प्रज्ञा पुराण भाग-4

।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-6

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आश्रमा इव वर्णास्ते चत्वारः सन्ति शोभनाः ।
क्षत्नियाश्च विशः शूद्रा समाजे कुर्वते क्रमात् ।। ५६ ।।
सुरक्षायाः समृद्धेश्च श्रमस्यापूर्तिमुत्तमाम् ।
ब्राह्मणस्य च दायित्वमध्यात्मप्रमुखस्मृतम्  ।।५७।।  
समाजोत्कर्षकार्ये च चतुर्ण्णमपि वतते।
महत्वपूर्णमेतेषां योगदानं  च वस्तुतः।।५८।।  
उच्चोनीचश्च नैवात्र वर्तते कोऽपि मानवः।
समाजावयवाः सर्वे वर्णा: स्वस्था अपेक्षिताः।।५९।।  
जन्मना जायते शूद्रो मान्यता देवसंस्कृति: ।
इयमेवास्ति संस्कौरर्द्विजाः पश्चात् भवन्ति ते।। ६०।।
सामान्यतस्तु वर्णास्ते कर्त्तव्यानि स्वकानि च।
निर्वहन्ति परं कश्चित् समाजस्य परिस्थितेः।।६१।।
पूर्ण सन्तुलनं  कर्तुं विवेकेन युतं  स्वतः।
क्षमतां वर्द्धयित्वाऽन्यदायित्यं वोढुमर्हति ।।६२।।
चतुर्ष्वपि यदाऽप्येको पतनैर्हि तदैव तु।
समाजस्य स्थितिर्याति विकृतिं  हि शनैः शनैः।।६३।।
सावधानैः सदाभाव्यं ब्राह्मणैर्विषयेऽत्र तु।
पतिते तु यतस्तस्मिन् पतज्यन्येऽपि वर्गगा ।।६४।।    

भावार्थ- आश्रमों की तरह वर्ण भी चार हैं।क्षत्रिय वैश्य और शूद्र समाज में क्रमश: सुरक्षा, समृद्धि और श्रम की महत्त्वपूर्ण भौतिक आवश्यकताएँ पूरी करते हैं।ब्राह्मण का उत्तरदायित्व अध्यात्म प्रधान है। वस्तुतः समाजोत्कर्ष में चारों का योगदान महत्त्वपूर्ण है। किसी को छोटा- बड़ा या ऊँचा- नाचा नहीं कहा जा सकता। समाज रूपी शरीर के सभी अंग सभी वर्ण स्वस्थ होने चाहिए। देवसंस्कृति की मान्यता है कि जन्मते सभी शूद्र हैं, संस्कारों के द्वारा द्विज बनते हैं। सामान्य रूप से सभी वर्ण  अपने निर्धारित कर्तव्य सँभालते हैं। किंतु समाज तथा परिस्थितियों के विवेकपूर्ण संतुलन के लिए कोई भी व्यक्ति वर्ण विशेष की क्षमताएँ अपने अंदर विकसित करके उनके उत्तरदायित्वों को सँभाल सकता है। चारों में से किसी एक वर्ग का पतन होने से समाज का सतुंलन बिगड़ने लगता है। ब्राह्मण वर्ग को इस दिशा में सबसे अधिक सतर्क रहना होता है। उसका पतन होने से अन्य वर्गों, का भी पतन होने लगता है  ।।५६- ६४।।  

तुलना ब्राह्मणस्यातो मुखेनोक्ता धियाऽपि च ।
चिन्तनं स ददात्येवं शिक्षाया वहते धुरम्   ।।६५ ।। 
प्रवचनस्य चोद्घोषस्याऽपि दान्तो महात्मनाः ।
जीवनं ब्राह्मणस्य स्यादपरिग्रहिसात्विकम्   ।।६६।। 
सौम्यं  विगततृष्णं च सद्गुणैरभिशाभितम्  ।
सेवापरायणं  चाऽपि सदाचारयुतं सदा   ।।६७ ।। 

