पूर्णतच्क्ष समानौ स्त: पुत्र: पुत्री च निक्ष्चितम् ।।
कर्त्तव्यान्यधिकाराच्श्र समत्वेन मता इह ।। ७९ ।।
श्राद्धतर्पणकर्तव्यविधौ तत्र द्वयोरपि ।
उत्साहेन समानेन भवितव्यं सदैव च ।। ८० ।।
पित्रो:: पितामहस्याथ तत्र मातामहस्य च ।
केवलानां न तच्छ्राद्धं भवत्यपि तु स्वर्गिणाम् ।। ८१ ।।
सर्वेषां स्वजनानां तद् भवितुं युज्यते ध्रुवम् ।
सम्बन्धे केऽपि ते वा स्युर्नहि कश्र्चिद् थ्यतिक्रम: ।। ८२ ।।
कनिष्ठाः कुर्वते तत्र ज्येष्ठानां च यथैव तु ।।
श्राद्धं तथा कनिष्ठानां कर्तुंज्येष्ठा अपि क्षमा: ।। ८३ ।।
क्षेत्रे त्वात्मन आहुर्न बुधास्त्वन्तर यत्र से ।।
तत्र ज्येष्ठकनिष्ठत्वे शरीरस्थमिदं यत: ।। ८४।।
ऋषीणां देवतानां च गुरूणामुपकारिणाम् ।।
महामानवनाम्नां च प्राप्तुमानृण्यमुत्तमम् ।। ८५।।
श्राद्धकर्मविधातव्यं कनिष्ठानामपि स्वयम् ।।
स्नेहसद्भाववात्सल्यं तत्र बोधयितुं महत् ।। ८६।।
यथा जन्मोत्सवस्तत्र विवाहोत्सव एव वा ।।
तथा वार्षिकश्राद्धं तत्कर्तुमत्रं च युज्यते ।। ८७।।
आत्मनोऽमरतायाश्च सिद्धान्तोऽनेन पुष्यते ।।
परलोकस्य लोकस्य मध्ये च सघनस्तु सः ।। ८८ ।।
सम्बन्ध: सततं तिष्ठन् परिवारविशालताम् ।।
कुरुतेऽक्षुण्णरूपां तां ब्रह्माण्डपरिशायिनीम् ।। ८१ ।।
भावार्थ- कन्या और पुत्र समान हैं । दोनों के ही समान कर्तव्य और समान अधिकार हैं । इसलिए श्राद्ध- तर्पण करने में दोनों का ही समान उत्साह होना चाहिए । श्राद्ध मात्र अपने माता- पिता,बाबा- नाना आदि का ही नहीं होता उन सभी स्वजनों का हो सकता है,जो दिवंगत हो गए । रिश्ते में वे कुछ भी क्यों न हो इससे कुछ अंतर नहीं आता । छोटे बड़ों का श्राद्ध जिस प्रकार करते है उसी प्रकार बड़े छोटो का भी कर सकते हैं आत्मा के क्षेत्र में छोटे- बड़े का अंतर नहीं रहता । वह तो शरीर के साथ जुड़ा हुआ है । गुरुजनों, महामानवों,ऋषि, देवताओं अथवा अन्य उपकारी जनों से ऋणमुक्त होने के लिए उनका श्राद्ध करना चाहिए । छोटों का उनके प्रति स्नेह सद्भाव वात्सलय प्रकट करने के लिए जन्मोत्सवो, विवाहोत्सवों की तरह वार्षिक श्राद्ध भी हो सकता है। इससे आत्मा की अमरता को बैल मिलता है और लोक- परलोक के बीच सघन संबंध बना रहने से परिवार की विशालता अक्षुण्ण बनी रहती है तथा समस्त ब्रह्मांड एक परिकर बन जाता है ।
व्याख्या- जहाँ तक पूर्वजों, पितरों, महामानवों के प्रति श्रद्धा श्राद्ध- तर्पण के रूपं में अभिव्यक्त करने का प्रश्न है, पुत्र- पुत्री, बर- नारी में किसी प्रकार का भेद नहीं है । आत्मसत्ता द्वारा परलोक में बैठी कम आत्माओं को दी जा रही श्रद्धांजलि लिंग से बाधित नहीं है । आत्मा न नर है, न नारी, यह चिरंतन सत्य है ।। इसलिए यह मानना कि पुत्र होगा वही पिंडदान करेगा, नितांत भ्रांतिपूर्ण मान्यता है । यही बात आयु की दृष्टि से छोटे- बड़े व्यक्तियों पर भी लागू होती है । छोटे बच्चो के असामयिक निधन पर भी उनकी आत्मा की शांति के लिए बड़ों द्वारा श्राद्ध किया जाना चाहिए ।।
