प्रज्ञा पुराण भाग-4

।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -3

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विशेषताभिरेताभिर्युक्ता एव तु मानवाः। 
वक्तुं शक्या वसन्त्यत्र  मर्त्यदेहे हि देवता:  ।। १६ ।।  
भगवानत्र प्राकट्यं याति देहे सदैवं सः। 
मनुकार्येषु ये लग्ना अभिनन्द्येषु सन्ततम्  ।। १७ ।। 
उपक्रमेषु पुण्योपकारयो रसबोधिनः। 
आत्मनो जगतश्चाऽमिप कल्याणार्थं तपो रता:  ।। १८ ।।
कष्टानां सहने हर्षो येषां ते भूसूरा  मता:। 
उदारमानसा मर्त्याः करुणामूर्तयोऽनघाः  ।। १९ ।। 
ऋषिर्मनीषी देवात्माऽवतारो वा निगद्यते। 
महामानव इत्येष समुदायो जनैरिह  ।। २० ।। 

भावार्थ- ऐसी विशेषता से युक्त लोगों को ही सच्चा मनुष्य कहना चाहिए। मनुष्य शरीर में ही देवता रहते हैं इसी में भगवान् प्रकट होते हैं। जो अनुकरणीय अभिनंदनीय बनाने वाले उपक्रमों में निरत रहते हैं, जिन्हेंम, पुण्य - परोपकार में रस आता है और आत्म- कल्याण एवं विश्व -कल्याण के लिए तपश्चर्यारत रहने, कष्ट सहने में प्रसन्नता होती है। ऐसे दयालु, निष्पाप, उदारमना लोगों को भूसुर- धरती का देवता कहते हैं। इसी समुदाय को महामान व ऋषि, मनीषी, देवात्मा एवं अवतार कहते हैं ।। १६ - २० ।। 

व्याख्या- स्वर्गलोक के निवासी देवता कहलाते हैं। उत्कृष्टता का नाम ही स्वर्गलोक, ऊर्ध्वलोक है। देवता और कोई नहीं, मनुष्य शरीर में निवास करने वाली सत्प्रवृत्तियाँ ही हैं। 'देवता' की एक शब्द में परिभाषा करनी हो, तो उसे देने की प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व कहा जा सकता है। देव प्रकृति की उमंगें अंदर से उठने लगें अर्थात् अपनी उाावश्यकताएँ हँसते- हँसते पूरी करने के साथ- साथ अन्य असंख्यों की सहायता कर सकने की आकांक्षा अंदर से जन्म लेने लगे। अंतःकरण का उदात्त होना अपने आप में इतना बड़ा सौभाग्य है कि उसके उपरांत, विलास, वैभव का, सुविधा- साधनों की संपन्नता का होना, न होना कुछ अर्थ नहीं रखता। देवता बदले में न कुछ चाहते हैं, न स्वीकारते हैं, इसलिए वे पूजे जाते हैं। मनुष्य में सदैव अन्य स्तरों की तरह देवत्व भी विद्यमान रहा है। चेतना की यह वरिष्ठ स्थिति ही मानवी सत्ता की प्रगति की मूल कारण रही है। 

परोपकार की महिमा  

सुकरात कहते थे-'' मैंने इतना किया, पर इसका बदला मुझे क्या मिला ?'' ऐसे विचार करने की उतावली न कीजिए। बादलों को देखिए, वे सारे संसार पर जल बरसाते फिरते हैं, किसने उनके अहसान का बदला चुका दिया ? बड़े- बड़े भूमि खंडों का सिंचन करके उनमें हरियाली उपजाने वाली नदियों के परिश्रम की कीमत कौन देता है ? हम पृथ्वी की छाती पर जन्म भर लदे रहते हैं और उसे मल- मूत्र से गंदी करते है, किसने उसका मुआवजा अदा किया है ? वृक्षों से फल, छाया, लकड़ी पाते हैं , पर उन्हें हम क्या कीमत देते हैं ?'' 