भावार्थ- ब्राह्मण की तुलना मस्तिक एवं मुख से की गई है, वह उदार हृदय चिंतन प्रदान करता है और उद्घोष-प्रवचन- प्रशिक्षण का उत्तरदायित्व भी स्वयं अनुशासित बन सँभालता है। ब्राह्मण का निजी जीवन अपरिग्रही एषणाओं से रहित, सौम्य, सात्विक, सद्गुणी, सेवापरायण एवं सदाचारयुक्त होना चाहिए ।।६५- ६७ ।। 

व्याख्या- प्रस्तुत प्रकरण प्रारंभ करते हुए ही सत्राध्यक्ष श्री कात्यायन जी ने गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर समाज के चार वर्णों में विभाजित होने की चर्चा की थी। उसकी प्रसंग को यहाँ विशद रूप में समझाते हुए वे प्रत्येक के कार्य विभाजन एवं उत्तरदायित्वों की व्याख्या कर रहे हैं। चारों वे स्तंभ हैं, जिन पर समाज रूपी भवन टिका हुआ है। इनमें से किसी के भी दुर्बल पड़ने से समाज का सारा ढाँचा चरमरा सकता है। वैश्य, क्षेत्रीय एवं शूद्र मूलतः भौतिकी प्रधान उद्देश्यों से जुड़े हैं, तो ब्राह्मण आत्मिकी से संबंधित होने के कारण समुदाय की आत्मिक प्रगति के लिए उत्तरदायी हैं।  

कोई ब्राह्मण जन्म से नहीं होता। अपितु व्यक्ति अपनी सुसंस्कारिता द्वारा इसी मनुज काया में द्वितीय जन्म प्राप्त कर (द्विज) इस श्रेष्ठ स्थान को प्राप्त करता है। चूँकि आत्मिक उत्कर्ष पर ही किसी वर्ग, समुदाय की प्रगति निर्भर है, ब्राह्मण वर्ग पर विशेष दायित्व है, उन्हें अपना स्तर बनाए रखकर औरों के मार्गदर्शन का दुष्कर किंतु पुण्य कार्य निबाहना होता है । ब्राह्मणों के स्तर पर ही समाज की प्रगति, राष्ट्र का उत्कर्ष निभर है ।  

व्यक्तिगत जीवन में स्वयं के प्रति कठोर, औरों के प्रति उदार, अनुशासित जीवन क्रम , कथनी ही नहीं, करनी से शिक्षण ही ब्राह्मण की विशेषता है। ऋषि कहते हैं- ''ब्राह्यणोऽस्य मुखमासीत्''- ब्राह्मण समाज का मस्तिष्क है, मुख है। अर्थात् संचालन तंत्र है। इतना श्रेष्ठ व उच्चस्तरीय दायित्व होने के नाते निश्चित ही ब्राह्मण का स्थान सर्वोपरि हो जाता है। उसके अपने कर्तव्य औरों के उत्थान- पतन के कारण बन जाते हैं।  

शास्त्रों की सम्मति

ब्राह्मणत्व जन्म- जाति पर नहीं, कर्म पर आधारित है। ऋषि विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय थे किन्तु अपनी साधना द्वारा उन्होंने ब्रह्मऋषि पद पाया। राजा दशरथ उनका सम्मान करते हुए कहते हैं।

पूर्व राजर्षिशब्देन तपसा द्योतितप्रभः 
ब्रह्मार्षित्वमनुप्राप्तः पूज्योऽपि बहुधा मया।।  
 
हे ऋषि ! आप पहले राजर्षि कहलाते थे, किंतु तपस्या के प्रकाश से प्रकाशित हो आपने ब्रह्मर्षि पद पाया है। आप मेरे पूज्य हैं।

विश्वामित्र की तपस्या से प्रभावित हो ब्रह्मा जी ने उन्हें ब्रह्मर्षि पद प्रदान किया था, ब्रह्मा जी ने उस समय कहा- 

ब्रह्मर्षे स्वागतं  तेऽस्तु तपसा स्म सुतोषिताः।
 ब्राह्मण्यं तपसोऽग्रेण प्राप्तवानसि कौशिक।। 
 
