे में रहती थी, उसमें अन्य चित्रों के साथ एक इथोपियन जाति के बहादुर का चित्र उस स्त्री  को अति प्रिय था। कमरे में वह उस चित्र को बहुत भावनापूर्ण देखा करती थी। दूसरे काम करते समय भी उसे उस चित्र का स्मरण बना रहता था। अंत में जब उसे बालक जन्मा, तो उसके माता- पिता अंग्रेज होते हुए भी लड़के की आकृति और वर्ण इथोपियनों जैसा ही था। उस चित्र की मुखाकृति से बिलकुल मिलता- जुलता, उसी के अनुरूप था। घरों में भगवान् के, महापुरुषों के चित्र लगाए भी इसीलिए जाते हैं कि उनकी आकृतियों से निकलने वाले सूक्ष्म भावना प्रवाह का लाभ मिलता रहे । 

ऐसी ही एक घटना पिता से संबंधित है। एक अंग्रेज ने किसी ब्राजीली लड़की से विवाह किया। लड़की का रंग साँवला था, पर उसमें मोहकता अधिक थी। पति- पत्नि में घनिष्ठ प्रेम था, पर उन्हें कोई संतान नहीं हुई। कुछ समय पश्चात् वह मर गई। पति को बड़ा दुःख हुआ। कुछ दिन बाद उसने दूसरा विवाह अंग्रेज स्त्री  से किया। वह गौरवर्ण की थी, पर इस अंग्रेज को अपनी पूर्व पत्नी की याद बनी रहती थी, इसलिए वह नई पत्नी को भी उसी भाव से देखा करता था। इस स्त्री  से एक कन्या उत्पन्न हुई, जो ब्राजीलियन लड़की की तरह साँवली ही नहीं मुखाकृति से भी मिलती- जुलती थी। यह गर्भावस्था में पिता के मस्तिष्क में जमा हुआ पत्नी- प्रेम का संस्कार ही था, जिसके कारण बालिका ने उसका रंग और आकार ग्रहण किया। 

माँ की प्रेरणा 

अमेरिका के राष्ट्रपति एंड्रयू जैक्सन की माता को एक जहाज पर नर्स के रूप में अमेरिका जाना पड़ा। तब जैक्सन चौदह वर्ष के थे। माता ने अपने पुत्र को एक संदेश भेजा था, जिसमें लिखा था-  '' एंड्रयू, यदि मैं जीवित वापस न लौटूँ , जिंदगी भर मेरी एक बात याद रखना- '' इस संसार में हर मनुष्य को अपना रास्ता आप बनाना पड़ता है। आगे बढ़ने के लिए सच्चे दोस्तों की जरूरत पड़ती है और वे उन्हीं को मिल सकते है, जो स्वयं ईमानदार हैं। '' 

पिता का मार्गदर्शन 

पंडित नेहरू बाल विकास पैर यथार्थतः  विश्वास रखते थे। उनकी बेटी की प्रतिभा का लोहा देश को मानना पड़ रहा है। उसके  विकास के लिए वह कितने प्रयत्नरत् रहे थे, इसका अंदाज ' पिता के पत्र पुत्री  के नाम ' को पढ़कर लग सकता है। बेटी दूर थी, तब पत्रों द्वारा जो मार्गदर्शन दिया गया, उसकी एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक बन गई। इस उच्चस्तरीय मार्गदर्शन ने ही इंदिरा के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

स्वाभिमानी अँगद 

श्रेष्ठता की परख वेशभूषा से नहीं होती, न ही आयु से। जैसी विकास बाल्यकाल से संतति का होता 
है, वैसी ही उच्चस्तरीय उसकी परिणति भी होती है ।

अंगद की आयु कुल चौबीस वर्ष की थी, जब वे राम के राजदूत बनकर लंकापुरी गए। अंगद को देखकर रावण हँसा और बोला- '' लगता है, राम की सेना में कोई दाढ़ी मूँछ वाला विद्वान नहीं, जो एक छोकरे को यहाँ भेजा गया। '' अंगद का स्वाभिमान फड़क उठा। उन्होंने कहा-  '' भगवान् राम को पता होता कि रावण जैसा विद्वान भी विद्वता की परख वेश से करता है, तो नि:संदेह यहाँ किसी दढ़ियल बकरे को ही भेज दिया गया होता। यदि आप राम के दूत से चर्चा करना चाहते हैं, तो पहले व्यक्ति को उसके गुण, कर्म, स्वभाव से परखना सीखें। '' 

