प्रज्ञा पुराण भाग-4

॥अथ पञ्चमोऽध्यायः:॥ मरणोत्तर जीवन प्रकरणम्-1

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पञ्चमस्यदिनस्यस्मिञ्ज्ञानसत्रे स्थितेष्वलम्।
औस्तुक्यं द्रष्टमायातं विधाया: साधकेष्वथ॥१॥
उत्सुकास्तेऽधिकं ज्ञातुं कथं सा देवसंस्कृति:।
अवतारयितुंशक्ता जाता स्वर्गं क्षिताविह॥२॥
देवोपमान् मनुष्यांश्च कृतवत्यपि कानि तु।
अभूवन् कारणान्येवमाधारा: के च ते मता:॥३॥
यानाश्रित्य मनुष्याश्च तत्रासंख्या: स्वगौरवम्।
अवधार्य कृता पारं मनोरथतरिर्नृणाम् ॥४॥
जिज्ञासूनां परं श्रेष्ठं भृगुं मुनिवरं तथा ।
कात्यायनो जगादैवं सर्वान् सञ्ज्ञानसाधकान्॥।५॥

भावार्थ-पांचवें दिन के ज्ञान सत्र में उपस्थित विद्या साधकों में और भी उत्सुकता पाई गई। वे अधिक जानने के उत्सुक थे । देव संस्कृति ने किस आधार पर धरती पर स्वर्ग उतारा और मनुष्यों को देवोपम बनाया। उसके वे कारण और आधार क्या थे? जिन्हें अपनाकर असंख्यों ने अपनी गरिमा बढ़ाई और असंख्यों की नाव पाई लगाई । कात्यायन ने जिज्ञासुओं में श्रेष्ठ मुनिवर भृगु सहित सभी सद्ज्ञान साधकों को संबोधित करते हुए कहा ॥१-५॥

कात्यायन उवाच-
पाययन्त्यमरत्वं वै भृशं तद्देवसंस्कृतौ ।
आस्थावत: समस्तांश्च बोधयन्त्यषिते समे ॥६॥
अमरत्वसुविश्वासा स्यु: सज्जा जीवितुं तथा ।
अनन्तं ते विजानीयुर्मृत्युं नान्तस्तु विश्रमम्॥७॥
जीवितानां मृतानां च मन्यन्ते जन्मवासरा: ।
परम्परेयं मृत्योश्च दिनस्यावसरेऽपि तु॥८॥
अस्तित्वं पूर्वजानां तद् विचायैंव विधीयते ।
श्रद्धाञ्जलिस्तत: श्राद्धकर्म चाऽपि समैरिहि॥९॥
कस्यचिन्मृतकस्याऽपि नान्तमत्र तु मन्यते ।
श्रद्धीयतेऽशरीरास्ते सशरीरा इव स्वकाम्॥१०॥
सत्तां विधाय विद्यन्तेऽसंख्यास्ते जीवनस्य च ।
उपक्रमं प्रंकारेषु विशेषस्तरमाश्रिता:॥११॥
जीवनस्य स्तरस्त्वेको  मन्यतेऽत्नाऽशरीरिणाम्।
शरीरिणां च वस्त्रस्याऽपरिधानस्य तस्य च॥१२॥
परिधानस्य मध्यस्थास्थितिरेषा तु विद्यते।
अमरत्वस्य चाऽभासो विश्वासश्चाप्यतोऽत्र तु॥१३॥
बोध्यते मृत्युमेवान्तं मते या समुदेति सा।
निराशाऽथापि नास्तिक्यं वृणयातां न कञ्चन॥१४॥

भावार्थ-कात्यायन बोले-देव संकृति में अमरत्व का पान कराया जाता है । हर आस्थावान को समझाया जाता है कि वह अमरत्व पर विश्वास करे । अनंत जीवन जीने की तैयारी करे। मृत्यु को विराम विश्राम समझे, अंत नहीं । जीवित या मृतकों के जन्मदिन मनाए जाते हैं यही परंपरा है । मृत्यु दिन के अवसर पर भी पूर्वजों का अस्तित्व बने रहने की बात सोचकर उन्हें श्रद्धांजलि चढ़ाई जाती है । श्राद्ध-तर्पणं सभी के द्वारा किया जाता है । अंत किसी मृत्यु का भी नहीं माना जाता । समझा जाता है कि वे अशरीरी होते हुए भी शरीरधारियों की तरह सत्ता बनाए हुए हैं और जीवन के असंख्य प्रकारों में से एक विशेष स्तर का उपक्रम बनाए हुए हैं । शरीरधारी और अशरीरी जीवन का स्तर एक सा ही माना गया है, जैसा वस्त्र पहनने और न पहनने के बीच होता है । अमरता का आभास-विश्वास इसलिए कराया जाता है कि वृहं के साथ अंत मानने पर पनपने वाली निराशा और नास्तिकता किसी के सिर न चढ़े ॥६-१४॥