हे ब्रह्मर्षि ! तुम्हारा स्वागत है, मैं  तुम्हारी तपस्या से संतुष्ट हूँ। तुम अपने उग्र तप के कारण ब्राह्मणत्व पा गए।  
रामचरितमानस में तुलसीदास जी कहते हैं- 
वर्णाश्रम निज निज धरम निरत वेद पथ लोग। चलहिं सदा पावहिं सुखद नहिं भय शोक न रोग।।   

यह सतयुग की, राम राज्य की परिकल्पना है, जिसमें रामायण कार वर्णाश्रम धर्म के माध्यम से कर्म द्वारा विभाजित समुदाय की व्याख्या करते हैं।
गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं- 

शम, दम, तप, पवित्रता, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिक्य- ये सभी ब्राह्मण के स्वभावजन्य कर्म है। ( अध्याय १८, श्लोक ४२) 
शूरता, तेज, धैर्य, दक्षता, युद्ध में पीठ न दिखाना, दान एवं शासन करने की योग्यता- ये सभी क्षत्रियों के स्वभावजन्य कर्म हैं। (अध्याय १८, श्लोक ४३) 
खेती, गौरक्षा, व्यापार, वैश्य के स्वभावजन्य कर्म हैं। सेवा रूप कर्म शूद्र का स्वभावजन्य कर्म है। (अध्याय १८, श्लोक ४४) 

गीता कर्म से जाति मानती है। जो जैसा कर्म करता है, वह उस जाति का माना जाता है। गुण, कर्म, स्वभाव के कारण मनुष्य, मनुष्यों में भेद हो सकता है। देवता, मनुष्य और असुर इन तीन वर्णों में कोई विभाजन किया जाय, तो समझ में आ सकता है। व्यवसायों के हिसाब से भी श्रेणी विभाजन किया जा सकता है। पर किसी कुल में जन्म लेने मात्र से कोई व्यक्ति ऊँचा या नीचा कहलाने लगे, इस मान्यता के पीछे न कोई तर्क है, न न्याय। वर्ण प्राचीनकाल में भी थे। पर उनमें पूर्ण आत्मीयता, एकता, समानता एवं सौजन्य का भाव था। चारों वर्ण एक ही शरीर के चार अंगों की तरह काम भले ही अलग करते थे, पर वे एक थे पूर्णतया एक। वर्ण- विभाजन का आधार बताते हुए इस प्रकार गीता कहती है कि- 

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शद्राणां च परंतप कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।   
(अध्याय १८, श्लोक ४१) 
हे अर्जुन ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म (अपने-अपने) स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों से पृथक् बँटे हैं ।  
महाभारत वनपर्व अध्याय १४९ में उल्लेख है-'' प्राचीनकाल में एक ही वर्ण था। सब लोग एक ही मर्यादा में चलते थे। एक ही धर्म का पालन करते थे और एक ही विधान से उनके संस्कार होते थे। '' 

सूत्र ग्रंथों में उल्लेख है कि शूद्रों के उपनयन आदि संस्कार होना चाहिए। हरिहर भाष्य गृ० सू० का० २ में यह स्पष्ट उल्लेख है।  

गीता के ४/१३' में भगवान् कहते हैं कि चार वर्णों की संरचना मैंने गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर की।  
महाभारत वनपर्व १३५/११ में चारों वर्णों को यज्ञ करने का निर्देशन है।  

महाभारत वनपर्व १३४/१६ में कहा गया है- चारों  वर्णों को यज्ञादि करने का अधिकार है ।

महाभारत शांतिपर्व अध्याय १८८ श्लोक १४- १५ में लिखा है-'' ब्राह्मणों में से कितनों ने ही अन्यान्य कार्य अपना लिए हैं।  ऐसी दशा में अन्य वर्णों के लिए कार्य परिवर्तन की मनाही नहीं हो सकती।

' म्लेच्छ ' ने संस्कृत सीखी  

मध्यकाल में ब्राह्मणत्व के संबंध में बड़ी कट्टर मान्यताएँ रही हैं। इससे संस्कृति को अपार हानि उठानी पड़ी है ।