दुश्मन की सभा में यह गर्वोक्ति करने वाला अंगद श्रेष्ठ माता- पिता की संतान तो था ही, उसे जो शिक्षण एवं वातावरण मिला, उसने उसे हनुमान जैसा पराक्रमी बना दिया। 

संगीत साधक शेषण्णा

एक विदेशी मेहमान द्वारा परीक्षा हेतु एक विशेष राग सुनाए जाने की प्रार्थना पर महाराज कृष्णराज ओडियार ने अपने संगीतकारों को वह चुनौती दी। सबको मौन देखकर, उसी समय वहाँ पधारे सुविख्यात संगीतज्ञ चिकरामप्पा को संबोधित करते हुए, उनने व्यंग्य बाण फेंका- '' क्या हमारे संगीतज्ञों को कंगन और सिंदूर बाँटा जाए ? '' 

महाराज की यह व्यंग्योक्ति सुनकर संगीतज्ञ का स्वाभिमान फुँकार उठा। उन्होंने धीर- गंभीर स्वर में उनकी चुनौती स्वीकार करते हुए कहा- '' महाराज! इस राग के गाने के लिए बड़ों की क्या आवश्यकता ? मेरा सात साल का शेषण्णा गायेगा । '' संगीत की लहरियों को वातावरण में विकसित होने वाले इस पुष्प- पादप को उसके कलाकार पिता नें अपने हाथों तीन वर्ष की आयु में ही दीक्षित कर दिया था। बालक शेषण्ण गाने लगा। सधा हुआ कंठ स्वर, मुग्ध कर देने वाली रसयुक्त स्वर लहरी वातावरण में तैरने लगी। सभी श्रोता चकित से इस बाल कलाकार की कला साधना पर चकित हो उठे। एक समाँ बँध गया। संगीत की समाप्ति पर महाराज अपने आसन से उठे और बालक  को अपनी भुजाओं पर उठा लिया। उसे सिंहासन पर अपनी गोद में बिठाकर मूल्यवान शाल के उपहार के साथ- साथ शुभाशीष दी- '' हमारी सभा के गौरव की रक्षा करने वाला यह बालक अपने जीवन में यशस्वी संगीतज्ञ बने।'' 

कृष्णराज ओडियार की यह शुभकामना साकार होकर रही। यह बालक आगे चलकर विश्वविख्यात गायक बना । बाल्यकाल में मिले शिक्षण ने ही बालक को इस ऊँची स्थिति में पहुँचाया। 

अपंगता माताके शिक्षण से दूर हुई

यदि प्रयास- पुरुषार्थ किया जाय, तो अभिभावक क्या नहीं कर सकते । वे अपनी संतान में मनोबल फूँककर उनका कायाकल्प भी कर सकते है। 

इंग्लैण्ड के ७५ हजार अन्य बच्चों की तरह वेलरी लांग भी मानसिक पक्षाघात से पीडित थी।  डॉक्टरों ने उसके आजीवन अपंग रहने की भविष्यवाणी कर दी थी। पर हुआ इससे भिन्न एक अजीब आश्चर्य जैसा। उसकी माता अपने मनोविनोद छोड़कर गृहकार्यों से बचा हुआ समय पूरी तरह अपनी बच्ची के साथ लगाती और मस्तिष्क के साथ  शारीरिक क्रियाओं की संगति जोड़ने के लिए तरह- तरह के प्रयोग करती रही, जबकि अन्य अपंग बालक माता पिता से भी उपेक्षित और भार रूप रहते हैं। 

यह प्रयास निष्फल नहीं गया । बच्ची ने न केवल मस्तिष्क के साथ शरीर का तारतम्य जोड़ लिया, वरन् वह पढ़ने- लिखने भी लगी। प्रोत्साहन का परिणाम यह हुआ कि उसने एम०ए० कर लिया और एक बड़े पुस्तकालय में पुस्तकालयाध्यक्ष बन गई। रानी ने उसकी प्रगति को देखते हुए विशेष पुरस्कार दिया। 
बुद्धं शरणं गच्छामि भगवान् बुद्ध कपिलवस्तु पधारे । यशोधरा का त्याग ही उन्हें इस स्थिति तक पहुँचा पाया था, यह भी उन्हें स्मरण था। वे महल पहुँचे और यशोधरा से पूछा- '' यशोधरा। कुशल से तो हो ?''