श्राद्ध क्रिया मात्र पूर्वजों- आत्मीयजनों तक ही सीमित नही है । इस परिधि में सारा विश्व परिवार आ जाता है । जिन देवपुरुषों, महामानवों ने इस जगती के कल्याण हेतु विश्ववसुधा के निमित्त अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया, उन सभी के प्रति श्रद्धाञ्जलि व्यक्त करना मानव मात्र का धर्म है ।।
नर- नारी का भेदभाव- द्वापर युग मे मालप देश में शिखिध्वज नामका एक राजा था ।। उसकी पत्नी सौराष्ट्र की राजकन्या थी, नाम था उसका छाला ।। बहुत समय तक दोनों उपभोग में निरत रहे ।। पीछे उनके मन में आत्मज्ञान की आकांक्षा हुई । दोनों अपने अपने ढंग से इस प्रयास में अग्रसर रहने लगे । रानी ने संक्षेप में समझ लिया था कि दृष्टिकोण को बदल लेना और अंत करण को साथ लेना ही ब्रह्मज्ञान है । सो उस उपलब्धि पर वह बहुत प्रसन्न रहने लगी । राजा को भी सिखाती, तो वे स्त्री के प्रति हीनभावना रखने के कारण उसकी बात पर ध्यान नहीं देते थे ।
राजा को कर्मकांडपरक तप- साधना में विश्वास था, सो वे एक दिन चुपचाप रात्रि में उठकर वन चले गए । रानी ने योगबल से जान लिया, सो राजकाज स्वयं चलाने लगी। राजा के कुछ काल के लिए प्रवास जाने की बात कह दी।
एक दिन उनने राजा से मिलने की इच्छा की, तो सूक्ष्म शरीर से वहीं जा पहुँची, जहाँ राजा था । वेष ऋषि कुमार का बनाया । परिचय पूछने पर अपने को नारद पुत्र कहा । राजा के साथ उनकी ज्ञानचर्चा चल पड़ी । पर संध्या होते ही वे दुःखी होने लगे । बोले- '' मुझे दुर्वासा का शाप लगा है । दिन में पुरुष और रात्रि में नारी हो जाता हूँ ।। आपके पास कैसे टिक सकूँगा ।। ''
राजा ने कहा- ' '' आत्मा न सी है, न पुरुष ।। न इनमें कोई छोटा है, न बड़ा ।। डरने जैसी कोई बात नहीं है ।। आप हमारे मित्र हो गए हैं ।। प्रसन्नतापूर्वक साथ में रहे ।। '' कई दिन बीत गए ।। मित्रता प्रगाढ़ हुई, तो 'सी :बने ऋषि कुमार ने कहा- ' '' मेरी कामना- वासना प्रबल हो रही है ।। रुका नहीं जाता ।। '' मजा ने कहा-'' आत्मा पर कुसंस्कार न पड़े, तो शरीर क्रियाओं में कोई दोष नहीं है ।। '' उनका काम- क्रीड़ा प्रकरण चल पड़ा ।। राजा को न खेद था, न '' पश्चात्ताप । अब वे स्त्री- पुरुष को समान मानने लगे थे ।।
चूडाला ने अपना असली रूप प्रकट किया और राजा को महल में घसीट लाई । स्त्री को हेय मानने और उसके परामर्श की उपेक्षा करने का हेय भाव उनके मन से विदा हो गया । राजा ने चूडाला को अपना गुरु माना और प्रसन्नतापूर्वक राजकाज चलाते हुए आत्मज्ञान में लीन रहे ।
वशिष्ठ ने कहा- ''हे राम । आत्मा एक है । स्त्री-पुरुष होने से कोई अंतर नहीं आता । दृष्टिकोण बदल जाने पर ही मनुष्य ब्रह्मज्ञानी हो जाता है ।''