एशियाटिक सोसाइटी के संस्थापक सर विलयम जोन्स उन दिनों सुप्रीमकोर्ट के जज थे। संस्कृत पढ़ने की उन्हें उत्कट इच्छा थी। पर उन दिनों बंगाल में कट्टरता का पूरा जोर था। कोई पंडित किसी '' म्लेच्छ '' को संस्कृत भाषा पढा़ने के लिए तैयार न हुआ।  

अंततः काफी वेतन पर रामलोचन नामक एक पंडित तैयार हुए। उनने कई शर्त लगाई। छात्र पढ़ने से पूर्व कुछ न खाए। लाने के लिए पालकी का प्रबंध हो। जिस कमरे में पढ़ा जाय, वह हिंदू नौकर द्वारा गंगाजल से धोया जाय। पढ़ने- पढ़ाने के अलग वस्त्र  हों आदि आदि।  

यह सब शर्तें सर जोन्स ने स्वीकार कीं और वे विद्या प्राप्ति के लिए की जाने वाली तप- साधना की कठिनाइयाँ मानकर इन सब शर्तों को स्वीकार करते रहे और अंततः संस्कृत भाषा के विद्वान् बनकर अपनी संस्था को महत्त्वपूर्ण कार्य संपन्न कर सकने में समर्थ बना सके। भारतीयों की ऐसी ही मूढ़- मान्यताओं ने उनके ज्ञान को लुप्त प्राय कर दिया।  

विद्वानों की ईर्ष्या अशांति का कारण 

नारद अपने तप, त्याग और लोकसेवा के लिए प्रख्यात थे। दुर्भिक्ष से पीड़ित ब्राह्मण समुदाय गौतम के आश्रम में टिका हुआ था। बुभुक्षा से छुटकारा उन्हें मिल गया, पर कुसंस्कारी ईर्ष्या यथावत् बनी रही। उसने नारद को अपना निशाना बनाया।  

गाय का पुतला बनाकर उनने आश्रम के आंगन में डाल दिया और लांछन लगाया कि इसे नारद ने मारा है। उसे गौहत्या का दंड मिले।  

यथार्थता खुल गई पुतला नकली था, सो उसे फिकवा दिया गया। 

गौतम गंभीर हो गए उनने कहा-'' ब्राह्मणो ! मैंने जाना कि तुम्हारे क्षेत्र में दुर्भिक्ष क्यों पड़ा। जहाँ के विद्वान ईर्ष्यालु होते हैं, वहाँ शांति का वातावरण नहीं रहता ।'' 

शूद्र के आने पर ही राजसूय यज्ञ का शंख बजा

पांडवों ने राजसूय यज्ञ किया। यज्ञ की सफलता की एक कसौटी रखी गई थी कि यदि अर्जुन का पांचजन्य शंख बिना बजाए अपने आप बजने लगे, तो समझना चाहिए कि यज्ञ सफलतापूर्वक संपन्न हो गया। 

यज्ञ पूरा हो जाने भी शंख न बजा, तो उस आयोजन की विफलता के कारण की खोज होने लगी। बहुत खोजबीन करने पर पता लगा कि एक शूद्र को सम्मानपूर्वक यज्ञ में नहीं बुलाया गया था, इसलिए वह उसमें सम्मिलित नहीं हुआ। श्रीकृष्ण ने कहा-'' मनुष्य मात्र समान हैं, जाति भेद के कारण किसी को नीचा नहीं समझा जाना चाहिए। '' भगवान् की बात सुनकर द्रौपदी समेत पांडव उस शूद्र के यहाँ गए और ससम्मान उसे साथ लेकर आए उसके आने पर शंख बजने लगा और यज्ञ की सफलता घोषित हुई ।

ज्वार की रोटी  

एक महात्मा जाति- पाँति नहीं मानते थे। वे उस दिन की भिक्षा एक नाई के घर से मांगकर लाए थे उसमें ज्वार की रोटियाँ भर थीं। 