'' हाँ स्वामी! '' चिर प्रतिक्षित स्वर सुनकर यशोधरा का हृदय गद्गद् हो उठा। '' स्वामी नहीं, भिक्षु कहो यशोधरे ! मैं अपना धर्म निभाने आया हूँ । बोलो  तुम कुछ भिक्षा दे सकोगी ?'' यशोधरा विचारमग्न हो उठी। 

'' अब क्या बचा है देने के लिए ? अपने दाम्पत्य की स्मृतियों को छोड़कर और कुछ भी तो नहीं है, जो देने योग्य हो। '' कुछ क्षण तक विचार करते रह कर उसके चेहरे पर निश्चय के भाव उभरे और बोली- '' भंते!  अपने पूर्व संबंधों को ही दृष्टिगत रखकर क्या आप भी कुछ प्रतिदान कर सकोगे ?'' भिक्षु धर्म की मर्यादा का उल्लंघन न होता होगा, तो अवश्य करूँगा आर्ये!''- बुद्ध ने उत्तर दिया। यशोधरा ने अपने पुत्र राहुल को पुकारा और यथागत की ओर उन्मुख होकर बोली- '' तो भगवन्! राहुल को भी अपनी पितृ- परंपरा निभाने देकर उसे अपना अधिकार पाने दीजिए।'' और फिर राहुल से बोली- '' जाओ बेटा! अपनी पितृ परंपरा का अनुकरण करो। बुद्ध की शरण में, धर्म की शरण में, संघ की शरण में जाओ। '' 

राहुल के समवेत स्वरों में गूँज उठा- '' बुद्धं शरणं गच्छामि ''। यशोधरा एवं सिद्धार्थ की श्रेष्ठ संतति राहुल भी इसी परंपरा में सम्मिलित हो  गया जिसे स्वयं सिद्धार्थ- गौतम बुद्ध ने आरंभ किया था ।माता को इसमें और भी अधिक श्रेय जाता है जिसने पति के अभाव में भी अपनी संतति को उच्चतम संस्कार दिए। 

अतः पश्चाद् विनिर्मान्ति व्यक्तित्वं गुरवश्च ते। 
नोपदेशेन पाठ्यैर्वा विषये: सम्भवेदिदम् ।। ४३।। 
गुरुकुलेषु निवासस्याùय्यापनस्य प च द्वयोः। 
कार्यं सहैव सम्पन्न जायतेù तेन तल च ।। ४४।। 
ग्रन्थाùध्यापंनमात्रं न जायतेऽपितु विद्यते। 
प्रबन्धस्यत्र शिक्षाया व्यवहारस्य शोभन: ।। ४५ ।। 
सुयोग्यपरिवारस्य भूमिकां निर्वहन्ति ये। 
यत्न वातावृत्तिः स्फुर्तिदùस्त विद्यालयास्तु ते ।। ४६ ।। 

भावार्थ- इसके उपरांत गुरुजन बालकों का व्यक्तित्व बनाते हैं । यह कार्य मात्र उपदेश या पाठ्यक्रम के सहारे संपत्र नहीं होता । गुरुकुलों में निवास और अध्ययन के दोनों ही कार्य साथ- साथ चलते है। इसलिए वहाँ पुस्तक पढ़ाने का ही नहीं ,व्यवहार सिखाने का भी प्रबंध किया जाता है । सुयोग्य परिवार की भूमिका जो निभा सकते  हैं , जहाँ प्रेरणाप्रद वातावरण होताहै ,वस्तुतःवे ही  विद्यालय कहलाने के अधिकारी हैं ।। ४३- ४६ ।।  

कुसंस्कारयुते वातावरणे याति विकृतिम् । 
व्यक्तित्वं बालकानां सा शिक्षा व्यर्थत्वमेति च ।। ४७ ।। 
भौतिकी वर्तते चाल्पं महत्वं ज्ञानजं परम् । 
प्रतिभाया महत्वेन युतायास्त्वधिकं मतम् ।।  ४८ ।।  

भावार्थ- कुसंस्कारी वातावरण में बालकों के व्यक्तित्व उलटे बिगड़ते हैं । शिक्षा के रूप में जो भौतिक जानकारी प्राप्त हुई थी , वह भी निरर्थक चली जाती है । जानकारी का कम और संस्कारवान् प्रतिभा का महत्त्व अधिक है ।। ४७-४९। ।  