परोपकार स्वयं ही एक बदला है। त्याग करना अजनबी आदमी को एक घाटे का सौदा प्रतीत होता है, पर जिन्हें परोपकार करने का अनुभव है, वे जानते हैं कि ईश्वरीय वरदान की तरह यह दिव्य गुण कितना शान्तिदायक है और हृदय को कितना बल प्रदान करता है। उपकारी मनुष्य जानता है कि मेरे  कार्यों से कितना लाभ दूसरों को होता है, उससे कई गुना अधिक, स्वयं मेरा होता है। 

त्याग करना, किसी की कुछ सहायता करना, उधार देने की वैधानिक पद्धति है, जो कुछ हम दूसरों को देते हैं, वह हमारी रक्षित पूँजी की तरह परमात्मा की बैंक में जमा हो जाता है। जो अपनी रोटी दूसरों को बाँटकर खाता है, उसको किसी बात की कमी न रहेगी। जो केवल खाना और जमा करना ही जानता है, उस अभागे को क्या मालूम होगा कि त्याग में कितनी मिठास छिपी हुई है ? 

मर्यादाओं से आबद्ध रहकर नागरिक कर्तव्यों का पालन करते रहना ,उद्धत आचरणों से बचना, शील और सौजन्य को निबाहना- यह मनुष्यता का आवश्यक उत्तरदायित्व है। जिन्होंने अपने भीतर आत्मा को समझा है और उसकी गौरव- गरिमा को ध्यान में रखा है, उसे संयम, सदाचार और कर्तव्यनिष्ठा से जुड़ा हुआ शालीन जीवन जीना ही पड़ेगा। 

महात्मा कौन?

महात्मा की गरिमा इससे अगली मंजिल है। महान् का अर्थ है, विशाल- व्यापक। जो आत्मा अपने शारीरिक, मानसिक और पारिवारिक कर्तव्यों से आगे बढ़कर विश्व मानव के उत्तरदायित्वों को वहन करने के लिए अग्रसर होता है, मानवीय कर्तव्यों से आगे के देवकर्त्तव्यों को वहन करने के लिए तत्पर होता है, वह महात्मा है। महात्मा अपने लिए नहीं सोचता, विराट् के लिए सोचता है, अपने लिए नहीं करता, विराट् के लिए करता है, अपने लिए जीवित नहीं रहता, विराट् के लिए जीता है। 

सच्चा योगी 

दो शिष्य आपस में लड़ रहे थे, एक कहता था सच्चा योगी मैं हूँ, मैंने काम पर विजय पा ली है, दूसरा कहता था, मैंने पद्मासन सिद्ध कर लिया है, मैं तुमसे भी बड़ा हूँ। 
आचार्य ने दोनों की सुनकर कहा-'' सच्चा योगी तो मृगाल है, जो अपने लिए कभी कुछ कहता ही नहीं, सदैव संसार के कल्याण की बात सोचता रहता है। ''

कीमती वस्तु अल्प मात्रा में 

महामुनि गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-'' संसार में सबसे कम किस योनि के जीव है ?'' उन्होंने उत्तर दिया-'' सबसे कम मानव हैं। जो कीमती वस्तु है, वह अल्प मात्रा में होती है। '' ईश्वर भी महान् है किं मनुष्य उसकी उपासना करता है और मनुष्य इसलिए महान् है कि वह ईश्वर बन सकता है- । सारी पृथ्वी में २/३ जल है और १/३ स्थल है। उसमें भी ३५ लाख योजन भूमि में मानव बसता है। शेष तो हजारों- लोखों विशालकाय पर्वत, नदी, नालों और घने जंगलों से भरी है, जिसमें अनेक जीवधारी निवास करते हैं। 

नरक में भी स्वर्ग 

देवमानव स्वर्ग के अधिकारी होने पर, परपीड़ा निवारण हेतु नरक में रहना स्वीकारते हैं। युधिष्ठिर को एक दिन का नरक मिला और सौ वर्ष का स्वर्ग। पहले क्या भुगतना है, यह पूछे जानें पर उनने नरक से निपटना पसंद किया। 

नरके में पहुँचने पर उनके शरीर से शीतल गंध आने लगी और तपते नरक निवासियों को राहत मिली। वे कहने लगे कि आप यहीं रहें, तो अच्छा है। युधिष्ठिर ने अपना पुण्य नरकवासियों को देकर उन्हें स्वर्ग पहुँचा दिया और स्वयं उनका पाप ओढ़कर नरक में ही रहने लगे। 

नरक का वातावरण भी युधिष्ठिर के रहने से स्वर्ग जैसा बन गया। मनुष्य शरीरधारी सत्प्रवृत्तियों के धनी जहाँ भी रहते हैं, स्वर्ग जैसा वातावरण बना देते हैं। 