लोगों ने बड़ा विरोध किया। यह महात्मा कैसा है, जो नाई की रोटी खाता है, इसका बहिष्कार करना चाहिए। अनेक लोग अपना विरोध प्रकट करने उनके पास एकत्रित थे। 

साधु ने झोली खोलकर दिखाया-'' देखो भाई ! इसमें ज्वार की रोटी है, नाई की नहीं। '' 

सभी में समाई एक सत्ता 

महर्षि अनमीषि अपना वर्षों से किसी दीन- दुःखी को भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करने का व्रत निभाते चले आ रहे थे, किंतु एक दिन उनके द्वारा पर कोई सेवा का अधिकारी नहीं आया। वे बड़े दुःखी हुए।     

तभी उन्होंने एक वृक्ष तले पड़े कुष्ठपीड़ित वृद्ध को देखा। वे ईश्वर को इस कृपा के लिए धन्यवाद देते हुए उसके पास पहुँचे और विनम्र शब्दों में उससे उनका आतिथ्य ग्रहण करने का निवेदन किया। 

वृद्ध बोला-''आर्य ! आपकी इस उदारता के लिए धन्यवाद ! पर मैं जाति से चांडाल हूँ। आपकी उदारता पाने का अधिकार मुझ शूद्र को कहाँ ?'' महर्षि बोले- '' प्रभु ! ऐसा न कहें। सभी में तो आप समाए हैं। '' इतना कहकर महर्षि उस वृद्ध के घाव धोने लगे। अश्रु बह निकले उसका कष्ट देखकर। परिचर्या के बाद पंखा झलते हुए उन्होंने भोजन कराया, तदुपरांत स्वयं भोजन किया।

आत्मिक दृष्टि से ऊँचे उठे व्यक्ति के लिए न कोई सवर्ण है, न शूद् सबमें उसे परमात्मा सत्ता की ही झलक दिखाई देती है। 

शूद्र-प्रभु से श्रेष्ठ

महात्मा रामानुजाचार्य अपनी शारीरिक दुर्बलता के कारण नदी स्नान करने जाते हुए लोगों का सहारा लेकर जाया करते थे ।  जाते समय वे ब्राह्मण के कन्धे का सहारा लेते और आते  समय शूद्र के कंधे  पर हाथ रखकर आते। लोगों ने आश्चर्यपूर्वक पूछा- "भगवन् !शूद्र के स्पर्श से तो आप अपवित्र हो  जाते हैं, फिर स्नान  का महत्त्व क्या रहा ? '' आचार्य जी मुस्कराए, उनने कहा-'' स्नान से मेरी देह मात्र शुद्ध होती है। मन का मैल तो अहंकार है, जब तक मनुष्य में अहंकार शेष है, तब तक उसे मन का मलिन ही कहा जाता है। मैं शूद्र का स्पर्श करके अपने- मन की मलिनता स्वच्छ करता हूँ। मैं किसी से बड़ा नहीं, सब मुझसे ही बड़े हैं। शूद्र भी मुझसे श्रेष्ठ है। इसी भावना को स्थिर करने के लिए मैं शूद्र का सहारा लिया करता हूँ। '' 

आचार्य का उत्तर युक्तियुक्त था, पूछने वालों का ठीक समाधान हो गया। 


म्रनु और मत्स्य 

एक बार मनु नाव में वेद रखे हुए जा रहे थे कि समुद्र में तूफान आ गया। तूफान शांत हुआ, तो उन्होंने देखा कि एक बड़ी मछली उनकी नाव को सहारा दिए खड़ी है। मनु ने विनीत भाव से पूछा-'' भगवन ! आपने ही मेरी रक्षा की, आप कौन हैं ?'' मत्स्य भगवान् दिव्य रूप में प्रकट होकर बोले-'' वत्स ! तूने ज्ञान की रक्षा का व्रत लिया, इसलिए तेरी सहायता के लिए मुझे आना पड़ा। '' 

ब्राह्मण संस्कृति का रक्षक है। इस पर कृपा बरसाने हेतु परमसत्ता सदैव उद्यत रहती है। 