व्याख्या-देव संस्कृति की ही यह एक अद्भुत विशेषता है कि यहाँ व्यक्ति को सतत आत्मा के अविनाशी होने, जीवन के गतिशील रहने एवं मरणोत्तर जीवन के अस्तित्व का बोध कराया जाता है । यह आस्तिकतावादी दर्शन का केन्द्रबिंदु है। यदि वर्तमान जीवन व काया रूपी चोले को ही सब कुछ मान लिया गया, तो जीवन के प्रति दृष्टि भोग प्रधान होगी । व्यक्ति दूसरों को कष्ट देकर भी स्वयं सब कुछ पाने व जितना संभव हो, सुखोपभोग हेतु बटोरने का प्रयास करेगा। इसीलिए व्यक्ति को 'हर दिन नया जीवन, हर रात नई मौत' के रुप में नित्य अपने जीवनोद्देश्य के प्रति सोचने को बाध्य किया जाता है । मृत्यु से जीवन का अंत नहीं होता, यह विश्वास व्यक्ति को इसलिए दिलाना जरूरी है कि आशावादी दृष्टिकोण बना रहे व व्यक्ति स्वयं को वर्तमान स्थिति से भी श्रेष्ठ स्थिति में पहुँचा सके और आत्मिक प्रगति के पुरुषार्थ हेतु सक्रिय रहे ।

शास्त्रोक्त गीताकार ने कहा है-

वासांसि जीर्णानि यथा विहायनवानि गृह्लाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहायजीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
-गीता २/२२

"जैसे मनुष्य पुराने चल को त्याग करके नया वस्त्र धारण करता हैं, इसी प्रकार देहधारी आत्मा पुराने शरीर
को छोड़कर दूसरा नया शरीर धारण करता है ।"

इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते हैं-"आत्मा अच्छेद्य है, अदाह्य है, अक्लेद्य और आशीष्य है तथा
यह आत्मा निस्संदेह नित्य, सर्वव्यापक, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है ।"

गर्भोपनिषद् में बताया गया है कि गर्भावस्था में जीवन के अंत:करण में पूर्वजन्मों की स्मृतियाँ जागृत होती है
और वह कहता है-

"हजारों बार मेरा जन्म हो चुका है, विविध प्रकार के आहार मैं खा चुका हूँ? हजारों माताओं का दूध पी चुका
हूँ बार-बार पैदा हुआ हूँ और बार-बार मरा हूँ । आत्मीयों के लिए शुभ और अशुभ कर्म किए है, पर वे तो आज साथ है नहीं । साथ है मेरे कर्म ही, उनका ही फल मुझे मिल रहा है ।"

मृत्यु का जलपाल-जीवन

जीवन है क्या? इस रहस्य का उद्घाटन करने के लिए मर्मज्ञों की परिषद बुलाई गई और पूछा गया कि जिसने जीवन को जैसा पाया, वह अपनी मान्यता व्यक्त करे।

बादल बोला-"जीवन एक घुटन भर है।" चंद्रमा ने कहा-"आँखमिचौनी ।" पवन ने बताया-"दिशाहीन निरुद्देश्य भटकन ।" समुद्र ने बताया-" विशालता ।" बूँद बोली-"जीवन पतन के अतिरिक्त और कुछ नहीं ।"अंकुर बोला-"अभिनव अवतरण ।" सरोवर ने कहा-"मर्यादा का बंधन ।" नदी ने बताया-"सतत् प्रवाह ।"

बात बढ़ती गई । भाष्यकार बहुत थे । विवाद का अंत न् दीख पड़ा, तो मृत्यु ने कहा-"तुम सब मिलकर जितना जानते हो, मैं जीवन के बारे में उससे असंख्य गुना जानती हूँ मैं अपने उस जलपान के संबंध में ।"

यह भी एक वरदान

हर किसी को मरना ही पड़े, यह आवश्यक नहीं। कहा जाता हैं परशुराम, अश्वत्थामा, हनुमान आदि कितने ही महाभाग इस धरती पर ही अजर-अमर हैं । यह कहाँ तक सत्य है, कुछ कहा न्नहीं जा सकता, पर अमीवा, पैरामीसियम, यूग्लीना आदि कितने ही एक कोशीय जीव अमर हैं ।

इनमें नर-मादा का अंतर नहीं होता । न इनके बच्चे होते हैं । अपने विकास क्रम में आगे बढ़ते हुए, वे टूटकर एक से दो बन जाते हैं और यदि मानना हो, तो यही इनका जन्म-मरण माना जा सकता है ।

आत्मा की अमरता असंदिग्ध है, पर यंदि प्रयत्न किया जाय, तो पूर्ण अमरता न सही वर्तमान जीवन को कई
गुना बढ़ाया जा सकता है ।

मृत्यु-परिवर्तन का प्रतीक

पादरी आस्तीन ने एक नया गिरिजा बनवाया । एक चित्रकार को बुलाकर प्रवेश द्वार पर मृत्यु का बड़ा चित्र बनाने का आदेश दिया । पादरी का कथन था-"जो मृत्यु का स्मरण न करेगा, वह ईश्वर के दरबार में प्रवेश न कर सकेगा ।"

चित्र बनकर तैयार हो गया । मौत के हाथ में तेज धार वाला कुल्हाड़ा था । पादरी ने पूछा-"यह क्यों?"
चित्रकार ने कहा-"मौत सबको काट-पीटकर जो रख देती है ।"

पादरी ने सुधार का निर्देश दिया और कहा-"कुल्हाड़ी हटाकर उसके स्थान पर चाबी भर मौत के हाथ में थमा दो।"  परिवर्तन करते समय चित्रकार ने कारण पूछा, तो आस्तीन ने यही कहा-"मृत्यु किसी को नष्ट नहीं करती, परिवर्तन का एक उपयोगी द्वार भर खोलती है ।"