व्याख्या- माता -पिता बाल्यकाल के प्रारंभिक वर्षों में बालक के विकास हेतु उत्तरदायी हैं,तो गुरु शिक्षक उनके उत्तरकाल के लिए । यही वह अवधि है, जिनमें मस्तिष्क की पकड़ अत्यंत पैनी होती है । बालक गीली मिट्टी के समान  होते हैं। इस समय उन्हें जैसे साँचे में ढाला जाएगा ,वैसे ही वे बनेंगे। उनका व्यवहारिक शिक्षण, मानसिक पोषण जैसा होगा, वैसा ही उनका विकास होगा। वस्तुतः गुरुकुल भी एक परिवार संस्था ही है, गुरुजन अभिभावक है एवं अन्य साथी भाई- बहन के समान। जो मर्यादाएँ परिवार संस्था पर लागू  होती हैं, उन्हीं का परिपालन गुरुकुलों में भी होना चाहिए। पारिवारिक स्नेह  यथोचित सुधार हेतु अंकुश संरक्षण मार्गदर्शन पाकर व्यक्तित्व  समग्र रूप में निखर कर आता एवं श्रेष्ठ नागरिक को जन्म देता है। यदि गुरुकुल मात्र लौकिक जानकारी तक ही सीमित रहें, वातावरण निर्माण की ओर वहाँ ध्यान न दिया जा रहा हो तो बालकों में सरकार नहीं विकसित हो पाते।

संपन्न विद्यालयों की गुरुकुल से तुलना 

तीर्थाटन करते हुए चल रहे छात्रों से एक प्रियवत ने अपने गुरु मुनि मार्कण्डेय जी से पूछा- हे गुरुदेव ! जबकि बड़े नगरों में भव्य भवनों वाले विद्यालय मौजूद हैं और उनमें उच्च पदवीधारी अध्यापक भी अनेकानेक विषयों को पढ़ाते हैं, साथ ही छात्र भी सजधज  के साथ तुलना रहते और अतिरिक्त अनुशासन के प्रतिबंध सहन किए बिना स्वेच्छाचारी सुविधाओं के साथ अध्ययन करते हैं, तब उन सुविधाओं से बच्चों को वंचित करके विवेकशील लोग भी कष्टसाध्य जीवनचर्या वाले गुरुकुलों में भेजकर लंबे समय तक उन्हें आँखों से ओझल क्यों रखते हैं ?''

मार्कण्डेय जी ने उत्तर दिया- '' भद्र । विद्या अमृत भी है और विष  भी । चरित्रहीन, आदर्शहीन अध्यापकों द्वारा पढ़ाए जाने और अनुपयुक्त वातावरण में पढ़ने के कारण विद्यार्थी उच्छृंखल हो जाते हैं और जिस- तिस प्रकार अर्थोपार्जन के अतिरिक्त व्यक्तित्व की दृष्टि से  हीन स्तर के रह जाते है। कुसंग का पूरा अवसर रहने के कारण वे अशिक्षितों की तुलना में अधिक मायाचार अपनाते और ब्रह्मराक्षस स्तर के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं ।वातावरण और संगति के उापरिपक्व बालकों पर अधिक दुष्प्रभाव पड़ते हैं । जिस प्रकार कुटिल अभिभावकों के दुर्गुण संतान में आते हैं, उसी प्रकार आदर्शहीन अध्यापक छात्रों पर भी अवांछनीय  प्रभाव छोड़ते हैं और उन्हें हेय स्तर का बनाते है।विद्या वही सराहनीय है, जो छात्रों के गुण- कर्म - स्वभाव  को उत्कृष्ट बनाए, अन्यथा वह मनुष्य को अधिक कुटिल बनाती है ।इसी तुलना को दृष्टि में रखते हुए विचारशील लोग कडुई, किन्तु हितकारी औषधि की तरह गुरुकुलों को श्रेयस्कर मानते है । 

उभयपक्षीय प्रशिक्षण

वैशम्पायन ने अपने गुरुकुल को दो भागों में बाँटा था। एक में छोटे बालक थे, जिन्हें दुलार की अधिक  आवश्यकता थी। उन्हें उनकी धर्मपत्नी सुजाता खिलाती, हँसाती और व्यवहार शिक्षा पढ़ाती थी ।सामान्य ज्ञान और भाषा परिचय भी इसी विभाग' के अंतर्गत चलता था। बालक यह अनुभव करते थे कि उन्हें माता का दुलार मिल रहा है और मन पर कोई भार नहीं पड़ रहा है।बड़े छात्रों को वे प्राय:बाहर प्रवास में अपने साथ रखते थे, ताकि क्षेत्रीय भाषाओं और परंपराओं का स्वरूप समझ कर वे अपना कार्यक्षेत्र व्यापक बना सकें। अपरिचित स्थानों में संपर्क साधने और परायों को अपना बनाने की कला भी वे इसी प्रवास में सीखते थे। धर्मोपदेश सुनने के अतिरिक्त अनेक व्यक्ति अपनी निजी और सामुदायिक परिस्थितियों के समाधन भी पूछते थे। इस प्रश्नोत्तर में सहज ही वरिष्ठ छात्रों को अगणित समस्याओं के कारण और निवारण की जानकारी प्राप्त करने का अवसर मिलता था।