ब्राह्मण के लक्षण 

एक बार सच्चे ब्राह्मण के लक्षण पूछने पर रामकृष्ण परमहंस ने कहा-'' वे पके चावल जैसे कोमल, स्वादिष्ट हो जाते हैं और समूह में रहते हुए अपनी सत्ता को अन्यों के साथ चिपकने नहीं देते। '' 

संत की उदारता 

ब्राह्मण की वरिष्ठता उसकी उदार परमार्थपरायणए वृत्ति पर निर्भर है एक संत के पास गाय थी रात को चोर उसे खोलकर चुरा ले चला संत की आँख खुल गई। वे उसके छोटे बछड़े को कंधे पर रखकर चोरों के पीछे- पीछे चले और चिल्ला कर बोले-'' भले आदमी इस बछड़े को तो लेते जाओ। इसके बिना दूध कैसे निकालोगे ?'' 

चोर संत की उदारता पर मुग्ध हो गए और उनकी गाय उन्हीं को वापस कर गए।  

कर्तव्य सर्वोपरि

रूस में जब क्रांति हो चुकी, तो नए निर्माण के लिए विदेशों से मशीनें मूँगाने की आवश्यकता पड़ी। विदेशी मुद्रा कहाँ से आए ? इसके लिए दूध, मक्खन, ऊन, चमड़ा आदि विदेश भेजकर बदले में मशीनें मँगाने की व्यवस्था बनी देश के नागरिकों ने स्वेच्छा से इन वस्तुओं का उपयोग बंद कर दिया। यहाँ तक कि साम्यवाद नेता प्रिंस क्रोपाटकिन ने बीमार रहते हुए भी दूध स्वीकार नहीं किया। समाज के ऐसे अग्रदूत परिभाषा की दृष्टि से ब्राह्मण की श्रेणी में आते हैं। 

भिक्षुक बनाम ब्राह्मण 

एक भिक्षुक संगीत सुनाकर जनता से अपने निर्वाह लायक पैसे एकत्र करता और बचे हुए समय में अन्य भिक्षुकों को स्वावलंबी बनाने का ताना- बाना बुनता। 
किसी विचारशील को उसने भिक्षुकों की निंदा करते सुना। उसने अपना अभिप्राय बताया कि जो भिक्षा से निर्वाह तो करते हैं, पर बदले में किसी के कुछ काम नहीं आते, उन्हीं को निंदनीय कहना चाहिए। हमारे देश की साधु- ब्राह्मण परंपरा निंदनीय नहीं रही, क्योंकि वे पेट भरने लायक माँगते और समय का उपयोग परमार्थ के लिए करते हैं।  निठल्ले समर्थ भिखारी ही निंदा के पात्र हैं। 

संतोष धन- सबसे बड़ी संपदा

जो है, उसी पर संतोष करके अपरिग्रही जीवन बिताते हुए जिया जा सके, तो वह जीवन सार्थक है। असंतोषी की ललक को तो कहीं चैन नहीं मिलता। 
एक पुजारी मंदिर की सीमित आजीविका में संतोषपूर्वक गुजारा करता था। एक दिन उसकी आकांक्षा भड़की और सुख- साधन वाले व्यक्ति को ढूँढ़ने और कुछ पाने चला। राजा के यहाँ गया, तो उसने कहा-'' शत्रु  देश चढ़ाई की घात में है, मुझे ' चैन नहीं।‘ ' फिर वह नगर सेठ के यहाँ गया। उसने कहा-'' संतान न होने से दुः खी हूँ। '' फिर विद्वान के पास पहुँचा। उसने कहा-'' जितना पैसा पढ़ने में खर्च हुआ, आजीविका उसकी ब्याज बराबर भी नहीं होती। '' फिर एक ज्ञानी के पास गया। उसने कहा-'' यहाँ के मंदिर का पुजारी बहुत सुखी है। पेट भरने लायक मिल जाता है और सुख की नींद सोता है। ''

पुजारी वापस लौट आया और उपलब्ध साधनों में ही मस्ती से जीवन बिताने लगा। 

कचरा क्यों एकत्र  करूँ ? 