एक किसान का इकलौता बेटा मर गया । पत्नी समेत घर के सब लोग रोए, पर किसान गुमसुम बैठा रहा ।
उसे पत्थर जैसा निपुर कहा गया ।

यह भी स्वप्न ही तो है

तब फिसान ने रात का सपना सुनाया। नींद की गोद में जाते ही वह राजा बन गया । धूमधाम से विवाह हुआ । रानी के साथ सुखपूर्वक समय बीता और सात राजकुमार उत्पन्न हुए । इतना दृश्य देखते-देखते नींद खुल गई । किसान राजपाट, रनिवास और राजकुमारों के हाथ से चले जाने के कारण दुखित हो रहा था । इस एक बेटे के चले जाने की बात तो तुच्छ थी।

लोगों ने समझाया कि वह तो सपना मात्र था । किसान ने कहा कि मैं कैसे मानूँ? क्या यह वर्तमान घटना भी
स्वप्र नहीं है?

मौत को भी दिखाऊँगी

मौत तो आनी ही है । पहले कितनी ही शेखी क्यों न मार ली जाय, मृत्यु सामने आ खड़ी होती है, तब हालत देखते बनती है । एक  बुढ़िया घर में अकेली थी । जो मिलता, उसी से शिकायत करती-भगवान लेने की की चिट्ठी ही नहीं भेजता । लोग हँस देते ।

एक दिन घर में काला सांप निकला । बुढ़िया चिल्लाती हुई दौडी और उसे मारने-पकड़ने के लिए सबसे
कहने लगी । लोगों ने कहा-" माताजी! इतना परेशान क्यों होती हैं । आप तो भगवान की चिट्ठी सर्प को ही मान लें ।" बुढ़िया बोली-"पकड़वाए और पिटवाए बिना तो मैं मौत के साथ भी नहीं जाने वाली हूँ ।" लोग कथनी और यथार्थता में अंतर की विवेचना करते हुए सांप को भगाकर चले गए।

विश्वासोऽयं स्थिरस्तिष्ठेज्जीविष्यामो वयं ध्रुवम्।
अनन्तं संगताः कर्मफलशृंख्लया वयम्॥१५॥
पुनर्मनः पुनरायुर्म आगन्पुनः प्राण पुनरात्मा म आगन् पुनश्चक्षुः पुनः श्रोतं म आगन्।
वैश्वानरोऽदब्धस्तनूपा अग्निर्नः पातुः दुरितादयधात्।।

अर्थात- शरीर में जो प्राण-शक्ति (आग्नेय-परमाणुओं के रूप में ) काम कर रही थी, मैंने जाना नहीं कि मेरे संस्कार उसमें किस प्रकार अंकित होते रहे । मृत्यु के समय मेरी पूर्व जन्म की इंच्छाएँ सोने के समय मन आदि सब इंद्रियों के विलीन हो जाने की तरह मेरे प्राण में विलीन हो गई थीं, वह मेरे प्राणों का (इस दूसरे शरीर में) पुनर्जागरण होने पर ऐसे जागृत हो गए हैं, जैसे सोने के बाद जागने पर । मनुष्य सोने के पहले के संकल्प-विकल्प के आधार पर काम प्रारंभ कर देता है । अब मैं पुन: आँख, कान आदि इंद्रियों को प्राप्त कर जागृत ना हूँ और अपने पूर्वकृत कर्मो का फल भुगतने को बाध्य हुआ हूँ ।"

विचार और कर्म के संयोग से जो स्वभाव-अभ्यास बनता है, वस्तुत: उसी को संस्कार कहते हैं । यह संस्कार देर से जगते हैं और देर से कटते हैं । मरने के उपरांत इंद्रिय समुश्चय और मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, अंतःकरण तो स्थूल शरीर के साथ छूट जाते हैं, किंतु सूक्ष्म शरीर संस्कारों से जकडा़ रहता है । वे ही स्वर्ग-नरक की अनुभूति करते हैं और नए जन्म का आधार बनते हैं । कुकर्मी चौरासी लाख हेय योनियों में भ्रमण करते हैं । चेतना को नए सिरे से विकसित करने के लिए उन्हें वृक्ष जैसी जड़ समझी जाने वाली योनियों में जाना पड़ता है । नए सिरे से प्रगति क्रम आरंभ करने और उपहार-अनुदानों से वंचित करने वाली यह दंड व्यवस्था स्रष्टा वे कर्मफल की सुनिश्चितता को ध्यान में रखकर ही बनाई है । हर जन्म में कर्मो का तुरंत फल नहीं मिल पाता, वे अवसर की प्रतीक्षा में पड़े रहते हैं । परलोक में स्वर्ग-नरक तथा पुनर्जन्म की परिरिथतियों में इन कृत्यों की भरपाई होती रहती है । जिसके कुसंस्कार अधिक भारी और भयानक नहीं हैं, वे प्राय: फिर मनुष्य जन्म प्राप्त कर लेते हैं । उसमें भी कर्मफल भोगने का पर्याप्त अवसर रहता है । कितने ही मुनुष्य जन्मजात भली-बुरी उपलब्धियाँ साथ लाते हैं । इसे संचित कृत्यों का प्रतिफल ही कहा जा सकता है ।