यह वरिष्ठ छात्र ही आगे चलकर अपने- अपने क्षेत्रों में नेतृत्व करने एवं वातावरण बनाने में समर्थ होते थे। सुजाता अपने ढंग से छोटे बालकों का प्रशिक्षण करती थीं और वैशम्पायन अपने ढंग से वरिष्ठ छात्रों की प्रतिभा उभारते थे। दोनों ही विभाग प्रशिक्षण की बहुमुखी आवश्यकताओं को पूर्ण करते थे ,

पाणिनि गुरुकुल की प्रतियोगिताएँ 

महर्षि पाणिनि का मुख्य विषय भाषाशास्त्र था। वे अपने गुरुकुल में साहित्य और व्याकरण पढ़ाकर छात्रों को कुशल वक्ता और साहित्य सृजेता बनाते थे। तो भी जीवन के प्रत्येक पक्ष में कुशलता प्राप्त करने का उन्होंने समुचित प्रबंध किया था, जिससे कि उनके छात्र मात्र उपदेशक ही बनकर न रह जाँय। उपदेशकों के लिए भी चरित्र, निष्ठा, व्यवहार कुशलता और परिस्थितियों का सामना करने की क्षमता का होना आवश्यक है। पाणिनि प्रतियागिताओं पर बहुत जोर देते थे । सुलेख, वार्तालाप में मधुरता और व्यवहार में सज्जनता का समावेश इन प्रतियोगिताओं का प्रधान विषय रहता था। 
शारीरिक बलिष्ठता और मानसिक साहसिकता के लिए भी वे कोई न कोई आधार ढूँढ़ रखते थे और उनमें किससे क्या भूल हुई, किसने किस विशिष्टता का परिचय दिया, इसकी व्याख्या किया करते थे। इन प्रतियोगिताओं ने छात्रों की महत्त्वाकांक्षा बढ़ायी और वे सभी अपने- अपने घर जाकर अधिक प्रतिवान् सिद्ध हुए।

सुदृढ़ बनाने के कष्टसाध्य जीवन 

कौशम्बी के राजा शूरसेन से उनके मंत्री भद्रक ने पूछा- '' राजन् ! आप श्रीमंत हैं। एक से एक बढ़कर विद्वानों को राजकुमारों की शिक्षा के लिए नियुक्त कर सकते हैं । फिर इन पुष्प से कोमल बालकों को वन्य प्रदेशों में बने गुरुकुलों में क्यों भेजते हैं ?।वहाँ तो सुविधाओं का सर्वथा अभाव है। ऐसी कष्टसाध्य जीवनचर्या में बालकों को धकेलना उचित नहीं ।'' शूरसेन बोले '' हे भद्रक, जिस प्रकार तपाने से हर वस्तु सुदृढ़ होती है, उसी प्रकार मनुष्य भी कष्टसाध्य जीवनचर्या से परिश्रमी, धैर्यवान, साहसी एवं अनुभवी बनता है। वातावरण का नई आयु में सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। ऋषि- संपर्क और कष्टसाध्य जीवन इन दोनों ही सुविधाओं को हम राजमहल में उत्पन्न नहीं कर सकते, यहाँ तो हम उन्हें विलासी ही बना सकते हैं , अस्तु मोह को प्रधानता न देकर राजकुमारों के उज्ज्वल भविष्य को देखते हुए इन्हें गुरु अनुशासन में रहने के लिए भेजना ही उचित है।'' 

तर्क- और कारणों को समझते हुए भद्रक ने तीनों राजकुमारों को कौशम्बी के ऋषि कुल तक पहुँचाने का प्रबंध कर दिया। 