स्वर्ग मुस्कानों में छिपा 

स्वर्ग जाने की तरकीबें पूछने के लिए कितने ही जिज्ञासु बैठे हुए थे। संत ने कहा-'' हमें नरक के दुखियारों की सेवा, सहायता करने के लिए चलना चाहिए। स्वर्ग उन्हीं की मुस्कानों में छिपा मिलेगा ।'' 

शुकदेव की देव दृष्टि 

अप्सरा रम्भा शुकदेव जी को लुभाने पहुँची। शुकदेव जी सहज विरागी थे। उन्होंने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। रम्भा उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने लगी। उन्होंने पूछा-'' देवि !आप मेरा ध्यान अपनी ओर क्यों आकर्षित करने का प्रयास कर रही है ?'' रम्भा ने कहा- '' तुम्हें जीवन का ऐसा रस चखाने हेतु, जो तुमने नहीं चखा। '' 

शुक बोले-'' देवि ! मैं तो उस सार्थक रस को पा चुका हूँ , जिससे क्षण भर हटने से जीवन निरर्थक होने लगता है। 

'' न सेवितो येन क्षणे मुकन्दो वृथा गतं तस्य नरस्य जीवनम् ।। '' 

एक क्षण के लिए भी यदि परमात्मा का सेवन न किया जाय, तो मनुष्य का जीवन निरर्थक होने लगता है। इसलिए, देवि मैं तो उस रस को छोड़कर जीवन को निरर्थक बनाना नहीं चाहता। कुछ और रस हो भी तो मुझे क्या ? 

रम्भा ने अपने रूप शरीर की विशेषताएँ बतलानी प्रारंभ की। शुकदेव ने सुना और बोले '' देवि ! आज हमें पहली बार यह पता लगा कि नारी शरीर इतना सुंदर, सुगंधित होता है। अब आपकी कृपा से यह पता लग गया। अब यदि भगवत् प्रेरणा से पुनः जन्म लेना पड़ा, तो नौ माह आप जैसी ही किसी माता के गर्भ में रहकर इसका सुख लूँगा। अभी तो प्रभु कार्य ही प्रधान है। '' 

सहज विरागी शुक ने नारी शरीर की निंदा नहीं की। केवल अपनी एकनिष्ठ बुद्धि से विधेयात्मक मार्ग चुना। 

मेरे लिए बस एक 

पंढरपुर के विट्ठल मंदिर में भक्तों की लंबी कतार लगी थी। लोग स्तुति- प्रणाम करते, भेंट चंढा़ते बढ़ते जाते थे। लक्ष्मी जी भगवान् से बोलीं-'' इतने भक्त इतनी उमंग से आ- जा रहे हैं, आप हैं कि नीची दृष्टि किए उदास खड़े हैं ? '' 

भगवान् बोले-'' देवि ! मैंने पंक्ति के अंत तक दृष्टि डालकर देख लिया। सभी अपने- अपने स्वार्थों के लिए आए हैं। मेरे लिए कोई नहीं आया है। जो मेरे लिए आता है, उसे देखकर मेरी आँखें द्रवित- पुलकित होती हैं। '' 

लक्ष्मी जी उदास होने लगी, बोलीं-'' क्या ऐसा कोई नहीं है, जो हमारे लिए हमारे पास आए ?'' भगवान् बोले-'' है, तुकाराम ! पर वह बीमार पड़ा है, यहाँ तक चलकर आ नहीं सकता। चारपाई पर दर्शन के लिए व्याकुल पड़ा है ।'' लक्ष्मी जी की उदासी हटी, बोलीं-'' तो चलिए न, हम ही उसे दर्शन दे आएँ। '' 

मंदिर में मूर्ति के आगे दर्शनार्थियों की भीड़ टूटी पड़ रही थी और भगवान् सच्चे दर्शनार्थी की खोज में तुकाराम के पलंग के सामने खड़े थे। 

सच्ची भगवत् साधना 

सेवा धर्म के समर्पित साधक जिस भी कार्य में स्वयं को नियोजित करते हैं , चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो, पूजा- उपासना मानकर चलते हैं। विनोबा के पवनार आश्रम में एक साधक कोटि के बाबा रहते थे। उन्हें मेहतर का काम सुपुर्द किया गया था। आरंभ में कई साथी काम करते थे, पर वे चले गए, तो वह पूरा काम अकेले कोटि बाबा को ही करना पड़ा। 

विनोबा जेल से लौट कर आए और उनने कोटि बाबा से पूछा कि आपका धंधा कैसा चल रहा है ? उनने उत्तर दिया-'' जब साथी थे, तब लगता था सत्संग हो रहा है। जब अकेला रह गया, तो लगा ध्यान और भजन में निरत रहने का सुयोग मिला। '' 

बड़ा कौन ? 