मनुष्य के, उपरांत देव योनियाँ हैं । उनमें न अभाव है, न असंतोष । कामना, वासना में ग्रसित व्यक्ति जिस प्रकार जलते-जलाते रहते हैं, वे उद्विग्नताएँ भी उन योनियों में नहीं हैं । आत्म गौरव को समझने और उपलब्ध संपदाओं का सदुपयोग करने की ऋतंभरा प्रज्ञा इन्हीं दिव्य योनियों में पहुँचने वालों को मिलती है । आदर्शवादी, महामानव, आत्म संयमी ब्राह्मण, परोपकारी, संत-मनस्वी, सुधारक, समर्पित, शहीद अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करने वाले अग्रदूत अवांछनीयता के प्रवाह को उलट देने में समर्थ अवतार अपने अपने स्तर के देवात्मा माने गए हैं । वे काया से तो ममुष्य जैसे ही होते हैं, खाते-सोते भी उसी तरह हैं, किंतु उनकी दूरदर्शिता, उदारता एवं साहसिकता सामान्य मनुष्यों की तुलना में उतनी ही ऊँची होती है, जितनी कि धरातल और स्वर्ग लोक की ।

देवता स्वावलंबी होते हैं । वे सामान्य लोगों से प्रभावित नहीं होते, वरन् उनका मार्गदर्शन करते हैं । एकाकी चलते हैं, उन्हें उत्कृष्टता, आत्मप्रेरणा और ईश्वर की अनुकंपा के अतिरिक्त और किसी का सहयोग पाने की न तो इच्छा होती है, न आवश्यकता प्रतीत होती है, वे अंतरात्मा का अनुकरण करते हुए प्रचंड साहस के बल पर एकाकी चलते और पूर्ण चंद्र का उदाहरण बनते हैं । ऐसे लोगों का उदार दृष्टिकोण उन्हें हर घड़ी स्वर्गलोक की अनुभूतियाँ कराता है । उनके आदर्श चरित्र का चुंबकत्व चारों ओर एक देव मंडली समेटे रहता है और शालीनता का वातावरण उनके साथ साथ चलता है । संकीर्ण स्वार्थपरता के दलदल से निकल कर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की महानता अपनाने वाले अब बंधनों से स्वयमेव विमुक्त हो जाते हैं ।

स्वर्ग नरक की संवेदनाएँ- योग वशिष्ठ शिक्षण की अवधि में श्रीराम ने गुरुदेव वशिष्ठ से पूछा-"मरणोपरांत सूक्ष्म शरीर को नरक की वेदना और स्वर्ग की प्रसन्नता किस प्रकार उपलब्ध होती है ।"

वशिष्ठ ने कहा- "अंतराल हुए कुसंस्कार उस काल एवं नरक जैसी संवेदनाएँ फलित करते हैं । उस अवधि में चित्त ही प्रधान होता है । जिस प्रकार स्वप्न में अपने ही अनुभव दृश्यमान होते हैं, उसी प्रकार जीवन में जिन कुसंस्कारों, सुसंस्कारों को एकत्रित किया है, वे ही दु:खद और सुखद अनुभूतियों का स्वयमेव सृजन करते रहते हैं, वे ही देवदूत, यमदूत बन जाते हैं । ''

मुक्ति का स्वरूप- मुक्ति किसे कहते हैं ? उसमें प्राणी क्या करते हैं ?'' इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए एक संत ने उपस्थित समुदाय को संबोधित कर कहा- "कषाय-कल्मषों, दोष-दुर्गणों से छुटकारा पाना ही मुक्ति है । ऐसे प्राणी ईश्वरीय चेतना से ओतप्रोत रहते हैं और बिगड़ी परिस्थितियों को सुधारने के लिए ऋषियों, महापुरुषों, संत, सुधारक, शहीदों के रूप में जीवन बिताते और अनेको को अपने महान व्यक्तित्व के कारण ऊँचा उठाते, आगे बढाते रहते हैं । इसी स्थिति का शास्त्रकारों ने ईश्वर की निकटता सालोक्य, सायुज्य इत्यादि नामों में वर्णन किया है ।"

कोई चाहे तब न- एक जिज्ञासु ने भगवान् बुद्ध से कहा-"आप कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त कर सकता है, परंतु प्रत्यक्ष रूप से ऐसा होता दिखता नहीं ।'' तथागत बोले-"मोक्ष क्यों नहीं मिलता, इस पर कल के सत्संग में विचार करेंगे, अभी जाकर यह सूची बना लाओ कि किसकी क्या मनोकामना है ? स्थान छोड़ने के पहले ग्रामवासियों की कामना पूर्ति के लिए कुछ किया जा सके, तो अच्छा है ।"

वह व्यक्ति गाँव में गया । सबसे पूछ-पूछ कर मनाकामनाओं की सूची रात्रि तक बना ली । सबेरे सूची भगवान् बुद्ध के सामने रख दी उन्होंने पूछा-" जरा देखना मोक्ष चाहने वाले कितने हैं ? और कामनाएँ पूरी न भी कर सका, तो मोक्ष चाहने वालों की कामना तो पूरी कर ही दूँगा ।"

उस व्यक्ति ने देखा, सूची में एक व्यक्ति ने भी आकांक्षा पूर्ति के खंड में मोक्ष नहीं लिखवाया था । बुद्ध बोले- "मोक्ष कोई भी पा सकता हैं, पर जब कोई चाहे तभी तो मिले ।"