व्यवसाय में भी विद्या अनिवार्य मृणालवती ने अपने पति विजयगुप्त से कहा- '' आर्य! अब बच्चे बड़े हो गए हैं। इन्हें कच्ची आयु से ही शिक्षा पाने के लिए गुरुकुल भेजना चाहिए। परिवार में रहकर वे यहाँ के कुसंस्कारी वातावरण में ही सांस लेते रहने और बड़े होने पर अन्य लोगों की तरह स्वार्थी, धूर्त और प्रमादी बनेंगे। आरंभिक जीवन ही संस्कारवान बनने का उपयुक्त समय है। उत्तम वातावरण में ही बालक मनस्वी और सच्चरित्र बनते हैं। '' विजयगुप्त को बालकों से बहुत मोह था। वे एक क्षण के लिए भी उन्हें आँखों से अलग न करना चाहते थ। साथ खिलाते और साथ सुलाते थे। इसलिए वे उन्हें आँखों से ओझल नहीं करना चाहते थे। उनका मन था बच्चे व्यवसाय सीखें उनका हाथ बटाएँ और आँखों के सामने ही रहें। सो पत्नी से असहमति प्रकट करने लगे। मृणालवती ने कहा- '' आर्य ! आपसे कम मुझे बच्चे प्यारे नहीं हैं । माता का हृदय पिता से अधिक कोमल होता है, सो मन तो मेरा भी आप जैसा ही सोचता है, पर हमें बालकों के भविष्य को देखना चाहिए ।घर के सब लोग जिन दुर्गुणों से भरे हैं, पड़ोस में जो अशिष्टता अपनाई जाती है, उसी को यह लोग सीखेंगे और व्यवसाय से धन कमाते रहने पर भी अपना स्वभाव बिगाड़ लेंगे और अपने तथा औरों के लिए कष्टप्रद होंग। '' 

पति को पत्नी की बात बुद्धिमानी पूर्ण लगी और उनने दूरदर्शिता अपनाकर उन्हें गुरुकुल के उत्तम वातावरण में शिक्षा के लिए भेजा। लौटने पर वे पैतृक व्यवसाय में कुछ ही दिनों में प्रवीण हो गए और ग्राहकों का मन जीतकर अधिक धन कमाया। 

विद्यार्थी की तोता रटंत  

गुरुकुल में कितने ही विद्यार्थी पढ़ते थे। सब शाम को निकटवर्ती वन से लकड़ी बीनने जाया करते थे। एक छात्र को सर्प दीख। एक मूर्ख छात्र ने पूछा- '' वह कैसा था ?'' उत्तर में उसने कह  दिया - '' हल की फाल के समान। '' उसने '' हल की फाल के समान वाले''शब्द रट लिए और वह किसी बात का विवरण बताता तो उसी शक्ल हल फाल जैसा कह देता। अगले दिनों गन्ना, चूहा, गिलहरी ,धान, गाय, हिरन आदि देखकर आया और उनका स्वरूप भी हल की फाल जैसा बताया। गुरु ने उसे समझाया- '' तुम विद्या पढ़ने आए हो, तो गिरह की अकल भी लगाओ, तोता रटंत से अपनी मूर्खता मत बढ़ाओ ।'' शिक्षा और विद्या में यही अंतर है । विद्या में ज्ञान को आत्मसात किया जाता है एवं शिक्षा मात्र बहिर्मुखी जानकारी देती है। आज के शिक्षालयों हमें विद्या कहीं दिखाई नहीं देती, ज्ञान के भंडागार ग्रंथ तो ढेरों की संख्या में अनेक विद्यार्थी लिए फिरते हैं, पर यह कहीं उनको स्पर्श भी कर पा रही है, ऐसा प्रतीत नहीं होता। ऐसी अव्यावहारिक शिक्षा नीति की परिणति ऐसी ही होती है, जैसी कि चार छात्रों की हुई। 
चार अव्यावहारिक 'विद्वान्' चार स्नातक अपने विषयों में निष्णात होकर साथ- साथ घर वापस लौट रहे थे। चारों को अपनी विद्या पर बहुत गर्व था। रास्ते में पड़ाव डाला और भोजन बनाने का प्रबंध किया, तर्क शास्त्री आटा लेने बाजार गया। लौटा तो सोचने लगा कि पात्र वरिष्ठ है या आटा। तथ्य जानने के लिए उसने बर्तन को उलटा तो आटा रेत में बिखर गया। 

कला शास्त्री लकड़ी काटने गया। सुंदर हरे- भरे वृक्ष पर मुग्ध होकर उसने गीली टहनी को काट लिया। गीली लकड़ी से जैसे- तैसे चूल्हा जला, थोड़ा चावल जो पास में था उसी को बटलोई में किसी प्रकार पकाया जाने लगा। भात पका तो उसमें से '' खुद- बुद '' की आवाज होने लगी। तीसरा पाक शास्त्री उसी का ताना- बाना चुन रहा था। चौथे ने उबलने पर उठने वाले '' खुद- बुद '' शब्दों को ध्यानपूर्वक सुना और व्याकरण के हिसाब से इस उच्चारण को गलत बताकर एक डंडा ही जड़ दिया। भात चूल्हे में फैल गया। 