सबके प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति क्यों ? - मरे हुए व्यक्तियों का श्राद्ध कर्म से कुछ लाभ है कि नहीं? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि होता है, अवश्य होता है । संसार एक समुद्र के समान है, जिसमें जलकणों की भांति हर एक जीव है । विश्व एक शिला है, तो व्यक्ति एक परमाणु । जीवित या मृत आत्मा इस विश्व में मौजूद है और अन्य समस्त आत्माओं से संबद्ध है । संसार में कहीं भी अनीति, युद्ध, कष्ट, अनाचार, अत्याचार हो रहे हों, तो सुदूर देशों के निवासियों के मन में भी उद्वेग उत्पन्न होता है ।। जाड़े और गर्मी के मौसम में हर एक वस्तु ठंडी और गर्म हो जाती है । छोटा सा यज्ञ करने पर भी उसकी दिव्य गंध व भावना समस्त संसार के प्राणियों को लाभ पहुँचाती है । इसी प्रकार कृतज्ञता की भावना प्रकट करने के लिए किया हुआ श्राद्ध समस्त प्राणियों में शांतिमयी सद्भावना की लहरें पहुँचाता है । यह सूक्ष्म भाव तरंगें तृप्तिकारक और आनंददायक होती है । सद्भावना की तरंगें जीवित, सभी को तृप्त करती हैं, परंतु अधिकांश भाग उन्हीं को पहुँचता है, जिनके लिए वह श्राद्ध विशेष प्रकार से किया गया ।
शास्त्रों की सार्वभौम तर्पण व्यवस्था - श्राद्ध प्रक्रिया में देव तर्पण, ऋषि तर्पण, दिव्य मानव तर्पण, दिव्य पितृ तर्पण, यम तर्पण, मनुष्य पितृ तर्पण नाम से ६ तर्पण कृत्य किए जाते हैं । इन सबके पीछे भिन्न भिन्न दार्शनिक पृष्ठभूमि है ।
देव तर्पण, अर्थात् ईश्वर की उन सभी महान विभूतियों के प्रति श्रद्धाभिव्यक्ति, जो मानव कल्याण हेतु निःस्वार्थ भाव से प्रयत्नरत है । जल, वायु, सूर्य, अग्नि, चंद्र, विद्युत एवं अवतारी ईश्वर अंशों की मुक्त आत्माएँ इसके अंतर्गत आती हैं ।
ऋषि तर्पण व्यास, वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, जमदग्नि, अत्रि, गौतम, विश्वामित्र, नारद, चरक, सुश्रुत, पाणिनि, दधीचि आदि ऋषियों के प्रति श्रद्धाभिव्यक्ति के निमित्त किया जाता है ।
दिव्य मानव तर्पण, अर्थात् उनके प्रति अपनी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति, जो लोकमंगल के प्रति समर्पित हो त्यागी जीवन जिए एवं विश्वमानव के लिए प्राणोत्सर्ग कर गए । दिव्य पितृ वे जो कोई बड़ी लोकसेवा तो न कर सके, पर व्यक्तिगत रूप से आदर्शवादी जीवन जीकर अनुकरणीय पवित्र संपत्ति अपने पीछे छोड़ गए ।
यम, अर्थात् जन्म- मरण का नियंत्रण करने वाली शक्ति । कुमार्ग पर चलने से रोक लगाने वाली विवेक शक्ति भी यम है । इसकी निरंतर पुष्टि होती रहे, मृत्यु का भाव बना रहे, इसलिए यम तर्पण किया जाता है ।
अंत में मनुष्य पितृ तर्पण की व्यवस्था है । इसमें परिवार से संबंधित दिवंगत नर-नारी, पिता-बाबा-परबाबा, माता-दादी-परदादी, पत्नी, पुत्र, पुत्री, चाचा, नाना, परनाना, भाई, बुआ, मौसी, सास- ससुर एवं अंत में गुरुपत्नी, शिष्य एवं मित्रगण आते है ।