मुक्ति के दो आधार- एक बार अयोध्या प्रवास में भगवान् ऋषभ चक्रवर्ती भरत की बड़ी प्रशंसा करते हुए बता रहे थे कि वह इसी जन्म में मोक्ष पाएगा । 

श्रोताओं ने जिज्ञासापूर्वक पूछा- "भगवन्! यह कैसे होगा ? वह तो राज-काज में व्यस्त हैं । कई लड़ाई लड़ीं और कई राज्य अपने राज्य में मिलाए हैं । कार्यों में व्यस्त रहते है और कर लगाकर राज्य कोष में जमा करते हैं, मोक्ष के अधिकारी तो संत जन होते हैं ।''

प्रश्न कर्त्ताओं का समाधान करते हुए भगवान् ने कहा-"भरत ने एक बार कांच का महल बनाया । उसमें प्रवेश करके वह शरीर के भीतर रहने वाली आत्मा को खोजता था, सो उसने पा लिया ।"

"एक दिन भरत ने सोचा-इस वैभव विस्तार के बीच कहीं मैं अपने आत्म रूप में भूल न जाऊँ । सो उसने आशीर्वचन देते हुए प्रातःकाल जगाने वाले पुरोहितों को बुलाया और कहा-आप मंगल वचन बोलने के स्थान पर यह कहा कीजिए-'वर्धते भयं, वर्धते भयं' अर्थात् भय बढ़ रहा है । भय बढ़ रहा है । अर्थात् मृत्यु का दिन समीप आ रहा है ।"

इन तथ्यों को समझते हुए वह राजकाज चलाता तो है, पर आत्म कल्याण और परमार्थ प्रयोजन को नहीं भूलता । यही मोक्ष के दो मूलभूत आधार है । श्रोताओं का समाधान हो गया ।

मुक्ति की आकांक्षा नहीं- भगवान् बुद्ध का अंत समय आया, तो उनके शिष्यों ने पूछा-"आप तो अब मुक्तिधाम जा रहे हैं । उनने उत्तर दिया-" जब तक संसार में एक भी प्राणी मोहबद्ध है, तब तक मैं बार-बार जन्म लेता और मरता रहूँगा ।  जब समस्त प्राणी सद्गति की प्राप्ति कर लेंगे, तब अंतिम व्यक्ति मुक्तिधाम की कामना करने वाला मैं रहूँगा ।"

क्षुरस्य धारा- एक दिन एक गृहस्थ ने महात्मा रामानुज से प्रश्न किया कि '' महात्मन्! क्या ऐसा कोई मार्ग नहीं कि यह संसार भी न छोड़ना पड़े और स्वर्ग भी पा लूँ ।" रामानुज हँसे और बोले-"हाँ, है ऐसा मार्ग। तुम जो कुछ कमाओ, ईमानदारी से कमाओ । और जो कुछ व्यय करो सदा दूसरों की भलाई के लिए करो ।"

गहस्थ को संदेह हुआ, उसने पूछा-"मगर ऐसे कठिन मार्ग पर कौन चल सकता है ?'' रामानुज ने दृढ़: विश्वास के साथ कहा- "जो नारकीय यातनाओं से बचना चाहता होगा और जिसे ईश्वर प्राप्ति की सच्ची लगन होगी ।"

मुक्ति का सही पथ- जीवात्मा की नियति अनंत से आत्मसात् होकर एक होने के रूप में ही है । यदि इस तत्व दर्शन को समझा जा सके, तो मुक्ति का पथ सबके लिए खुला है ।

"बूँद समुद्र में मिल गई । पर उसे अपने आपका यह अंत सहन न हुआ, वह फिर अलग रहने के लिए छटपटाने लगी । समुद्र ने समझाया-"नादान छोकरी! अलग रहकर क्या करेगी ? मैं इतना विशाल हूँ, तुझ जैसी अनेक बूँदों के मिलने से ही तो बना हूँ । क्षुद्रता गंवाकर महानता पाने की ललक ही तो मेरी लहरों पर थिरकती है ? तेरा साथ रहने में क्या हर्ज है ?'' पर बूँद नहीं मानी । उसे अकेलापन ही भाया और उसी के लिए जिद करने लगी । सूरज ने कहा-"तो मेरी किरणों के साथ तप और धरती पर उतर, जिस आपे को पाकर तू सुखी रह सके, वह उससे कम मूल्य पर नहीं मिल सकता ।'' बूँद ने यही निष्कर्ष निकाला कि अलग रहने की बात व्यर्थ है । सही या तो समुद्र का बताया रास्ता है या सूरज का बताया ।

बलि के संस्कार- संस्कारों की प्रतिक्रिया स्वरूप वैसा ही उत्कर्ष या पतन होता है।

स्कंदपुराण में बलि की कथा के द्वारा सतवृत्तियों के क्रमिक अभिवर्द्धन् का सत्परिणाम गिनाया गया है । देव ब्राह्मण निअंक जुआरी था, पर साथ ही उसमें दान की उदार प्रवृति, भी विद्यमान थी । एक बार एक जुए में उसने पर्याप्त धन कमा लिया, तो मद्यपान कर एक वेश्या के घर की ओर चला । मार्ग में मूर्छित हो गिर पड़ा । होश आने पर ग्लानि और प्रायश्चित भावना से वह भर उठा । उसनें अपने धन का एक अंश शिव प्रतिमा को समर्पित कर दिया ।