अपरिग्रह में ही ब्राह्मणत्व निहित है। एक बार किसी महिला ने अमेरिकी दार्शनिक थोरो कों एक चटाई भेंट की। चटाई को वापस करते हुए, वे बोले-'' श्रीमती जी ! न तो मेरे घर में इतना स्थान है, कि मैं चटाई को बिछा सकूँ और न इतना समय है कि उसे झाड़  कर साफ करूँ। फिर घर को अनावश्यक वस्तुओं का संग्रहालय बनाने से लाभ भी क्या है ? इसी प्रकार उन्होंने अपनी मेज पर रखे किसी मित्र द्वारा उपहार में दिए सफेद सुंदर पत्थरों के तीन मनोरम पेपर वेटों को बाहर फेंक दिया। उनके मित्र ने इसका कारण पूछा, तो उन्होंने यही उत्तर दिया-'' :भाई ! अपने मस्तिष्क को साफ करने का कार्य ही क्या कम है, जो बेकार की वस्तुओं का ढेर लगा कर झंझट मोल लूँ। '' 

विलासिता नहीं 

उन दिनों लाल बहादुर शास्त्री रेल मंत्री थे कहीं लंबे सफर पर जा रहे थे। अधिकारियों ने  डिब्बे को एयरकंडीशन करा दिया। स्टेशन पर बात मालूम हुई, तो उनने उस सयंत्र को तुरंत निकलवा दिया, कहा-'' गरीब देश के मंत्री को बिना एयरकंडीशनर के ही काम चलाना चाहिए। '' वे हवाई जहाज की यात्रा तो कोई नितांत अनिवार्यता आने पर ही करते थे। 

सच्चे साधु सहजानंद 

उन दिनों साधु- महात्मा मात्र भजन- पूजा अपना काम समझते थे और इसी आधार पर जनता से धन और सम्मान प्राप्त करते थे 

उस परंपरा को तोड़कर स्वामी सहजानंद ने लोकमंगल के कितने ही कार्य अपने हाथ में लिए। उनने पूर्वी उत्तरप्रदेश और पश्चिमी बिहार को  अपना कार्य क्षेत्र बनाया। उस क्षेत्र के ब्राह्मण हल जोतना पाप मानते थे। स्वामी जी ने अपने प्रभाव से उस अंधविश्वास को दूर कराया। फलस्वरूप उस वर्ग की आर्थिक स्थिति सुधरी। भूमिहार ब्राह्मणों द्वारा शोषित जातियों का भी एकत्रीकरण उनने कराया। 

गांधी जी के संपर्क में आकर वे स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित हुए। अपने प्रभाव क्षेत्र में उन्होंने क्रांति खड़ी कर दी। एक वर्ष के लिए जेल भी गए इसके बाद वे किसान संगठन के काम में लगे, जिसके द्वारा जमींदारों के बढ़े- चढे़ अत्याचारों पर अंकुश लगा। स्वामी जी के मार्गदर्शन से लोकसंग्रह पत्र भी निकला, जो उस क्षेत्र में बहुत सफल माना जाता था। सच्चे साधु कैसे होते हैं, ऐसे उदाहरणों में स्वामी सहजानंद का नाम चिरकाल तक लिया जाता रहेगा। 

संन्यासी क्यों बना ?

स्वामी केशवानंद जिन्होंने शिक्षा का व्यापक प्रचार किया, राज्य सभा के सदस्य थे। तब की बात है कि उनके एक सहकारी ने देखा कि वे हाथ पर दो- तीन रूखी रोटियाँ रखे दाल से खा रहे है। रोटियाँ सूखी एवं ठंडी थीं, उन्हें वे जल्दी−जल्दी चबाकर गले के नीचे उतार रहे थे। सहकारी ने इसका कारण पूछा तो बोले-'' मुझे कई जगह जाना है और शाम को गाड़ी पकड़नी है, इसलिए तंदूर से यहीं दो रोटियाँ मूँगा ली हैं। '' 