चारों ' विद्वान् ' भूखे सोने लगे, तो पास में पड़े एक ग्रामीण ने अपनी पोटली में से नमक सत्तू निकालकर खिलाया और कहा- "पुस्तकीय सन की तुलना में व्यावहारिक अनुभव का मूल्य अधिक है ।"

कथा उल्टी पड़ी 

शिक्षा कैसे से जाय, क्या दी जाय- यह चलते- फिरते निर्णय लेने जैसा विषय नहीं है। इस पर गंभीर चिंतन अनिवार्य है। किसी एक अमीर के दो संतानें थीं, एक लड़का, एक लड़की । दोनों आराम तलबी और विलासिता के वातावरण में पले, तो वयस्क' होते ही उन्होंने व्यसन- व्यभिचार की राह पर सरपट दौड़ना आरंभ कर दिया। बच्चों को कैसे सुधारा जाय, यह प्रश्न अमीर को चिंतित किए हुए था। उपाय पूछने पर मित्रों ने अनेक सुझाव दिए। बहुत सोच विचार के बाद यह निश्वय हुआ कि उन्हें एक महीने तक महर्षि व्यास कृत महाभारत की कथा सुनाई जाय। उसमें धर्म, सदाचार के सभी तत्व मौजूद हैं। कथा का प्रबंध हो गया, दोनों बच्चों  ने उसे सुना भी। कुछ दिन बाद उसका परिणाम देखा- पूछा गया ,तो मालूम पडा़ कि लड़का अपने दोस्तों से कहता है कि श्रीकृष्ण भगवान् के जब १६ हजार रानियाँ थीं, तो १० -२० के साथ संबंध रखने में क्या हर्ज है । उसी प्रकार लड़की ने अपनी सहेलियों को बताया' कि कुंती कुमारी अवस्था में पुत्र जन्म दे सकती है और द्रौपदी पाँच पति रख सकती है तो हमीं कौन बड़ा अनर्थ कर रहे है। 

सुधार प्रयत्नों पर फिर विचार हुआ और यह निष्कर्ष निकाला गया कि कथा- श्रवण की धर्म- चर्चा अपर्याप्त है। दृष्टिकोण बदलने के लिए ऐसा प्रभावी वातावरण होना चाहिए जहाँ चर्चा और क्रिया में उत्कृष्टता का समुचित समन्वय हो। अगले कदम उसी आधार पर उठाए गए और वे सफल भी हुए। 

जीवक की परीक्षा आदर्श शिक्षक मात्र अध्ययन ही नहीं करते, छात्र को उस विद्या में ऐसा पारंगत कर देते हैं कि वह स्वर्ण बनकर निखर उठता है। तक्षशिला विश्वविद्यालय में सात वर्ष तक आयुर्वेद पढ़ने के उपरांत आचार्य बृहस्पति ने जीवक की परीक्षा लेकर विदा करने का मुहूर्त निकाला। उनने हाथ में खुरपी देकर कहा- '' एक योजन की परिधि में एक ऐसी वनस्पति खोजकर लाओ, जो औषधि के काम न आती हो । '' जीवक एक सप्ताह तक घूमे और लौटने पर बोले- '' गुरुदेव! एक भी ऐसी वनस्पति नहीं मिली, जो औषधि के काम न आती हो। '' बृहस्पति ने अपने शिष्य को गले लगा लिया व कहा-'' वत्स ।। तुम सफल रहे ! जाओ अब आयुर्वेद का प्रकाश दिग्- दिगंत में फैला दो। '' 

पिछला मिटाने पर नया

विलासिता के वातावरण में पले छात्र पर शिक्षक को दुहरी मेहनत करनी पड़ती है। एक बार भगवान् बुद्ध के पास श्रेष्ठि पुत्र सुमंत और श्रमिक पुत्र तरुण ने एक साथ प्रव्रज्या ली। दोनों ही भावनापूर्वक संघाराम के अनुशासनों का पालन करने लगे। कुछ माह बाद प्रगति सूचना देते हुए प्रधान भिक्षु ने बतलाया- '' सुमंत तरुण की अपेक्षा अधिक स्वस्थ तथा पढ़ा- लिखा योग्य है। भावना भी उसकी कम नहीं। किन्तु सौंपे गए कार्यों और साधना की उपलब्धियाँ तरुण की सुमंत से श्रेष्ठ हैं, यह कारण समझ में नहीं आता। '' 
तथागत बोले- '' सुमंत अभी जंग लगे लोहे के समान है। जंग छूटने में अभी समय लगेगा ।'' प्रधान भिक्षु प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते रह गए। भगवान् ने स्पष्ट किया- '' उसका लंबा जीवन आलस्य- प्रमाद में बीता है। इस कारण व्यक्तित्व जंग लगे औजार जैसा हो जाता है। तरुण ऐसा उपकरण हैं, जिसमें जंग नहीं लगी है, इसलिए तुरंत फल पा रहा है। सुमंत की पर्याप्त साधना उसकी जंग छुड़ाने में खर्च हो जाएगी, तब अभीष्ट परिणाम निकलने लगेंगे। '' 