उस दिन से शिवत्व के प्रति यह आकर्षण उसमें उभरता ही गया । मृत्यु के उपरांत उसे अपने अल्प पुण्य कर्मों के फलस्वरूप तीन घड़ी के लिए स्वर्ग का शासन प्राप्त हुआ । तब तक सत्पवृत्तियों का महत्व वह समझ चुका
था । स्वर्ग के भोगों की ओर उसकी रंचमात्र भी रुचि नहीं जगी । उलटे इस पूरी तन घडी तक वह स्वयं ही बहुमूल्य बस्तुएँ, सत्पात्र श्रेष्ठ ऋषियों को लगातार दान करता रहा । इससे उसकी पुण्य प्रवृत्ति और गहरी हुई । अगले जन्म में वह महादानी बलि बना ।

सोम शर्मा प्रह्लाद बने- पद्यपुराण के अनुसार सोमशर्मा नामक तपस्वी साधक हरिहर क्षेत्र में साधना निरत थे । उनके जीवन का अंतिम समय निकट था, तभी दैत्यों की एक टोली वहाँ पहुँची और भयानक उपद्रव किया । इस प्रकार अंतकाल में उनके स्मृति पटल पर दैत्यों की यह छबि अंकित हो गई ।

सात्विक प्रकृति के साधक वे थे ही, उनका सूक्ष्म शरीर मृत्यु के तत्काल बाद दैत्यराज हिरण्यकशिपु की पत्नी कंयाधू में प्रविष्ट हुआ । प्रह्लाद के रूप में वे प्रकट हुए । जन्मत: ही उनकी अंत:श्चेतना परिष्कृत, उदात्त थी । दैत्य दुष्प्रवृत्तियों के प्रति उनमें प्रबल विरोध भाव भी था । यही बालक प्रह्लाद अपनी तपक्षर्या से भगवान केनृसिंहावतार का कृपाभाजन और दानवराज हिरण्यकशिपु के विनाश का कारण बना।

सती पार्वती- सती ने दक्ष प्रजापति के यज्ञ में अपना जीवन समाप्त करते समय श्री हरि से अनेक जन्म तक भगवान शिव के चरणों में प्रेम बना रहने का वरदान माँगा था । इसी कारण पूर्व संस्कारों के अनुरूप उन्होंने हिमांचल के घर मे दूसरा जन्म पार्वती के रूप में पा लिया ।

पूर्व जन्म की स्मृति- एतरेयोपनिषद् में एक कथा आती है- माता के गर्भ में शयन करते हुए ऋषि वामदेव विचार करते हैं- "अब मैं देवताओं के अनेक जन्मों को जान चुका हूँ । जब तक मुझे तत्वज्ञान नहीं मिला था, मैं संसार में पाप कर्मों से उसी तरह घिरा था, जिस तरह पक्षी को पिंजरे में बंद कर दिया जाता है ।" पूर्व जन्मों का स्मरण करते हुए ऋषि वामदेव ने शरीर धारण किया और उन्नत कर्म करते हुए स्वर्ग में पहुँच गए ।

अगला जन्म- जड़ भरत को पूर्व जन्म में एक हिरन से अतिशय प्यार था । उन्हीं ने उसे पाल-पोस कर बड़ा किया था, जब राजा मरने लगे, तब उनका चित्त उसी में पड़ा रहा । इसलिए अगले जन्म में उन्हें मृग योनि मिली । वे रात्रि के समय राजा रहते थे और दिन में हिरण बनकर विचरते थे । मरने के दिनों मनुष्य का चित्त जहाँ पडा रहता है । उसके अनुरूप ही अगले जन्म की परिस्थितियाँ उपलब्ध होती हैं ।

संग्रहीत पूँजी ही सब कुछ- शत्रुओं से घिरे एक नगर की प्रजा अपना माल, असबाव पीठ पर लादे हुए जान बचाकर भाग रही थी । सभी घबराए और दुःखी स्थिति में थे, पर उन्हीं में से एक खाली हाथ चलने वाला व्यक्ति सिर ऊंचा किये अकड़ कर चल रहा था । लोगों ने उससे पूछा- "तेरे पास तो  कुछ भी नहीं है, इतनी गरीबी के होते फिर अकड़ किस बात की ?'' दार्शनिक वायस ने कहा- "मेरे साथ जन्म भर की संग्रहीत पूँजी है और उसके आधार पर अगले ही दिनों फिर अच्छा भविष्य सामने आ खड़ा होने का विश्वास है । वह पूँजी है अच्छी परिस्थितियाँ फिर बना लेने की हिम्मत । इस पूँजी के रहते मुझे दु:खी होने और नीचा सिर करने की आवश्यकता ही क्या है ?''