किसी जिज्ञासु ने ईरान के दार्शनिक कवि शेख सादी से प्रश्न किया- '' भगवन ! परोपकारी बड़ा होता है या ताकतवर ? '' 

शेख सादी ने उत्तर में कहा-'' पहले तुम मेरे एक प्रश्न का उत्तर दो, यह बताओ कि हातिम के समय में सबसे बड़ा पहलवान, कौन था ?'' 

जिज्ञासु ने बहुत सोचा- विचारा, पर उसे पर्याप्त समय तक प्रयत्न करने पर भी इसका उत्तर न सूझ पड़ा। अंत में उसने कहा-'' हातिम के उपकार तो बहुत विख्यात हैं, पर उस जमाने के किसी पहलवान ने ऐसा कोई काम नहीं किया, जिसके कारण उसे आज तक याद रखा जाता। '' 

खलीफा नहीं सेवक 

हजरत अबूबकर को खलीफा बनाया गया। सब लोग- खुश थे, पर एक बुढ़िया परेशान लगती थी। पूछने पर उसने बताया- '' पहले अबूबकर मेरी बकरियाँ दुह दिया करता था, पर अब बड़ा आदमी होने पर मेरे काम क्यों आएगा ?'' 

हजरत ने उसे यकीन दिलाया कि तेरी बकरियाँ पहले की तरह दुहने आया करूँगा, खलीफा हो गया हूँ तो क्या ? और खलीफा ने यही किया भी। 

देशहितार्थाय 

देशबन्धु चितरंजन दास हजारों रुपए की अच्छी- खासी चलती हुई वकालत छोड़कर देश की स्वतंत्रता के लिए असहयोग आंदोलन में कूद पडे़। उन्होंने भारतीय युवकों का आह्वान किया कि वे युग धर्म समझते हुए इस आंदोलन के लिए व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं का परित्याग करें। उनके इस आह्वान की प्रतिक्रिया हुई सात समंदर पार आई० सी० एस० की परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए गए एक भारतीय युवक के हृदय पर। उसने उन्हें पत्र द्वारा सूचित किया कि वह उनके इस आह्वान पर अपनी महत्त्वाकांक्षाओं का देश हित में बलिदान करता है। यह युवक थे सुभाषचंद्र बोस। जिन्होंने उस भावना को साकार कर दिखाया। 

रोयें नहीं ,खुशी व्यक्त करें 

स्वतंत्रता संग्राम के समय की बात है। लालबहादुर शास्त्री नहीं चाहते थे उनके बंदी बनाए जाने पर उनकी माता, पत्नी और परिवार के लोग रोयें। अतः उन्होंने पहले ही अपनी माताजी को समझाया तो बोलीं- '' लेकिन बेटा, मोह- ममता का भी अपना एक स्थान है। प्रियजन के कष्ट में दुःखी हो जाना या रो पड़ना कोई बुरा तो नहीं ?'' 

'' आप ठीक कहती हैं, पर यदि ऐसे अवसरों पर प्रसन्नता व्यक्त की जाय, तो बच्चों को आदर्श कीं प्रेरणा मिलेगी। '' बेटे की यह युक्ति युक्त कथन माँ को मानना व तदनुरूप आचरण करना पड़ा। 

दुखियों की सेवा में संलग्न बालक 

स्विट्जरलैंड की एक ग्राम सभा में श्वाइत्जर पिछड़ी दुनियाँ की कष्ट कथा कह रहे थे और उदारजनों को उनकी सेवा- सहायता के लिए संलग्न होने का आह्वान कर रहे थे। कथा समाप्त होने पर अन्य लोग तो कुछ पैसा देकर अपने- अपने घर चले गए। पर एक बालक बैठा ही रहा। उसने कहा-'' मुझे भी अपने साथ ले चलिए। मैं भी परमार्थी जीवन जीना चाहता हूँ। '' श्वाइत्जर ने उसके सिर पर हाथ फिराया और कहा- '' अभी तुम बहुत छोटे हो, आयु बढ़ने दो। संकल्पों को पक्का करो और योग्यता बढ़ाओ। मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी यदि तुम परमार्थ परायण जीवन जी सको। '' 