सही प्रशिक्षण का सही शिक्षाशास्त्री कौशियस टार्च ने सरकारी शिक्षण क्रम से निराश होकर एक निजी विद्यालय खोला, जिसमें आधा समय जीवन को प्रगतिशील बनानें और व्यावहारिक शिक्षा के लिए और  आधा पुस्तकीय ज्ञान के लिए रखा। विद्यालय से निकले सभी छात्र अपने जीवन में असाधारण प्रगति कर सकें, अस्तु उनने अध्यापक भी ऐसे रखे, जो जीवन व्यवहार के स्वयं अभ्यस्त हों भले ही उनका पुस्तकीय ज्ञानं कम हो। 

बाल शिक्षा विशेषज्ञ कमीनियस

मोराविया के एक निकटवर्ती गाँव में जन्मे कमीनियस किसी प्रकार गाँव की पाठशाला में पड़े और ज्यों- त्यों करके कॉलेज की पढ़ाई भी पूरी की, पर इन विद्यालयों का वातावरण उन्हें तनिक भी पसन्द नहीं  आया। उनमें तोता रटंत तो बहुत थी, पर स्वच्छता स्वास्थ्य, शिष्टाचार, सहयोग, समाज, चरित्र जैसे विषयों पर न गंभीर शिक्षण दिया जाता था और, न उन मानवोचित विशिष्टताओं का अभ्यास कराया जाता था। यह अभाव उन्हें बुरी तरह खटका। उन्होंने वयस्क होते ही शिक्षा समस्या पर गंभीर विचार और परामर्श देने शुरू किए। शिक्षण संस्थाओं से संपर्क साधा और सरकार को भी इस हेतु किसी कदर सहमत करने में सफलता पायी ।वे पोलैंड, स्वीडन, इंग्लैंड, इटली, हंगरी आदि देशों में ठहर- ठहर कर समय बिताते रहे। 

स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप बालकों के लिए, अभिभावकों के लिए और शिक्षण संस्थाओं के लिए साहित्य- सृजन करते रहे। उनकी पुस्तकों से शिक्षा जगत को उपयुक्त मार्गदर्शन मिला। इस प्रकार एक महान् उद्देश्य के लिए प्रयास करने में जीवन खपाकर संतोषपूर्वक दिवंगत हो गए। 

स्वावलंबी शिक्षा के आंदोलनकर्ता-जान दैनरिक स्विट्जरलैंड के म्यूनिख नगर में '' जान दैनरिक '' जन्मे । अन्य विद्यार्थी संपन्न घरों के थे। इसलिए वे मनमाना खर्च भी करते थे और भावी जीवन के लिए अधिक धुन कमाने की योजनाएँ बनाते थे, पर दैनरिक पर एक ही धुन सवार थी कि उनके जैसे गरीब परिवार को गरीब, बेरोजगारी की मार से कैसे बचाया जा सकता है। इसके लिए उन्हें कुटीर उद्योगों की बात ही जँचती थी। इस संबंध में उस देश की तत्कालीन परिस्थितियों में क्या किया जा सकता है, इस पर वे बहुत सोचते, अध्यापकों तथा विशेषज्ञों से पूछते, पुस्तकें पढ़ते। उन्हें एक नई सनक में उलझा हुआ देखकर सहपाठी उन्हें सनकी कहकर व्यंग्य किया करते थे। थोड़ा वयस्क होते ही उनने कुटीर उद्योगों का एक छोटा स्कूल '' स्टेज '' गाँव में खोला। उसमें सफलता मिलने पर '' वर्ग ड्राफ्ट '' और '' यवर्डन '' में भी ऐसी ही संस्थाएँ खोलीं, जिसमें गरीब छात्र कुछ समय श्रम करके अपनी शिक्षा के लिए आवश्यक उपार्जन कर लेते थे। आगे चलकर उनकी योजना बहुत बड़ी और धनिकों तथा विशेषज्ञों की सहायता से वह शुभारंभ व्यापक हुआ। जान दैनरिक ने स्वावलंबी शिक्षा पर बहुत कुछ लिखा भी है। 

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