भृगु पुत्र के अनेक जन्म- महर्षि भृगु नदी तट पर तपस्या कर रहे थे । समीप ही उनका आश्रम था । उसकी व्यवस्था पुत्र शुक्र को देकर स्वयं समाधिस्थ हो गए । बालक को नींद आ गई । उसने आकाश में एक स्वर्ग सुंदरी को देखा, वह भी कल्पना की उडाने उड़ता हुआ उसके पीछे चल दिया और स्वर्ग जा पहुँचा । उस अप्सरा से उसने विवाह संबंध बना लिया । पुण्य क्षीण होने पर दोनों धरती पर गिरे और कर्मफल के अनुसार अनेकानेक योनियों में भ्रमण करते रहे । इतने में भृगु की समाधि खुली उनने बालक शुक्र को न पाकर चिंता व्यक्त की और योग बल से देखा तो वह एक् ब्राह्मण परिवार में खेल रहा था । भृगु ने उसे दिव्य ज्ञान दिया, तब उसे पुरातन जन्म की याद आई और भूगु के साथ जाकर छूटी हुई पितृ सेवा में लग गया ।

राम ने पूछा- "गुरुदेव! यह किस क्षेत्र की और किस कल्प की घटना है ?'' वशिष्ठ ने कहा-"हे राम! यह हर मनुष्य का दार्शनिक चित्र है । वह अपने मूल स्वरूप और लक्ष्य को भूलकर इसी प्रकार माया-जंजाल में भटकता हुआ कर्मफल भोगता और व्यथित रहता है ।

प्रेत और पितर- विद्याश्रमी विद्रुध ने एक बार गुरुकुलाधिपति अयोदधौम्य से पूछा-"देव! चौरासी लाख योनियाँ क्या हैं ? क्या उनमें मनुष्य को अनिवार्यत भ्रमण करना पड़ता है ?''

अयोदधौम्य ने कहा- "मनुष्य योनि में भी काक, गिद्ध, हंस, मयूर जैसे पक्षियों की प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं ।
पशुओं में वृषभ और शृंगाल जैसे भले-बुरे होते हैं । भौरें और गुबरीले जैसे कीट-पतंग पाए जाते हैं । कर्मानुसार इनमें प्राणी को जाना पड़ता है । श्रेष्ठजन जीवन मुक्त होने तक मनुष्य जन्म ही लेते रहते हैं । उन्हें अन्य योनियों में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती ।

मरने के उपरांत तुरंत जन्म नहीं होता । इस मध्यकाल में सूक्ष्म शरीर की प्रेत जैसी हेय और पितर जैसी उत्कृष्ट स्थिति में रहना पड़ता है । वे अपने स्वभाव के अनुरूप ही त्रास और तिरस्कार अथवा श्रेय-सम्मान पाते
रहते है ।

मेंढ़क मैत्रेय- व्यास और मैत्रेय में बड़ी घनिष्ठता थी । बहुत दिन उपरांत व्यास उधर गए, तो मालूम हुआ कि मैत्रेय मर चुके है । मैत्रेय के न रहने पर वे बड़े दु:खी हुए । उनने योग बल से उन्हें ढूँढ निकाला । वे पास के तालाब में मेंढक बने बैठे थे । व्यास जी उन्हें वह शरीर त्यागने के लिए कहा, ताकि उत्तम योनि मिल सके । मैत्रेय ने इन्कार करते हुए कहा "यदि इससे भी बुरी योनि मिली तो ?'' मेंढक मैत्रेय ने कहा- "सहिष्णु बनकर किसी भी स्थिति में प्रसन्न रहा जा सकता है ।"

दुर्योधन स्वर्ग में- महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ । सभी कौरव युद्ध में मारे जा चुके थे । पांडव भी कुछ समय तक राज्य करके हिमालय पर चले गए । वहाँ एक एक करके सभी भाई गिर गए । अकेले युधिष्ठिर अपने एक मात्र साथी कुत्ते के साथ बचे रहे और वे स्वर्ग गए । कहते हैं युधिष्ठिर जीवित ही स्वर्ग में गए थे । वहाँ उन्होंने स्वर्ग और नरक दोनों को देखा । स्वर्ग में प्रवेश करते ही दुर्योधन दिखाई दिया । अपने भाइयों से भी उनका सामना हुआ । रास्ते में अन्य भाइयों को गिरते समय प्रश्न करने वाले भीम के मन में यहाँ भी जिज्ञासा उठी, पूछा- "भैया! दुष्ट दुर्योधन तो आजीवन अनीति का ही पक्ष लेता रहा । उसने अपने पूरे जीवन में कोई धर्म-कर्म नहीं किया, जिसके पुण्य से उसे स्वर्ग मिला हो । क्या ईश्वर के न्याय में भी अंधेरगर्दी है ?''

"नहीं भीम! ईश्वरीय विधान के अनुसार प्रत्येक पुण्य का परिणाम, चाहे वह किंचित ही क्यों न हो, स्वर्ग मिलता है । सभी बुराइयों के होते हुए भी दुर्योधन में एक सद्गुण था, जिसके प्रसाद स्वरूप उसे स्वर्ग में स्थान प्राप्त हुआ है ।" "वह क्या" - भीम ने पूछा ।'' वह अपने संस्कारों के कारण जीवन को सही दिशा भले ही न दे सका हो, परंतु उसका मार्ग अवश्य ही सही था । अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वह तन्मयतापूर्वक जुटा रहा । ध्येय के प्रति एकनिष्ठ रहना बहुत बड़ा सद्गुण है । इस सद्गुण के पुण्य परिणाम स्वरूप कुछ समय के लिए उसे स्वर्ग में स्थान मिलना उचित था ।''