लड़के ने निश्चय कर लिया और वह शिक्षा की पूर्णता तथा आयु की परिपक्वता की प्रतीक्षा करने लगा। संकल्प को उसने दृढ़ रखा। उसका नाम था थियोडार वाइजर। '' 

वह दक्षिण अमेरिका के दास समाज की सेवा करने लगा। पेरू में उसने अपना छोटा आश्रम बनाया। वहाँ के लोग उन्हें यातूल पाता कहते थे। न केवल चिकित्सा द्वारा, शिक्षा द्वारा, वरन् उनका मनोबल बढ़ाने के प्रयासों में भी निरंतर लगा रहा, पिछड़े लोगों जैसा ही कम खर्च का जीवन जिया। 

संत की- चिकित्सक की दृष्टि 

साइमन नामक एक धर्मात्मा के यहाँ ईसा पहुँचे और ठहरे। इतने में मैगडलन नामक वैश्या आई और अपने पापों का प्रायश्चित कराने के लिए ईसा के सम्मुख रोने लगी।  ईशा साइमन को सांत्वना देकर पहले मैगडलन के यहाँ गए और उससे बुराई छुड़ाकर सभ्य नागरिकों की तरह रहने की प्रतिज्ञा कराई। 

लौटने पर असमंजस में पड़े शिष्यों से उनने कहा- '' चिकित्सक की जरूरत स्वस्थ मनुष्य की अपेक्षा रोगी को अधिक होती है। 

अंगिरा का नामकरण 

महार्षि अंगिरा का जन्म ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि यज्ञ करते समय उत्पन्न ऊर्जा से हुआ। उनके गुण भी यज्ञाग्नि जैसे ऊर्ध्वमुखी, समीपवर्ती को अपने जैसे बना लेना, जो हाथ आए उसे वायुभूत बनाकर लुटा देने जैसे सद्गुण थे। गुणों के आधार पर उनका नाम अंगिरा रखा गया। मनुष्य रूप में ऊर्ध्वगति वाले , श्रेष्ठ चिंतन वाले व्यक्ति देवता अकारण नहीं कहलाते। 

महाप्रभु ईशा 

कुमारी मरियम के पेट से जन्मे ईसा मसीह भेड़ चराते थे। पीछे उन्होंने जीवन की गरिमा समझी और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का मूल्यांकन किया और सामान्यजनों की तरह जीवन की कार्यपद्धति बनाने का निश्चय किया। वे किशोरावस्था में भारत आए। बौद्ध दर्शन को गंभीरतापूर्वक समझा । तीर्थयात्रा के माध्यम से विशिष्टजनों के संपर्क में आए और अपने देश लौट गए। 

उस क्षेत्र में यहूदी कट्टरपंथियों का बोलबाला था। उनका धर्म कथन और श्रवण तक सीमित था। इतने भर में ही कल्याण मान लेते थे। 

ईसा ने आचरण की महत्ता बताई। दुखियारों का दुःख दूर करने में धर्म बताया। इसी आचरण पर धर्म का विस्तार करने वे गाँव- गाँव घूमे। मनुष्यों के बीच जो ऊँच- नीच का भेद- भाव चल रहा था, उस पर तीखे प्रहार किए। 

इससे पुरातन पंथी उनसे बहुत क्रुद्ध हो गए और धर्म विरोधी का अभियोग उन पर चलाया। उन्हें मृत्युदण्ड दिया गया, जिसे उन्होंने शांतिपूर्वक स्वीकार किया। ईसा की विचारधारा रुकी नहीं, आज ढाई अरब की संख्या में उनके अनुयायी हैं। 

भवन्ति मानवाः प्राय: समाना एव यद्यपि। 
वातावृत्या च सङ्गःया गच्छन्त्युच्चैः पतन्त्यधः ।। २१ ।।

भावार्थ- मनुष्य प्राय: सभी एक जैसे होते हैं। वातावरण एवं संगीत के प्रभाव से वे ऊँचे उठते या पतित होते हैं।। २१।।
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