'' इस आयु में आपको ऐसा भोजन नहीं करना चाहिए। कुछ नहीं तो घी, मक्खन व फल तो लिया करें '' -सहकारी बोला। इस पर वे मुस्कराते हुए बोले-'' ठीक तो है, पर जब इन्हीं बातों की चिंता करनी थी, तो संन्यासी बनकर कुछ सेवा करने का व्रत ही क्यों लेता।?'' व्यक्तिगत सुखों की चिंता न करना सेवाव्रती का आदर्श है। 

दलित बन्धु-महर्षि शिंदे 

इंग्लैण्ड में श्री शिंदे ने एम०ए०, एल०एल०बी० किया। भारत, लौटने पर उन्हें ऊँचा पद मिलना पूर्वनिश्चित था, पर उनने देश की सबसे बड़ी समस्या छूत- अछूत का समाधान करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। 

उनका धर्म और दर्शन पर गहरा अध्ययन था। उसके सहारे उनने जन साधारण को अस्पृश्यता की निरर्थकता समझाने में सफलता पाई इस विषय पर कई प्रामाणिक ग्रंथ लिखे। सरकार से हरिजनों को सुविधा देने वाले कई कानून बनवाए। उन्होंने अपने काम को देशव्यापी बनाया। बड़ौदा में उनने गायकवाड़ की अध्यक्षता में एक अत्यंत विशाल अछूत सम्मेलन बुलाया। आज देश के प्रमुख सुधारकों में उनकी गणना होती है।

श्री विट्ठलराव शिंदे की लगन और त्यागवृत्ति को देखते हुए उन्हें महर्षि शिंदे कहा जाता था। ऐसे लगनशील व्यक्ति जिस काम में भी हाथ डालते हैं, उसे सफलता के ऊँचे स्तर तक पहुँचा के रहते हैं। 

श्रेष्ठ उद्देश्य के लिए सिख धर्म 

देश के बड़े भाग पर मुठ्ठी भर आक्रांताओं ने अधिकार जमा लिया था। और सर्वत्र नृशंसता करते रहे थे। इसका कारण साधु- ब्राह्मणों के द्वारा लोकमानस में भाग्यवाद की, इच्छा की ऐसी छाप बिठा दी गई थी, कि कहीं से भी जन- प्रतिरोध का साहस नहीं उभर रहा था। मुठ्ठी  भर राजा ही जहाँ- तहाँ छुटपुट लडाइयाँ लड़ते और हारते रहते थे जन सहयोग के बिना वे क्या करते? ऐसे विपन्न वातावरण में संतों का एक समुदाय आगे आया और उसने विपन्न दर्शन को सही दिशा देने का साहस भरा कदम उठाया। इसी संगठन का नाम सिख धर्म पड़ा उसमें व्यक्तिगत जीवन में नीति- निर्वाह के अतिरिक्त अनीति के विरुद्ध संघर्ष का भी प्रतिपादन है। 

संस्कृति की कसक 

देवसंस्कृति के पुनरुद्धार का, छाई हुई कुरीतियों के उन्मूलन का, एक बहुत बड़ा दायित्व ब्राह्मण वर्ग पर है। 

संस्कृति ने अपने बच्चे ब्राह्मण की ओर देखा और अपनी ओर से वह बहुत गंभीर हो गई। अपने किशोर पुत्र के सिर पर हाथ फिराती रही और व्यथा भरे शब्दों में बोली-'' लाल! एक बार मुझे बंधन मुक्त करा दो, मेरी अपहृत चेतना वापस दिला दो ,बस एक बार केवल एक बार, तुम इतना कर सको, तो मैं तुम्हें सदा- सर्वदा के लिए सुखी और समुन्नत रह सकने योग्य बना दूँगी। '' देव संस्कृति की इस करुण पुकार पर यदि जिम्मेदार वरिष्ठ जन ध्यान दें, तो वे ब्राह्मणत्व को जगाकर पुनः उसे वह गौरव प्रदान कर सकते हैं । 
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