लोभग्रस्त की दुर्दशा- लोभ-लालच व्यक्ति से मनुष्य जन्म में जो न करा बैठे, कम ही है । एक ब्राह्मण था । बहुत धनी साथ ही अतिशय कृपण । उसका पुत्र बीमार पड़ा, तो घर में वैद्य बुलाने का खर्च न करके उसे पीठ पर लादकर वैद्य के घर ले गया । दवा तो मिली । पर पुत्र को दूर तक इस प्रकार आने-जाने में बहुत दबाव पड़ा और घर आते-आते उसकी मृत्यु हो गई ।

पिता रोने लगा । पुत्र की आत्मा ने पिता का लोभ छुडाने एवं संपत्ति दिलाने के लिए प्रेत रूप में उसके सम्मुख प्रकट हुआ और रोने लगा ।

उसे रोता देखकर पिता की हिलकी बँध गई और पूछा-"तुम्हें क्या कष्ट है ?'' उसने कहा-"स्वर्ग में मुझे रत्नजडित रथ मिला है, पर उसमें पहिए सोने-चांदी के चाहिए । वे आप बनवाकर बौद्ध विहा रको दान कर सकें, तो मेरा रथ चले और दु:ख दूर हो ।'' मोहग्रस्त ब्राह्मण ने पहिए बनवाकर दान कर दिए । इसी में उसकी सारी संपदा खर्च हो गई । लोभ छूट जाने पर वह ब्रह्म कर्म में संलग्र हुआ और सद्गति को पहुँचा । लोभ अनेक दुःखो और बंधनों का कारण है ।

पाप के पश्चात्ताप का महत्व- यदि अपने पापों की स्वीकारोक्ति कर ली जाय, तो उनका क्षय हो जाता है, आगे प्रगति का द्वार खुलता है । स्वर्ग के द्वार पर भारी भीड़ लग गई । धर्मराज को यह छांट करनी थी कि किसे प्रवेश मिले ? किसे नहीं ? परीक्षा के लिए उनने सभी को दो कागज दिए । एक में अपने पाप और दुसरे में पुण्य लिखने के लिए कहा ।

अधिकांश लोगों ने अपने पुण्य तो बढ़ा-चढ़ा कर लिखे, पर पाप छिपा लिए । कुछ ही आत्माएँ ऐसी थीं, जिनने अपने पापों का विस्तार लिखा और प्रायश्चित्त पूछा । धर्मराज ने अंत करणों की क्षुद्रता और महानता जांची और पाप लिखने वालों को स्वर्ग में प्रवेश दिया! 

बस इतना याद रखो- एक शिष्य किसी तत्वज्ञानी से मृत्यु के संबंध में अनेक प्रश्न पूछ रहा था । दार्शनिक ने उत्तर दिया- "मृत्यु मात्र एक स्थिति से, दूसरी स्थिति में परिवर्तन मात्र है । तुम उसकी चिंता न करो और इतना भर ध्यान रखो कि जो जीवन में किया जा रहा हैं, वह हो रहा है या नहीं ।''

स्वर्ग-स्नान मात्र से नहीं- उस वर्ष कुंभ पर्व पर ४० लाख व्यक्ति स्वर्ग मिलने की कामना लेकर गए । पर जब देवदूतों ने गणना की, तो मालूम पड़ा कि मात्र एक व्यक्ति स्वर्ग गया है, जिसने इस निमित्त संग्रह किया, धन दुर्भिक्ष पीड़ितों को दे दिया था और स्वयं कुंभ नहीं जा सका । उस असमंजस का निवारण करते हुए देवगुरु बृहस्पति जी ने कहा-"कर्मकांड नहीं, उदार भावना सद्गति प्रदान करने का निमित्त कारण है ।''

साधनों की ललक- लोग अंत तक कुछ करने की सोचते, योजना बनाते रहते हैं । मृत्यु आकर द्वार पर खडी होती है, तब वे पछताते रह जाते है ।

जर्मनी का एक विद्या प्रेमी धनवान हुआ है-टाम्स रैले । उसने निश्चय किया कि वह पहले संसार के समस्त धर्म शास्त्र इकट्ठे कर ले, इसके बाद निश्चित होकर वह उन्हें पढ़ना आरंभ करेगा । खरीदने और इकट्ठा करने में ही उसकी दौड़-धूप जारी रही । हजारों पुस्तकों का बहुमूल्य पुस्तकालय तो बन गया, पर वह स्वयं उसमें से एक अक्षर भी न पढ़ सका । अध्ययन की अभिलाषा सर्वथा अधूरी छोड्कर वह संसार से विदा हो गया । साधन इकट्ठा करने की ललक ने उसे साध्य की निकटता मिलने ही न दी ।

अभी भी समय बाकी है- आपसी बहस में पिछले-अगले जन्मों के विवरण की चर्चा चल रही थी । एक ने कहा- ''अपने तीन जन्मों का हाल तो मैं भी बता सकता हूँ ।'' पिछले जन्म में कुछ पुण्य किया नहीं, सो इस जीवन में कुछ मिला नहीं । इस जन्म में कुछ परमार्थ कर नहीं रहे हैं । सो अगले जन्म में कुछ मिलने वाला है नहीं । उस ओर से गुजर रहे एक संत ने धीरे से कहा-''बेटा! अभी भी सँभल जाओ, तो अगला जन्म सुधार सकते हो ।''

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