इस प्रकार श्राद्ध- तर्पण की सार्वभौम व्यवस्था में सारे समुदाय के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति समाहित है। यह मात्र कर्मकांड तक ही सीमित न रहकर व्यवहार में उतरे, वसुधा एक विराट् परिवार है, इस भावना के रूप में साकार हो, उदार दानशीलता के रूप में लोकमंगल के कार्य बन पड़े, तो ही इनकी सार्थकता है।
कर्म के पीछे प्रयोजन-यह स्मरण रखा जाय कि जो भी कार्य अपने से बन पड़े, वे किसी कमाना की पूर्ति के लिए न हों । ईश्वरीय व्यवस्था में कहीं किसी हेर- फेर की गुंजायश नहीं ।
मृतात्माएँ धर्मराज के द्वार पर खड़ी थीं । देवदूत उनके कर्मों का लेखा- जोखा लेकर स्वर्ग- नरक भेजते थे ।।
एक विद्वान् ने कहा- ''मैंने सभी शास्त्रो का पारायण किया है ।'' देवदूत ने कहा- '' यह लोगों पर अपनी विद्वता की छाप छोड़ने के लिए था न ?'' दूसरा दानी आया, उसने मंदिर- धर्मशालाओं को बहुत दान दिया था । पर सभी पर अपनी नाम पट्टी लगवाई थी । देवदूत ने कहा- ''यह विज्ञापनबाजी का ढिंढोरा था,न ?' तीसरे ने कहा- ''मैंने पूजा- पाठ बहुत किया । '' देवदूत बोले- '' यह मनोकामना सिद्ध के लिए था न ? ''चौथे ने कहा- ''मैंने सब तीर्थ घूम डाले । मंदिरों के दर्शन किए और नदी- सरोवर नहाए । ''देवदूत ने कहा- ''यह, अपने अहंकार की तृप्ति के लिए था न ?'' चारों को परलोक के दरवाजे पर झाडू लगाने का काम सौंपा गया । ताकि मन की झाडू लगाने का भी अभ्यास हो ।। स्वर्ग द्वार में प्रवेश उस किसान को मिला, जो अपनी कमाई और मेहनत में सत्कर्मों की हिस्सेदारी रखा करता था ।।
श्राद्ध कर्म करते समय भी भाव कृतज्ञता की अभिव्यक्ति का रखा जाय, न कि अपनी अहंता, यश- लिप्सा की पूर्ति का ।
आत्मनोऽमरतां तत्र मरणोत्तरजीवने ।
विद्यमान विधि चाऽपि स्वजनोत्तरदायिताम् ।। १0 ।।
विस्तृत तत् समाकर्ण्य समे संस्कृतिवाहिनि ।।
संगता मुदिता: सर्वे भृशं जिज्ञासवस्ततः ।। ९१ ।।
प्रतिपादनमेतच्च श्रोतृभिः संगतैः समैः ।।
तत्र चाद्यतनं दिव्यं महत्वान्वितमामतम् ।। २२ ।।
उपलब्धौ च सन्तोष षं हर्षमुत्तममेव ते ।।
उद्गिरन्तोऽगमन् सर्वे श्रुत्वा घोषं समाप्तिकम् ।। ९३ ।।
भावार्थ - आत्मा की अमरता और मरणोत्तर जीवन की विधि- व्यवस्था तथा स्वजन- संबंधियो की जिम्मेदारी के संबंध में सुविस्तृत विवेचन सुनकर संस्कृति सत्र में सम्मिलित हुए सभी जिज्ञासुजन बहुत प्रसन्न हुए ।
आज के प्रतिपादन को भी श्रवणकर्त्ताओं ने गत दिवसों जैसा ही महत्वपूर्ण माना और इस उपलब्धि पर हर्ष संतोष प्रकट करते हुए समापन घोष होने पर शांतिपूर्वक विदा हो गए ।। १०- १३ ।।
इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे देवसंस्कृतिखण्डे ब्रह्मविद्याऽऽत्मविद्ययोः,युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयो:,
श्रीकात्यायन ऋषि प्रतिपादिते ''मरणोत्तरजीवनमि,'' इति प्रकरणो नाम पञ्चमोऽध्यायः ।। ५ ।।